लघु उपन्यास

laghu upanyas

प्रेमशंकर

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लघु उपन्यास

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    विश्व-साहित्य में जहाँ एक ओर Les Miserables, War and Peace, Wilhelm meister, Gone with the Wind, 'गोदान' आदि उपन्यासों की परंपरा है, वहीं हमें Sorrows of Werther. Adolphe, Strait is the G 'अरक्षणीया', 'त्यागपत्र' आदि लघु उपन्यास भी प्राप्त होते हैं।

    वृहद् और लघु उपन्यास का विभेद आकार के आधार पर है। प्रथम का आकार इतना विस्तृत होता है कि उसमें असंख्य घटनाओं और अनेक पात्रों की योजना सहज ही की जा सकती है। महाकाव्य की भाँति कभी-कभी उसका उद्देश्य एक युग-विशेष के समाज को बाँधने का होता है। अथवा उसके माध्यम से लेखक अपने संपूर्ण चिंतन को विस्तार से अभिव्यक्ति देना चाहता है। यही कारण है कि गेटे ने Wilhelm Meister की रचना में लगभग पचास वर्ष लगाए थे। लघु उपन्यास प्रायः जीवन अथवा समाज के किसी विशेष प्रश्न को लेकर चलता है और उसी के अनुसार समस्त नियोजना रहती है। किसी बृहद् उपन्यास के द्वारा लेखक समाज को अपनी परिधि में समेट लेने का प्रयास करता है। यदि यह संभव नहीं होता तो वह किसी एक समस्या पर तो बहुत विस्तार से विचार कर ही डालता है। ‘वॉर एंड पीस’ के माध्यम से टॉलस्टॉय मानों असंख्य सामाजिक स्थितियों और मानव-प्रवृत्तियों को व्यक्त करना चाहता है। लघु उपन्यास के पास एक सीमित आकार होता है और एक नाटककार की भाँति उसे छोटे-से रंगमंच को ध्यान में रखकर निर्माण करना होता है। इस सीमा और विवशता के कारण लघु उपन्यास का लेखक प्रभावांविति का विशेष ध्यान रखता है।

    लघु उपन्यासकार कथावस्तु में संगठन लाने का कार्य केवल कल्याण के आधार पर नहीं कर सकता। जीवन के जिस अंग-विशेष को वह अंकित करना चाहता है उसका साक्षात्कार उसके लिए आवश्यक है, अन्यथा उपन्यास में संवेदनशीलता का अभाव रहेगा। इस प्रत्यक्ष अनुभव के कारण ही कभी-कभी लघु उपन्यास व्यक्तिगत अनुभूति तथा आत्म-कथा की सीमा तक का स्पर्श कर लेते हैं। Sorrows of werther की प्रेरणा Lotte Buff वह स्नेह है जिसे आजीवन महाकवि भूल सका। स्वयं गेटे ने इस उपन्यास के विषय में कहा था कि ‘मेरी व्यक्तिगत अनुभूतियों ने इसे जन्म दिया है।' इसी प्रकार Benjamin Constant के उपन्यास Adolphe की विवेचना (The Conquest of Death) करते हुए Middleton Murry ने लिखा है कि “यह एक हृदयद्रावक कथा है। प्रेम के मनोविज्ञान की यह अंतर्भेदिनी व्याख्या है।” इसकी प्रेरणा लेखक को अपने अंतरंग सखा Mme Talme से प्राप्त हुई थी। एक प्रकार से ये दोनों ही प्रभावशाली लघु उपन्यास लेखक की आत्म-स्वीकृति से बन गए हैं।

    इस प्रकार इन कतिपय लघु उपन्यासों की प्रेरणा-भूमि में जाने से ज्ञात होता है कि इनमें लेखक अपने व्यक्तित्व को कभी-कभी छिपाकर नहीं रख पाता। उसकी व्यक्तिगत अनुभूतियाँ बरबस ही बाहर जाती हैं। बृहद् उपन्यास प्रायः वर्णन-प्रधान होता है, किंतु लघु उपन्यास में भावों और विचारों को अधिक स्थान मिलता है। इस विचार-प्रधानता के कारण नए साहित्य में एक बार पुनः उपन्यासों की ओर लोगों का ध्यान गया है।

