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उपन्यास की भाषा

upanyas ki bhasha

रामस्‍वरूप चतुर्वेदी

रामस्‍वरूप चतुर्वेदी

उपन्यास की भाषा

रामस्‍वरूप चतुर्वेदी

और अधिकरामस्‍वरूप चतुर्वेदी

    साहित्यिक रचनाशीलता की भाषा का तत्त्व केंद्रीय है, इसे अब धीरे-धीरे स्वीकार किया जाने लगा है। बोलचाल की भाषा के सामान्य उपयोगी स्तर से लेकर कविता की भाषा के अधिकतम संभव सर्जनात्मक स्तर के बीच भाषिक प्रयोग की कई प्रकार की संभावनाएँ हैं। यहाँ स्मरण रखना होगा कि समकालीन काव्य में बोलचाल की भाषा कविता नहीं हो गई है, वरन बोलचाल की भाषा का कविता के लिए सर्जनात्मक प्रयोग हुआ है। जिन रचनाकारों ने इस महत्त्वपूर्ण अंतर को नहीं समझा है, वे कविता में बोलते बहुत रहे हैं, पर संप्रेषित कम कर सके हैं। भाषा प्रयोग के उपयोगी और सर्जनात्मक, इन दो सिरों के बीच में आती है। भाषण, पत्रकारिता आदि की सूचनात्मक भाषा, लोक-साहित्य की बहुत हल्की सर्जनात्मक भाषा, अकाल्पनिक गद्य माध्यमों की भाषा और फिर नाटक, उपन्यास कहानी जैसे कल्पना प्रधान गद्य रूपों की भाषा। कविता की भाषा क्योंकि सबसे अधिक सर्जनात्मक है, इस अर्थ में कविता सबसे अधिक साहित्य है।

    उपन्यास में भाषा प्रयोग की दुहरी समस्या है। एक तो गद्य की सामान्य प्रकृति के हिसाब से उसे वर्णन करना है और दूसरा, उससे अधिक मुश्किल काम है सूक्ष्म और जटिल अनुभव को संप्रेषित करना। भाषा के इस दुहरे धर्म को निबाहने में उपन्यासकार का मुख्य कृतिकर्म निहित है। यह बात आधुनिक उपन्यासकार के संदर्भ में अधिक संगति के साथ कही जा सकती है क्योंकि उसके लिए वर्णन करना उत्तरोत्तर कम होता गया है। संप्रेषण की केंद्रीय समस्या उत्तरोत्तर बढ़ती गई है। वर्णन के लिए पत्रकारिता और फ़िल्म के माध्यम अधिक उपयुक्त साबित हो रहे हैं, इसीलिए साहित्य में वर्णन की प्रधानता एक तरह से भाषा का दुरुपयोग ही है। यों भी पत्र पत्रिकाएँ, रेडियो, सिनेमा आदि प्रसार माध्यमों के कारण औसत पाठक का सामान्य ज्ञान आज इतना अधिक है कि साहित्य पढ़ते समय वह सामान्य वर्णन की उपयोगिता महसूस नहीं करता। दृश्य के वर्णन में उसकी रुचि नहीं, वरन् दृश्य में जो कुछ निहित है और जिसे वह सामान्यतः नहीं देख पाता उसकी पकड़ ही मुख्य है। इसी प्रक्रिया में वह जीवन को अधिक सार्थक और समृद्ध अनुभव करता है। यह पाठक के लिए ही नहीं, लेखक के लिए भी कहीं अधिक सच है क्योंकि पाठक की यह चयनधर्मी वृत्ति लेखक में सामान्य पाठक से अधिक ही होनी चाहिए।

    वर्णन करना और कहानी कहना मूलतः एक जैसी प्रक्रियाएँ हैं क्योंकि दोनों की प्रकृति सूचनापरक और दिलचस्प है। आधुनिक उपन्यास में इनका उपयोग है, पर एक सीमा तक ही। मूल बात तो अनुभव को संप्रेषित करना है। घटना और चरित्र की सूचना देना अनुषांगिक है। घटना और चरित्र को अब अनुभव और संवेदन के स्तर पर ही निष्पन्न होना है, तभी किसी रचनादृष्टि का विकास संभव है। ‘चंद्रकांता' और 'परीक्षागुरु' से लेकर 'अपने-अपने अजनबी' तक की यह कथायात्रा है।

