तौसीफ़ आई थी

tausif i thi

अमृता प्रीतम

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तौसीफ़ आई थी

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    तौसीफ़ आई थी, चली गई

    जाना ही था

    सिर पर लौट जाने की

    तारीख़ लटकती थी...

    उतरते सूरज ने

    आकाश पर एक तिलिस्म-सा बिछाया

    बादल भी किरनों के सुर्ख़ रंग के

    जादू को देखते रहे

    फिर आहिस्ता से, एक उदासी

    किरनों को स्याह करने लगी...

    तब एक दीवानगी आकाश से उतरी

    और बहती हवा में

    ज़र्रों की तरह उड़ती

    मेरी साँसों में मिल गई...

    साँस कुछ थर्राने लगी

    लगा—बहुत थक गई हूँ...

    तब थोड़ी सी ख़ामोशी—

    आवाज़ में बदल गई

    कहने लगी—कुछ याद आया?

    कहीं एक मज़हर-उल-इस्लाम है...

    मैंने कहा, अरे, यह कोई भूलने की बात है!

    तुम कहना क्या चाहती हो?

    कहने लगी—अगर वह याद है

    तो उसकी कुछ दुआएँ भी तुम्हें याद होंगी—

    मैं हँस दी—उस दरवेश की दुआएँ?

    उनका तो एक-एक हरफ़

    सोए हुए वक़्त के पहलू में

    एक जागती आवाज़-सा बैठा है...

    कहने लगी—आज की उदास बेला

    ज़रा कट जाएगी

    तुम कोई भी दुआ माँगो तो!

    मैंन कहा—पगली, किससे माँगूँ

    अगर कोई सुनता है

    तो यह ख़ामोशी भी सुन लेगा...

    कहने लगी—जाने दो इस बात को

    पर तुम्हें आवाज़ से परहेज़ क्यों?

    एक-एक आवाज़, और मुट्ठी भर अक्षर

    यही तो तेरे पास है...

    मैंने एक गहरी साँस ली,

    कहा—हाँ, यही तो हैं

    कहने लगी—

    ग़र तुम्हें कुछ कहना हो, तो क्या कहोगी?

    मैंने कहा—पहली बात तो यह

    कि जिसने ये दुआएँ लिखी हैं

    वह सलामत रहे!

    और दूसरी बात यह—

    कि जिनके हाथ में, वक़्त की लगाम है

    उन्हें ये दुआएँ सुनने की तौफ़ीक़ मिले!

    वह कहने लगी—और एक तेरा इलियास है—

    मैंने कहा—ख़ुदा उसे ख़ैरियत से रखे

    उसी से तो पंजाबी कहानी अपने आप नाज़ करती है—

    उसने फिर कहा—और वह जो तुम्हारे फख़र हैं, तौक़ीर हैं,

    मैंने कहा—उनसे तो पंजाब के अदब को

    एक अलहदा नज़रिया मिला है...

    ख़ुदा उनकी भी ख़ैर करे!

    वह मुस्कुराई, और कहने लगी—

    और एक तेरी सारा थी

    कुछ उसके लिए नहीं कहेगी?

    मैंने कहा—वह कहती थी—

    मैं ख़ुदा के हाथ से गिरी हुई दुआ हूँ

    और मैं यह कहूँगी—

    कि सारा जैसी नेमत को

    कभी भी ख़ुदा अपने हाथों से गिरने दे!

    वह ख़ामोश-सी हो गई

    फिर कहने लगी—और यह तेरी तौसीफ़?

    मेरी उदासी रात की तरह गहराने लगी

    कहा—कमबख़्त ने अपना घोंसला

    फ़ाख़्ता के घोंसले की तरह

    तोप के मुँह पर बनाया है—

    और कहना चाहूँगी—

    कि अब कोई तोप भी कहीं चलने पाए!

    वह कुछ ग़मगीन-सी हुई

    फिर कहने लगी—कुछ और नहीं कहोगी?

    मैंने कहा—तुम्हें तो याद होगा

    कि मज़हर ने एक दुआ माँगी थी—

    “एक खुदा! इन सभी बच्चों को

    वोट देने की उम्र से पहले

    सच के सफ़र की थकावट को,

    झेलने का बल देना—

    और मैं कहना चाहूँगी

    —ख़ुदा! किसी के हाथ में भी

    क़लम देने से पहले

    उसे सच लिखने की तौफ़ीक़ देना

    वह ख़ामोशी में ख़ामोशी-सी होती

    कहने लगी—इन दिनों तुमने

    अपने अंदर कहीं दीए-से देखे हैं

    मैंने कहा—हाँ, एक मंटो था

    और भी कुछ मंटो हुए हैं

    उनकी क़ब्र पर मैंने दीए जलाने हैं!

    वह मुस्कुराई—

    और एक राज़दाना आवाज़ में कहने लगी—

    लेकिन एक दीया है

    वह छिपाकर क्यों रख लिया?

    मैं उसकी ओर देखने लगी

    फिर कहा—हाँ, रखा है वक़्त आने पर

    अपनी क़ब्र पर जाकर जलाने के लिए...!

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैं तुम्हें फिर मिलूँगी (पृष्ठ 45)
    • रचनाकार : अमृता प्रीतम
    • प्रकाशन : कृति प्रकाशन
    • संस्करण : 2011

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