    ध्यान से देखने पर ज्ञात होगा कि लघु उपन्यास एक प्रकार से किसी स्वप्न को बाँधने का प्रयास करता है। यह जिस चित्र को प्रस्तुत करना चाहता है, वह यदि सघन हुआ तो असफल रह जाता है। कथानक की इस संग्रथित योजना के अनुसार ही पात्रों की भी सृष्टि करनी पड़ती है। पात्रों की संख्या उसमें कम रहती है, किंतु इन पात्रों के व्यक्तित्व का निर्माण करने में लेखक को बड़ी सावधानी से कार्य करना पड़ता है। प्रमुख पात्र लघु उपन्यास में एक प्रकार से नियामक का काम करता है और इसी कारण वह आकर्षण का केंद्र बन जाता है। पात्रों का व्यक्तित्व सृजन करने में लेखक को इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि वह अधिकाधिक संवेदनशील हो और उसमें कोई विशेष गुण हो। हरवर्ड रीड के शब्दों में ‘संभव है उसमें चरित्र (कैरेक्टर) हो, पर व्यक्तित्व (पर्सनालिटी) का होना आवश्यक है।' व्यक्तित्व के अभाव में ये पात्र केंद्रगत प्रभाव सहायक नहीं हो सकते और सहज आकर्षण से वंचित रह जाते हैं। पात्रों में रंग-रूप भरने के लिए कुशल मनोवैज्ञानिक का कार्य लेखक को करना पड़ता है क्योंकि कभी-कभी मनोवृत्तियों के प्रकाशन से ही चरित्रांकन हो जाता है और कथानक को भी गति प्राप्त होती है। लघु उपन्यास के पात्रों को अधिक प्रभावशाली बनाना पड़ता है। उदाहरण के लिए हम 'रघुवंश' महाकाव्य और 'मेघदूत' गीति-काव्य को ले सकते हैं। महाकाव्य में संपूर्ण रघु-परंपरा ही हमारा ध्यान आकृष्ट करती है, किंतु 'मेघदूत' में हमारी समस्त चेतना यक्ष पर ही केंद्रित हो जाती है। बृहद् उपन्यास और लघु उपन्यास के पात्रों में भी यही विभेद होता है। पात्रों के इस मार्मिक चरित्रांकन का प्रत्यक्ष उदाहरण ‘सारोज ऑफ वर्थर' में मिल जाता है। गेटे के जीवनी-लेखक Emile Ludwing ने लिखा है कि “जिस समय यह छोटा-सा उपन्यास प्रकाशित हुआ, जर्मनी में एक हलचल-सी मच गई थी। युवकों ने वर्थर की भाँति कपड़े पहनना आरंभ कर दिया था और युवतियाँ अपने को Charlotte की भाँति सजाने लगी थीं। जर्मनी में आत्म-हत्या की संस्थाएँ तक खुल गई थीं। लघु उपन्यास में प्रमुख नायक ही कथा का सूत्राधार होता है और उसके चरित्रांकन पर ही उपन्यास की सफलता-असफलता निर्भर रहती है।

    लघु उपन्यासों के पात्रों को विशेषतया प्रमुख पात्र को कभी-कभी असाधारण भी बनना पड़ता है। यह असाधारणता किसी कुंठा के कारण भी हो सकती है, किंतु उसका उद्देश्य पात्र को एक विशिष्टता प्रदान करना ही होता है। उसके व्यक्तित्व में, कतिपय ऐसे तत्वों का समावेश करना पड़ता है, जो उसकी अपनी संपत्ति हो और जिनके कारण वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व प्राप्त कर सके। यह भी ध्यान रखना होगा कि यह असाधारणता पागलपन की उस सीमा तक पहुँच

