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कवि के स्वप्नों का महत्त्व

kavi ke svapnon ka mahattv

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

कवि के स्वप्नों का महत्त्व

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    कवि के स्वप्नों का महत्त्व!—विषय संभवतः थोड़ा गंभीर है। स्वप्न और यथार्थ मानव-जीवन-सत्य के दो पहलू हैं : स्वप्न यथार्थ बनता जाता है और यथार्थ स्वप्न। ‘एक सौ वर्ष नगर उपवन, एक सौ वर्ष विज़न वन’–इस अणु संहार के युग में इस सत्य को समझना कठिन नहीं है। वास्तव में स्वप्न और वास्तविकता के चरणों पर चल कर ही जीवन-सत्य विकसित होकर आगे बढ़ता है। सामान्य दिवा स्वप्नों और कवि के स्वप्नों में भेद होता है दिवा स्वप्न अतृप्त आकांक्षाओं की उपज होते हैं और कवि के स्वप्न युग की आवश्यकताओं की संभावित सृष्टि अथवा समय के माँगों की पूर्ति। उनकी पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक संचरण होता है और उनका आधार होता है हमारे जीवन की या भू-जीवन की प्रगति का सत्य।

    कौन नहीं जानता कि आज धरती पर घोर अंधकार चल रहा है–विश्वव्यापी संहार का निर्मम कुत्सित रंगमंच तैयार हो रहा है और सभ्यता के विनाश का अभिनय अथवा रिहर्सल आए दिन भीषण अस्त्र-शस्त्रों की परीक्षाओं के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। साथ ही दूसरी ओर कुछ प्रबुद्ध, युग चेतन मानसजाति-पाँति, वर्गश्रेणियों से मुक्त, दैन्य-अविद्या के प्रभावों से सदैव के लिए संरक्षित, नवीन मानवता के निर्माण के स्वप्नों को कलाशिल्प, शब्द अथवा नवीन सामाजिक चेतना एवं जीवन-रचना के द्वारा मूर्त करने के प्रयास में संलग्न है। सदियों की दासता से मुक्त अपना विशाल देश आज स्वयं विराट् लोकनिर्माण की कृच्छ साधना में तत्पर, ऐड़ी से चोटी तक पसीना बहा रहा है।