    सामान्यतः हिंदी उपन्यासकार वर्णन के आरंभिक स्तर से ऊपर उठने का उपक्रम ही करता है। इसके लिए एक सीमा तक तो व्यावसायिक लेखन का दबाव ज़िम्मेदार है, पर मूल कठिनाई रचना के स्तर पर है। शिक्षित मध्यवर्ग के विकास के साथ-साथ उपन्यास का एक बड़ा अंश जीवन की उपभोग्य सामग्री के रूप में गृहीत होता गया। पर छपे रहने और साधारण बोलचाल में उपन्यास कहे जाने के बावजूद इस वर्ग के लेखन का दबाव बाहर से आसानी से रखा जा सकता है। पर इस व्यावसायिक लेखन का दबाव बाहर से भी उपन्यास के वास्तविक रूप पर पड़ता है, इसमें कोई संदेह नहीं। हिंदी उपन्यास में वर्णन और कहानी का अबतक का महत्त्व एक सीमा तक इसी असाहित्यिक स्पर्धा के कारण है और इससे उपन्यास की वास्तविक रचनाशीलता और उसके आस्वादन में बाधा ही उत्पन्न होती है, क्योंकि सही जनरुचि का विकास नहीं हो पाता। यही नहीं, कभी-कभी तो समझदार समीक्षक भी उपन्यास की प्रशंसा सात सौ पृष्ठों तक सलीके के क़िस्से कहने के लिए करते पाए जाते हैं, और इसके लिए उपन्यासकार के प्रति कृतज्ञ भी हो जाते हैं।

    पर मूल कठिनाई फिर भी उपन्यास में भाषिक संघटन की दुहरी प्रक्रिया को संभाल पाने के कारण है। वर्णन की भाषा और दिलचस्प है, और उपन्यासकार प्रायः उसी में डूब जाता है। उसके बीच के सर्जनात्मक भाषा विकसित करके अनुभव को रूपायित करने का अपेक्षया मुश्किल काम वह छोड़ देता है। वर्णन और कहानी पर पूरी तरह निर्भर रहने वाले उपन्यासों में यशपाल का ‘झूठा सच' सिरमौर कहा जा सकता है, जिसे पढ़ते समय यह महसूस नहीं होता कि उपन्यास पढ़ रहे हैं, बल्कि लगता है कि विभाजन के दिनों के पुराने समाचारपत्रों की फ़ाइल पढ़ रहे हैं।

    प्रसाद के काव्य, ख़ासतौर से 'कामायनी' की चर्चा करते विजयदेव नारायण साही का कहना है कि प्रसाद के युग में कवि की निगाह पानी की ओर अधिक है, मिट्टी का महत्त्व परवर्ती युग में बढ़ा है। दो प्रचलित प्रतीकों को सही ढंग से पकड़ने पर भी यहाँ सरलीकरण कुछ अधिक हो गया है। मिट्टी और पानी की रचनागत क्षमताओं में तात्विक अंतर है। मिट्टी वर्णन के लिए प्रेरित करती है, पानी कल्पना और अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है। यह अंतर प्रेमचंद और प्रसाद के बीच बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। (भूराजनैतिक दृष्टि से पणिक्कर के तटवासी और मैदानी दृष्टिकोणों में भेद करते हुए बताया है कि तटवासियों में समुद्र के कारण एक आकर्षण, चुनौती और उत्साह का भाव रहता है, जबकि मैदानी लोग अपेक्षया शांत और स्थिर रहते हैं।) साहित्य में मिट्टी का प्रभाव जड़ और स्थूल वर्णनों में है, पानी अनुभवगत वैविध्य गति और कल्पनाशीलता में प्रतिफलित होता है। वस्तुतः ये रचना की दो दृष्टियाँ हैं, जो कमोबेश हर साहित्यिक युग में कविता और गद्य दोनों को मिल सकती हैं। इस स्तर पर साही का विश्लेषण अधूरा रह जाता है। प्रसाद के युग में ही पानी का महत्त्व नहीं था। पानी का महत्त्व अब भी है। अज्ञेय, शमशेर और रघुवीर सहाय, वस्तु और संवेदना दोनों दृष्टियों से, मूलतः पानी के कवि हैं। मिट्टी का वर्ग समकालीनों का है। पानी के रचनाकार में ‘आधुनिक' अधिक हैं। इस प्रसंग में यह जानना रोचक होगा कि पास्तरनाक के प्रसंगबहुल पर अपेक्षया स्थूलवर्णन-विरल, उपन्यास ‘डॉ. जिवागो' के विधान का सूक्ष्म और तात्विक विश्लेषण प्रसिद्ध समीक्षक एडमंड विल्सन ने अपने विख्यात निबंध 'लीजेंड एंड सिंबल इन डॉ. जिवागो' में कथाकार द्वारा पानी के विविध बिंबों के उपयोग के आधार पर किया है और दिखाया है कि उपन्यासकार ने रूसी क्रांति की विस्तृत कथा को उपकरण बनाते हुए पानी के ही माध्यम से मृत्यु और पुनर्जीवन के इस आख्यान को रचा है।