    1. Adolphe is a deeply moving story, it is also penetrating analysis of the psychology of love.

    जाए कि उसका मानव-मूल्य ही रहे। वास्तव में प्रमुख पात्र को एक सत्य लेकर चलना पड़ता है जिसके मध्य उसके जीवन के समस्त आदि-अंत सन्निहित रहता है। व्यक्तिगत गुणों के साथ ही वह किसी ऐसे सत्य की खोज में लगा रहता है, जिसमें सामाजिक तत्त्व भी हों। 'Strait the Gate' में एक स्थान पर Jerome को पत्र लिखते हुए Alissa ने लिखा है ‘'हमारी महत्त्वाकांक्षा विद्रोह नहीं, सेवा होनी चाहिए'’ (Our ambition should be not in revolt, but in service)। लघु उपन्यास के पात्रों को स्वयं से संघर्ष करते हुए देखा जा सकता है क्योंकि इसी से उनका व्यक्तित्व निखरता है। यह चरित्रगत आंतरिक द्वंद्व यदि उनके सामाजिक कार्य में बाधा नहीं बनकर आता, तो निस्संदेह उपन्यास अपने मार्मिक प्रभाव में सफल होता है। Adolfe में Ellenose का आंतरिक संघर्ष उपन्यास को मार्मिकता प्रदान करता है, प्रेरणामय बना देता है। Martin Turnell ने उसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि लेखक ने संसार की यातनाओं से रक्षा करने के लिए उसे चुना है। इस प्रकार लघु उपन्यास में पात्रों का चरित्रांकन लेखक से विशेष कला-कौशल की माँग करता है।

    लघु उपन्यास का लेखक अधिकांश दृष्टियों से नए प्रयोग कर सकता है। वह वास्तव में इस माध्यम से किसी नई मान्यता को जन्म दे सकता है। पात्रों के असाधारण व्यक्तित्व के मूल में प्रायः यही भावना छिपी रहती है। चरित्रांकन के अतिरिक्त शैली के नवीन प्रयोग भी किए जा सकते हैं। लेखक को इसका पूरा अवसर रहता है और प्रायः कुशल कथाकार इसका उचित प्रयोग कर लेते हैं। लघु उपन्यास के माध्यम से उपन्यासकार एक नई टैक्नीक प्रस्तुत कर सकता है। यह शैली यदि एक ओर कथा को रोचकता प्रदान करती है तो साथ ही उसके प्रभावोत्पादन में भी सहायक होती है। डायरी शैली में लिखे जाने के कारण ‘वर्थर' में भावों का उद्वेग अधिक मुखर हो सका है। उसके द्वारा वर्थर का भावावेश और उसकी संपूर्ण मनःस्थिति का आभास मिलता रहता है। उपन्यास के अंत तक आते-आते यह आवेश अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाता है। उसकी स्थिति कुछ-कुछ ‘लस्ट फ़ॉर लाइफ़' के उस विन्सेंट की भाँति हो जाती है जो मृत्यु को चित्रित कर पाने की विवशता में आत्महत्या कर लेता है। रात्रि के ग्यारह बजे के अनंतर लिखता हुआ वर्थर कहता है, ‘‘मेरे चारों ओर निस्तब्ध नीरवता है और मेरी आत्मा शांत है। ईश्वर, मैं भी तुझे धन्यवाद देता हूँ कि तूने मुझमें इतना साहस और शक्ति भर दी कि मैं इन अंतिम क्षणों को देख सकूँ।” एक साथ अनेक प्रश्न वह स्वयं से करता है और इस प्रकार Charlotte के प्रति अपने स्नेह की अंतिम बूँद बिखेरकर स्वयं को निश्शेष कर देता है।

    लघु उपन्यासों के विषय में सबसे अधिक आक्षेप यह लगाया जाता है कि उनके छोटे कलेवर के कारण उनमें किसी भारी प्रश्न को सुलझाना संभव नहीं है। साथ ही, यह भी कहा जा सकता है कि भावना की प्रधानता के कारण उनमें किसी 'स्वस्थ जीवन-दर्शन' को नहीं प्रस्तुत किया जा सकता। उसमें भावुकता अधिक रहती है, विचारों का प्रकाशन कम। इस प्रकार की शिकायत करने वाले अधिकांश समीक्षक नई मान्यताओं और नई शैलियों के स्वागत को तैयार नहीं होते। स्वस्थ जीवन-दर्शन एक ऐसा अद्भुत शब्द है कि उसकी परिभाषा और सीमा निर्धारित करने में भी कठिनाई होती है। बदलती हुई सामाजिक मान्यताओं के बीच कथाकार से इस प्रकार की माँग कुछ अनावश्यक प्रतीत होती है। यदि उपन्यासकार किसी वेश्या के जीवन को उपन्यास के माध्यम से प्रस्तुत करना चाहता है तो उसके लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह संपूर्ण चित्र का स्वाभाविक अंकन करे। उदात्तीकरण के साथ ही उसे यह भी ध्यान रखना होगा कि रस-निष्पत्ति में किसी प्रकार की बाधा प्रस्तुत हो। केवल बाह्य रूपरेखा से ही काम नहीं चल सकता, उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करनी होगी। यथार्थ की रक्षा के लिए हर प्रकार का जीवन-दर्शन सम्मुख रखना पड़ता है। जहाँ तक उद्देश्य का प्रश्न है मैं स्वीकार करता हूँ कि बृहद् उपन्यास समाज का एक पर्यवेक्षण करके अपनी राय जाहिर कर सकता है। इस दृष्टि से 'वॉर एंड पीस' अथवा 'गोदान' का सदैव महत्त्वपूर्ण स्थान रहेगा, और वे लेखक की प्रतिनिधि कृतियाँ कही जाएँगी क्योंकि वे इन मनीषियों के संपूर्ण चिंतन का फल हैं। पर केवल भारी आकार के आधार पर यह अनुमान नहीं किया जा सकता है कि प्रत्येक बृहत् उपन्यास समाज पर गहरी दृष्टि डालकर किसी परिपुष्ट और स्वस्थ जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करेगा ही। 'चंद्रकांता संतति' के तिलिस्म को छोड़ दें, तो भी अनेक ऐसे भारी-भरकम उपन्यास मिलते हैं जिन्हें आदि से अंत तक पढ़ जाने पर एक भारी शून्य ही हमारे हाथ लगता है। हिंदी में काल के कुछ उपन्यासों से, जिनमें से कुछ प्रतिष्ठित कथाकारों ने लिखे हैं, इसी प्रकार निराशा प्राप्त होती है।

