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साहित्य का प्रयोजन—आत्मानुभूति

sahitya ka prayojan—atmanubhuti

नंददुलारे वाजपेयी

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साहित्य का प्रयोजन—आत्मानुभूति

नंददुलारे वाजपेयी

और अधिकनंददुलारे वाजपेयी

    साहित्य का प्रयोजन आत्मानुभूति है, यहाँ 'प्रयोजन' और 'आत्मानुभूति' शब्दों पर पहले विचार कर लेना आवश्यक है। 'प्रयोजन' शब्द कभी निमित्त के अर्थ में आता है, और कभी उद्देश्य के अर्थ में व्यवहृत होता है। इससे कभी हेतु या कारण का अर्थ लिया जाता है, और कभी फल या कार्य का। विशेषकर हिंदी में इसके प्रयोगों में बड़ी विभिन्नता है। यहाँ हम इसका प्रयोग हेतु या प्रेरक के अर्थ में ही कर रहे हैं। आत्मानुभूति साहित्य का प्रयोजन है, इसका अर्थ हम यह लेते हैं कि आत्मानुभूति की प्रेरणा से ही साहित्य की सृष्टि होती है।

    'आत्मानुभूति' शब्द भी निश्चयार्यक नहीं है। इसके प्रयोग में भी बड़ा मतभेद है। यह दर्शन शास्त्र का शब्द है, परंतु कुछ दार्शनिक तो इस शब्द को ही स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है कि आत्मा के साथ अनुभूति का संबंध ही नहीं है, अतः ये दोनों शब्द एक साथ नहीं रह सकते। आत्मा निरपेक्ष तत्त्व है और अनुभूति सापेक्ष गुण है। निरपेक्ष तत्त्व का सापेक्ष वस्तु से काई योग नहीं हो सकता। अखंड, अज, अव्यय, नित्य, अविकारी, आत्मा से सीमित व्यक्तिगत अथवा समूहगत अनुभूति का संबंध संभव नहीं है। 'न जायते म्रियते वा कदाचि त्रायं भूत्वा भविता वा भूयः। त्रिकाल में भी उत्पन्न होनेवाली और मरनेवाली आत्मा से देश काल परिच्छिन्न अनुभूतियों की क्या संगति?

    जहाँ एक ओर यह धारणा या मत है, वहीं दूसरी ओर आत्मा और अनुभूति का परस्पर संबंध माननेवाले दार्शनिक और विचारक भी हैं। यदि पहला तत्त्वज्ञान उपनिषद् और गीता का है, तो दूसरे मत की प्रतिष्ठा भी उपनिषद् और गीता से ही की जाती है। भारतीय तत्त्व-चिंतन में पुरुष और प्रकृति के साथ-साथ आत्मा और अनुभूति का सापेक्ष संबंध स्थिर करनेवाले अनेक आचार्य हैं। विशेषकर द्वैतवादी दर्शनों में इस प्रकार की विचार-भूमिकाएँ मिलती हैं। शक्ति- सिद्धांत को माननेवाले संप्रदाय जो अपने मत-चितन को शक्ति-अद्वैत के नाम से घोषित करते हैं, आत्मा को शक्ति रूप ही स्वीकार करते हैं। उनके विचार में शक्ति ही आत्मा है; अनुभूति शक्ति है, अतः अनुभूति ही आत्मा है।

    इस प्रकार आत्मा और अनुभूति के संबंध की अनेकरूपता का आभास हमें भारत को विभिन्न चिंता-धाराओं से प्राप्त होता है। हम यहाँ किसी एक मत को स्वीकार करने या दूसरे मत का तिरस्कार करने की दृष्टि से इस दार्शनिक चर्चा में नहीं पड़े हैं। हमारा प्रयोजन केवल आत्मानुभूति शब्द और उसके अर्थ पर दृष्टिपात करना है, और हम देखते हैं कि इस शब्द को लेकर दार्शनिकों में मतैक्य नहीं है। मतैक्य तो दूर, आत्मा और अनुभूति के पारस्परिक संबंध को लेकर सभी संभव दृष्टियों के स्थापन की चेष्टाएँ की गई हैं, जिनमें साम्य या समन्वय ढूँढ़ने का प्रयास हम यहाँ नहीं कर सकेंगे। एक ओर निरपेक्ष और स्वाधीन आत्म-तत्त्व के साथ त्रिकाल में भी अनुभूति का कोई संबंध माननेवाले अद्वैत दार्शनिक हैं, दूसरी ओर अनुभूति के बिना आत्मा की सत्ता ही स्वीकार करनेवाले शक्ति तंत्र के संस्थापक आचार्य हैं और इन दोनों के मध्य आत्मा और अनुभूति का बहुरूपी संबंध स्थिर करनेवाले सापेक्षवादी द्वैत चिंतक हैं। हम इस अंतहीन विचार-व्यूह में प्रवेश करने में अभिमन्यु की भाँति ही शंकित हैं, अतएव हम इससे विरत रहकर ही संतोष करेंगे।