    समकालीन हिंदी उपन्यास में प्रगतिवाद, आंचलिकता, सामाजिक यथार्थ आदि के नाम पर अधिकतर मिट्टी की प्रधानता दिखती है। नए कथाकार शिवप्रसाद सिंह का सद्यः प्रकाशित बड़ा उपन्यास 'अलग-अलग वैतरणी' अपने शीर्षक में पानी को जुगुप्सा भाव से प्रस्तुत करता हुआ मिट्टी के ही इर्द-गिर्द घूमता है। इससे अनुभव और कल्पना की क्षमता कुंठित होती है और अधिकतर भोंथरी भाषा से काम चल जाता है। यों उपन्यास अपने जन्म से ही मिट्टी की यथार्थवादी परंपरा से जुड़ा है, पर उसमें कोई भी शक्ति उत्पन्न करने के लिए अब मिट्टी में पानी मिलाए बिना काम नहीं चल सकता। हिंदी उपन्यास का मुहावरा इसके लिए अपने को कहाँ तक तैयार करता है, इसी पर उपन्यास की रचना-प्रक्रिया निर्भर करेगी।

    मिट्टी में पानी मिलाना यानी गद्य की अपेक्षा ठोस-जड़ भाषा में कविता भाषा के द्रवणशील तत्त्वों को संक्रमित करना। पर उपन्यास के संघटन में कविता के प्रयोग का क्या अर्थ है? कविताओं को उद्धृत करना, नहीं! 'काव्यात्मक गद्य' लिखना, नहीं! वरन् उपन्यास के वर्णन-प्रधान ठोस गद्य में यथावश्यक हल्के-हल्के बिंबों का प्रयोग करते हुए अर्थ की गूँज-अनुगूँज उत्पन्न करने वाले शब्दों और मुहावरों का प्रयोग, जिससे सूक्ष्म और अस्पष्ट से लगने वाले अनुभव और उसके यथार्थ का साक्षात्कार संभव हो सके। यहाँ बिंब के संबंध में अपना भाव स्पष्ट कर देना उचित ही नहीं ज़रूरी भी है। बिंब में सामान्यतः समझा जाने वाला चित्रात्मकता का भाव महत्त्वपूर्ण नहीं है। (बिंबवादी कवि और विचारक तो चित्रात्मकता से इतने आक्रांत थे कि उन्होंने कविता को भी चित्र के रूप में ढालने की भले ही असफल, कोशिश की।) बिंब में असली महत्त्व है, अनेक स्थितियों के परस्पर संबंध और संपर्क के सहारे निर्मित अर्थ संश्लेष का, जो अनुभव को उसकी समग्रता में व्यक्त करता है। प्रतीक और बिंब का अंतर गुणात्मक है। प्रतीक केवल किसी एक सूक्ष्म या अमूर्त भाव को द्योतित करता है, जबकि बिंब में अनेक स्थितियों और पक्षों को एक साथ समेटने की कोशिश होती है। इसीलिए प्रतीक से कहीं अधिक बिंब प्रक्रिया भाषा को सर्जनात्मक बनाती है। इस बिंब प्रक्रिया से अनुभव की विविध छायाओं का साक्षात्कार संभव होता है। और इसी रचना में वह द्वंद्वात्मक क्षमता विकसित होती है, जिससे कि वह युग-युग की अपनी अनुभवपरक व्याख्याओं को आत्मसात करती चलती है, बशर्ते कि ये व्याख्याएँ कौशलपरक अर्थ चमत्कार हों, वरन अर्थ और अनुभव के विविध आयामों की अभिव्यक्ति हों। भाषिक सर्जनात्मकता की कोई तराजू होने पर भी कहा जा सकता है कि उपन्यास की भाषा ऐसी हो जो कविता की सघन सर्जनात्मक भाषा और गद्य की सामान्य वर्णन-प्रधान भाषा के बीच में हो। नए उपन्यासों में निर्मल वर्मा के 'वे दिन' का रचाव बहुत कुछ ऐसा ही है, यहाँ यथार्थ को बाहर बिखेरने, सजाने और प्रदर्शन में रुचि नहीं है, वरन यथार्थ को अपने अंदर समेटने, आत्मसात करने की कोशिश है जिसके लिए वर्णन की पद्धति कभी पूरी पड़ ही नहीं सकती। यथार्थ को बाहर रखकर वर्णित और विश्लेषित करना शास्त्रों और विज्ञानों की प्रक्रिया है, उसे अंदर अनुभव के स्तर पर उतारने में साहित्य का वैशिष्ट्य है।