    साहित्य का इतिहास इस बात का साक्षी है कि रचना की विभिन्न शैलियाँ एक प्रकार से युग और समाज की माँग होती हैं। विभिन्न मानव-मूल्यों को अभिव्यक्ति देने के लिए नए शिल्प-विधान का निर्माण करना होता है। जिस प्रकार महाकाव्य के द्वारा प्राचीन महाकवि एक दीर्घ परंपरा और विस्तृत समाज को अंकित करते थे, उसी प्रकार बृहद् उपन्यासों के मूल में भी यही महत्त्वाकांक्षा दिखाई देती है। उसके द्वारा लेखक अपने समस्त अनुभव को अभिव्यक्ति देना चाहता है। लघु उपन्यास एक-दो प्रश्नों को लेकर चलते हैं और समाज में बढ़ती हुई समस्याओं के साथ-ही-साथ उनकी माँग बढ़ जाना भी स्वाभाविक ही है। बात यह है कि समाज के अनेक प्रश्नों, असंख्य समस्याओं और सभ्यता के साथ बढ़ जाने की अनगिनत जटिलताओं को किसी एक ही बृहद् उपन्यास में प्रस्तुत कर देना किसी एक कथाकार के बूते का काम नहीं है। यदि महान् लेखक भी आज के जटिल समाज में इस प्रकार का प्रयास करना चाहे, तो वह एक चलती नज़र डालने के अतिरिक्त कुछ कर पाएगा। वह उपन्यास एक चार्ट अथवा डाइरेक्टरी बन कर रह जाएगा। उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करने के लिए लेखक का रसमय हो जाना तथा पात्रों में डूबकर उनके व्यक्तित्व का निर्माण करना आवश्यक है। बृहद् उपन्यास में दूरी देखने को मिल जाती है, पर लघु उपन्यास के लिए गहराई (इनटेंसिटी) आवश्यक है। समाज का बाहरी खाका खींचने में भूल के रूस के अधिकांश आधुनिक उपन्यास डायरेक्टरी बन कर रह गए हैं। किंतु संपूर्ण प्रचार-भावना के होते हुए भी उनकी कहानियाँ अधिक संवेदनशील हैं। 'I choose Peace' के दीर्घ कलेवर में भी पाठक शांति की मूल चेतना को नहीं खोज पाता। किसी एक भावना को अभिव्यक्त करने के लिए लघु उपन्यास एक अधिक अच्छा माध्यम हो सकता है क्योंकि उसमें केंद्रगत भाव सहज ही निर्मित किया जा सकता है।

