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काव्य और अर्थ-बोध

kavya aur arth bodh

त्रिलोचन

अन्य

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त्रिलोचन

काव्य और अर्थ-बोध

त्रिलोचन

और अधिकत्रिलोचन

    अपने विषय पर कुछ कहने के पूर्व, इसी विषय से संबंध रखनेवाले दो-एक प्रसंगों का अवतरण करने के लिए मैं पाठकों से क्षमा चाहता हूँ।

    एक प्रतिष्ठित पत्र के संपादक ने, जिनके साथ मैं काम किया करता था, एक दिन अपने हाथ के लेख को मेज पर डालकर, चश्मे की कमानी को ठीक करते हुए, प्रश्न किया— 'त्रिलोचन जी, सुन रहे हैं न?' मैंने ध्यानपूर्वक उनकी ओर देखा। उन्होंने कहा—'इस लेख में एक कविता उद्धृत है जो मुझे ठीक नहीं जान पड़ती। लिखा है, 'एक मुर्दा गा रहा था बैठकर जलती चिता पर'। भला, जलती चिता पर बैठकर मुर्दा गाएगा कैसे? ऊटपटाँग बात है।' मैंने कुछ कहा नहीं। केवल, संपादक जी की ओर सतर्क होकर देखा। वे कह रहे थे कि ऐसा तो मैंने कहीं देखा, सुना। सचमुच वे अनुभवी तो थे ही, विद्वान् भी थे। मौन स्वीकृतिलक्षणं के अनुमान से उन्होंने कहा—'मैं गा रहा था' की जगह 'जा रहा था' कर देता हूँ, यद्यपि फिर भी कुछ खामी तो रह ही जाती है। मुझे विनोद सूझा, अतएव मैंने कहा—'बैठकर से अब बाधा खड़ी होती है, यदि यहाँ लेटकर होता तो शायद कुछ ठीक होता।' अब संपादक जी क़लम लेकर कुछ कर गुज़रने के लिए तैयार थे कि मैंने उनकी सुफ़ेदी की इज़्ज़त मन में लिए हुए निवेदन किया इसका संशोधन यदि करें तभी अच्छा। यह कविता तो एक पुस्तक में प्रकाशित हो चुकी है। यहाँ पहले छपती तब संशोधन उचित होता। इस समय के संशोधन को लोग प्रूफ़ की ग़लती मान लेंगे। पुस्तक में प्रकाशित होने के कारण कवि भी अब संशोधन से कोई लाभ उठा सकेगा। संपादक जी को यह बात जँच गई और उन्होंने संशोधन से हाथ खींच लिया।

    बच्चन दूसरे कवियों से अधिक लोकप्रिय हैं। कहा जाता है, उनकी कविताएँ सरल हैं! इतने पर भी क्या आप इससे सहमत हैं?

    उन संपादक जी के लिए सम्भवतः कुछ उदारमना विचारक यह सिफ़ारिश करें कि उन्होंने कविता पढ़ी होगी, जाने भी दीजिए। अच्छी बात।

    अब एक और प्रकरण। एक कवि हैं। बड़ा नाम है, बड़ा काम किया है। ग्राम-गीत, कहानी, उपन्यास और बाल-साहित्य कौन ऐसा विषय है जिस पर उन्होंने कृपा की हो। हाँ, आलोचना का विषय जाने कैसे छूट चला था कि जो 'खेतों से आया था और फिर खेतों में चला जाऊँगा' यह निश्चय कर चुके थे; क्या मालूम क्या हुआ कि जाने से पहले इस विषय को भी कृतार्थ करते गए। जिन दिनों उन्हें आलोचना का आवेश रहा करता था वे खास तौर से छायावादी कवियों के दोषों पर दृष्टि रखते थे और निश्चय ही उनके हाव-भाव से प्रकट होता था कि हिन्दी साहित्य के अकल्याण-भय से उनकी चिंताओं का कोई अंत नहीं। एक बार 'ग्राम्या' के पन्ने पलटते हुए बोले—'पन्त जी को प्रकृति का परिज्ञान तक नहीं। उनकी नायिका वर्ष भर के फूलों से; कभी इस से कभी उससे, शृंगार करती है। बस उन्होंने फूलों के नाम नोट किए और एक कविता में सबको भर दिया। देश का विचार किया, काल का।' उस कविता को एक नज़र देख जाने पर मैंने निहायत अदब से अर्ज़ किया कि ऐसी बात तो नहीं है। यहाँ तो कवि ने नायिका पर ध्यान रखा है। वह प्रकृति से इतनी हिलमिल गई है कि प्रकृति जब जिन फूलों से शृंगार करती है, उन्हीं को वह भी अंगीकार करती है। देखिए, लिखा है, 'सज ऋतु शृंगार'। इसके बाद कवि जी अन्यान्य दोषों पर जबान दौड़ाने लगे।

