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छायावाद

chhayavad

नंददुलारे वाजपेयी

और अधिकनंददुलारे वाजपेयी

    छायावाद काव्य-प्रवाह हिंदी में अब अपनी सुनिश्चित धारा बना चुका है। अब वह केवल विरोध की वस्तु नहीं है, और केवल वाचिक अभ्यर्थना का विषय रह गया है। अब तो उसकी सम्यक् समीक्षा और परीक्षा भी की जा सकती है। आरंभ से ही अपनी छायात्मक निगूढ़ अभिव्यक्तियों के कारण छायावाद आध्यात्मिक काव्य कहा जा रहा था। पूर्ववर्ती भक्ति काव्य की साकार वर्णनाओं के विपरीत इसकी निराकार पद्धति थी, किंतु इसका यथार्थ स्वरूप अब तक स्पष्ट नहीं किया गया। छायावाद की पद्धति कबीर आदि की निर्गुण निराकार व्यंजनाओं से भिन्न—तो हैं ही, सूफ़ियों की पद्धति से भी पृथक् है। उक्त दोनों परंपराएँ प्रमुखतः आध्यात्मिक कही जा सकती हैं, यद्यपि सूफ़ी कवियों ने लौकिक संस्कृति के निर्माण में भी कम सहायता नहीं दी। आधिभौतिक पक्ष में देखा जाए तो एक ओर उमर ख़ैयाम और दूसरी ओर शेख़सादी तथा भारत के जायसी आदि कवियों में बहुत बड़ा दृष्टिभेद है। इन सभी कवियों ने सामयिक संस्कृति और देश-काल की विचार धाराओं को भिन्न-भिन्न स्वरूपों में व्यक्त किया है। उदाहरण के लिए उमर ख़ैयाम की काव्य-धारा अदृष्ट, भाग्य या नियति के कठोर चक्र से भयभीत होकर उससे तटस्थ हो जाने का मानो आमंत्रण करती है। उनका काव्य ईरान और फारस की एकांत वाटिकाओं और उपवनों में दो प्राणियों की प्रेम-परिचर्या का ही सरल आदर्श लेकर उपस्थित हुआ। सादी आदि की रचनाएँ उनसे भिन्न वातावरण और विचार-क्रम का द्योतन करती हैं। जायसी आदि भारतीय सूफ़ियों की कविता तो उमर ख़ैयाम का सा भाग्यवाद प्रवर्तित करती है और दो प्राणियों के एकांत जीवन और औपवनिक परिस्थितियों का प्रदर्शन करती है; वह अरबी सूफ़ियों की तरह इस्लाम की छत्र-छाया में ही विकसित हुई है। व्यापक भारतीय जीवन और सौंदर्य के अनेकानेक दृश्यों के बीच से होकर यह काव्य-धारा प्रवाहित हुई है। इस प्रकार देश, काल और विचार क्रम में भेद होते हुए भी सूफ़ी काव्य मुख्यतः आध्यात्मिक कहा जाता है; क्योंकि उसका लक्ष्य, निराकार प्रेम की अनुभूति, सब में समान रूप से पाया जाता है। उसके लौकिक, देश-काल सापेक्ष्य और सांस्कृतिक पहलू प्रधान स्थान नहीं पा सके हैं, काव्य के प्राण प्रेम—अलौकिक प्रेम में ही अटके हैं।