    यथार्थ को यथासंभव समग्रतः अनुभव करने के लिए उपन्यास की भाषा में कविता की भाषा के संक्रमण का उपयोग कुछ यूरोपीय और अँग्रेज़ी रचनाकारों ने किया है। वर्णन सदैव अधूरा रहेगा, इसलिए इन उपन्यासकारों ने वर्णन का तो सीमित उपयोग किया है। अनुभव में समग्रता की संभावना अधिक है, अतः इनकी दृष्टि में अनुभव केंद्र में है। इसलिए ज़रूरी था कि वे वर्णन के सामान्य गद्य में कविता भाषा के कुछ तत्त्व घुलाते। लॉरेंस डरैल के अजेक्जेंड्रिया चतुखंड का नाम इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसका एक पात्र रचना की समस्या को बहुत अच्छे ढंग से उजाकर करता हुआ कहता है : ‘बताने की प्रक्रिया में सत्य विलुप्त हो जाता है उसे संप्रेषित ही किया जा सकता है, कहा नहीं जा सकता।' उपन्यासकार का मूल यत्न बताते और संप्रेषित करने में एक संतुलन स्थापित करना है। इस दृष्टि से इस युग के अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार कहे जा सकते हैं पास्तरनाक, कामू, गंटर ग्रास और बैकेट। इनके उपन्यासों के आकार चाहे छोटे हों या बड़े, इनकी भाषिक रचना-प्रक्रिया में समानता है क्योंकि वे अपने उपन्यासों में कविता की भाषा का संपर्क करते चलते हैं, जिससे उनका संप्रेषण अधिक दक्ष होता है। डरैल की भाषा अपनी द्रवणशीलता के लिए विशेष रूप से आशंसित हुई है, पर यह स्मरण रखना होगा कि यहाँ कविता की भाषा का प्रयोग वांछित है, कविता जैसी भाषा नहीं।

    हिंदी में प्रेमचंद के बाद उपन्यास की भाषा को नए ढंग से गलाने का काम किया जैनेंद्र ने। इस दृष्टि से ‘त्यागपत्र' उपन्यास साहित्य की बेजोड़ और स्पृहणीय उपलब्धि है। यहाँ जैनेंद्र शब्दों से उतना काम नहीं लेते, जितना उनकी भंगिमा से। जैनेंद्र के साथ अज्ञेय का नाम आता है। इन दोनों ने मिलकर भाषा को वर्णन के प्रथमिक स्तर से ऊठाया। 'त्यागपत्र' की बुआ और प्रमोद, 'शेखर' का शेखर, शशि और बाबा मदनसिंह पूरी तौर पर भाषा से ही बन गए हैं। ‘त्यागपत्र' के शुरू के अनुच्छेदों में है : “हम लोगों का असली घर पछांह की ओर था। पिता प्रतिष्ठा वाले थे और माता अत्यंत कुशल गृहिणी थीं। जैसी कुशल थीं वैसी कोमल भी होतीं तो? पर नहीं, उस 'तो' के मुँह में नहीं बढ़ना होगा। बढ़े कि गए, फिर तो सारी कहानी उस मुँह में निकल कर समा जाएगी और उसमें से निकलना भी नसीब होगा।”