    अभी कल की बात है कि चारों ओर अश्लीलता सूँघनेवालों ने निराला जी की एक कविता पर अथक कृपा दिखलाई थी। उसका निम्नांकित पद प्रायः सबूत के लिए पेश किया जाता था—

    दूर ग्राम की कोई वामा

    आए मंद चरण अभिरामा

    उत्तरे जल-तल अवसन श्यामा

    अंकित उर-छवि सुंदरतर हो

    उन स्वयंभू समालोचकों ने कभी यह सोचने की तकलीफ़ गवारा की कि इस कविता का शीर्षक 'विनय' क्यों है? क्या उन महाभागों ने कभी किसी को अपने मन में धँसे हुए कुत्सित अर्थ की प्रार्थना विनय या संध्या में करते देखा अथवा सुना था?

    एक बार ऐसे ही काव्य-पारखी लोगों से तंग आकर आनंदघन ने कहा था—

    जग की कविताई के धोखे रहैं

    ह्याँ प्रबीनन की मति जाति जकी

    समुझैं कविता घनआनन्द की

    हिय-आँखिन नेह की पीर तकी

    मर्मी कवि ठाकुर ने ऐसे ही लोगों का ख़ाका खींचा है—

    डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच

    लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है

    संत कवि सुन्दरदास ने इन्हीं लोगों के पूर्वजों से प्रार्थना की थी—

    बोलिए तो तब जब बोलिबे की जानि परै

    तौ मुख मौन गहि चुप होइ रहिए

    लेकिन इस सब से क्या होता है? पारखी तब कम हुए, अब कम हैं। उनकी संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है। इस पर आप को हर्ष होगा या शोक?

    भर्तृहरि ने साहित्य, संगीत और कला से हीन व्यक्ति को पुच्छ-विषाणहीन साक्षात् पशु कहा है। यह बात स्वयंसिद्ध के समान मानी जाती है। ऐसी हालत में अन्य दिशाओं की ओर गतिमूढ़ता देखकर अधिकतर लोग साहित्य को अपने कृपा-कटाक्ष से अवश्य धन्य करते हैं।

    आजकल सुसंस्कृत मनुष्य की एक यह भी पहचान है कि वह साहित्य से अच्छा परिचय रखता हो। हमारे यहाँ की चौंसठ कलाएँ पुरातन सभ्यता का लक्षण हैं। उनमें से अधिकांश दैनिक जीवन से संबंध हैं। कुछ का बौद्धिक महत्त्व है, कुछ का व्यावहारिक, कुछ का आनंदमूलक। चौंसठ कलाओं में साहित्य या काव्य की गणना नहीं है। उसमें समस्यापूर्ति का नाम है। कुछ लोग इसी समस्यापूर्तियों को काव्य कहना चाहते हैं।

    समस्यापूर्ति में कभी-कभी कवित्व की झलक मिल जाती है। लेकिन यह अपवाद है और अपवाद को नियम का पद नहीं दिया जाता। नटों के प्रदर्शनों में अच्छी-ख़ासी मेहनत पड़ जाती है मगर उनके कौतुक को शायद ही कोई व्यायाम कहना चाहे।

