प्रयागराज और अमरपुरी वाराणसी

prayagraj aur amarpuri varanasi

काका कालेलकर

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प्रयागराज और अमरपुरी वाराणसी

काका कालेलकर

और अधिककाका कालेलकर

    बैसाख का महीना था। गर्मी सख़्त पड़ रही थी। हमारी गाड़ी मध्य हिंदुस्तान के विस्तीर्ण प्रदेश में से दौड़ने लगी। डिब्बे इतने गर्म हो गए थे, मानो डबल रोटी की भट्टियाँ हों। हर एक स्टेशन पर पानी पीने पर भी गला सूखा जाता था। जी बेचैन रहता था। फिर भी, इक चीज़ के कारण कलेजे को ठंढक पहुँचती रहती थी। हर एक स्टेशन पर मराठी भाषा सुनाई देती थी, और पुण्डलीक के धाम के रास्ते जाते हुए जिस तरह दोनों तरफ़ बबूल के पेड़ नज़र आते हैं, उसी तरह यहाँ भी नज़र रहे थे। मराठी भाषा और बबूल के पेड़ जहाँ तक थे, वहाँ तक मैं महाराष्ट्र में ही हूँ, इस विचार से चित्त को शांति मिलती थी। लगभग जबलपुर तक यही सिलसिला रहा।

    जबलपुर में मेरे एक मित्र रहते थे। अन्हें खोजकर मैं उनसे मिला, और उनके यहाँ भोजन किया। मेरे दिल में विचार आया कि यही मेरा आख़िरी महाराष्ट्रीय भोजन है। विचित्रता यह रही कि मुझे यह भोजन भी गुप्तवेग में ही करना पड़ा। कई वर्ष पहले मेरे ये मित्र एल-एल० बी० की तैयारी कर रहे थे; उस वक़्त मैंने अन्हें यह समझाने की कोशिश की थी कि वकालत का धंधा गंदा है, असकी अपेक्षा राष्ट्रीय शिक्षक होना कहीं अच्छा है। मैं अपने जिस पड्यंत्र मे सफल हुआ, इसलिए मेरे मित्र के सभी आत्मीय और सगे-संबंधी मारे क्रोध के मुझसे जलते थे। उन्होंने मुझे देखा तो था, लेकिन नाम सुना था। मुझे देखकर मेरे मित्र ने मुझसे अँग्रेज़ी में कहा—भाई, अगर मेरी माँ को यह पता चल जाए कि तुम कौन हो, तो तुमपर तुरंत फूल बरसने लगेंगे। तुम्हें आध घंटे में लौटना है। इतनी-सी देर के लिए व्यर्थ का बखेड़ा क्यों मोल लिया जाए? मैंने भी अनकी बात मान ली, और चोर की तरह चुपचाप नहा-धोकर भोजन कर लिया। नाम और रूप का संयोग नहीं हुआ था, इसलिए बेचारी माँ ने बड़े प्रेम से रसोई पका कर मुझे गर्मागर्म महाराष्ट्रीय भोजन खिलाया। विदा होते समय मैंने असके सामने अपना माथा नवाया, और प्रेमल माता के सारे शुभ आशीर्वाद पा कर मैं रवाना हुआ।

    हमारी यात्रा का पहला धाम था प्रयागराज। इतिहास-पुराणों में प्रसिद्ध गंगा-यमुना का रमणीय संगम यहीं है। एक तरफ़ ने दोनों किनारों की सफ़ेद बाल उछालती हुई स्वर्धुनी दौड़ती आती है। दूसरी तरफ़ ने यमराज की बहन अपना महत्व और प्रतिष्ठा संभालती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। संगम से दूर तक जिन दो नदियों के धवल और श्याम प्रवाह इस प्रकार बहते हैं, मानो वे अलग-अलग ही हों। प्राचीनकाल ने हमारे कवियों ने इस संगम के काव्यमय स्थान पर अपनी सरस्वती बहाई है। हमारी धर्मनिष्ठ जनताने अति प्राचीनकाल से अनाधारण अत्साह के साथ इस त्रिवेणी-संगम की पूजा की है। गंगा का नाम लेते ही हरद्वार और ब्रह्मावर्त याद आते हैं। और यमुना का नाम सुनते ही कभी तो कुजविहारी का मथुरा-वृन्दावन याद आता है, और कभी शाहजहाँ की दिल्ली और आगरे का स्मरण होता है। हिंदू और मुसलमान संस्कृति की एकता की थोड़ी झाँकी भर करने वाले सम्राट अकबर ने इसी संगम पर अवस्थित सनातन अक्षयवट के आसपास एक मज़बूत क़िला बनवाया है।