    कथा में कथा वाले 'पंचतंत्र' और 'हितोपदेश' में देश के वर्णन करने और कहानी कहने पर ऐसा सहज और अनाटकीय संयम शायद पहली बार देखने में आता है। इन दो-तीन वाक्यों में एक और उपन्यासकार का रचनासूत्र छिपा हुआ है, पर वह गौण है। मुख्य है, वर्णन करके वर्णन को व्यंजित कर देने की क्षमता। 'शेखर' के बाबा मदनसिंह तो बोलते ही सूत्र शैली में हैं : 'अभिमान से भी बड़ा दर्द होता है, पर दर्द से भी बड़ा एक विश्वास है।' अज्ञेय में गद्य और कविता भाषा के रचनात्मक संपर्क का और बढ़िया उदाहरण उनके नवीनतम उपन्यास 'अपने-अपने अजनबी' में देखा जा सकता है, जिसका भाषा-प्रयोग आधुनिक गद्य साहित्य में एक नया मान स्थापित करता है, और जिसका भाषिक विश्लेषण अपने में स्वतंत्र और संपूर्ण विषय है। पर कुछ संकेत इस प्रसंग में देना आवश्यक होगा।

    'अपने अपने अजनबी' की भाषा स्वतः अज्ञेय के ही पिछले उपन्यासों की भाषा से भिन्न है। अपने इस नवीनतम उपन्यास में रचनाकार ने, जिसकी गद्य भाषा का आभिजात्य विख्यात है बोलचाल के सामान्य और खड़खड़े शब्दों को रचना के स्तर पर प्रयुक्त किया है। प्रचलित काव्यात्मक शब्दावली को छोड़ने पर यह समस्या आती है कि नितांत बोलचाल की भाषा का आधार लेकर सर्जनात्मक गद्य किस तरह लिखा जाए? उसका उपाय यही है कि ऊपर से काव्यात्मक लगने वाले शब्दों को अलग करके पूरे विधान में कविता की आंतरिक रचना प्रक्रिया का सहारा लिया जाए। अज्ञेय ने ‘अपने-अपने अजनबी' में यही किया है और पूरे उपन्यास की भाषा को यथासंभव एकरस बनाए रखा है। वर्णन और अनुभव की भाषा के बीच के जोड़ प्रकट नहीं होते, जो कि आधुनिक उपन्यासकार की मूल रचना समस्या है।

    विश्लेषण के लिए 'अपने-अपने अजनबी' के कुछ वाक्यों को लिया जा सकता है। बाढ़ के दृश्य में प्रताड़ित यान को सेल्मा अपने घर से देख रही है। यान अपने जले हुए घर की आग पर कुछ खाना पका रहा है। यह दृश्य सेल्मा नहीं देख पाती और पर्दा खींच देती है, लेकिन दृश्य उसकी आँखों के आगे थोड़े ही था जो पर्दा खींचने से हट जाता! वह जिधर मुड़ी उधर भी वही दृश्य था क्योंकि वह उसकी आँखों के सामने नहीं, आँखों के भीतर था। आँखों के सामने और आँखों के भीतर, ‘सामने’ और 'भीतर' इन दो बड़े मामूली शब्दों को लेकर उपन्यासकार ने उन्हें आमने-सामने रखा है, और इसी प्रक्रिया से सेल्मा के अनुभव संश्लेष को व्यक्त किया है। यान को लेकर सेल्मा के जिस भावनात्मक तनाव को परंपरागत वर्णन के अनेक पृष्ठ भी पूरी तरह अंकित नहीं कर पाते, उसे उपन्यासकार ने एक वाक्य के दो सामान्य शब्दों से व्यक्त कर दिया है। यह गद्य की भाषा में कविताभाषा की प्रक्रिया को मिलाने से ही संभव हो सका है।