    सच तो यह है कि हमें इस दार्शनिक ऊहापोह में जाने की आवश्यकता ही नहीं है। हमारा प्रस्तुत विषय इसकी अपेक्षा नहीं करता। आत्मानुभूति के स्थान पर हमारा काम केवल अनुभूति से चल सकता है। अतः हम आत्मानुभूति के शब्द-प्रपंच में पड़कर 'अनुभूति' से ही काम निकालेंगे।

    काव्य की प्रेरणा अनुभूति से मिलती है, यह स्वतः एक अनुभूत तथ्य है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस का निर्माण करते समय लिखा था—'स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा निबंध मति मंजुल मातनोति'। यहाँ 'स्वांतः सुखाय' से उनका तात्पर्य आत्मानुभूति या अनुभूति से ही है। रस-सिद्धांत का निरूपण करनेवाले शास्त्रज्ञों ने काव्य का उपादान विभाव, अनुभाव, संचारीभाव आदि को बताया है। साहित्य मात्र के मूल में अनुभूति या भावना कार्य करती है, यह रस सिद्धांत की प्रक्रिया से स्पष्ट हो जाता है।

    हम एक नाटक का अभिनय देखते हैं जिसमें अनेक पात्र भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में उपस्थित होकर परस्पर वार्तालाप करते हैं और अनेक परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराते हुए नाटकीय व्यापार को आगे बढ़ातें हैं। इसमें हमें नाटककार की अनुभूति प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती, परंतु यह स्पष्ट है कि प्रत्येक पात्र की अनुभूति के रूप में रचयिता की अनुभूति काम करती रहती है। हम कोई उपन्यास पढ़ते हैं, जिसमें विविध व्यक्तियों की दैनिक घटनावली का चित्रण रहता है। पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि हम जीवन के वास्तविक रूप को ही देख रहे हैं और उन घटनाओं का परिचय पा रहे हैं जो वास्तव में घटित हुई हैं। हम इस ऊपरी जीवन-व्यापार में रचयिता की सत्ता को भूल जाते हैं, पर क्या उसकी अनुभूति के बिना वह रचना किसी प्रकार संभव है? क्या सृष्टा की अनुभूति से रहित काव्य-सृष्टि की कल्पना भी की जा सकती है?

    काव्य में अनुभूति की इस व्यापकता का निर्देश करने में भारतीय साहित्य शास्त्र का ध्वनि-सिद्धांत अत्यंत उपयोगी है। वह प्रमुख रूप से इसी तत्व पर प्रकाश डालता है कि काव्य और साहित्य की बाहरी रूपरेखा के मर्म में आत्मानुभूति या विभावन व्यापार ही काम करता है। काव्य की संपूर्ण विविधता के भीतर एकात्म्य स्थापित करने वाली यही शक्ति है। संपूर्ण काव्य किसी रस को अभिव्यक्त करता है, और वह रस किसी स्थायी भाव का आश्रित होता है और वह स्थायी भाव रचयिता की अनुभूति से उद्गम प्राप्त करता है।

    यहाँ कुछ ऐसे प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनकी ओर हमें आवश्यक रूप से ध्यान देना पड़ता है। काव्य-साहित्य में अनुभूति की व्यापकता को स्वीकार करते हुए भी क्या हम उसे सम-रस या सम रूप कह सकते हैं? क्या समस्त कवियों और रचनाकारों की अनुभूति एकरूप या समान होती है? यदि नहीं तो क्या अनुभूति में स्वरूप-गत भेद होते हैं? इसके साथ ही दूसरा प्रश्न यह है कि साधारण अनुभूति और काव्यानुभूति एक ही हैं या उनमें भी अंतर है? अंतर है, तो किस प्रकार का? साधारणतः हम देखते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में कुछ कुछ अनुभूति होती है, परंतु प्रत्येक व्यक्ति में काव्य शक्ति नहीं होती। उसमें अपनी अनुभूतियों के प्रकाशन की क्षमता नहीं होती। तो क्या ये दोनों वस्तुएँ—अनुभूति और काव्यानुभूति—स्वरूपतः भिन्न हैं?