    कबीर आदि ज्ञानमागियों की आध्यात्मिकता तो एकदम स्पष्ट है। रहस्यमय सत्ता की अभिव्यक्ति और मिथ्या संसार की सुदृढ़ धारणा उनके अध्यात्म के अविचल स्तंभ हैं। आध्यात्मिक काव्य के लिए एक अखंड सत्ता का स्वीकार—वह प्रेममय हो, ज्ञानमय या आनंदमय—जितना आवश्यक था, सांसारिक सत्ता या व्यावहारिक जीवन का अस्वीकार भी उतना ही अनिवार्य हो गया था। आध्यात्मिक या अध्यात्मवादी काव्य की यही विशेषता थी। साकारोपासक भक्तों ने भी राम कृष्ण आदि के चरित्रों को अखंड अव्यय लीला, दिव्य और अलौकिक कहकर उसी कसौटी को स्वीकार किया है। संसार की प्राकृतिक किसी सत्ता की आत्यंतिक स्वीकृति सिद्धांततः वे भी नहीं करते। यह अवश्य मानना होगा कि साकारोपासक कवियों ने सांस्कृतिक, नैतिक और जीवन के व्यावहारिक पक्षों का विस्तृत दिग्दर्शन कराया है, किंतु उनकी दृष्टि अलौकिक 'आदर्श' पर ही रही है। संसार को दृश्यमान वास्तविकता और तज्जन्य प्रगतियों से वे प्रायः दूर ही रहे हैं। तथापि इन कवियों ने जीवन के बहुविध पक्षों का सौंदर्य दिखाया और तत्कालीन संस्कृति के निर्माण में योग दिया। आदर्श और अलौकिक की भूमि पर वे व्यवहार और प्रत्यक्ष की इतनी चर्चा भी कर गए, यह कम नहीं। कबीर आदि निर्गुणियों ने भी आत्मा की व्यापक सत्ता घट-घट में दिखाई और उसे पहचानने का आग्रह किया। साधन रूप में शिक्षा दी तथा जाति-पांति के लौकिक क्षेत्र साकारोपासकों की उन्होंने सरल और त्यागमय जीवन की भेदों का निषेध किया। किंतु उनका अपेक्षा भी सीमित था, क्योंकि उनका अध्यात्म लोक से परे की वस्तु थी, जिसकी साधना तटस्थ और ऐकांतिक ही हो सकती थी।

    इस प्रकार हम देखते हैं कि मध्यकालीन अधिकांश काव्य, वह किसी बाद या संप्रदाय से संबद्ध क्यों हो, अलौकिक वातावरण और आध्यात्मिकता का ही दावा करता रहा। सिद्धांततः सूर, तुलसी और मीरा तथा कबीर, दादू आदि सगुण और निर्गुण उपासना के कवि एक-सी ही आध्यात्मिक भूमिका का आग्रह करते हैं। सूर के काव्य में कृष्ण-गोपियों की शृंगारिक लीला, तुलसी के काव्य में राम और सीता का मर्यादावादी चरित्र, कबीर की तत्त्वनिरूपक साखियाँ और अन्योक्तियाँ—विषय, भाव-व्यंजना, काव्यशैली तथा साहित्यिक विशेषताओं में एक दूसरे से दूर दीख पड़ती हैं, परंतु तत्त्वतः वे सभी अध्यात्मवादी काव्य की शाखा प्रशाखाएँ कही जा सकती हैं।

    यहाँ प्रसंगवश हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि इस संपूर्ण अध्यात्मवादी काव्य की, जो अनेक शताब्दियों तक प्रस्तुत किया जाता रहा, एक-सी प्रेरणा-भूमि नहीं है। भिन्न-भिन्न कवियों ने अपने-अपने मानसिक धरातल से जो काव्यसृष्टि की है, उसे एक ही 'अध्यात्मवादी' तुला पर तौलना ठीक होगा। ऐसा करने पर रचनाकारों की वास्तविक जीवन-दृष्टि, उनकी मनःस्थिति तथा काव्यात्मक क्षमता का आकलन हो सकेगा। अतएव इन मध्यकालीन कवियों का वास्तविक साहित्यिक मूल्य आँकने के लिए आवश्यक है कि इनमें प्रत्येक के 'अध्यात्मवाद' की उनके दार्शनिक और सामाजिक निरूपणों के प्रकाश में परीक्षा की जाए, उनके द्वारा चित्रित चरित्रों और व्यंजित भावनाओं की मनोवैज्ञानिक पद्धति पर आलोचना की जाए और उनकी काव्य-शैली तथा साहित्यिक निर्माण की विशेषताओं को स्वतंत्र भूमि पर रख कर देखा जाए। 'अध्यात्मवादी' होने के कारण ही किसी कवि को काव्य-गौरव नहीं प्राप्त हो जाता, केवल सांप्रदायिक या साधनाविषयक शब्दावली का प्रचुर प्रयोग ही उसे साहित्यिक उत्कर्ष दे सकता है। आवश्यकता यह समझने की है कि कवि की काव्यानुभूति और उसकी रचना साहित्यिक समीक्षा में स्वतंत्र सत्ता रखती है, किसी वाद के घेरे में वह घेरी नहीं जा सकती।