    मालूम नहीं, जग की कविताई से आनंदघन का क्या अभिप्राय है? सामान्य सत्यों की व्यंजना करने वाली रचना को अब हिन्दी में सूक्ति कहने का रिवाज चल पड़ा है। इन सूक्तियों को कुछ काव्य-समीक्षक कविता के क्षेत्र से खारिज कर देना चाहते हैं। उन लोगों का भगीरथ प्रयत्न बराबर चालू है। जाने किन अलक्ष्य कारणों से अभी सिद्धि के लक्षण नहीं दिखाई देते।

    एक बार एक संपादक जी ने प्रसंगवश कहा कि वृंद के समान महान् कवि हिन्दी में कोई नहीं हुआ। सुननेवाले हँस पड़े। एक दुर्मुख कवि ने कह ही तो दिया और आपके समान महान् संपादक भी हिन्दी में कोई नहीं हुआ। संपादक जी ने भोलेपन से पूछा—'क्या मैंने कुछ ग़लत कहा?' भला वे कुछ ग़लत कह सकते थे!

    एक आत्मविश्वासी पत्रकार ने निराला पर एक लेख में लिखा है कि मैं निराला जी की कविताओं को समझने का दावा नहीं करता। वरन् मेरा तो ऐसा विश्वास है कि उनकी कविताएँ समझी ही नहीं जा सकतीं। फिर भी सम्मेलनों में जब निराला जी काव्य-पाठ करते हैं, सभा की अखंड शांति को देखकर मैं सोचा करता हूँ कि इस साहित्यकार में कोई शक्ति अवश्य है। ऐसे ही महापुरुषों ने इधर-उधर से 'प्रकाश' लेकर हिन्दी साहित्य पर डाला। इसी कैड़े के एक सज्जन ने पन्त जी पर औरों की अपेक्षा अच्छा 'प्रकाश' डाला है। क्या इन्हीं लोगों को ध्यान में रखकर गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है—

    मनि मानिक मुक्ता, छवि जैसी,

    अहि गिरि गज सिर सोह तैसी।

    नृप किरीट तरुनी तन पाई

    लहहिं सकल सोभा अधिकाई।

    तैसइ सुकवि कवित बुध कहहीं,

    उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं।

    सचमुच ऐसे पुरुषार्थियों को यदि बधाई देने में संकोच हो तो दया के लिए मितव्ययिता करनी चाहिए। श्रीहर्ष को उदाराशय कहने में हमें इसलिए आगा-पीछा हो रहा है कि उसने इन परोपकारियों के साथ कोई अच्छा सलूक नहीं किया। जगह-जगह अपने काव्य में ग्रंथियों का नियोग करके उसने इन लोगों को व्यर्थ ही निरुत्साहित किया है।

    जब, 'कविः करोति काव्यानि स्वादं जानन्ति पंडिताः' उक्ति प्रचलित हुई होगी तब शायद इस प्रकार के पंडित रहे हों। कविता का भाव तो कुछ और है परंतु आलोचक महाशय की व्याख्या कुछ और ही ग़ज़ब ढा रही है; ऐसा प्रायः देखा जाता है। कुछ लोग कवियों को व्याकरण पढ़ाना चाहते हैं, कुछ यह चाहते हैं, कुछ वह चाहते हैं; सब अपनी हाँकते हैं।

    कहा जाता है, एक बार किसी चित्रकार ने एक सुंदर चित्र बनाकर विशेषज्ञों की सम्मति के लिए, उसे किसी विशेष स्थान पर टाँग दिया और लिख दिया कि इस चित्र में जिसे जहाँ जो त्रुटि दिखाई दे वहाँ पर निशान बना दे। परिणाम यह देखने में आया कि उस चित्र में निशान-ही-निशान रह गए; चित्र जाने कहाँ चला गया। यदि काव्य पर भी विशेषज्ञों की यही कृपा बनी रही तो काव्य की जगह विशेषज्ञता ही रह जाएगी।

