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जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण

jivan ke prati mera drishtikon

सुमित्रानंदन पंत

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सुमित्रानंदन पंत

जीवन के प्रति मेरा दृष्टिकोण

सुमित्रानंदन पंत

और अधिकसुमित्रानंदन पंत

    कूर्मांचल की सौंदर्य-पंख तलहटी में पैदा होने के कारण मुझे जीवन प्रकृति की गोद में पेंग भरता हुआ मिला। सबसे पहले मैंने उसके मुख को सुंदर के रूप में पहचाना। किंतु बचपन की चंचलता-भरी आँखों को जीवन का बाहरी समारोह जैसा मोहक तथा आकर्षक लगता है, वास्तव में उसका वैसा ही रूप नहीं है। एक सृजन-प्राण साहित्यजीवी को वह जैसा प्रतीत होता है, जन-साधारण को वैसा नहीं लगता। साहित्य, सौंदर्य तथा संस्कृति का उपासक स्वभावतः भावप्रवण, कोमल प्राण, स्वाधीन प्रकृति तथा संसार की दृष्टि से असफल प्राणी होता है। उसके मन को नित्य नवीन स्वप्न लुभाते रहते हैं और उसकी सौंदर्य-भोग की प्रवृत्ति उसे कठोर वास्तविकता से पलायन करने की ओर उन्मुख करती रहती है। अपनी भावुकता तथा स्वभाव-कोमल दुर्बलता के कारण उसे जीवन में अधिक संघर्ष करना पड़ता है, और अपनी महत्त्वाकांक्षा के कारण बाहर के संसार के अतिरिक्त अपने अंतर्जगत् से भी निरंतर जूझता रहना पड़ता है। किंतु यह सब होने पर भी जीवनी शक्ति के प्रति उसके मन में एक अगाध विश्वास तथा अमिट आशा का संचार होता रहता है, जो जन-साधारण के मन में कम पाया जाता है।

    कुछ ऐसा ही स्वभाव लेकर मैंने भी इस संसार में पदार्पण किया। मेरी भीतर की दुनिया मेरे लिए इतनी सक्रिय तथा आकर्षक रही कि अपने बाहर के जगत् के प्रति मैं छटपन से ही प्रायः उदासीन रहा। मैंने अपने समय का अधिकांश भाग कमरे के भीतर ही बिताया है और खिड़कियों के चौखटों में जड़ा हुआ जो पास-पड़ोस का दृश्य मुझे देखने को मिलता रहा उसी से मैं संतोष करता रहा हूँ। और अगर कभी मुझे खिड़की के पथ से फूलों से भरी पेड़ की डाल दिखाई दी अथवा चिड़ियों का चहकना कानों में पड़ गया, तब मेरी कल्पना जैसे उसमें अपना गंध-मधु मिलाकर मुझे किसी अपरूप स्वर्ग में उड़ा ले गई है और मैं बाहर के संसार के प्रति आँखे मूंदकर और भी अपने भीतर पैठ गया हूँ, जहाँ पहुँचने पर मेरा मन धीरे-धीरे जिस स्वप्न-जगत् का निर्माण करने लगता है, उससे मेरे जीवन के समस्त अभावों की पूर्ति होती रहती है।

    आप सोचेंगे कि मैं कैसा निकम्मा और आलसी जीवन व्यतीत करता हूँ, जो बाह्य जीवन के आर-पार-व्यापी यथार्थ से अपने को वंचित अथवा विरक्त कर अपनी चेतना को स्वप्नों के झूठे सम्मोहन में लिपटाए हुए रूमानी वातावरण के नशे में डूबा रहता हूँ। पर बात ठीक ऐसी नहीं है। वास्तव में बाहर और भीतर की दुनिया दो अलग दुनियाँ नहीं है। केवल यथार्थ का मुख देखते रहने से ही जीवन के सत्य तक नहीं पहुँचा जा सकता, और जो स्वप्न है उसे केवल असत्य कहकर नहीं उड़ाया जा सकता। स्वप्न से मेरा क्या अभिप्राय है, यह आप समझ रहे होंगे। वह नींद में पगी अलस पलकों का खुमार नहीं, बल्कि सतत जागरूक दृष्टि का नशा है। कोई यथार्थ से जूझकर सत्य की उपलब्धि करता है और कोई स्वप्नों से लड़कर। यथार्थ और स्वप्न दोनों ही मनुष्य की चेतना पर निर्मम आघात करते हैं, और दोनों ही जीवन की अनुभूति को गहन गंभीर बनाते हैं। तो, मैं स्वप्न का स्वर्ण-कपाट खोलकर जीवन के मर्म की ओर बढ़ा हूँ, जो स्थूल के लौह कपाट से कहीं निर्मम तथा कठोर होता है क्योंकि वह सूक्ष्म, मोहक तथा अर्घ प्रकट होता है।

