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जनभाषा और काव्यभाषा

janbhasha aur kavybhasha

त्रिलोचन

अन्य

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त्रिलोचन

जनभाषा और काव्यभाषा

त्रिलोचन

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    कविता में हर पीढ़ी के कवियों ने भाषा पर विचार किया है और यह विचार आज भी होता रहता है। सवाल है कि ऐसी क्या स्थिति जाती है जिसके कारण भाषा के तौर-तेवर देखने और पहचानने की कोशिश चलती रहती है। भाषा पर अलग से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि विस्तार इतना हो जाएगा कि सँभाल में आए। फिर भी निवेदन है कि भाषा के अंतर्गत उन तमाम रूपों को ले लिया जाए जो समाज के विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों में परस्पर संचार के माध्यम हैं। यह बात भी ब्यौरा चाहती है, पर उसे संकेत करके छोड़ देना ही अच्छा होगा।

    लेख हिन्दी में है। ज़ाहिर है, हम हिन्दी की बात करेंगे। हिन्दी का एक रूप किताबों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो और सिनेमा आदि में मिलता है जो बहुत कुछ सभ्य परिवेश के अनुबंधों का निर्वाह करता है। इस हिन्दी का दूसरा रूप खड़ी बोली सहित उन अनेक उपभाषाओं का है जिनका कामकाज में अधिक और लेखन में नगण्यप्राय उपयोग होता है। आज के साहित्य-समीक्षक इस अनेकात्मक रूप को हिन्दी में गिनने को तैयार नहीं। परिणाम है, उपभाषाओं का क्षेत्रीय आंदोलन। एक ओर पूरे देश की सांस्कृतिक एकता की बात, दूसरी ओर उच्चता के दंभ से हिन्दी के अन्य अंगों को काटने की प्रवृति।

    उपभाषाओं को जनभाषा कहने में संकोच की गुंजाइश नहीं। अंचल-अंचल में जनसमूह इनका व्यवहार करता है। यह भी सच है कि आधुनिक हिन्दी भी सार्वजनिक भाषाओं के अलावा उपभाषाओं के आसपास भीतर-बाहर प्रयोग में मिल जाती है। आधुनिक हिन्दी वह परिमार्जित भाषा है जिसमें सभी उपभाषाओं के प्रयोगों का अपने अनुशासन में समाहार है। यह हिन्दी शिक्षित होने की पहचान है। जाहिर है कि इस पहचान में अलगाव है। यह अलगाव दूसरों के ग़लत प्रयोगों पर रोक-टोक करने से दैनिक जीवन में प्रकट होता रहता है। यानी, आधुनिक हिन्दी वह सामान्य भाषा है जिसका समाज के अनेक स्तरों पर पार्थक्यविशिष्ट एक सर्व-स्वीकृत व्यवस्था विधान है।

    काव्य की दृष्टि से तो नहीं, पर भाषा के अर्थों की दृष्टि से द्विवेदी युग के कवियों ने हिन्दी के सहज रूप को रखा है। छायावाद काल में काव्य का स्तर ऊँचा हुआ है किंतु भाषा घायल दिखाई देती है। संस्कृत गर्भित वाक्यों में हिन्दी का स्वरूप खुलता नहीं दिखाई देता। इस भाषा की प्रतिक्रिया गोपालसिंह नेपाली, नरेंद्र शर्मा, बच्चन और अंचल जैसे कवियों द्वारा प्रकट हुई। पर कविता केवल आभोग के घेरे में संयोजन का समर्थ माध्यम नहीं बनती। केवल अपने आनंद और विषाद के माध्यम से अधिक लोगों को अपना ही बनाया जा सकता। प्रगतिवाद ने भाषा की सरलता का आग्रह किया जो उथलेपन से कम बचा। विद्रोह भी बहुधा शब्दमय ही मिलता है। कवियों ने व्यापक समाज से संबंध बनाया होता तो यह ख़तरा टल जाता। प्रयोगवाद में वैयक्तिक आग्रह और शालीनता का विशेष मोह छायावादी प्रवृत्तियों से अधिक दूर नहीं है। '50 के बाद के कवियों ने कुछ सँभालकर डग भरने का प्रयास किया। इसी समय उर्दू-कवियों के संकलन, वैयक्तिक और सामूहिक, हिन्दी में प्रकाशित होने लगे। इनका असर लेकर हिन्दी काव्यभाषा ने हिन्दी समाज से नाता जोड़ा। फिर भी कवियों की संस्कार-निर्मित सीमाएँ उन्हें घेर-घेरकर कहीं और कर देती थीं। लोकगीतों के अनेक संकलनों ने समाज को और गहराई से समझने का मौक़ा दिया जिसका परिणाम कुछ अच्छा हुआ।