    उपन्यास के अंतिम अंश में युद्ध पीड़ित शहर की जिस दूकान के सामने जगन्नाथ सौदा ख़रीदने के लिए खड़ा है, उसका वर्णन है :

    काले, गोरे और भूरे चहेरे, काले, लाल, पीले, भूरे, गेहुएँ, सुनहले और धौले बाल, रंग पुते और रूखे खुड्डे चेहरे। चुन्नटदार, इस्तरी किए हुए और सलवट पड़े कपड़े, चमकीले और कीच सने, चरमराते या फटफटाते या घिसटते हुए जूते। और चेहरों में, आँखों में, कपड़ों में, सिर से पैर तक हर अंग की क्रिया में निर्मम जीवैषणा का भाव मानो वह दुकान सौदे 'सुलफ या रसद की दूकान नहीं है, बल्कि मानो जीवन की ही दुकान है।' इस अंश का विश्लेषण करने पर कई बातें सामने आती हैं :

    1. लेखक को आधुनिक युद्ध और राशन सभ्यता के एक पहलू कतार या 'क्यू' का वर्णन करना है।

    2. वर्णन का आरंभिक अंश घोषित रूप से गिनती गिनाने वाला है, पर इस गिनती गिनाने में भी जैसे सभ्यता को उस विडंबना की व्यंजना जिसने मनुष्य को गिनती में बदल दिया है।

    3. और अंत में ‘जीवन की दूकान' का बिंब शुरू के सारे वर्णन को फिर नए सिरे से अर्थवत्ता प्रदान करता है और वह वर्णन माला एक अर्थ संप्रेषित करने के बाद जैसे उस अर्थ को और गहरे अनुभवपरक आयामों में ले जाती है, जहाँ भीड़ और जीवन की निर्मम, पर आवश्यक प्रक्रिया एकरस हो गई है। और इस समूचे भाषिक संघटन में वर्णन और बिंब की हल्की प्रक्रिया एक दूसरे से इतने अच्छे ढंग से मिल गई है कि कहीं जोड़ नज़र नहीं आता। यह पूरे उपन्यास की भाषिक प्रक्रिया है, और इसलिए मैंने कहा है कि 'अपने अपने अजनबी' भाषिक संघटन की एक नई क्षमता का आख्यान है। ‘आग को असीसने', 'कितना कमीना है यह संतोष जो दूसरों को हारते और टूटते हुए देखकर होता है', जैसे प्रयोग चरित्रों को नहीं वरन चरित्रों के अनुभव और संवेदन को संयोजित करते हैं। ऐसे रचाववाला उपन्यास तरह-तरह के ब्यौरे देकर पाठक का ज्ञान संवर्द्धन नहीं करता वरन उसके अनुभव और प्रशस्त करता है, जो साहित्यिक रचनाशीलता का मुख्य उद्देश्य है।

    जैनेंद्र और अज्ञेय के साथ-साथ उपन्यास की स्थूल वर्णन वाली परंपरा भी चलती रही है, जिसके लेखकों ने जैनेंद्र की भाषा को चक्करदार कहकर हमेशा बदनाम कराने की कोशिश की है। उनके लिए दुनिया जैसी सीधी सरल है वैसी ही सीधी सरल, बौद्धिकता विरोधी उसकी भाषा है। भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, उपेंद्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, मोहन राकेश प्रभृति ने भाषा के इस सीमित रूप से अधिकतर कहानी कहने का उपक्रम किया है, जो अच्छी भी जान पड़ी है, बुरी भी और सामान्य भी। इन रचनाकारों की परवर्ती कृतियों में नागर के वर्णन कितने सजीव और आकर्षक हैं, यशपाल के वर्णन उतने ही जड़। यशपाल का वृहदाकार उपन्यास 'झूठा सच' वर्णनों से इतना अधिक आक्रांत है कि उसका कोई भी चरित्र कहीं कुछ देर तक कुछ सोचता हुआ, आलोचन करता हुआ अंकित नहीं किया गया। उपन्यास की इस वर्णनप्रधान पद्धति के साथ और भी अनेक नाम जुड़ते हैं, पर उस सूची का हमारे लिए यहाँ कोई उपयोग नहीं है।

