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जीवन की सार्थकता

jivan ki sarthakta

सुमित्रानंदन पंत

अन्य

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सुमित्रानंदन पंत

जीवन की सार्थकता

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    जीवन मेरी दृष्टि में एक अविजेय एवं अपरिमेय सत्य तथा शक्ति है—देह, मन और प्राण जिसके अंग एवं उपादान है, आत्मा जिसकी आधारशिला अथवा आधारभू तत्व है और ज्ञान-विज्ञान जिसकी अंतर्मुखी बहिर्मुखी नियामक गतियाँ हैं। प्रस्तुत वार्ता या निबंध में हम जीवन तथा विज्ञान के पारस्परिक संबंध पर बातें कर रहे हैं। विज्ञान जीवन ही की एक ज्योति अथवा शक्ति है अतएव जीवन ही का एक अंग एवं अंश से, वह जीवन का आमूल अथवा तत्वतः परिवर्तन नहीं कर सकता, हाँ, उसके विकास में अवश्य सहायक हो सकता है। आज के युग में हम विज्ञान को जिस प्रकार सर्वज्ञ सर्वशक्ति संपन्न मानने लगे हैं, यह धारणा निश्चय ही भ्रांत तथा भ्रामक है। विज्ञान पर इस अति आस्था के दुष्परिणाम हमें प्रतिदिन देखने को मिल रहे हैं। वास्तव में हम यहाँ जब जीवन पर विचार कर रहे हैं तो हम मानव जीवन पर विचार कर रहे हैं और उसी के संबंध में विज्ञान की चर्चा करना संगत होगा। वैसे मानव जीवन से नीचे तथा ऊपर भी जीवन के अनेक स्थूल सूक्ष्म धरातल तथा स्तर है जहाँ भी ज्ञान विज्ञान की अनेक प्रच्छन्न सूक्ष्म रक्तवाहिनी सुनहली शिराएँ फैली हुई हैं।

    वास्तव में मानव जीवन की सार्थकता इसमें है कि वह ज्ञान और विज्ञान में संतुलन स्थापित कर उन्हें जीवन के विकास में यथोचित रूप से संयोजित कर सके। यदि हम मानव जीवन के इतिहास पर दृष्टि डालें तो हम देखेंगे कि विज्ञान के—जिसका तात्पर्य यहाँ मुख्यतः भौतिक विज्ञान से है—उदय होने से पहले मानव सभ्यता सामंतयुगीन सीमाओं के अंतर्गत एक संतुलन स्थापित कर चुकी थी और वह संतुलन, व्यापक दृष्टि से अपर्याप्त एवं अपूर्ण होने पर भी अपने सीमित अर्थ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा वैभव संपन्न रहा है। उस संतुलन ने अपने मस्तक पर मुकुट धारण कर बड़े-बड़े राज्यों की स्थापना की थी—उसने एक मूल्यवान जीवन दर्शन को जन्म दिया था तथा अनेक नैतिक, चारित्रिक, व्यावहारिक सिद्धांतों की रचना करके एक सामाजिकता तथा संस्कृति को जन्म दिया था, जिसे हम, उनके अनेक रूपों के वैचित्र्य को स्वीकार करते हुए, अब पुरानी दुनिया की व्यवस्था, पुरानी दुनिया की सभ्यता अथवा संस्कृति कह सकते हैं—जिस दुनिया का चरम विकास उसकी विशद धर्मप्राण मनुष्यता एवं ईश्वर पर आस्था में हुआ था। इस पुरानी दुनिया में ऐसे ऋषि, महर्षि अथवा विचारक तथा तत्वद्रष्टा हुए जिन्होंने मानव-जीवन तथा मन के सागरों का मंथन कर अनेक अमूल्य, शाश्वत प्रकाश तथा उपयोग के मूल्यों तथा रत्नों का अनुसंधान किया और मानव देह तथा मन की जड़ता एवं सीमा को अतिक्रम कर जीवन को स्वर्गचुंबी व्यापक धरातल पर प्रतिष्ठित किया और मनुष्यत्व को अंतश्चैतन्य के अमर आलोक से मंडित कर उसे सार्वभौम व्यक्तित्व प्रदान किया। किंतु यह सब होते हुए भी पुरानी दुनिया की अपनी अनेक दुर्निवार सीमाएँ रही हैं और मानवता के रथ को सार्वलौकिक प्रगति एवं कल्याण पथ की ओर अग्रसर कराने के लिए प्रबुद्ध मनुष्यों के मन में निरंतर ऊहापोह तथा संघर्ष चलता रहा है।