    अस्तु, यह एक प्रासंगिक बात हुई। नई छायावादी काव्यधारा का भी एक आध्यात्मिक पक्ष है, परंतु उसकी मुख्य प्रेरणा धार्मिक होकर मानवीय और सांस्कृतिक है। उसे हम बीसवीं शताब्दी की वैज्ञानिक और भौतिक प्रगति की प्रतिक्रिया भी कह सकते हैं। भारतीय परंपरागत आध्यात्मिक दर्शन की नवप्रतिष्ठा का वर्तमान अनिश्चित परिस्थितियों में यह एक सक्रिय प्रयत्न है। इसकी एक नवीन और स्वतंत्र काव्यशैली बन चुकी है। आधुनिक परिवर्तनशील समाज-व्यवस्था और विचार-जगत् में छायावाद भारतीय आध्यात्मिकता की, नवीन परिस्थिति के अनुरूप, स्थापना करता है। जिस प्रकार मध्ययुग का जीवन भक्तिकाव्य में व्यक्त हुआ, उसी प्रकार आधुनिक जीवन की अभिव्यक्ति इस काव्य में हो रही है। अंतर है तो इतना ही कि जहाँ पूर्ववर्ती भक्तिकाव्य में जीवन के लौकिक और व्यावहारिक पहलुओं को गौण स्थान देकर उनकी उपेक्षा की गई थी, वहाँ छायावादी काव्य प्राकृतिक सौंदर्य और सामयिक जीवन-परिस्थितियों से ही मुख्यतः अनुप्राणित है। इस दृष्टि से वह पूर्ववर्ती भक्तिकाव्य की प्रकृति-निरपेक्षता और संसार-मिथ्या को सैद्धांतिक प्रक्रियाओं का विरोधी भी है। छायावाद मानवजीवन-सौंदर्य और प्रकृति को आत्मा का अभिन्न स्वरूप मानता है; उसे अव्यय की वेदी पर बलिदान नहीं कर देता। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मध्यकालीन काव्य की सीमा में मानव-चरित्र और दृश्य जगत्, अपने प्रकृत रूप में उपेक्षित ही रहे; जब कि नवीन काव्य में समस्त मानव अनुभूतियों की व्यापकता पूरा स्थान पा सकी। अध्यात्मवाद की भूमि पर प्रतिष्ठित होते हुए भी मध्यकालीन भक्ति-काव्य और आधुनिक छायावादी काव्य में कितना बड़ा दृष्टिभेद है, यह अनुमान किया जा सकता है। इस दृष्टिभेद के कारण दोनों युगों की काव्य—सृष्टि कों में जो महत्त्वपूर्ण अंतर गया है, वह साहित्य के विद्यार्थी के अनुशीलन की वस्तु है।

    मध्यकालीन अधिकांश काव्य जो किसी धार्मिक या साधनात्मक प्रणाली के अंतर्गत रचा गया, एक विशेष अर्थ में सांप्रदायिक काव्य कहा जा सकता है। तुलसी की विनय पत्रिका, सूरदास के विनय के पद, कबीर की साखियाँ, मीरा के भाव-गीत वास्तव में किसी सगुण या निर्गुण उपास्य के प्रति किए गए आत्मनिवेदन, स्तुतियाँ या ऋचाएँ हैं। राम और सीता संबंधी चरित्रकाव्य में अथवा राधा-कृष्ण की प्रेम-लीलाओं में स्थिति कुछ भिन्न अवश्य है, क्योंकि वहाँ काव्य अपनी प्रकृत भाव-भूमि पर है और मनोवेगों का निरूपण नैसर्गिक पद्धति पर किया गया है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि ये प्रसंग सर्वथा स्वाधीन हैं और इनका काव्य-सौंदर्य चरित्र-काव्य या प्रगीत की सामान्य भूमि पर रखकर परखा जा सकता है। समस्या यह हो जाती है कि भक्ति, उपासना या रहस्य-साधना के सांप्रदायिक आग्रह प्रमुख बन बैठते हैं, और काव्य-भावना की वास्तविक परख नहीं हो पाती। आवश्यकता इस बात की है कि काव्येतर समस्त तत्व, वाद और साधना-क्रम स्वतंत्र अध्ययन के विषय अवश्य रहें, परंतु काव्य-विवेचन के अवसर पर उन सब का पर्यवसान रचयिता की मनःस्थिति और जीवन-दृष्टि तथा काव्य की भाव-पीठिका के अंतर्गत हो जाना चाहिए। ऐसा होने पर काव्य का वास्तविक आकलन अधूरा ही रह जाएगा।

