'जागरण' के पहले अंक में श्रीयुत प्रेमचंदजी ने अपने 'हंस' के आत्मकथांक1 के लिए लेख लिखते हुए 'भारत' की साहित्यिक नीति और लेखशैली को बहुत बुरे शब्दों में याद किया है। प्रेमचंद जी के उपन्यास उनकी प्रोपागेंडा-वृत्ति के कारण काफ़ी बदनाम हैं और हिंदी के बड़े-से-बड़े समीक्षक ने उसकी शिकायत की है। वही वृत्ति उनके इस लेख में भी प्रसार पा रही है। यद्यपि प्रेमचंद जी लिखते हैं कि 'हमने तो कभी प्रोपागेंडा नहीं किया, हमारा बड़ा से बड़ा दुश्मन भी हमारे ऊपर यह आक्षेप नहीं कर सकता'; पर प्रेमचंद जी के सभी समीक्षक जानते हैं कि उनका सबसे बड़ा दोष—जो उनकी साहित्य कला को कलुषित करने में समर्थ हुआ है—यही प्रोपागेंडा है। यदि प्रेमचंद जी बिल्कुल ही भोले-भाले न बने, तो वह अपने विरुद्ध इस प्रकार का आरोप एक नहीं अनेक बार सुन चुके होंगे, पढ़ चुके होंगे और हृदय की थाह लगाकर देख भी चुके होंगे। यदि उनके साहित्य के साथ उनके जीवन का कुछ भी संबंध है—और संबंध है क्यों नहीं?—तो हमें उनके विचार पढ़कर कुछ भी आश्चर्य न होना चाहिए। उसमें भी हमें प्रेमचंद जी की उपन्यास-कला का एक रहस्य ही देख पड़ा। उपन्यास लिखने का पुराना तरीक़ा यह था कि एक पक्ष को परम धार्मिक वीर और वरेण्य बनाकर दूसरे को हद दर्जे तक उसके विपरीत बना दिया जाए और इन्हीं दोनों विरोधी दलों के संघर्ष से कथा का विकास होता रहे। यह बहुत पुराना ढर्रा था, जिसमें सत्य की ओर से आँखें मूँद कर उपन्यास का ढाँचा खड़ा किया जाता था। प्रेमचंद जी ने 'आत्मकथांक' की स्तुति करते हुए 'भारत' की जो निंदा की है, उसमें हमें उपन्यास लिखने का उपर्युक्त पुराना ढर्रा ही देख पड़ा, जिसे आधुनिक विकसित साहित्य एक ज़माने से छोड़ चुका है। 'जागरण' के अनुद्वेगशील संपादक को प्रेमचंद जी के लेख से आश्चर्य हुआ और विरोध में टिप्पणियाँ जड़नी पड़ीं। पर हम तो उनके इस लेख में उनका वही रूप देखते हैं, जो उनके साहित्य में देख चुके हैं।
साहित्य में हम शुद्ध साहित्यिक संस्कृति चाहते हैं, लाग-लपेट कुछ भी नहीं। चाहे वह साहित्य का कोई लेख हो, पुस्तक हो अथवा संस्था हो। हम उसकी परख अपनी इसी मूल भावना की कसौटी पर करते हैं। यदि हम हिंदी साहित्य सम्मेलन के विपक्ष में हैं, तो इसलिए कि सम्मेलन वास्तव में साहित्य के प्रति उदासीन बना हुआ है। यदि हम पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी अथवा श्रीयुत भवानीदयाल संन्यासी जी के किसी लेख अथवा साहित्यिक नीति का विरोध करते हैं, तो इसलिए कि वे सज्जन शुद्ध साहित्य को साहित्य बाह्य वस्तुओं का भारवाही बनाते हैं, जिसे देखकर हमें ग्लानि होती है। जब हम पत्र-पत्रिकाओं में दो अक्षर लिख लेनेवालों की चित्र-वृद्धि पर संक्षेप करते हैं, तब समझते हैं कि हिंदी में अब तक बहुत थोड़े साहित्यकार ऐसे हैं, जिनके चित्र छपने चाहिए। और, जब हम 'आत्मकथांक' का विरोध करते हैं, तब अपने साहित्य में बढ़ते हुए आत्म-विज्ञापन के कलुष का ध्यान करते हैं और यह निर्विकल्प रूप से जानते हैं कि ऐसे व्यक्ति, जो आत्मकथा लिखने में योग्य हों, हिंदी-संसार में अधिक नहीं, उँगलियों पर ही गिने जा सकते हैं यदि ये सब प्रेमचंद जी के लिखे अनुसार उन्हें चौंकानेवाली बातें हैं, तो हम उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए भी चौंकानेवाली बातें कहना अपना धर्म मानते हैं। हिंदी का साहित्यिक जमघट अभी शुद्ध साहित्यिक वातावरण से कोसों दूर है; इसलिए इस तरह की बातें प्रेमचंद जी को ही नहीं, औरों को भी, अभी कुछ दिन, चौंकाती रहेंगी और इसका हम बुरा भी नहीं मानते।
