'सेल्सवर्ग' में सात रोज़

selswarg mein sat roz

योगेंद्रनाथ सिंह

योगेंद्रनाथ सिंह

'सेल्सवर्ग' में सात रोज़

योगेंद्रनाथ सिंह

और अधिकयोगेंद्रनाथ सिंह

    सेल्सवर्ग के लिए कहा जाता है कि यहाँ जैसे नाटक समस्त यूरोप में नहीं खेले जाते! यहाँ की नाट्यशाला एक महान् अट्टालिका है। इसमें हज़ारों नर-नारियों का सहज समावेश हो जाता है। एक 'मठ' की पृष्ठभूमि का विस्तृत प्रांगण नाट्यस्थल धना लिया गया है। अभी यहाँ प्रति तृतीय दिन सुप्रसिद्ध नाटक अभिनीत किए गए हैं। में जिस रोज़ यहाँ आया हूँ, उसी रोज़ महाकवि गेटे की एक रचना का अभिनय किया गया था। आगामी तीसरे रोज़ होनेवाले नाटक को मैंने भी देखना निश्चित किया। सीट अपने होटल द्वारा प्रथम ही रिज़र्व करानी पड़ी। नाट्यस्थल के बाहर दर्शकों का बड़ा भारी समूह उमड़ रहा था। यदि टिकट पहले से ले लिया होता तो स्थान पाना संभव था। बढ़ी दूर-दूर से लोग आकर जमा हुए थे। इस नाटक का नाम 'एवरी मैन' (Every Man) था।

    नाटक का रंगमंच मकान के अंदर नहीं, खुली जगह में लकड़ी के तख़्तों से बनाया गया था और खुले आकाश के नीचे ही दर्शक साधारण बेंच और कुर्सियों पर बैठे थे। कुर्सियों पर बिछाने के लिए यहाँ हवा भरे हुए रबर के तकिए 1-1 शिलिंग में बेचे जा रहे थे।

    इस नाटक के दर्शकों में इटली की 'क्रॉउन प्रिंसेस' भी आई हुई थीं। दर्शकों में जहाँ कहीं इटैलियन लोग बैठे थे, उन्होंने अपनी इस भाषी-सम्राज्ञी के मान में खड़े हो-होकर जयघोष किया। मुझे तो इन स्वतंत्र देशवासियों के इस प्रकार राज-भक्ति-प्रदर्शन से अपने देश में और इनमें कोई अंतर नहीं दिखाई दिया। चाहे इसे कमज़ोरी कहें या और कुछ, परंतु राजकुल की प्रतिष्ठा की भावना, मानव-हृदय में, सर्वत्र न्यूनाधिक रूप में विद्यमान है ही। हाँ, तो नाट्यभूमि में इटली की प्रिंसेस् के आगमन पर लोगों की दर्शन-लालसा उमड़ पड़ी थी। थोड़ी देर तक व्यवस्थापकों को शांति स्थापित करने के लिए यत्नशील रहना पड़ा और जब इधर फुछ सफलता हुई तो पत्रकारों और शौक़ीनों के कैमरों ने थोड़ी देर तक श्रीमतीजी को परेशान कर डाला!

    अब मेरी बारी आई। मेरी भारतीय 'टोपी' ने भी हज़ारों नेत्रों को अपनी ओर आकृष्ट किया। यह भी किसी 'प्रिंसेस्' से कम बनकर मेरे सिर पर नहीं बैठी थी! मेरे आगे-पीछे और दाहिने-बाएँ सिर्फ़ निगाहे ही निशाना बना रही होती तो हर्ज होता, पर कैमरे भी बंदूक़ का निशाना लगा रहे थे। मुझे यह जानने के लिए समय ही नहीं मिला कि किस-किस की निगाहों में और कैमरे में मैं बंद हो रहा हूँ! एक फ़्रेंच रमणी मेरे निकट आई और पास की कुर्सी पर बैठते हुए कहने लगी ''ओह! आपने और आपकी इस सुंदर टोपी ने जाने कितनों को आकृष्ट किया है!''

    मैंने कहा ''धन्यवाद! पर यदि मैं यह जान सकता कि मुझे कितनों ने पसंद किया है... और मेरी टोपी को कितनों ने, तो कुछ लाभ भी उठाता।''

    श्रीमतीजी ने मुस्करा दिया। ''आप तो बड़े चतुर हैं'' कह कर चुप हो गईं।

    मैंने फिर कहा ''मेरे या मेरी टोपी के आकर्षण का और क्या सुबूत होगा कि आप-जैसी श्रीमती मेरे निकट निःसंकोच आकर बैठ गईं!''

    निःसंदेह। आप तो भारतीय हैं न? आप क्यों आकर्षण का विषय हों? वह बोली, ''पर देखिए, लोग तो आकृष्ट ही हुए हैं, और मैंने तो आपका परिचय तक पा लिया है।''

    मैंने रुख़ बदलते हुए नम्रतापूर्वक कहा ''इसके लिए मैं निज को ही धन्यवाद दूँ, या आपको, अथवा इस रंगशाला को?''