    दूसरे शब्दों में हमारा निवेदन यह है कि मध्यकालीन काव्य की समस्त सांप्रदायिक और साधनात्मक प्रेरणाओं को नवीत मनोवैज्ञानिक और साहित्यिक प्रतिमानों में परिणत करना होगा। ऐसा करने पर ही उक्त काव्य की वास्तविक सीमा रेखाएँ निर्धारित हो सकेंगी। नवीन मनोविज्ञान की सहायता से यह कार्य अधिक सुगमतापूर्वक हो सकेगा; क्योंकि सांप्रदायिक साधना-सरणियों का काव्य के अंतर्गत प्रयोग करने में कवियों की व्यक्तिगत मानसिक स्थिति का आवश्यक और महत्वपूर्ण हाथ मानना ही पड़ेगा। 'सूर के श्याम' और 'मीरा के प्रभु', 'विद्यापति की राधा' और 'सूर की राधा' चरित के रूप में तो भिन्न हैं ही, उनके निर्माण की मानसिक प्रेरणा भी एक नहीं हैं। इसी प्रकार कबीर की रहस्य-भावना उसी मानसिक स्तर पर नहीं है जिस पर दूसरे निर्गुणियों की है। अतएव इस साहित्यिक निर्माण का कवियों की मानसिक स्थिति से संबंध स्थापित करना आवश्यक है।

    इतना होने पर ही उन कवियों के काव्य की उपयुक्त भूमिका का निर्माण हो सकेगा और उस भूमिका पर रखकर उनका काव्य-सौष्ठव परखा जा सकेगा। वर्तमान स्थिति में यह कार्य प्रायः भ्रामक पद्धति पर किया जाता है। पाठकों के धार्मिक विश्वासों का अनुचित उपयोग कर कुछ समीक्षक कृष्ण-काव्य को अब भी कला और भाव-समीक्षा का वास्तविक विषय नहीं बनने देते और उनकी अनेकविध सांप्रदायिक व्याख्याएँ करते रहते हैं। कुछ समीक्षक रहस्यवाद की काव्यभूमि को ही स्वीकार नहीं करते, और कुछ इसके विपरीत, रहस्य-काव्य के दार्शनिक विवेचन में ही सारा पांडित्य ख़र्च कर देते हैं। ये सभी समीक्षा प्रकार साहित्यिक आकलन की दृष्टि से एकांगी और अधूरे हैं और साहित्यिक या कलात्मक विवेचन में बाधा उपस्थित करते हैं।

    जब तक इस नई पद्धति पर काव्य-विवेचन की प्रतिष्ठा नहीं होती तब तक मध्यकालीन काव्य का कलात्मक और सांस्कृतिक स्थान निर्धारित करना संभव नहीं होगा। साथ ही मध्ययुग की सामाजिक परिस्थिति में उक्त काव्य की कितनी और किस प्रकार पैठ हुई तथा उससे सामाजिक कला-अभिरुचि किस सीमा तक जागृत हुई, और सांस्कारिकता कहाँ तक बढ़ी और विकसित हुई, इन प्रासंगिक प्रश्नों को भी इतिहास के आलोक में हल करना होगा। सारांश यह कि इतिहास और सामाजिक विकास को पृष्ठभूमि पर उन कवियों की सांप्रदायिक साधना विधियों ज़ोर दार्शनिक निरूपणों का उनकी जीवनी और मानसिक गतिविधि से संबंध स्थापित करते हुए काव्य की नवीन व्याख्या करती होगी और इस प्रकार उन मध्यकालीन कवियों की काव्यपीठिका का निर्माण करना होगा। इस पीठिका पर रखकर ही हम उनको रचनाओं की साहित्यिक विशेषताओं को आंक सकेंगे। तभी हमारा साहित्यिक इतिहास वास्तविक साहित्यिक भूमि पर स्थापित होगा और हम भिन्न-भिन्न साहित्यिक निर्माणों का यथार्थ स्वरूप समझ सकेंगे।