साहित्य तो एक सात्विक जीवन है। उसे कठिन तपस्या और महान यज्ञ समझना चाहिए। जहाँ व्यक्ति के व्यक्तित्व के कोई स्वतंत्र विषय नहीं रह जाते, उच्च साहित्य की वह भाव-भूमि है। वहाँ अपरिग्रह का साम्राज्य है, फ़ोटो नहीं छापे जाते। वहाँ वाणी मौन रहती है, गाथा गाने में सुख नहीं मानती। उस उच्च स्तर से जितने क्रिया-कलाप होते हैं, आत्म-प्रेरणा से होते हैं; पर आज दिन हिंदी में आत्म-प्रेरणा और 'आत्मकथा' का नाम लेना पाखंड है और पाखंड बढ़ाना है। हमारे देश में आत्मकथा लिखने की परिपाटी नहीं रही। यहाँ की दार्शनिक संस्कृति में उसका विधान नहीं है। यहाँ के संत हिमालय की कंदराओं में गलकर विश्वशक्ति की समृद्धि करते थे और करते हैं। प्राचीन भारत अपना इतिवृत्त और अपनी 'आत्मकथा' नष्ट कर आज चिरजीवन का रहस्य बतलाता है। और, जिन्होंने गाथाएँ लिखीं, वे बिला गए! इस युग के महापुरुष महात्मा गांधी ने जो आत्मकथा लिखी है, उसकी मूल भावना है प्रायश्चित्त, अर्थात् वह केवल एक नकारात्मक योजना है। परंतु प्रेमचंद जी कैसी आत्मकथाएँ लिख रहे हैं, यह बतलाने की ज़रूरत नहीं।
साहित्य को केवल वाणी-विलास मानने वाले आदमी उसके उपयोगितावाद की दुहाई दे सकते हैं, जैसे श्रीयुत प्रेमचंद जी ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी वग़ैरह का नाम लेकर दी है। परंतु हम वो उसे बहुत ही साधारण कोटि की धारणा मानते हैं। लौकिक उपकार ही साहित्य की कसौटी नहीं है और न वह साहित्यकार के विकास में सहायक बन सकती है। नीति के दोहे लिखने वाले दिन गए। इस समय हिंदी के रचनाकारों को अपने संस्कार और अपनी साधना की आवश्यकता है। दूसरों की भलाई का बीड़ा वे आगे कभी उठावेंगे। फिर इस साधारण परोपकारी दृष्टि से भी आत्मकथा लिखने के योग्य हिंदी में कितने आदमी हैं? कितने ऐसे महच्चरित हैं, जिनकी जीवनी हिंदी-जनता की पथनियामिका बन सकती है?
निष्कर्ष यह कि वर्तमान हिंदी में जैसी आत्मकथाएँ लिखी जा सकती हैं, वे साहित्य-समीक्षा की दृष्टि से निम्न कोटि की ही होंगी। प्रेमचंद जी ने ताज्जुब ज़ाहिर किया है कि हमने कैसे जान लिया कि आत्मकथाएँ ऐरे-ग़ैरे लोग लिखेंगे। आशा है, वह अब समझ गए होंगे कि आँखें खोलकर अपने साहित्य की गतिविधि देखनेवाले व्यक्ति ऐसा समझे बिना रह ही नहीं सकते। यही नहीं, और प्रमाण भी हैं। 'हंस' कार्यालय से मेरे पास गश्ती चिट्ठी तो कोई नहीं, यह पत्र अवश्य आया था कि मैं भी उस आत्मकथांक के लिए कुछ लिखूँ। यदि मेरे जैसे कल के साहित्यिकों से 'आत्मकथांक' की भर्ती होगी, तो प्रेमचंद जी को समझने का मौक़ा है कि मैंने कैसे समझा कि ऐरे-ग़ैरे नत्थू ख़ैरे लोग उसका कलेवर भरेंगे।
जब मेरे पास उक्त पत्र आया था, तब मैंने मित्र-भाव से और प्राइवेट तरीक़े से 'हंस' कार्यालय को लिखा था कि मेरी सम्मति नहीं है कि आत्मकथांक-जैसा इस समय निकले और अंक के निमित्त अपनी गाथा गाने की क्षमता के लिए मैंने भी माँगी थी। परंतु जब 'हंस' की ओर से यह लिख आया कि आत्मकथांक तो निकलेगा ही, तब मैंने उपर्युक्त टिप्पणी लिखी थी, जिस पर बिगड़ कर प्रेमचंद जी लिखते हैं कि 'हंस' को मेरी सम्मति की ज़रूरत नहीं है! प्रेमचंद जी यदि साहित्यिक शिष्टाचार का पालन नहीं कर सकते, तो उन्हें कम-से-कम अपने प्रबंधकों और कर्मचारियों से यह दरियाफ़्त कर लेना चाहिए कि किस प्रकार का पत्र व्यवहार वे लोग कर चुके हैं। ऐसा न करने से उनकी असहिष्णुता जो असत्य और असभ्य रूप धारण करती है, उससे दूसरों को नहीं, उनको और उनके पत्र को ही क्षति उठानी पड़ सकती है।
- पुस्तक : हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी (पृष्ठ 96)
- रचनाकार : नंददुलारे वाजपेयी
- प्रकाशन : इंडियन बुकडिपो
- संस्करण : 1949
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