मेरी सर्वप्रिय पुस्तक
meri sarvpriye pustak
कहते हैं इस युग में मनुष्य का जितना ज्ञान वर्द्धन हुआ है, सभ्यता के इतिहास में उतना ज्ञान मनुष्य ने और कभी अर्जित नहीं किया। ऐसे युग में मनुष्य लाख प्रकृति का प्रेमी हो और उसे पाषाण-शिलाओं, नदियों तथा प्रकृति के अन्य उपकरणों में चाहें कितने ही प्रवचन लिखे हुए मिले, पर वह मानव ज्ञानवर्धन के आधुनिक साधनों, पुस्तकों की उपेक्षा ही कर सकता, और शिक्षा तथा विद्वत्ता की होड़ के इस युग में मैंने भी पुस्तकें अनेक पढ़ी हैं, कुछ का अध्ययन किया है, कुछ सरसरी दृष्टि से देखी हैं, और कुछ केवल उलट-पलट कर रख दी है। पर विचार और चिंतनप्रिय होते हुए भी जिस पुस्तक ने मेरे हृदय को सबसे अधिक मोहा है वह है कालिदास का “मेघदूत”। वैसे कालिदास ने रघुवंश, कुमार संभव और शकुंतला जैसी प्रसिद्ध पुस्तकें लिखी हैं जो कई दृष्टियों से मेघदूत से अधिक प्रौढ़, सशक्त तथा काव्य-शिल्प की दृष्टि से सुथरी है। किंतु जो मोहिनी मुझे मेघदूत की पंक्ति-पंक्ति में मिली वह अन्यत्र नहीं सुलभ हो सकी। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। मेघदूत भाव-काव्य तथा रस-काव्य होने के साथ ही चित्र-काव्य है। शुरू से ही प्रकृति के अद्वितीय चितेरे कवि ने उसमें एक के बाद एक जो प्राकृतिक सौंदर्य का चित्रण किया है उसने मेरे प्रकृति प्रेमी मन पर अपना सब से गहरा प्रभाव डाला है। मेघदूत को पढ़ना मानो नैसर्गिक सौंदर्य की विशाल रंग-स्थली में भ्रमण करना है, ऐसी रंगस्थली जहाँ आपके आँखों के सामने मानव हृदयस्पर्शी सुख-दु:खांत प्रेम का नाटक अत्यंत स्वाभाविक रूप से घटित हो रहा है। एक से एक रमणीक तथा मनोमोहक दृश्य आपकी आँखों के सम्मुख खुलने लगते हैं और आप अनजाने ही विस्मयाभिभूत तथा रस-विभोर हो उठते हैं।
मेघ को दूत बनाने की कल्पना ही कुछ बेजोड़ है। मेघ क्या है मानो मानव-प्रेम की संयोग-वियोग भरी करुण कोमल भावनाओं का मूर्त रूप है। ऐसा उन्मत्त, रंग-बिरंगा, भावप्रवण, उदार, मनोमोहक, इंद्रधनुष तथा विद्युत्, पावक से निर्मित, मयूरों के शुक्लापांगों से अभिनंदित, राजहंसों के सौंदर्य-पंखों में उड़ने वाला बादल संभवतः और किसी भाषा के साहित्याकाश में देखने को नहीं मिलेगा। ऐसे बादल के लिए “धूम ज्योतिः सलिल मरुता सनिपात” कहकर उसको संदेशवाहक दूत बनाने के लिए औचित्य खोजने की कहीं भी आवश्यकता नहीं प्रतीत होती, वह तो स्वयं ही जैसे जीता-जागता संदेश है। इस मेघ को प्रेम का दूत बनाने में मुझे कवि की सबसे बड़ी मौलिकता का परिचय मिलता है। और सीधे उसे अपना श्रोत्र-पेय संदेश न सुनाकर “मार्ग तावच्छृणु कथयतस्त्वत्प्राणानुरूप कहकर तो कवि जैसे आशातीत रूप से हृदय को विस्मय विमुग्ध कर देता है। और फिर मार्ग-निरूपण में अपने भौगोलिक ज्ञान का परिचय देते हुए, वह क्रमशः, एक के बाद एक, जिस प्रकार इस देश के सौंदर्य-स्थलों का उद्घाटन करता है, उनका तो इस छोटी-सी वार्ता में वर्णन करना ही संभव नहीं है। फिर भी “रेवा द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णाम्” जैसे शब्द चित्र तो जैसे मूर्तिमान होकर दृष्टि के सामने चिपक से जाते हैं। रास्ते में मेघ को किस प्रकार आचरण करना चाहिए, इस प्रकार के उपदेशों में मुझे बड़ी आत्मीयता का परिचय मिलता रहा है। बादल जैसी एक वायवी वस्तु को ऐसा जीवंत व्यक्तित्व कालिदास ही दे सकता है। साँझ होने से पहले ही मेघ को महाकाल के मंदिर में जाने का आग्रह करना और उसका आरती के समय गरज कर नगाड़ा बजाना भी मेरे मन को लुभाता रहा है। “नृत्तारंभे हर पशुपतेरार्द्रनागाजिनेच्छा शातोद्वेगास्तिमित-नयन दष्ट भक्तिर्भवान्या” जैसी उक्तियाँ तो बादल का रूप ही जैसे बदल देती है। पूर्व मेघ में ऐसे अनेक स्थल है जिनसे इस देश की उच्च मर्यादाओं एवं सुरुचि से संपन्न वैभवशाली संस्कृति का परिचय मिलता है। शिव की अंतःस्पर्शी कल्पना कालिदास को विशेष रूप से प्रिय है, उसका वर्णन कुमारसंभव के अतिरिक्त मेघदूत में भी अत्यंत भाव-तन्मयता के साथ किया गया मिलता है। मेघदूत का अलका वर्णन भी साहित्य में अद्वितीय है। प्रारंभ में ही इंद्रधनुष तथा विद्युत् गर्जन भरे मेघ से अलका की तुलना कर कवि आपकी कल्पना को मोह लेता है। इस संघर्ष भरे युग की थकान मिटाने को कौन मेघदूत की अलका में कुछ देर विचरण करना नहीं पसंद करेगा? वहाँ शिशिर मथिता पद्मिनी के समान जो तन्वी श्यामा शिवरदशना पक्वबिम्बाधरोष्ठी यक्ष पत्नी है वह “या तत्रस्यायुवति विषये सृष्टिराद्येव धातु” ही नहीं है कवि को भी युवतिविषये ऐसी मनोहर दूसरी सृष्टि संभवत: अपने काव्य में अन्यत्र नहीं मिलेगी जो एक साथ ही सौंदर्य ममता करुणा हास और अश्रु की सजीव प्रतिमा है। निःसंदेह मेघदूत कवि की अमृतवाणी है, जिसका प्रेम संदेश केवल वियोगी पति-पत्नियों को ही नहीं, मानवहृदय को भी सदैव सांत्वना तथा शांति प्रदान करता रहेगा।
- पुस्तक : शिल्प और दर्शन द्वितीय खंड (पृष्ठ 294)
- रचनाकार : सुमित्रा नंदन पंत
- प्रकाशन : नव साहित्य प्रेस
- संस्करण : 1961
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