    हम क़िला देखने गए। क़िले में गोरों की फ़ौज रहती है। जिसके संगम की तरफ़वाले दरवाज़े पर जब यात्रियों की बहुत भीड़ हो जाती है तो अंदर से एक सिपाही आकर सब को भीतर ले जाता है और अक्षयवट का दान कराकर दूसरे दरवाज़े से बाहर निकाल देता है। अक्षयवट तो एक तहख़ाने-जैसी गुफ़ा में है। वट तो क्या, एक ज़बरदस्त तना-भर है। श्रद्धालु लोग कहते है कि वृक्ष की पीड़ यहाँ है, और असकी डाल्यिा बुद्धगया में हैं। जिसका अर्थ क्या है, सो समझना मुश्किल है। क्या जिसका यह मतलब लिया जाए कि किसी समय बौद्ध धर्म बुद्ध गया से इलाहाबाद तक फैला हुआ था? जैसा कहा जाता है कि हिमालय में भी महादेव के महालिंग का एक छोर केदारनाथ में है, और दूसरा नेपाल में पशुपतिनाथ के रूप में है। लेकिन असका अर्थ क्या? अरे, हिंदू तो यह भी कहते नहीं हिचकते कि गदाधर श्री विष्णु का एक पैर गया है, और दूसरा मक्के में! कल्पना के साम्राज्य में संयम से क्या मतलब? अक्षयवट की गुफ़ा काफ़ी लंबी-चौड़ी है, और उसमें अनेक मूर्तियाँ है। किसी समय गंगा-यमुना का प्रवाह अक्षयवट से क़रीब-क़रीब लगा हुआ ही था। उस ज़माने में कई हिंदू इस अक्षयवट से प्रवाह में कूदकर देहत्याग करते थे। जैसा माना जाता था कि जिस प्रकार अक्षयवट से कूदकर आत्महत्या करना पाप नहीं है, बल्कि उसमें मुक्ति है। मानो लोगों की इस अघोर साधना से तंग आकर ही संगम ने अपना स्थान बदल दिया, और अकबर ने बरगद के आसपास क़िला बनवाकर इस आत्महत्या की संभावना को सदा के लिए मिटा दिया। सैनिक दृष्टि से तो क़िले का महत्व है ही।

    इस क़िले में बौद्धधर्मीय सम्राट अशोक का अक शिला-स्तम्भ है। उसपर अशोक की धर्म-लिपि खुदी हुई है। समुद्रगुप्त के राज कवि हरिषेण के लिखे हुझे कुछ श्लोक भी इसी स्तम्भ पर खुदे हुए हैं। इतिहासवेत्ता इन दोनों आलेखों को बहुत महत्व का मानते हैं।

    साथ के सिपाही की थोड़ी ख़ुशामद करके मैंने अशोक के इस शिला-स्तम्भा के पास जाने की इजाज़त पाई। सिपाही बेचारा पंजाबी था। कहने लगा—'वहाँ दर्शन के लायक़ कोई चीज़ नहीं है। दर्शन तो उस गुफ़ा में है। बेचारा भोला पंजाबी! वह क्या जाने कि मेरे लिए दर्शन क्या है? इस पत्थर के गोल खंभे पर दिग्विजय और धर्मविजय के दो स्वतंत्र और अमर लेख हैं, इसका बोध उसे कब होगा? क्या जब हिंदुस्तान में शिक्षा अनिवार्य और सार्वत्रिक होगी तब? राष्ट्रीयता की उमंग घर-घर पहुँचेगी तब? या कोई लोक-कवि जनता की विभिन्न बोलियों में उसकी महिमा गाएगा तब?

