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जीवन सिंह

1947 | भरतपुर, राजस्थान

सुपरिचित आलोचक। अनुवादक और संपादक के रूप भी सक्रिय। समय-समय पर काव्य-लेखन भी। जनवादी लेखक संघ से संबद्ध।

सुपरिचित आलोचक। अनुवादक और संपादक के रूप भी सक्रिय। समय-समय पर काव्य-लेखन भी। जनवादी लेखक संघ से संबद्ध।

जीवन सिंह की संपूर्ण रचनाएँ

कविता 3

 

दोहा 38

खाल खींचकर भुस भरा

और निचोड़े हाड़।

राजा जी ने देश के

ख़ूब लड़ाए लाड़॥

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जब आँखों से देख ली

गंगा तिरती लाश।

भीतर भीतर डिग गया

जन जन का विश्वास॥

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तूने आकर खोल दी

एक विचित्र दुकान।

दो चीज़ें ही आँख में

चिता और श्मशान॥

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मौत मौत ही मौत घर

मौत मौत ही मौत।

आँधी आई मौत की

आए राजा नौत॥

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राग मृत्यु की भैरवी

नाचत दे दे ताल।

संग राजा जी नाचते

पहन मुंड की माल॥

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