    छायावाद काव्य मध्ययुग की काव्यधारा से प्रमुखतः इस अर्थ में भिन्न है कि वह किसी क्रमागत सांप्रदायिकता या साधना-परिपाटी का अनुगमन नहीं करता। अध्यात्मवादी काव्य का अधिष्ठान देशकालातीत परम पवित्र सत्ता हुआ करती है। व्ययशील सांसारिक आदर्शों और स्थितियों आदि से उनकी मुख्य संबंध नहीं होता। वह विकास जो समय का आश्रित है, वह विज्ञान जो व्यक्त द्रव्य तथा उसकी परिणतियों पर अधिष्ठित है, मध्यकालीन आध्यात्मिक काव्य के विषय नहीं हैं। प्रत्यक्ष वस्तु का मानवजीवन के सुख-दुःख, विकास-ह्रास आदि की अवस्थाओं से जो संबंध है, वह काव्य उसकी उपेक्षा कर गया है। किंतु आधुनिक छायावादी काव्य उसकी उपेक्षा नहीं करता। अध्यात्मवादी परंपरा दृश्यमात्र को विनाशी कह कर चुप ही रहती है, अथवा उसे व्यावहारिक बता कर मुँह मोड़ लेती है। छायावादी काव्य में यह परंपरा स्वीकृत नहीं है। दैन्य से पीड़ित और प्रताड़ित तथा भोगैश्वर्य से प्रसक्त और परिवेष्टित व्यक्ति, समुदाय, देश, राष्ट्र या सृष्टिचक्र के विभेदों में अध्यात्मवाद नहीं जा सका। समय और समाज को आंदोलित करनेवाली शक्तियों का आकलन उसमें कम ही है। वह तो उस शाश्वत सत्ता से ही सर्वथा संपृक्त है जिसमें परिवर्तन का नाम नहीं। उस सत्ता का स्वरूप सगुण है या निर्गुण, विश्वमय है या विश्वातीत, ये प्रश्न हो उस अध्यात्म में आते हैं। छायावाद की काव्यसरणी इन अध्यात्मवादी सीमा-निर्देशों से आबद्ध नहीं है, वह भावना के क्षेत्र में किसी प्रकार का प्रतिबंध स्वीकार नहीं करती।

    आधुनिक छायावादी काव्य किसी क्रमागत अध्यात्म-पद्धति को लेकर नहीं चलता। नवीन जीवन प्रगति में ही उसने आत्मसौंदर्य की झलक देखी है। परंपरित अध्यात्म प्रायः पुरुष से प्रकृति की ओर प्रवर्तित होता है—एक चेतन केंद्र से नाता चेतना केंद्रों की सृष्टि करता है। किंतु छायावादी काव्य प्रकृति की चेतन सत्ता से अनुप्राणित होकर पुरुष या आत्मा के अधिष्ठान में परिणत होता है। उसकी गति प्रकृति से पुरुष की ओर—दृश्य से भाव की ओर होती है। और इस दार्शनिक अनुभूति के अनुरूप काव्य-वस्तु का चयन करने में छायावादी कवियों ने प्रकृति के अपार क्षेत्र से यथेच्छ सामग्री ग्रहण की है।

    प्रसादजी, जो छायावाद काव्य के प्रवर्तक माने जाते हैं, अपनी आरंभिक रचनाओं में प्रकृति की रमणीयता से आकृष्ट होकर उसके सौंदर्य-प्रभावों को व्यक्त करते हैं। उनका आरंभिक काव्य प्राकृतिक और मानवीय सौंदर्य की भूमि पर अधिष्ठित है। इस व्यक्त सौंदर्य-वस्तु का प्रभाव कवि के काव्य में एक हलकी रहस्यभावना की सृष्टि करता है। 'करना' और 'आँसू' में यह सौंदर्य-सत्ता क्रमशः विकसित होकर कवि की भावना में और भी गहराई लाती है और कवि प्रेम-तत्त्व के निरूपण में संलग्न दिखाई देता है। 'लहर' के गीतों में मानवजीवन के विविध पहलुओं के साथ जीवन-तत्त्व के समन्वय का प्रयत्न है। 'कामायनी' काव्य में जीवन की अनुभूतियाँ अपनी व्यापकता में प्रदर्शित हैं और उन सबका समाहार कवि के जीवन-दर्शन, आनंदवाद में किया गया है। प्रसादजी के काव्य के अभिनव भाव-विस्तार को देखते हुए मध्ययुग का धार्मिक और सांप्रदायिक अध्यात्म-काव्य बहुत कुछ सीमित और परतंत्र प्रतीत होता है।