    वर्णन का उपयोग करते हुए उससे ऊपर उठने का उपक्रम करने वाले उपन्यासों में देवराज ('रोड़े और पत्थर', 'अजय की डायरी'), नरेश मेहता (यह पथ बंधु था), फणीश्वरनाथ 'रेणु' (मैला आँचल), लक्ष्मीकांत वर्मा (ख़ाली कुर्सी की आत्मा), प्रभाकर माचवे (द्वाभा), रघुवंश (अर्थहीन), निर्मल वर्मा (वे दिन) के नाम लेना होगा। इनके उपन्यासों में दिलचस्प वर्णन का आकर्षण जिस सीमा तक कम है, भाषिक सर्जनात्मकता का रूप उतना ही उभरा है और बौद्धिक उपक्रम भी उसी मात्रा में संयोजित हो सका है। पर कुल मिलाकर इन उपन्यासों में शिल्प के प्रयोगों पर जितना आग्रह है उतना भाषिक सर्जन-प्रक्रिया पर नहीं है। पर यह भी सही है कि भाषा के जड़, स्थिर रूप से इन्होंने अपने को प्रयत्नपूर्वक बचाना चाहा है। इन उपन्यासकारों में से अधिकांश का कवि होना इन्हें निश्चय ही रचनात्मक स्तर पर कुछ सहायता देता है, पर अच्छा उपन्यासकार होने के लिए कवि होना ज़रूरी हो, ऐसा नहीं है। इसका बहुत अच्छा उदाहरण स्वयं जैनेंद्र हैं, जो इस धारा के अग्रणी हैं। अनुभव को महत्त्व देने के कारण उन्होंने शिल्प से अधिक भाषा को केंद्र में रखा है क्योंकि अनुभव और भाषा एक दूसरे के निकटतम हैं।

    उपन्यास लेखन की उक्त दो धाराएँ हमारे यहाँ ही हों, ऐसा नहीं है। इसी से मिलती-जुलती स्थिति का वर्णन अँग्रेज़ी साहित्य में स्टीफेन स्पेंडर ने किया है। अपनी पुस्तक 'दि स्ट्रगल आफ़ दि मार्डन' में स्पेंडर ने दोनों तरह के लेखकों का विश्लेषण किया है। एक और समकालीन लेखक हैं जो वर्णनों में ही उलझे रहने के कारण युग और संस्कृति की आंतरिक समस्याओं से अपरिचित बने रहते हैं और दूसरी ओर आधुनिक लेखक हैं, जो अपने युग की स्थितियों के समकालीन ही नहीं हैं क्योंकि ऐसा होना तो उनकी नियति और विवशता है, वरन् उन स्थितियों के समग्र और तात्विक विश्लेषण में उनकी रुचि है। स्पेंडर के शब्दों में 'समकालीन अपनाते हैं यथार्थवादी गद्य की पद्धति, जबकि आधुनिकों का प्रयोग है बिंबपरक और काव्यात्मक।' समकालीनों में स्पेंडर ने रखा है शा, वेल्स, गाल्सवर्दी और बैनेट को और ज्वायस, लॉरेंस, वर्जीनिया वुल्फ़ और इलियट को उसने आधुनिक माना है। तथ्यतः तो ये प्रायः सभी लेखक एक दूसरे के समकालीन हैं पर यथार्थ को समझने की दोनों वर्गों की दृष्टि अलग-अलग है। इसलिए एक समकालीन है जबकि दूसरा आधुनिक।

    एक ओर हिंदी में सरल वर्णनात्मक उपन्यासों की भरमार है, दूसरी ओर कुछ शिल्पगत प्रयोगों के बावजूद आधुनिक उपन्यास की विधानगत कठिनाइयों की सजगता बहुत कम है जिसमें भाषिक संघटन की समस्या केंद्रीय है। इसका एक परिणाम यह हुआ कि कविता और उपन्यास की विकासगति में सामंजस्य का अभाव है। इससे भी नए कविता उपन्यास के भाषिक संघटन में समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। अब उपन्यास के लिए कविता की भाषा का प्रयोग कठिनतर हो गया है क्योंकि दोनों के भाषिक स्तर में अंतर कुछ कम होने के बजाए बढ़ और गया है। पिछले दिनों प्रकाशित कुछ मोटे-मोटे उपन्यासों में वर्णन की स्थूलता बढ़ती ही गई है, जबकि कविता की भाषा ने अमूर्तन और विरूपीकरण के अधिक साहसिक प्रयोगों को अपनाना शुरू कर दिया है।