    सूरज-चाँद सितारों के साथ खेलने वाली यह सुनहली हरी-भरी धरती,–इस की सुंदरता का कहीं अंत है? आकाश की हँसमुख नीलिमा को देखते जी नहीं अघाता। तारों की भूलभुलैया में आँखें खो जाती है। आग, मिट्टी, पानी, हवा और आकाश ये सब कितने प्यारे, कितने विचित्र हैं। रंग-रंग के गंध भरे मौन फूल-उड़ती तितलियाँ और चहकती हुई चिड़ियाँ—सब कितनी सुंदर, कितनी मधुर है।—इस धरती पर चलने-फिरने वाले जीवन की एक अलिखित रहस्य भरी कथा है और उस जीवन की प्रतिनिधि स्वरूप मानव जाति का अपना एक बृहत् अकथित इतिहास है। सभ्यताओं का विकास, संस्कृतियों का निर्माण—भाषाओं की उत्पत्ति और साहित्यों की रचना—बनैले पशुओं से भरे घने जंगलों के स्थान पर विशाल जन नगरों की स्थापना–देश काल की पलकों पर झूलते वास्तविकता के इन स्वप्नों की अपनी एक सार्थकता है। और यह है विश्व-जीवन का एक मोहक व्यापक चित्र।—आइए थोड़े और निकट से देखिए। औद्योगिक क्रांति!—और उसके बाद मानव-जीवन में, उसके रहन-सहन में होने वाली कायापलट।—भूतविज्ञान का अविराम विकास : नई शक्तियों की उपलब्धि जिनके बल पर मनुष्य आज आकाश के ज्योतिर्मय ग्रहों पर अपने उपनिवेश बनाने की बात सोच रहा। पर क्या यही मनुष्य के स्वप्नों का अंत हो गया? ज़रा और पास से देखिए इस भाप और कोयले के भद्दे युग को। यह वैज्ञानिक युग का पहला ही चरण है। क्या रेल की सीटी आपके कान के परदे नहीं फाड़े दे रही है? उफ़, इन लोहे की पटरियों पर दौड़ते हुए पहियों की खड़खडाहट—धूल और धुआँ। यह क्या मनुष्य की शरीर रचना के अनुकूल है? और देखिए, इन बनियों, पूंजीपतियों की सभ्यता और संस्कृति को। इनको साम्राज्यवादी तृष्णा को—उपनिवेश स्थापित करने के स्वप्नों को बड़े-बडे राष्ट्रों की परस्पर शक्ति और वाणिज्य संबंधी स्पर्धा को। एक देश द्वारा दूसरे देशों के, एक मनुष्य द्वारा अन्य मनुष्यों के निर्दय अमानुषी शोषण को। सभ्य देश आज विश्व-विश्वसक अणु उद्जन बम बनाने में व्यस्त हैं। नए ब्रह्मास्त्रों को जन्म देने के हेतु व्यग्र है। जिनसे पलक मारते ही भू-खंडों का विध्वंस हो सकता है। विज्ञान के उत्पातों के अतिरिक्त भी अभी तक धर्म संप्रदाय संबंधी घोर मतभेद, जाति-वर्ण संबंधी निर्मम पूर्वग्रह दूर नहीं हुए हैं। आप और कहीं नहीं जा सकते तो अपने देश के गाँवों ही का निरीक्षण कीजिए—यह सदियों से पूँजीभूत अपरिमेय दारिद्र्य, अंधविश्वास और अशिक्षा। हमारे गाँवों की मानवता का रहन-सहन, उनके रहने के मिट्टी के घरौंदे–अर्थहीन रूढ़ि रीतियों में जकड़ा जन समुदाय का अस्थिपंजर जर्जर-जीवन। क्या नरक की विभीषिका की वास्तविकता इस सबसे बड़ी हो सकती है?

    तो, ऐसी आज की धरती पर और युग-युग से घूमती हुई इस धरती पर मनुष्य की वीभत्स वासना, तृष्णा और लोभ के अंध उद्दाम भँवर स्वरूप इस संसार चक्र से मंदित, रक्त स्रवित कवि हृदय से आप क्या आशा रखते हैं? वह स्वप्न देखना छोड़ कर, आकाश में उड़ना छोड़कर, आज की वास्तविकता के कल्मष में स्वयं भी सन जाए? वह मनुष्य के मन पर जमे हुए कठोर कुरूप अंधकार के वज्र कपाट पर अपने प्रकाशपुंज शब्दों की अविराम मुट्ठियों का प्रहार करना छोड़कर इस घृणित चक्की के पाटो के नीचे स्वयं भी पिस जाए? यह तो मानव के हृदय पर उसकी मोहाधता की विजय होगी—आज के युग पर उसकी सर्वसंहारकारिणी पैशाचिक प्रवृत्ति की विजय होगी—यदि आप कवि के स्वप्नों को उसका जीवन से पलायन कहते हैं, यदि आप कवि से चाहते हैं कि वह भी आज की तथाकथित महान शक्तियों की तरह A Tooth for a tooth के या शठं प्रति शाठ्य कुर्यात् के वास्तविकतावादी सिद्धांत को अपनाए, तब तो यह मनुष्य की तर्कबुद्धि की घोर विडंबना होगी, मानव के विवेक की घोर पराजय होगी। क्रूर पशुबल अथवा अंध आसुरी शक्ति का सिद्धांत तो इस अणु बल के युग में अपनी पराकाष्ठा तक पहुँचकर स्वयं खोखला, अर्थहीन, वीभत्स, नारकीय तथा आत्म-पराजित प्रमाणित हो चुका है। तथाकथित वास्तविकता और यथार्थ–वे कवि के स्वप्नों का महत्त्व अपने ही किमाकार बोझ से दब कर आज ध्वस्त हो रहे हैं। वास्तविकता और यथार्थ को आज अपनी सीमाओं से बाहर निकलकर अपनी मान्यताओं के डिंब कवचों को तोड़कर नए जीवन के धरातल में प्रवेश करना है।