    संभव है लघु उपन्यास किसी महत्त्वाकांक्षी कथाकार की रचना का प्रमुख माध्यम बन सके, परंतु इतना निश्चित है कि उसके द्वारा किसी विशेष संश्लिष्ट चित्र को उतारा जा सकता है साथ ही उसमें कतिपय नई मान्यताओं के साथ अधिक न्याय भी किया जा सकता है। जहाँ तक लघु उपन्यासों के उद्देश्य का प्रश्न है, मैं एक-दो उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूँगा। 'सरोज ऑफ वर्थर' के प्रकाशन के अनंतर जब गेटे ने देखा की उसकी निराशाजनक परिसमाप्ति का प्रभाव जनता पर ठीक नहीं पड़ रहा है, (क्योंकि आत्म-हत्याओं की बाढ़ सी गई थी) तो कुछ समय पश्चात् उसने स्वयं परिवर्तन कर दिए थे। अब अपने वर्तमान रूप में वह निराशा के बीच में आशा का संदेश देता है। उसका अंतिम वाक्य इस प्रकार है “वृद्ध पुरुष और उसके लड़के शव के साथ कब्र तक आए। अलबर्ट जा सका। Charlotte का जीवन संकट में था श्रमिकों ने शव को ढोया। कोई पादरी साथ था।” 'Strait is the Gate' में धर्म और प्रेम का जो संघर्ष अंकित है, वह एक प्रकार से नई और पुरानी मान्यताओं के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। यद्यपि नायक की करुणाजनक स्थिति का अंकन बड़े ही हृदय द्रावक शब्दों में किया गया है, किंतु उपन्यास का उद्देश्य निराशा की सृष्टि नहीं है। Dorothy Bussy ने उसके विषय में कहा है कि वह एक सुदंर कृति है।'

    लघु उपन्यास के इन मूल उपादानों की चर्चा के अनंतर मैं हिंदी के लघु उपन्यासों पर एक विहंगम दृष्टि डालना चाहूँगा। 'गोदान' जैसे महा उपन्यास के लेखक की ही कृति 'निर्मला' है। 'गोदान' हमारा प्रतिनिधि उपन्यास है, किंतु विस्तार के कारण उसमें अनेक पात्र और घटनाएँ निरर्थक प्रतीत होती हैं। 'निर्मला' की कथावस्तु अधिक सुगठित है। शरत् के 'श्रीकांत' की अपेक्षा ‘अरक्षणीया' में इसी कारण मार्मिकता अधिक है। चरित्र को इतनी संवेदनशील और सहानुभूतिपूर्ण रेखाओं से निर्मित किया गया है कि उसका प्रभाव अधिक द्रावक होता है।

    जैनेंद्र अपने ‘त्याग-पत्र' द्वारा जिन नैतिक मूल्यों की स्थापना करना चाहते हैं, यद्यपि उसमें उन्हें पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी है, फिर भी एक नया दृष्टिकोण हमें देखने को प्राप्त होता है। आरंभ में जिज्ञासा और कौतूहल के लिए लिखे गए दो-चार शब्द इसके प्रमाण हैं कि जैनेंद्र कथा कहने में कितने कुशल हैं। कम-से-कम हिंदी के लिए, अपनी सारी कमियों के बावजूद 'त्याग-पत्र' एक नई दिशा का सूचक अवश्य रहा है, शैली और चरित्रांकन के कारण।

    'चित्रलेखा' अपेक्षाकृत अधिक बड़ा उपन्यास है, फिर भी उसके विषय में भी यही कहा जा सकता है कि एक नई शैली देखने को हमें मिली। इन नवीन शैलियों के साथ ही यदि उपन्यासकार नई मान्यताओं को अभिव्यक्ति दे सके, तो उसकी कृति निस्संदेह सफल होगी। हाल ही में लिखे गए डॉ. धर्मवीर भारती का 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' और डॉ. देवराज का ‘बाहर-भीतर' शैली की दृष्टि से नए प्रयोग हैं। यहाँ इतना अवसर नहीं है कि हिंदी के इन कतिपय लघु उपन्यासों की विस्तृत विवेचना की जा सके; क्योंकि वह एक स्वतंत्र निबंध का विषय है, किंतु मैं इस दिशा में इतना संकेत अवश्य करना चाहूँगा कि आज की अवस्था में लघु-उपन्यास प्रयोग का सबसे अच्छा माध्यम हो सकता है।

    (आलोचना, अक्टूबर 1954 से)

    फुट प्रिंट -

    1. The old man and his son followed the body to the grave. Albert could not. Charlotte's life as danger. The body was carried by workmen. No clergyman attended.

    2. It's has a lucid Clarity a simplicity a directness, a beauty and sweetness of thought and a musical expression.

    -Dorothy Bussy

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रेमशंकर

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