    ये श्रीमती फ़्रांस के एक छोटे-से नगर की रहने वाली थीं और बड़े कारख़ानेदार की लड़की थीं, सेल्सवर्ग की सैर करने अपनी माता और छोटे भाई के साथ आई हुई थीं।

    भारतवासी तो इस नाट्यभूमि पर और भी थे, परंतु वेशभूषा में अकेला 'भारतीय' मैं ही था। इसलिए कौतूहल होना स्वाभाविक ही था।

    अब ज़ोर से घंटा नाद सुनाई दिया। सभी एकचित्त और सावधान हो गए। घंटा-नाद के समाप्त होते ही भवनों के अंतिम दो कोनों पर दोनों ओर से मंगलाचरण-स्वरूप गीत गाया गया। चार युवक इस ओर ये और चार ही उस ओर। उन्होंने उच्च स्वर से, गगन-स्पर्शी भवनों पर सड़े हो, गीत की मधुर धनि से वायु-मंडल व्याप्त कर दिया! एक अजीब दृश्य था वह!

    यह सारा सेल ही पुरातन काल की भावना का दिग्दर्शक था। उसी प्रकार की वेशभूषा, और समस्त दृश्य भी प्राचीन काल के ही थे। इसीलिए आधुनिक उपकरणों का उपयोग करते हुए शुष्क काठ की पीठ के ऊपर ही वह खेल खेला जा रहा था। मंगलाचरण तो भारतीय प्रथा का घोतक था ही। नाटक का संक्षेप में भाव यह था कि एक धनिक, धन-मद से उंमत्त हो, मानवता को भूल जाता है। वह अपने संबंधियों को, मित्रों को—सभी को अपने घन के विश्वास पर ठुकरा देता है। कष्टपीड़ित, स्नेही, आप्त लोग उससे सहायता चाहते हैं; पर वह कन्फ्यूज़ हो जाता है। इधर नाच, रंग, विलासिता में तन्मय बना रहता है रात-दिन। उसे जब मौत स्वयं आकर सूचना देती है तब वह भयग्रस्त हो पागल की तरह बेचैन हो उठवा है। धीरे-धीरे सब संगी-साथी उसे छोड़ देते हैं। जिस धन पर उसका अभी तक पूर्ण विश्वास रहा, उस चाबी को अपने सामने मँगवाकर वह खुलवाता है। पेटी को खोलते ही उसमें 'द्रव्यदेव' की एक सजीव मूर्ति सामने खड़ी हो जाती है और कहती है कि 'तेरा अब मुझ पर कोई अधिकार नहीं रहा, भोगने का समय समाप्त हो गया; मैं यथास्थान जाता हूँ।'

    जिस पर आज तक उसने विश्वास किया था, उस पैसे की तरफ़ से इस तरह निराश हो वह व्यग्र हो उठता है। जीवन उसका दूभर हो जाता है। तब उसे मार्गदर्शिका के रूप में एक साध्वी मिलती है। उसके उपदेश से यह धीरे-धीरे ईश्वर पर विश्वास करने लगता है। अन उसे शांति मिलने लगती है। संतोष की साँस ले वह जीवन-मुक्त हो जाता है। अंत समय उस साध्वी के साथ अप्सराएँ उसे लेने आती हैं और खेल समाप्त हो जाता है।

    इस अभिनय द्वारा भौतिकवादी यूरोप को ईश्वर-विश्वास, मानवता और सावधानता की शिक्षा दी गई है। नाटक की भाषा बर्मन-आस्ट्रियन की खिचड़ी थी। इसलिए जिन्होंने इंग्लिश अनुवाद की पुस्तिका पढ़ ली थी, उन्हें आनंद मिल सका। मैंने पहले ही पुस्तक मँगवा कर सारी कथा समझ रखी थी। मुझे इस नाटक में कोई ऐसी अपूर्वता तो विदित नहीं हुई, हाँ पात्रों के अभिनय की स्वाभाविकता अवश्य आकर्षक थी। फिर यह प्रकृति के खुले प्रांगण में था, सभी कुछ प्राकृतिक ही था। यह भूमि नाट्य-प्रयोगों के लिए सफल मानी जाती है।

    यहाँ की जनता अधिकांश मध्यमश्रेणी की है, परंतु ग़रीबों और अमीरों में एकाएक अंतर देखना मुश्किल है। आस्ट्रियन, धन-मदोन्मच नहीं होते। वे बड़े मिलनसार, विनय-शील, बात-बात पर नम्रता प्रदर्शित करने वाले होते हैं।

    सेल्सबर्ग में बड़े-बड़े होटल है, टावर है, और दो-तीन विशाल-काय चर्च भी हैं। अनेक संस्थाएँ, स्कूल, बड़े-बड़े शानदार भवनों में अवस्थित हैं। इतनी हरियाली, पर्वतमाला, जलाशय, उद्यान आदि के रहते हुए भी कहीं गंदापन या मलेरिया के कीड़े नहीं है। शहर में सड़कों के अलावा अनेक गलियाँ भी हैं। पर वे गलियाँ ट्रॉम, बस आदि को अपने में छुपा लेती हैं; इनके आवागमन के मार्ग बने हुए हैं। महँगी वो यहाँ मी काफ़ी है। दुकानों की सजावट और शोभा देखते ही बनती है। बडगेस्टन् में मालूम होता था, व्यापार नहीं है। परंतु सेल्सवर्ग तो व्यापारिक चहलपहल का नगर है।

    आस्ट्रिया के सुंदरतम स्थानों में सेल्सबर्ग एक ऐसा स्थान है जो यौवन की तरह उन्माद से भरा हुआ सौंदर्य का आगार है, परंतु इस यौवन में विकार नहीं है—सात्विक ओज और स्वाभाविकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दुनिया की सैर (पृष्ठ 112)
    • रचनाकार : योगेंद्रनाथ सिंह
    • प्रकाशन : पुस्तक-भंडार

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