    यहाँ सुविधा के लिए हम दूसरे प्रश्न को पहले लेंगे। यह संभव है कि प्रत्येक व्यक्ति कवि नहीं होता, उसमें अपनी अनुभूतियों के प्रकाशन की योग्यता नहीं होती। पर इतने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि साधारण अनुभूति ओर काव्यगत अनुभूति दो भिन्न वस्तुएँ हैं। इस संबंध में वर्तमान युग के प्रसिद्ध कलाशास्त्री वेनिडीडो कोचे का मत ध्यान देने योग्य है। क्रोचे का कथन है कि अनुभूति वही है जो काव्य या कलाओं के रूप में अभिव्यक्त होती है। जिस अनुभूति में यह अभिव्यक्ति क्षमता नहीं है, वह वास्तव में अनुभूति होकर कोरी इंद्रियता या मानसिक जमुहाई मात्र है। वह अनुभूति जो आत्मिक व्यापार का परिणाम है, सौंदर्य रूप में अभिव्यक्त हुए विना रह ही नहीं सकती। उसे काव्य-स्वरूप ग्रहण करना ही पड़ेगा। क्रोचे के मत में अनुभूति अभिव्यक्ति ही है और अभिव्यक्ति ही काव्य है। यह तीनों अन्वर्य या समानार्थी शब्द हैं, इनमें परस्पर पूर्ण तादात्म्य है।

    यदि क्रोचे के इस निर्देश को हम स्वीकार कर लें, तो पहले प्रश्न का उत्तर भी हमें आप ही आप मिल जाता है। वह प्रश्न अनुभूति की समरूपता या समरसता का है। क्रोचे के निरूपण के अनुसार अनुभूति का समरस या समरूप होना अनिवार्य है। एक ही अखंड अनुभूति समस्त कवियों और रचनाकारों में होती है। काव्यमात्र में उसकी अखंडता स्वयंसिद्ध है। समस्त कवि एक हैं, उनमें परस्पर भेद नहीं। अनुभूती-शील मानवता ही सर्वत्र और सब काल में एक है। काव्य और कला की अजस्र धारा देश और काल का भेद नहीं जानती। भेद वास्तविक नहीं है, उसका यथार्थ रूप हमें समझना होगा।

    काव्यगत अनुभूति के संबंध में यह कोचे को स्थापना है। भारतीय विचार भी इससे भिन्न नहीं हैं। अभी मैंने विभाव, अनुभाव आदि रस के प्रमुख उपादानों में भावना या अनुभूति की व्याप्ति का उल्लेख किया है। काव्य के आस्वादन के निमित्त 'सहृदय' की योग्यता बता कर और शब्दों पर उलझने वाले न्यायशास्त्रियों तथा वैयाकरणों को काष्ठ-कुड्म की उपमा देकर हमारे विनोदप्रिय पूर्वजों ने काव्यगत अनुभूति की विशेषता सिद्ध की थी। उन्होंने काव्य के विविध प्रकारों, शैलियों और पद्धतियों के बीच कोई ऐसी विभेदक रेखा नहीं खींची है जिससे उसके सर्वसामान्य स्वरूप पर किसी प्रकार का व्याघात या विक्षेप आए। समस्त काव्य-शैलियों और काव्य स्वरूपों में अनुभूति की अखंड एकरूपता का अनवरत प्रवाह दिखाकर भारतीयों ने काव्य की सार्वजनीनता और सार्वभौमिकता सिद्ध की थी।

    आत्माभिव्यंजक रचना से कभी-कभी उन कृतियों का अर्थ लिया जाता है जिसमें रचनाकार की व्यक्तिगत अनुभूति अधिक प्रत्यक्ष होकर आती है। परंतु इसी कारण दूसरी रचनाओं को अनुभूति-रहित नहीं कहा जा सकता। कुछ समीक्षकों ने 'सब्जेक्टिव' (व्यक्तिगत) और 'आब्जेक्टिव’ (वस्तुगत) काव्य के दो भेद कर आत्मानुभूति की प्रधानता 'सब्जेक्टिव' काव्य में माती है; परंतु इस भेद को हम वास्तविक नहीं कह सकते। यह तो केवल प्रकार-भेद है।'व्यक्तिगत अनुभूति' से प्रेरित रचनाएँ कभी-कभी तो वास्तविक अनुभूति के स्तर पर पहुँचती ही नहीं, अतएव उन्हें तो काव्य की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती। वास्तव में अनुभूति के व्यक्तिगत ओर वस्तुगत भेद किए ही नहीं जा सकते, उसकी तो अखंड सत्ता है। आत्मानुभूति तो काव्यमात्र की विशेषता है।किसी एक प्रकार की रचना को आत्माभिव्यंजक कह कर दूसरी काव्य-रचनाओं को आत्माभिव्यंजना से रहित मानना कोरी भ्राँति है।