    केवल एक प्रासंगिक उदाहरण लेकर देखना ही हमारे लिए पर्याप्त होगा। सूरदास का राधा-कृष्ण-संबंधी शृंगारिक काव्य अपनी स्वाभाविक भावभूमि पर भी अत्यधिक विशद और आकर्षक है। वृंदावन के प्राकृतिक सौंदर्य के बीच गोपियों के प्रेम का विकास एक आध्यात्मिक समारोह ही कहा जा सकता है। परंतु एक सीमा तक ही यह सुंदर पद्धति देखने को मिलती है। आगे चलकर गोपियों की मानलीला और कृष्ण द्वारा मान-मोचन के प्रयत्नों का जो दिग्दर्शन कराया गया है, वह अपनी प्रकृत भूमि पर वैसा भावनामय नहीं हो पाया। प्रत्येक गोपी के घर बारी-बारी से जाकर उसको अभिलाषा पूर्ति का प्रयत्न जैसा वह सूरदास के काव्य में चित्रित है, आध्यात्मिक रूढ़ि के अनुकूल भले ही हो, काव्य की उदात्त भाव व्यंजना में सहायक नहीं है। संभव है तत्कालीन काव्य-पद्धति में वैसे चित्रण अपवाद माने जाते हों, पर आज वे चित्रण—संभोग शृंगार के वे दृश्य—सुरुचिपूर्ण नहीं कहे जा सकते। फिर भी मध्यकालीन धार्मिक काव्य की परिधि में उनका निर्माण हुआ है और बहुत-से भक्त उन्हें गाकर आज भी अलौकिक आनंद उपलब्ध करते हैं! उनका यह आनंद उक्त प्रसंग की रहस्यवादी धारणा के कारण है, या उन दृश्यों के यथातथ्य चित्रण में ही उनकी भावना रमती है—यह तो वे ही बता सकते हैं। यहाँ हमें केवल इतना ही कहना है कि नवीन छायावादी काव्य-शैली में ऐसे चित्रणों के लिए, चाहे वे किसी वाद के अंतर्गत हों, स्थान नहीं है।

    सारांश यह कि हमारा नया काव्य अपनी स्वतंत्र दार्शनिकता के साथ ही अपनी भाव-भूमि और अनुभूति क्षेत्र में भी पूर्ववर्ती काव्य पृथक सत्ता रखता है, जिसका यथार्थ परिचय हमें से साहित्यिक विवेचन की उस स्वतंत्र परिपाटी का अभ्यास करने पर ही प्राप्त हो सकता हैं, जिसका संकेत ऊपर किया गया है। साहित्य-शैलियों का स्वतंत्र और कलात्मक अनुशीलन आज की साहित्य-मीमांसा के लिए आवश्यक है। आज छायावादी काव्य-शैली को स्थानांतरित करती हुई नई शैलियाँ भी हिंदी के क्षेत्र में अवतरित हो रही हैं। नए वादों का आगमन हो रहा है, नई भाषा-शैली प्रतिष्ठित हो चली है। इस समस्त परिवर्तन का साहित्यिक आकलन अपेक्षित है।

    छायावाद की साहित्य-शैली में एक नई दिशा का आभास महादेवी जी के काव्य-क्षेत्र में प्रवेश करने पर प्राप्त हुआ। उनका काव्य पूर्णतः रहस्योन्मुखी और ऐकांतिक है। छायावाद की सामान्य काव्य-शैली से उनकी पृथकता स्वीकार करनी होगी। इसके पश्चात् बच्चन जी का नया काव्य-वाद हिंदी के क्षेत्र में आया। इसी समय छायावादी काव्यशैली के कृतिपय अनुयायिओं ने 'यथार्थवादी' काव्य-प्रयोग आरंभ किए, जिनमें पंत जी भी एक प्रमुख प्रयोक्ता थे। चित्रण शैली और प्रेरणा भूमि दोनों में पूर्ववर्ती काव्य की अपेक्षा इनमें पर्याप्त अंतर दिखाई दिया।

    नया काव्य प्रवर्तन आरंभ हो चुका है; परंतु शैली के रूप में उसकी नूतन प्रतिष्ठा होने में कुछ समय लगेगा। इस नवीन प्रवर्तन के भूल में नई विचारणा, नई चिंतन पद्धति और नवीन जीवन-दृष्टि ही नहीं है, नई कला शैली की भी सत्ता है। स्वभावतः यह नवीन निर्माण कल्पना-प्रधान छायावादी काव्य-निर्माण की अपेक्षा अधिक 'यथार्थ' चित्रण-शैली का उपयोग कर रहा है, पर शैली का यह 'यथार्थ' अपने अंतर्गत कितनी विभिन्न और दूरवर्ती भावना-सरणियों को आत्मसात कर सकेगा, यह तो नवीन सांस्कृतिक विकास और भविष्य की सामाजिक प्रगति पर ही अवलंबित है। अभी इसके संबंध में कोई निश्वयात्मक मत व्यक्त नहीं किया जा सकता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक साहित्य (पृष्ठ 317)
    • रचनाकार : नंददुलारे वाजपेयी
    • प्रकाशन : भारती भंडार लीडर प्रेस
    • संस्करण : 2007

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