    प्राचीन काल में मानव अपने आदर्शों के स्वर्ग को केवल प्रबुद्धमन तथा विकसित भावना के ही धरातल पर प्रतिष्ठित करने में समर्थ हो सका। यदि मनुष्य अपनी व्यक्तिगत अर्हता से मुक्त होकर अपनी भावना को सर्वभूतेषु चात्मानम् के व्यापक मनोमय के क्षितिज तक व्याप्त अथवा प्रसारित कर सका तो वह उस युग के लिए मानव जीवन को अंतिम चरितार्थता अथवा सार्थकता या पराकाष्ठा समझी जाती थी। पर केवल मन या भाव के स्तर पर मानव एकता या जीव समता का अनुभव करना अंतश्चेतना से अनुप्राणित प्राणी या मनुष्य के लिए पर्याप्त नहीं था। वह उस मानवीय तादात्म्य को सामाजिकता के ठोस धरातल पर भी मूर्तिमान करना चाहता था। और उसके भीतर के इसी अविराम द्वंद्व तथा संघर्ष ने उसके द्वारा भौतिक विज्ञान को जन्म दिया। मनुष्य ने अपनी भौतिक सीमाओं की जड़ता पर विजय पाने के लिए जड़जगत् के विन्यास का निरीक्षण, परीक्षण तथा विश्लेषण करना प्रारंभ किया और जड़ अणुओं के विधान तथा संघटन से वाष्प, विद्युत्, रश्मि तथा मूलभूत आणविक शक्ति का अन्वेषण कर उसे अपने नवीन जीवन निर्माण के लिए उपयोग में लाने के प्रयोग किए। प्रकृति की शक्तियों पर आधिपत्य प्राप्त करने के उसके प्रयत्न तब से अविराम रूप से चल रहे हैं। आज जो मानव जीवन की परिस्थितियाँ पुनः सक्रिय हो उठी हैं और दिन पर दिन विकसित होती जा रही हैं यह विज्ञान ही के कारण संभव हो सका है। मानव सभ्यता की एक सबसे महत्त्वपूर्ण घटना इस युग में औद्योगिक क्रांति रही, जिससे मनुष्य अपने जीवनोपाय एवं उत्पादन यंत्रों की आशातीत उन्नति तथा अभिवृद्धि कर अपने रहन-सहन की जीवन प्रणाली में मनोनुकूल रूपांतर घटित कर सका है। देश और काल की दुर्लव्य सीमाओं पर अपने क्षिप्र गतिशील यानों द्वारा विजय पा लेने के कारण इस युग में पृथ्वी के अनेक देशांतरों के लोग दिन-रात एक दूसरे के घनिष्ट संपर्क में आने लगे हैं। विभिन्न संस्कृतियों, जीवन-दर्शनों तथा जीवन प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन तथा परस्पर के आदान-प्रदान के कारण मानवता के पिछले युगों के धार्मिक-नैतिक परंपराओं के व्यवधान अब टूटने लगे है और ऐसा संभव दीखता है कि समस्त मानव जाति देश राष्ट्रगत विभाजनों से मुक्त होकर निकट भविष्य में “वसुधैव कुटुंबकम्” की पर्यायवाची एक विराट् मानव-संस्कृति तथा विश्व सभ्यता पृथ्वी पर स्थापित कर सकेगी और जिस मानव एकता तथा समानता का स्वप्न मनुष्य प्राचीनकाल से देखता आया है उसे अब सामाजिक जीवन तंत्र के रूप में धरती पर मूर्त करना संभव हो सकेगा। यह निश्चय ही संसार के प्रबुद्ध मानसो का मानव भविष्य संबंधी स्वर्णिम स्वप्न है, किंतु संसार की वर्तमान स्थिति इस संभावना के पथ में सबसे बड़ी बाधक बनी हुई है। इसका कारण यह है वैज्ञानिक युग के नवोत्थान के समय विज्ञान की शक्ति सर्वप्रथम जिन राष्ट्रों के हाथ आई है वे उससे शक्तिमत हो गए हैं और विज्ञान को रचनात्मक बनाने के बदले उसे लोक संहारक बनाने में तुले हुए है। वास्तव में बाहरी परिस्थितियों के विकास के साथ ही भीतरी मानव अथवा मानस के उसी अनुपात में प्रबुद्ध एवं विकसित हो सकने के कारण आज विज्ञान द्वारा अर्जित संपत्ति को धरती के ओर छोर तक वितरित करने के बदले मनुष्य अपने व्यक्तिगत उपभोग तथा स्वार्थ-सिद्धि के लिए संचित करने लगा है और उसके भीतर का सामंतयुगीन बौना मनुष्य उस शक्ति के बल पर मानव जाति की प्रगति के पथ पर दुर्लंघ्य पर्वताकार दानव की तरह खड़ा होकर उसे रोकने की चेष्टा कर रहा है। इस प्रकार आज विज्ञान का अमृत मानव जाति के लिए मद तथा विष बन गया है। और बड़े-बड़े शक्तिशाली राष्ट्र आज आपस का स्पर्धा के कारण लोकनियति का निर्माण करने के बदले भयानक विश्वसंहारक अणु अस्त्रों का निर्माण करने में संलग्न है। यह संकट आज सार में विज्ञान की एकांगी उपासना के कारण ही उपस्थित हुआ है। किंतु जैसा मैं प्रारंभ में कह चुका हूँ जीवनशक्ति अमेय तथा अजेय है—वह अघटित घटना पटीयसी तथा अलौकिक चैतन्यमयी है। मनुष्य को ज्ञान और विज्ञान को संयोजित कर अपने मन क्षितिज को व्यापक बनाना ही होगा और इस प्रकार लोकोदय तथा सर्वोदय के लिए विज्ञान की जिस संजीवनी अमृतधारा का उपयोग करना चाहिए उसे वह अपने अधस्वार्थ के लिए अपनी मुट्ठी में बंद नहीं रख सकेगा, क्योंकि तब वह आत्मघातक हलाहल में परिणत हो जाएगी। इसमें संदेह नहीं कि जीवनी शक्ति के पास अलौकिक चैतन्य के आलोक से परिपूर्ण महत् हृदय भी है जो उसका पथनिर्देश करता है और उसे भौतिक विज्ञान अथवा अंतर्विज्ञान की सिद्धियों के पाश से मुक्त कर निरंतर महत्तर क्षितिजों की ओर विकसित करता रहेगा, इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 286)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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