    इसी प्रकार हम कभी किसी रस- विशेष की रचना को दूसरे रसों की रचना से श्रेष्ठ सिद्ध करते हैं और कभी महाकाव्य, खंडकाव्य, प्रगीत आदि काव्य-भेदों की निरपेक्ष रूप मे तुलना करने लगते हैं। उदाहरण के लिए, प्रायः शृंगार रस को रसराज घोषित किया जाता है। परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि कोई भी शृंगारिक रचना किसी भी अन्य रस की रचना से स्वतः श्रेष्ठ है। सभी रसों में एक ही अनुभूति-धारा प्रवाहित रहा करती है, अतएव यह भेद कृत्रिम है। महाकाव्य इसलिए महाकाव्य नहीं है कि उसमें 'काव्य' की सत्ता किसी लघुगीत या प्रगीत की काव्य-सत्ता से प्रकृत्या भिन्न है, दोनों काव्यत्व की भूमि पर समान हैं। आकार-प्रकार और परिमाण आदि के अंतर भले ही हों।

    किसी प्रचंड बुद्धिवादी समस्या-नाटक में और किसी अतितरल गीति नाट्य में सहस्रों पृष्ठों के समाहित उपन्यास में और चार या दस पंक्तियों के गद्य गीत में भी अनुभूति की समानता रहती है। इसी समता के बल पर वह समस्या-नाटक भी काव्य है, वह विशाल उपन्यास भी और वह अति लघु गद्यगीत भी। यदि अनुभूति की सत्ता में अंतर होता तो इनमें से किसी एक, दो या सब को काव्य की पदवी ही मिलती। यदि ये सभी काव्य साहित्य के अंग हैं, तो इनमें अनुभूति की अजस्र एकरूपता है ही।

    एक ओर सूर, तुलसी और मीरा आदि कवियों में और दूसरी ओर देव, बिहारी और मतिराम आदि रचनाकारों में क्या अंतर है? क्या यह कि वे भक्त और संत थे और उनकी रचनाओं से भक्ति और ईश्वर-प्राप्ति को शिक्षा मिली और ये संसारी और दरबारी व्यक्ति थे और इनको कृतियों से लोक-कल्याण हो सका? परंतु भक्ति और ईश्वर प्राप्ति के संदेशवाहक सभी तो कवि नहीं हुए और सभी संसारी और दरबारी व्यक्तियों ने क़लम हाथ में ली। ऐसी अवस्था में तुलना की भूमि भक्ति, ईश्वरप्राप्ति या लोक-कल्याण नहीं हो सकता। तुलना का आधार होगा कवित्व या काव्यत्व जिससे ऊपर गिनाई वस्तुओं का कोई संबंध नहीं और जिसका एकमात्र मानदंड है अनुभूति। संभव है हम यह कहें कि देव-बिहारी आदि में अनुभूति थी ही नहीं, वे कवि ही नहीं थे। यह कहने का हमें अधिकार है, पर इस कारण हम यह कहने के अधिकारी नहीं हो जाते कि सूर और तुलसी पहुँचे हुए भक्त थे, अतएव वे श्रेष्ठ कवि भी थे। इस प्रकार का तर्क करनेवाले व्यक्ति ही भक्ति को स्वतंत्र काव्य-रस सिद्ध करना चाहते हैं, पर उनकी यह उपपत्ति सच्चे काव्य-प्रेमियों को मान्य नहीं हो सकती।

    अनुभूति को काव्य का प्रयोजन माननेवालों के सम्मुख यह प्रश्न भी आता है कि अनुभूति के प्रकाशन का माध्यम क्या हो। कभी काग़ज़ और कूची की सहायता से कभी स्वर-ताल-लय के योग से, कभी पत्थर को काँट-छाँट कर और कभी शब्दों की अर्थ-व्यंजक शक्ति का आश्रय लेकर अनुभूति प्रकाशित होती है। इन विभिन्न माध्यमों का उपयोग भिन्न-भिन्न कलाकार अपनी रुचि और सामर्थ्य के अनुसार करते हैं। इन माध्यमों में कौन अधिक उपयुक्त और कौन कम उपयुक्त होगा, यह तो रचयिता की योग्यता पर अवलंबित है। इस संबंध में नियम-निर्देश करना संभव नहीं। परंतु एक ही माध्यम द्वारा प्रकाशित होनेवाली अनुभूति के संबंध में यह अवश्य कहा जा सकता है कि प्रत्येक अनुभूति एक ही उत्कृष्ट अभिव्यक्ति पा सकती है। हम एक शब्द के स्थान पर दूसरा शब्द अथवा एक छंद के स्थान पर दूसरा छंद रखकर 'आदर्श' अभिव्यक्ति नहीं कर सकते। आदर्श अभिव्यक्ति सदैव एक ही होगी।