    क़िले के सामने ही संगम के पास एक विस्तीर्ण रेतीला मैदान है। उसमें प्रयाग के पण्डे अपने-अपने डेरे लगाकर बैठे होते हैं। तम्बुओं की जिस घनी बस्ती में यात्री अपने पण्डे का तंबू पहचान सके, उसके लिए हर एक तंबू पर विशिष्ट चिन्हांकित ध्वजा होती है। कोई कपिध्वज, काई मकरध्वज, तो कोई नौकाध्वज। नए ज़माने की सूचक 'हवाई-गाड़ियाँ' (मोटरें) और रेलगाड़ियाँ भी ध्वजापर दिखाई देती हैं।

    हर बारहवें साल यहाँ प्रख्यात कुंभ-मेला लगता है। हर साल माघ मेला तो लगता ही है। इन मेलों में प्रांत-प्रांत के साधु, संन्यासी, तपस्वी और संत-महंत आते हैं। धर्म-चर्चा होती है, तत्वज्ञान के दंगल होते है, नई-नई दलीलों का लेन-देन होता है। आतुर शिश्यों को गुरू मिलते हैं, और शिष्यों के दीवाने गुरुओं को चेलों की प्राप्ति होती है। हर एक वाद विवाद में कितने प्रमाण मानने चाहिए, जिसकी चर्चा तो घंटों चलती रहती होगी। कोई प्रत्यक्ष तथा अनुमान को ही मानते हैं। बहुतेरे अपमान और शब्द-प्रमाण को भी मानते हैं। नंगे साधुओं में जब गाम्नार्थ होते हैं, तो न्यायशास्त्र में बताए हुए प्रमाण के अलावा लाठी लौर गाली के दो अतिरिक्त प्रमाणों का प्रयोग होता है। ये लोग मौत से नहीं डरते लेकिन पुलिस से बहुत डरते हैं। क्योंकि अगर पुलिस इन्हें पकड़कर हिरासत में ले ले, तो वहाँ ये अपने धर्म का पालन नहीं कर सकेंगे। अगर डंडेबाज़ी में पाँच-दस साधु खप जाए, तो पुलिस के आने पहले उनके मुर्दों को रेत में पूरकर, और रेत की सतह बराबर करके वे उसपर बैठ जाएगे। चाहे वहाँ हज़ारों बाबा क्यों खड़े हों, पुलिस को एक भी गवाह मिलेगा। अपराधियों को सज़ा देने से समाज में अपराध कम नहीं हुए हैं, और इसे साधुओं को सज़ा होने से उनमें अपराध घटे नहीं हैं, यह बात विचार करने योग्य है।

    मुझे प्रयागराज ने पिताजी के फूलों (अस्थि) का त्रिवेणी-संगम में विसर्जन करना था। वह काम पूरा कर के मैंने आद्ध किया। नदी किनारे बाए मूँछे मुड़वाए हुए लोग बहुत देखने आते थे, इस कारण ऐसा लगता था, मान, मद्रासी लोगों ने अत्तर हिंदुस्तान में अपनी एक बस्ती ही बसा ली है। आम तौर पर जब हम सिन्धियों को देखते हैं, तो वे नीम-अँग्रेज़ और नीम-पारसी जैसे लगते हैं, लेकिन तीर्थक्षेत्र में अत्यंत श्रद्धाशीलता दिखाने वाले और भक्ति से गद्गद होने वाले यात्रियों में सिंध का नंबर पहला आएगा। महाराष्ट्रीय थोड़े ख़र्च और थोड़े समय में अधिक-से-अधिक कैसे देखा जाए, और पुण्य का सचय कैसे हो, इसी पर ज़ियादा ध्यान देते हैं। गुजराती हमेशा खाने-पीने की सुविधा की फ़िक्र में घूमते हुए नज़र आते हैं। और बंगाली इस बात की अधिक चिंता रखते हुए दिखाई देते हैं कि अनकी भक्ति के भावावेश को सारी दुनिया अच्छी तरह देख सके। मद्रासी चेहरे पर से तो होशियार मालूम होते हैं, लेकिन हिंदी जानने के कारण, और अपने विचित्र रिवाज और पोशाक के कारण रोझों (जंगली घोड़ा) के समान यहाँ-वहाँ भटकते दिखाई देते है। मज़दूरों और गाड़ीवालों से तो उनकी कभी बनती ही नहीं।