    निराला जी कवि के साथ काव्य मर्मज्ञ भी अच्छे हैं; पर उनकी एक आलोचना देखिए। पंत जी की पंक्तियाँ हैं—

    झर-झर बिछते मृदु सुमन शयन

    जिन पर छन कम्पित पत्रों से

    लिखती ज्योत्स्ना कुछ जहाँ-तहाँ

    निराला जी को शंका होती है। पूछते हैं, फूलों की सेज पर ज्योत्स्ना क्यों लिखती है? सेज भी क्या लिखने की चीज़ है और यह ज्योत्स्ना कैसे लिखती है। फिर मज़ाक करते हैं : अच्छा माना, पत्ते ब्रोड निब जैसे होते हैं; लेकिन काँपते पत्तों से, निब से लिखना, कैसे संभव है? यहाँ निराला जी की प्रवृत्ति केवल छिद्रान्वेषिणी है, यह मेरा नम्र निवेदन है। देखिए चाँदनी रात है। शायद पूनो। हवा चल रही है। फूल एक-एक गिर कर बिछ रहे हैं। पेड़ के पत्ते हिल-डुल रहे हैं। इन्हीं हिलते डुलते पत्तों के बीच से ज्योत्स्ना छनकर कभी यहाँ, कभी वहाँ मानो कुछ लिख जाती है।

    शायद इस अर्थ पर निराला जी को आपत्ति हो। निराला जी केवल एक जगह चूके हैं, उन्होंने 'छन' पर ध्यान ही नहीं दिया और 'से' का अर्थ तृतीया विभक्ति के रूप में लिया।

    इससे प्रकट होता है कि काव्य का विषय बहुत नाज़ुक है। पूर्व धारणाओं से काव्यार्थ-बोध में प्रायः बाधा उपस्थित होती है। काव्यार्थ के लिए नियमित रूप से काव्य का पाठ और मनन करना चाहिए। किसी भी काव्य का अध्ययन करने से पहले आत्म-परीक्षा कर लेनी चाहिए। किसी भी प्रकार की संकीर्णता काव्य-सौंदर्य को अपहित कर लेती है। किसी कवि के प्रति विशेष श्रद्धा दूसरे कवि का स्वरूप-बोध नहीं होने देती। कभी-कभी विचार-विशेष से आग्रह से भी काव्य समझने में बाधा खड़ी होती है। अतएव काव्य-पाठ करने के पहले मन को प्रत्येक बाहरी प्रभाव से मुक्त कर लेना चाहिए।

    इसके अतिरिक्त यदि मन में शिथिलता, शांति या शून्यता हो तो भी काव्यानुशीलन करना चाहिए। चिंता और उद्विग्नता भी काव्य-सौंदर्य को परिच्छिन्न करती है। यदि मन पर किसी विशेष प्रकार के भावों अथवा विचारों की छाप पड़ चुकी हो तो भी काव्य का पाठ अनुपयुक्त है।

    शब्दों की शक्तियों का जितना ही अधिक बोध होगा अर्थबोध उतना ही सुगम्य होगा। इसके लिए पुरातन साहित्य का अनुशीलन तो करना ही चाहिए, समाज का व्यापक अनुभव भी प्राप्त करना चाहिए।

    कवि में जिस प्रकार विधायक कल्पना की आवश्यकता है उसी प्रकार पाठक में ग्राहक कल्पना की आवश्यकता होती है। पाठक की ग्राहक कल्पना का विकास प्रत्यभिज्ञा के आश्रय से होता है। जिसकी निरीक्षण शक्ति जितनी विकसित होगी उसकी भावना का भी परिपाक तदनुकूल ही होगा।

    अंत में हम आचार्य शंकर की इस उक्ति को तात्पर्य बोध के लिए लिए उद्धृत कर विराम ग्रहण करते हैं—

    अर्थमनर्थ भावय नित्यं

    नास्ति ततः सुखलेशः सत्यं

    स्रोत :
    • पुस्तक : हंस (पृष्ठ 483)
    • रचनाकार : त्रिलोचन
    • संस्करण : 1945

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