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तुलसी और गांधी का स्वप्नलोक

tulsi aur gandhi ka svapnalok

कन्हैयालाल सहल

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कन्हैयालाल सहल

तुलसी और गांधी का स्वप्नलोक

कन्हैयालाल सहल

और अधिककन्हैयालाल सहल

    गोस्वामी तुलसीदास से किसी ने कहा था कि यदि आप अकबर बादशाह की प्रशंसा में कुछ पद लिख दें तो आपको राज्य में बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है, ऐसी प्रतिष्ठा जो बड़े-बड़े मनसबदारों के भाग्य में नहीं है। तुलसीदास ने उत्तर दिया—

    “हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखौ दरबार।

    अब तुलसी का होहिंगे, नर के मनसबदार?”

    राम के दरबार का पट्टा लिखाकर तुलसीदास इस संसार में आए थे। उनका समस्त जीवन राममय था, राम उनके श्वास-प्रश्वास में समाया हुआ था। उनको किसी प्रकार का कष्ट होता था तो वे राम के दरबार में ही ‘विनय-पत्रिका’ भेजा करते थे अथवा स्वांत: सुखाय कभी रामायण लिखते, कभी ‘कवितावली’ लिखते तो कभी ‘दोहावली’ और ‘गीतावली’ की रचना करते। राम के प्रति तुलसी की सी अनन्य आस्था और श्रद्धा कभी देखने-सुनने में नहीं आई।

    वाल्मीकि रामायण में आदि कवि ने सबसे पहले राम का चरित भारतीय जनता के सामने रखा था किंतु वाल्मीकि रामायण के पाठकों की संख्या आज कितनी है? अधिकांश भारतीय जनता तो राम को उसी रूप में ग्रहण करती आई हैं जिस रूप से आज से करीबी 300 वर्ष पहले गोस्वामी तुलसीदास ने राम को प्रस्तुत किया था। वाल्मीकि के राम और तुलसी के राम में भिन्नता है, एक में यथार्थवाद है तो दूसरे में आदर्शवाद। आदर्शवादी होने के कारण भारतीय जनता तुलसी के राम को ही सर्वाधिक आदर-सम्मान दे सकी है। तुलसी के राम ने तो राम का महत्व इतना बढ़ा दिया कि राम किसी शासक का रूप धारण कर एक आदर्श के प्रतीक बीन गये। ‘राम-राज्य’ एक मुहावरा बन गया।

    गांधीजी से बहुत से लोग जब स्वराज्य का अर्थ पूछते थे तो वे कह दिया करते थे, स्वराज्य का अर्थ होगा ‘रामराज्य’। सामान्य जनता को गांधी जी की यह बात बड़ी पसंद आई क्योंकि तुलसीदास वर्षों पहले रामराज्य का चित्र खींचते हुए बतला चुके थे—

    दैहिक दैविक भौतिक तापा।

    रामराज काहू नहिं व्यापा।

    खैर करहि काहु सन कोई।

    राम-प्रताप विषमता खोई।

    नहिं दरिद्र कोउ दुखी दीना।

    नहिं कोउ अबुध लछन-हीना॥

    जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी रहे, उस राजा को तुलसीदास नरक का अधिकारी समझते थे। तुलसी के राम-राज्य के आदर्श ने गांधीजी को अत्यधिक आकृष्ट किया होगा और मैं तो समझता हूँ, बोलचाल में ‘राम-राज्य’ आदर्श राज्य के अर्थ में जो प्रयुक्त होने लगा, उसके प्रचलन में भी गांधी जी ने बड़ा सहारा दिया होगा किंतु कुछ लोग ऐसे भी थे जो ‘राम-राज्य’ को स्वराज्य अथवा आदर्श राज्य के अर्थ में मानने के लिए तैयार थे। रामराज्य उनकी दृष्टि मे एकतंत्रीय राज्य था जिसका सामंजस्य आधुनिक लोकतंत्रीय पद्धति से वे नहीं कर पाते थे। कुछ ऐसे भी थे जो ‘राम-राज्य’ में हिंदू राज्य की संकीर्णता का अनुभव करते थे। ‘रामराज्य’ शब्द को लेकर जब इस प्रकार के आक्षेप उठाए जाने लगे तो गांधी जी को अक्टूबर 1945 के ‘हरिजन’ में ‘राम-राज्य’ संबंधी अपने स्वप्न का निम्नलिखित स्पष्टीकरण करना पड़ा—’राम-राज्य’ का धर्म की परिभाषा में अर्थ होगा—पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य। राजनीतिक भाषा में इसका अनुवाद किया जाय तो इसकी व्याख्या होगी—एक लोकतंत्र, जिसमें ग़रीब और अमीर, स्त्री और पुरुष, गोरे और काले, जाति या मज़हब के कारण असमानता नहीं रहेगी, ऐसे राज्य में सब ज़मीन और सत्ता जनता के हाथ में होगी, न्याय शीघ्र, शुद्ध और सस्ता होगा, उपासना, वाणी और लेखनी की स्वतंत्रता होगी। और इन सबका आधार होगा—स्वेच्छा से संयम, धर्म का शासन। ऐसे राज्यतंत्र की रचना सत्य और अंहिसा पर ही हो सकती है। सुखी, समृद्ध तथा स्वावलंबी देहात और देहाती प्रजा उसके मुख्य लक्षण होंगे। हो सकता है कि स्वप्न कभी कार्यान्ति हो सके, परंतु इस स्वप्न-जगत में रहने और इसको शीघ्र से शीघ्र निर्मित करने के प्रयत्न में ही मेरे जीवन का आनंद है।”