    भारतीय भाषाओं और विदेश के कवियों के अनुवाद भी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में आते रहे जिनका प्रभाव मौलिक रचनाओं पर छिपा नहीं है। हमारा विचार है कि यह काल ऐसे लोगों का है जो मार्ग की खोज में व्याकुल तो हैं पर भटक भी गए हैं। इधर भारतीय या हिन्दी कवियों के अँग्रेज़ी में भी कुछ संकलन देश और विदेश में प्रकाशित हुए हैं। रचनाओं को अनूदित देखकर कवियों और उनके मित्रों को आनंद हो सकता है लेकिन जिस भाषा में ये कविताएँ लिखी गई हैं उस भाषा में इनका क्या स्थान है—इसका कोई उत्तर नहीं मिलता। हिन्दी में वह आत्मविश्वास आने में अभी विलंब है; जब लोग कह सकें कि ये कविताएँ हिन्दी में ऊँची हैं।

    हिन्दी में कबीर अकेले ऐसे कवि हैं जो अपने ही कथ्य के कारण महत्त्वपूर्ण हैं। शास्त्र वे जानते नहीं थे और लोक के अनुबंधों की उन्होंने चिंता नहीं की। भाषा उनके द्वारा ऐसे रूप में आई है जिसे अनियमित पाकर पंडितों को खीझ होती हैं पर यह भाषा कथ्य के लिए इस प्रकार अनिवार्य है कि उसमें ज़रा भी संशोधन कथ्य को निस्तेज कर देगा। अनियमित हिन्दी के विभिन्न प्रदेशों के, विभिन्न नगरों में, भिन्न-भिन्न रूप सुनायी पड़ते हैं जिनका समर्थ उपयोग करने वाला कहीं एक भी कवि नहीं। यानी इतने सारे वादों-विवादों के बाद भी हिन्दी के सिर चढ़ा मर्यादावाद ज्यों का त्यों है।

    जनभाषा पर कुछ भी कहने के पहले यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वह बहता नीर है। केवल सामाजिक संबंधों से ही उसे जाना और पहचाना जा सकता है और विवेकपूर्ण संतुलन से ही उसे काव्य का समर्थ माध्यम बनाया जा सकता है। इसके लिए कोई ख़ास नियम या विधान नहीं है। वैयक्तिक विवेक या शक्ति ही इसका निर्णायक तत्त्व है। ध्यान देने की बात है कि विद्यापति, सूर और तुलसी जैसे महाकवियों की सहायता के लिए मैथिली, ब्रजभाषा और अवधी के महाकोश या लघुकोश भी तब नहीं थे। उनकी रचनाओं की व्यापकता उनके प्रगाढ़ जन-संबंधों की मूल गाँठ है। आज जब इतने सारे कोश हैं, व्याकरण हैं, लोकसाहित्य विषयक इतने ग्रंथ हैं तब रचनाकारों की असमर्थता प्राणवंत संबंधों के अभाव के कारण ही है। जनभाषा-राष्ट्रभाषा आदि अनेक भाषाओं की बात सुनने और पढ़ने को जहाँ-तहाँ मिलती रहती है, किंतु चलती भाषा पर पंडितों की निगाह नहीं जाती। हिन्दी का रचनाकार भी बहुत कुछ इसी भरम में है।

    कविता द्वारा पेश किया गया चित्र या चरित्र जिस क्षेत्र या वर्ग का होगा यदि उसका निरूपण यथातथ्य हुआ तो कविता निराधार हो जाएगी। शब्दों का व्याकरण से भी ऊपर सामाजिक संदर्भ होता है, जिसका अनुसंधान हर रचनाकार को अलग-अलग करना पड़ता है। मज़दूरों पर लिखी गई कविता सभ्य समाज पर लिखी गई कविता से भिन्न होगी ही और स्पष्ट है कि पंडितों को छोड़कर उसका आनंद मज़दूर विशेष उठा सकेंगे। मज़दूरों को बिना जाने उन पर प्रोत्साहन की ही कविताएँ लिखी जा सकती हैं। किसान-जीवन की मार्मिक व्यंजना में रामनरेश त्रिपाठी जितने समर्थ मिलते हैं उतने मैथिलीशरण गुप्त नहीं। यह अंतर अनुभव के कारण है। त्रिपाठी ने सहानुभूति के कारण किसानों पर कृपा नहीं की; बल्कि अभिन्न भाव से उनमें जीवन देखा। ध्यान देने की बात है कि 'अभिन्न भाव' ही कविता को कविता बनाता है।

    इन दिनों भाषा के प्रचलित अनेक रूपों को जन-जीवन सहित देखने की आवश्यकता है। यदि यह शर्त किसी के द्वारा पूरी हुई तो हिन्दी की कविता को वास्तविक भाषा पाने में विलंब नहीं। पुरानी भाषा, जिसे काव्य-भाषा कहकर पढ़ा और पढ़ाया जा रहा है, वर्तमान रचनाधर्मी के प्रयोजन की वस्तु कम ही है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पूर्वग्रह, अंक 75 (पृष्ठ 492)
    • रचनाकार : त्रिलोचन
    • संस्करण : 1986

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