    संसारी लोग मुझ जैसे व्यक्तियों पर मन ही मन हँसते हैं, क्योंकि इतरंजन जीवन की जिन परिस्थितियों का सामना सहज रूप से बिना नाक-भौंह सिकोड़े कर सकते हैं, उनसे मैं बार-बार क्षुब्ध तथा विचलित हो उठता हूँ। जीवन में सुख-दुःख, दैन्य-संपदा, रोग-व्याधि तथा कुरूपता कठोरता उन्हें अत्यंत स्वाभाविक तथा जीवन के अनिवार्य अंग-सी जान पड़ती है, और इन सब विरोधों या द्वंद्वों को वे भाग्य की कभी भरने वाली टोकरी में डालकर संतोष ग्रहण कर लेते हैं। किंतु मुझ जैसे व्यक्ति के लिए जीवन के तथाकथित यथार्थ को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना कठिन हो जाता है। मेरी आँखों के सामने जीवन का एक विशिष्ट विधान, एक पूर्णतम मूर्ति रहती है। मेरा मन मानव-जीवन का उद्देश्य जानना चाहता है। वह उसकी तह तक पैठकर उसे नए रूप में सँजोना चाहता है और ध्येय की खोज में अनेक प्रकार के प्रश्नों, समस्याओं तथा कार्य-कारण-भावों की गुत्थियों में उलझा रहता है। जीवन के यथार्थ को अपने विश्वासों के अनुकूल बनाने के बदले उसके सामने मूक भाव से मस्तक नवाने की नीति को वह किसी तरह अंगीकार नहीं करना चाहता। वह अपने व्यक्तिगत सुख-दुख की भावनाओं में आत्म-संयम तथा साधना द्वारा संतुलन स्थापित कर सामाजिक यथार्थ को आदर्श की ओर ले जाने में विश्वास करता है। इसीलिए यदि वह यथार्थ की तात्कालिक कुरूपता को उतना महत्त्व देकर, उससे आँखें हटाकर, तथाकथित स्वप्न-जगत् में उसके आदर्श रूप को निरूपित करने में व्यग्र रहता है, तो वह निष्क्रिय या आलसी जीवन नहीं व्यतीत करता।

    स्वप्नद्रष्टा या निर्माता वही हो सकता है, जिसकी अंतर्दृष्टि यथार्थ के अंतस्तल को भेदकर उसके पार पहुँच गई हो, जो उसे सत्य समझकर केवल एक परिवर्तनशील अथवा विकासशील स्थिति भर मानता हो। विचारकों ने जीवन का कुछ भौतिक-बौद्धिक मान्यताओं तथा नैतिक आध्यात्मिक मूल्यों में विश्लेषण-संश्लेषण कर, उसे सिद्धांतों में जकड़ दिया है। मनुष्य की चेतना उन जटिल, दुरूह मूल्यांकनों को आर-पार भेद सकने के कारण उन्हीं की परिधि के भीतर घूम-फिरकर, उनकी बालू की सी चकाचौंध में खो जाती है। किंतु जीवन के मूल इन सबसे परे हैं। वह अपने ही में पूर्ण है, क्योंकि वह सृजनशील तथा विकासशील है। मनुष्य द्वारा अनु-संधानित समस्त नियम तथा मान्यताएँ उसके छोटे-मोटे अंग तथा उसकी अभिव्यक्ति के बनते-मिटते हुए पदचिह्न भर है। वह आत्म-सृजन के आनंद तथा आवेश में अपनी अभिव्यक्ति के नियमों को अतिक्रमकर अपनी सांप्रत पूर्णता को निरंतर और भी बड़ी पूर्णता में परिणत करता रहता है।