    सच तो यही है कि उपन्यास कविता नहीं है इसलिए वर्णन उसका आवश्यक अंग है। पर वर्णन अब साध्य नहीं, साधन अधिक है क्योंकि प्रधान है अनुभव का संपुंजन और संप्रेषण। उसी सीमा तक वर्णन को अब हल्का होना चाहिए, तभी वह उपन्यास के पूरे विधान में रचनात्मक सहायता दे सकता है। इसलिए पहले से अधिक आवश्यक हो गया है कि उपन्यास में वर्णन और संप्रेषण दोनों की भाषाओं का सानुपातिक प्रयोग हो। कविता या नाटक में भाषा को तोड़ना अपेक्षया सुगम है क्योंकि उनका भाषा प्रयोग सांकेतिक अधिक है। पर उपन्यास में चाहे कितना संक्षिप्त हो, वर्णन चाहिए ही! और यह वर्णन आधुनिक कविता के अमूर्त और विरूप विधान द्वारा संभव नहीं है क्योंकि ये प्रक्रियाएँ व्यंजना की है, वर्णन की नहीं। अब समस्या यह है कि उपन्यास में भाषिक प्रयोग के इन दो स्तरों को मिलाया कैसे जाए क्योंकि दोनों के बीच का अंतर और बढा है; व्यावसायिक उपन्यास और उसके दबाव में लिखा गया कथा साहित्य जिसके लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार है। कविता अपनी प्रकृति में अव्यावसायिक है और उसकी भाषिक प्रक्रिया दूसरी तरह की है और कविता भाषा की प्रक्रिया इधर तेज़ी से बदली भी है।

    यह आधुनिक उपन्यासकार का रचना संकट है और उसकी क्षमता को एक चुनौती है। वर्णन की परंपरित स्थूल भाषा और नई कविता की अमूर्त और विरूपीकृत भाषा को एक रचनाविधान में कैसे संघटित किया जाए, जिससे दोनों के बीच जोड़ दिखाई दे और दरार ही, यही आधुनिक उपन्यास की मूल समस्या है। नई कविता के बाद के अनेक कविता आंदोलनों, नई कहानी-अकहानी के तत्त्वावधान में लिखी जाने वाली कहानियों और स्थूल वर्णन प्रधान उपन्यासों, इन सबने मिलकर सर्जनात्मक भाषा की समस्या से कतरा कर निकल जाना चाहा है और अघोषित रूप से सीधी वर्णनात्मक भाषा का प्रयोग अपना लिया है। यानी आधुनिक जीवन के जटिल परिवेश में रचना समस्या जितनी कठिन हुई है उतने ही आसान और सस्ते समाधान ढूँढ निकालने में रुचि बढ़ी है। यह सब एक तरह की साहित्यिक ‘मादक औषधि' है, जिसका सेवन रचनात्मक चुनौती से बचने के लिए लेखक और फलतः पाठक, दोनों कर रहे हैं। पर यांत्रिक जड़ता से जूझने का उपाय ‘मादक औषधि' नहीं है, जोकि उससे भी बड़ी जड़ता है, वरन मानव व्यक्तित्व और उसके अनुभव को केंद्र में लाना है और उसे महत्त्व देना है। अनुभव को और अनुभव की समग्रता को संप्रेषित करने के लिए सीधी भाषा कभी पर्याप्त नहीं रही, आज तो और भी नहीं! पर अनुभव का साक्षात्कार भाषिक सर्जनात्मकता को विकसित करके ही संभव है। रचना के क्षेत्र में इस चुनौती का सामना आधुनिक लेखक कैसे करते हैं, पर इस पर केवल उपन्यास की नई संभावनाएँ निर्भर हैं, वरन पूरी साहित्यिक रचनाशीलता का भावी रूप ही आधारित है।