    तो आइए, कवि के साथ मानव चेतना के ऊँचे शिखरों पर विचरण कीजिए: इस कलुष कर्दम भरी धरती पर नवीन मनोबल के पैरों पर चलकर आगे बढ़ना सीखिए मानव भविष्य के प्रति दृढ़ आशा और आत्म-विश्वास के पंखों पर उड़ान भर, धरती के धुएँ और कुहासे से ऊपर उठकर, मुक्त व्यापक विवेक के वातावरण में विचरण कीजिए! कब तक इतिहास के जाति-वर्ग-वादों के वैमनस्य और विद्वेष भरे विभाजनों में बँटे रहिएगा? कब तक धर्म संप्रदाय वर्गों की दीवारों से घिरे रहकर संसार को कारागार बनाए रखिएगा? विगत का इतिहास विकासशील मानव-मन और जीवन की छाया है। इस छाया मन के प्रेतों को अपने पूर्वग्रहों से वास्तविकता प्रदान कर उनके सम्मुख पराजित होना छोड़िए। छोड़िए इस मिथ्या अभिमान को, थोथा ज्ञान को, देश, जाति, कुलवंश के अंहकार—युगों के घोर अंधकार को।—क्या मानव-प्रेम और मानव-समानता से बड़ा कोई और धर्म है?

    क्या मानव एकता से बड़ा कोई और ऐश्वर्य है? धरती पर आज देह, मन, प्राण के वैभव से संपन्न शिक्षित संस्कृत सौंदर्यप्रिय मानवता एक आनंद तथा चैतन्य सिंधु को अनगणित तरंगों की तरह मुखरित अपनी जीवन-लीला का विस्तार करें—यह आपको अच्छा लगता है या राष्ट्र वर्ग, धर्म, नीति संप्रदाय तुच्छ मतों वादों, क्षुद्र गुटों और गिरोहों में बँटी, बिखरी, परस्पर के घृणा-द्वेष, दर्प-क्रोध, झूठे पांडित्य, थोथे सिद्धांतों और दानवीय सैन्य एवं शस्त्र बल का प्रदर्शन करती हुई आत्मघातक, विश्व विनाशक आज की यह कीड़े-मकोड़ों की तरह दैन्य दु:ख प्रशिक्षा के प्रभावों के कीचड़ में रेंगने वाली यथार्थ और वास्तविकता की प्रतिकृति मनुष्यता आपको पसद है? तो, कवि के रक्त के आँसुओं से धुले स्वप्नों के महत्त्व के लिए वकालत करने की आवश्यकता नहीं है। कवि की वाणी मे नि:सदेह ईश्वरीय संगीत बहता है उसके हृदय के अजिर में दैवी प्रकाश आँख-मिचौनी खेलता है। उसके विषाद सिक्त हृदय के सौंदर्य मधुर स्वप्नों से जीवन-मंगल तथा लोक-कल्याण की सृष्टि होती है। आइए, तर्कों, वादों के घृणित दलदल से बाहर निकलकर कवि के अग्नि पंख सुनहले स्वप्नों के बीजों को मानस-भूमि में बोकर नव मानवता की, व्यापक मनुष्यत्व की हँसमुख जीवंत फसल उपजाइए और इस मानव अज्ञान के अंधकार में सोई हुई जड़ धरती को मानव-आत्मा के जागरण के प्रकाश के जीते-जागते जीवन-सौंदर्य के स्वर्ग में परिणत कर मानव-हृदय के प्रतिनिधि कवि के स्वप्नों को श्रद्धांजलि दीजिए। एवमस्तु!

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 244)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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