    हमारा युग जैसे लाठी लेकर आदर्श के पीछे पड़ा हुआ है। वह यथार्थ के ही रूप में जीवन के मुख को पहचानना चाहता है, और उसी को गढ़कर, बदलकर मनुष्य को उसके अनुरूप ढालना चाहता है। यह मनुष्य नियति का शायद सबसे बड़ा व्यंग्य है और यह ऐसा ही है जैसे मैं अपनी प्रकृति को बदलकर अपने को बदलना चाहूँ अथवा अपनी वेशभूषा बदल लेने से अपने को भी बदला हुआ समझ लूँ। आज का मनुष्य इसीलिए यथार्थ की समस्त कुरूपता से समझौता कर, उसे आत्मसात् कर, उससे उसी के स्तर पर जूझ रहा है। “ए टूथ फार टूथ” का प्राकृतिक आदिम संस्कार आज उसके लिए सर्वोपरि सत्य बन गया है, और दलदल में फँसे हुए हाथी की तरह मानव अस्तित्व युग के कर्दम-कल्मष में लिपटता हुआ स्वयं भी कुरूप तथा कुत्सित बनता जा रहा है।

    यथार्थ का दर्पण जिस प्रकार जगत् की बाह्य परिस्थितियाँ है, उसी प्रकार आदर्श का दर्पण मनुष्य के भीतर का मन है। यदि वह उस पर केवल यथार्थ की ही छाया को घनीभूत होने देगा, तो वह यथार्थ के भीषण बोझ से दबकर उसी की तरह कुरूप तथा बौना हो जाएगा। यदि वह आदर्श और यथार्थ को दो आमूल भिन्न, स्वतंत्र तथा कभी मिल सकने वाली इकाइयाँ मानेगा, तो वह उनके निर्मम पाटों के बीच पिस जाएगा। यदि वह यथार्थ को आदर्श के अधीन रखकर उसे आदर्श के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करेगा, तो वह यथार्थ पर विजयी होकर मानव जीवन के विकास में सहायता पहुँचा सकेगा।

    जिस प्रकार आज का युग आदर्श से विमुख है उसी प्रकार वह व्यक्ति के प्रति विरक्त है। वह केवल समाज और सामूहिकता का अनुयायी है। वह व्यक्ति को समाज की भारी भरकम निष्प्राण मशीन का कल-पुरजा बना देना चाहता है। अंतर्जीवी व्यक्ति की जो महान् सामाजिकता रूपी बाह्य देन है, वह मनुष्य की आत्मा को उसके अधीन रखकर चलाना चाहता है। यह ऐसा ही हुआ जैसे कोई मूल जल स्रोत की धारा को बंदकर उसे उसी के प्रभाव से एकत्र हुए तालाब के पानी में डुबा देना चाहे। ऐसी अनेक प्रकार की असंगतियाँ आज के युग में मेरे समान अंतर्मुख प्राणी को अधिकाधिक चिंतनशील बनाती जाती है, जिसे मैं युग का ऋण समझकर चुकाने का प्रयत्न करता हूँ।

    वैसे मैं जीवनी शक्ति को अपने में संपूर्ण मानता हूँ, जिसका प्रकाश भीतर है, छायाभास बाहर; जिसका केंद्र मनुष्य के अंतरतम में है, बाह्य परिधि विशाल मानव-समाज मे; जिसका सत्य अंतर्मुखी है; प्रसार तथा नियमों में बँधा तथ्य बहिर्मुखी। जो मन तथा आत्मा से परिचालित होने पर भी उनके अधीन नहीं है। मन तथा आत्मा की इकाइयाँ जीवन के सत्य से ऊँची हो सकती है, किंतु उससे अधिक समृद्ध तथा परिपूर्ण नहीं—जीवन, जो भगवत्-करुणा का वरदान स्वरूप, उनके आनंद-इंगित से चालित, उनको मनोहर लीला का विकासशील उपक्रम-स्वरूप है। विकसित मनुष्य सृजनशील अंत स्थित प्राणी होता है, कि तर्कबुद्धि में अवसित बाह्य परिस्थिति-जीवी व्यक्ति; वह जीवन की अखंडनीय एकता से संयुक्त होता है, कि उसके चंचल वैचित्र्य में खोया हुआ, वह द्रष्टा होता है, कि कोरा विचारक और चिंतक; वह इंद्रियों के स्वामी की तरह प्रकृति का उपभोग करता है, कि उनका दास बनकर प्रकृति के हाथ का खिलौना बना रहता है। विकसित मनुष्य, वह जीवनी शक्ति का प्रतिनिधि होता है—जीवनी शक्ति—जो अंततः सच्चिदानंदमयी दिव्य प्रकृति है। एवमस्तु।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 190)
    • रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
    • प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
    • संस्करण : 1961

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