    यदि प्राचीन वन्य कलाकार के सम्मुख आज के समृद्ध साधन नहीं थे तो इसका यह अर्थ नहीं कि उसकी अनुभूति अपनी 'आदर्श' अभिव्यंजना नहीं प्राप्त कर सकी। वन्य कलाकार की वही आदर्श अभिव्यंजना है जो उसने अपने मोटे साधनों से की है। महात्मा कबीर के पास शुद्ध परिष्कृत शब्द राशि नहीं थी, किंतु उन्होंने जिस किसी प्रकार से अपने भाव व्यक्त किए, वही उनका आदर्श प्रकार है। अनुभूति और अभिव्यक्ति में ऊपरी सापेक्षता रहते हुए दोनों की अंतरंग अनन्यता में संदेह नहीं किया जा सकता।

    वह काव्य भी काव्य ही है जिसमें अनुभूति और अभिव्यक्ति को पूर्ण एकरूपता स्थापित हो पाई हो, जिसमें कवि अपनी अनुभूति के प्रकाशन का उपयुक्त और आदर्श माध्यम प्राप्त करने में असफल रहा हो। पर वह रचना काव्य नहीं हैं जिसमें वास्तविक अनुभूति का ही अभाव हो। भारतीय समीक्षा के अनुसार ऐसी रचना ध्वन्यात्मक या रसात्मक काव्य के अंतर्गत नहीं आती, उसे गुणीभूत व्यंग्य या चित्र-काव्य मात्र कहते है। अनुभूति की अस्पष्टता अथवा उसका अभाव ही इन दोनों प्रकार की रचनाओं के मूल में रहा करता है।

    अनुभूति का स्वरूप और समस्त काव्य-साहित्य में उसको व्यापकता दिलाने का जो प्रयत्न ऊपर किया गया, उससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि काव्यानुभूति स्वतः एक अखंड आत्मिक व्यापार है जिसे किसी भी दार्शनिक, राजनीतिक, सामाजिक या साहित्यिक खंड-व्यापार या वाद से जोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं। समस्त साहित्य में इस अनुभूति या आत्मिक व्यापार का प्रसार रहता है। काव्य के अनंत भेद हो सकते हैं, उसके निर्माण में असंख्य सामाजिक या सांस्कृतिक परिस्थितियों का योग हो सकता है, परंतु उसका काव्यत्व तो उसकी सर्वसंवेद्य अनुभूति प्रवणता में हो रहेगा। किसी महा-महिम उपदेशक की रचना भी काव्य-दृष्टि से निःसार हो सकती है और किसी क्षुद्रतम जोब की चार पंक्तियाँ भी काव्य का अनुपम शृंगार हो सकती हैं। वर्ग संघर्ष की भावना किसी युग में काव्य-प्रेरणा का कारण हो सकती है, परंतु वह भावना काव्यानुभूति का स्थान नहीं ले सकती जो काव्य साहित्य की मूल आत्मा है। काव्य का प्रयोजन मनोरंजन अथवा सामाजिक वैषम्य से दूर भागना अथवा पलायन भी नहीं हो सकता, क्योंकि वैसी अवस्था में आत्मानुभूति के प्रकाशन का पूरा अवसर रचयिता को नहीं मिल सकेगा, उनको रचना अधूरी और अभंग रहेगी। इसी प्रकार स्थूल इंद्रियता पर आधारित अनुभूति भी श्रेष्ठ काव्यत्व में परिणत नहीं हो सकती, क्योंकि वहाँ आत्मानुभूति के प्रकाशन में विकारी कारण मौजूद रहेंगे! कवि के पूर्ण व्यक्तित्व का उत्सर्जन करने वाली आत्म-प्रेरणा ही काव्यानुभूति बनकर उस कल्पना-व्यापार का संचालन करती है जिससे काव्य बनता है। काव्य और कला की मुखर वर्णमयता में समस्त वर्णभेद, वर्गभेद और वादभेद तिरोहित हो जाते हैं। मानवकल्पना का यह अनुभूति-लोक नित्य और शाश्वत है। चिरंतन विकास की सरिता इसे चिरकाल से सींचती रही है और चिरकाल तक सींचती जाएगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक साहित्य (पृष्ठ 413)
    • रचनाकार : नंददुलारे वाजपेयी
    • प्रकाशन : भारती भंडार लीडर प्रेस
    • संस्करण : 2007

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