    गांधीजी ने ‘राम-राज्य’ के आदर्श का जो स्पष्टीकरण किया है उसकी तुलना संविधान-सभा के धर्म पर अनाश्रित राज्यादर्श से कीजिए तो दोनों मे कितनी अद्भुत समानता मिलेगी। धर्म पर अनाश्रित राज्य का अर्थ यह नहीं है कि वह राज्य वस्तुत: अधार्मिक होगा, उसका अर्थ केवल यही है कि उस राज्य में धर्म, संप्रदाय, वर्ण, जाति-विरोध आदि के कारण किसी को क्षति नहीं उठानी पड़ेगी।

    स्वराज्य के लिए गांधीजी ने जिस शब्द को प्रचलित किया था, वह शब्द वास्तव में बड़ा महत्वपूर्ण हैं। उस शब्द के साथ मर्यादापुरुषोत्तम राम का पुनीत संसर्ग है। तुलसी अपने युग की सीमाओं से भी बंधे थे, फिर भी उनके राम वर्ण व्यवस्था के हामी होते हुए भी नीच कही जाने वाली जातियों के साथ इस तरह का सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करते हैं कि जिससे उनके हृदय की शुद्धता में किसी प्रकार का संदेह नहीं रह जाता। शबरी के बेर खाना एक ऐसा ही प्रसंग है। राम ही क्यों, भरत और मुनि वशिष्ठ तक निषादराज के साथ इस तरह का व्यवहार करते हैं जो वर्ण-व्यवस्था के पृष्ठपोषक को साधारणत: आश्चर्य में डाल देता है। राम और निषादराज के मिलन का वर्णन करते समय तुलसीदास कहते हैं—

    “करत दण्डवत देखि तेहि, राम लीन्ह उर लाय।

    मनहु लखन सन भेंट भइ, प्रेम हृदय समाय॥”

    और वशिष्ठ तो निषादराज से इस तरह मिले मानो पृथ्वी पर लोटते हुए स्नेह को ही उन्होंने उठा लिया हो—

    “राम सखा ऋषि बरबस भेंटा।

    जनु महि लुंठत सनेह समेटा।”

    तुलसी के राम वस्तुत: धर्म के प्रतीक थे। एकतंत्रीय शासन के दोष उनमें कहीं दिखलाई नहीं पड़ते। भवभूति ने तो राम के मुख से यहाँ तक कहलवा दिया था—

    “स्नेहं व्या सौख्यं च, यदि वा जानकीमपि।

    आराधनाय लोकस्य, मुचतो नास्ति मे व्यथा।”

    सीता के दूसरे वनवास को लेकर जो कटुआलोचना कुछ समीक्षक किया करते हैं, उनको यह भी समझ रखना चाहिए कि राम अपने में सीता में कोई अंतर नहीं समझते थे। सीता के प्रति क्रूर होने का अर्थ उनका अपने प्रति क्रूर होना ही था।

    राम जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम को लेकर स्वराज्य के अर्थ में जो शब्द प्रचलित हुआ उस शब्द में भारतवर्ष की सांस्कृतिक आत्मा की भी गूँज है। सच तो यह है कि जिस तरह के रामराज्य का चित्र तुलसीदास जी ने अपने रामचरितमानस में अंकित किया है वह तुलसीदास जी का स्वप्न ही तो था। और गांधीजी तो इस बात का भी अनुभव करते थे कि हो सकता है यह स्वप्न कभी कार्यान्ति हो सके।’ और आज हमारे भारतवर्ष में क्या हो रहा है? आज तो भ्रष्टाचार और रिश्वत का नंगा नाच हो रहा है। एक ‘राम-राज्य’ का स्वप्न देखने वाला था स्वप्न-द्रष्टा ही नहीं, उस स्वप्न को, उस ईश्वरीय राज्य को, वह भारत-भूमि पर अवतरित करना चाहता था। उसकी वाणी सत्य की वाणी थी जो केवल सूचना मात्र नहीं देती थी, असंख्य हृदयों के अंधकार को विदीर्ण करके जो ज्योति विकीर्ण करती हुई चलती थी। भारतमाता! क्या रामराज्य का स्वप्न देखने वाले भी इस देश में नहीं रह गए? सर्वोदय और वर्गरहित समाज की बात अनेक बार सुनाई पड़ती है किंतु यह विशाल देश, जिसकी महान् सांस्कृतिक परंपरा है, कब एक क्रियात्मक आदर्श जनता के सामने रखेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। दोनों के रामों की कल्पनाओं मे चाहे अंतर हो, पर तुलसी के बाद राम में ऐसी अनन्य आस्था आधुनिक युग मे गांधी जी को छोड़कर और कहीं नहीं देखी गई। गांधी के ‘हे राम’ ने तो मृत्यु तक भी उस विश्ववन्द्य महात्मा का साथ नहीं छोड़ा और उस तुलसी के लिए तो क्या कहा जाए जिसके संबंध में हरिऔधजी कह गए हैं—

    “वन राम रसायन की रसिका,

    रसना रसिकों की हुई सफला।

    अवगाहन मानस में करके,

    जन-मानस का मल सारा दला।

    हुई पावन भाव की भूमि भली,

    हुआ भावुक भावुकता का भला।

    कविता करके तुलसी लसे,

    कविता लसी पा तुलसी की कला।”

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