    युक्तप्रांत के लोगों के लिए प्रयाग कोई परदेश नहीं है। वे तो बाक़ायदा रूई की मिरजई पहने, सिरपर कुछ तिरछी टोपी लगाए, मुँह में पान दबाए, सजे हुए साँडो के समान घूमते-फिरते हैं। उन्हें देखकर हर कोई कह सकता है—'आत्मन्येव संतुष्टः अस्य कार्य विद्यते।' अँग्रेज़ी पठा-लिखा आदमी चाहे किसी प्रांत का क्यों हो, असकी एक अलग ज़ात बन ही जाती है। जैसे तीर्थस्थान में आने से मेरी शिक्षापर कोई धब्बा तो नहीं लग गया है, उसी मुखमुद्रा बनाकर वह सबसे दूर, अलग-थलग घूमता है। और इन सबके चित्र-विचित्र स्वभावों, पोशाकों, और रिवाजों की तरफ़ से बिलकुल अदासीन रहकर गंगा और यमुना का सनातन प्रवाह अमरपुरी वाराणसी की ओर अखंड, अविरत बहता ही रहता है।

    अमरपुरी वाराणसी

    मैं पहले भी एक बार काशीजी गया था। तो भी परिचय से अत्पन्न होने वाली अवज्ञा मुझ में पैदा नहीं हई थी। जब रेल में बैठकर मैं गंगाजी के पुलपर से जा रहा था, तब काशी का वह अद्भुत दृश्य देखकर में गद्गद हो उठा था। काशी में दूरसे ही हमेशा एक ऐसी आवाज़ सुनाई देती है, मानो शहद के छत्ते पर बैठी हई मधुमक्खियाँ गुनगुना रही हों। 'धारणा' नदी से 'असी' नदी तक के हृदय में सबसे अधिक ध्यान तो औरंगज़ेब की मस्जिद की गगनस्पर्शी दो मीनारे ही आकृष्ट करती हैं। उन मीनारों को देखकर एक विचार-परंपरा मन में जाग्रत हुई। मैंने मन ही मन कहा—जिन दो मीनारों के पीछे हिंदुस्तान के इतिहास का परम रहस्य—चरम रहस्य—छिपा हुआ है। औरंगज़ेब ने धर्मान्धताके जोश में आकर, काशी के केंद्र, हिंदू धर्म के तिलक, विश्वेश्वरनाथ मंदर को तुड़वा डाला और उसकी जगह एक मस्जिद बनवाई। आज भी जिस मस्जिद के पिछले हिस्से में मूल मंदिर का अवशेष दीख पड़ता है। औरंगज़ेब की मृत्यु हुई। मुग़ल साम्राज्य का पतन हुआ। हिंदू-पदपादगाही की स्थापना की इच्छा करनेवाले मराठों की धाक दिल्ली पर जम गई। मराठा सरदार हरिद्वार के पण्डों को भूमिदान देने लगे। फिर भी, इन हिंदूओं को काशी-जैसे पवित्र धर्म-क्षेत्र में इस्लाम की पताका के समान विराजती हुई औरंगज़ेब की मस्जिद तोड़ डालने के विचार ने स्पर्श तक नहीं किया। आज यह मस्जिद इलामक विजय की पताका नहीं रही है। लेकिन जब हिंदूओं का साम्राज्य लगभग सारे देश में फेल गया था, उस समय प्रकट की हुई उनकी सहिष्णुता की ध्वज है। हिंदू जाति के इस प्रेम-मंत्र को अँग्रेज़ समझ ही नहीं सकते, फिर वे इसे ग्रहण तो कैसे करते? इसीलिए कानपुर के कुएँ पर लिखे हुझे अपने द्वेष-लेख की हिफ़ाज़त के लिए सरकार ने वहाँ गोरो का पहरा बैठा दिया है, और दिल्ली शहर के सामने तलवार अठाकर खड़े हुए सेनापति का पुतला खड़ा करने में बड़ा पुरुषार्थ माना है।

    इन विचारों के प्रवाह में मैं जाने कहाँ वहता चला जाता; लेकिन पुल के नीचे बहते गंगाजी के शांत प्रवाह ने मुझे भी शांत कर दिया। पर यह शांति देर तक टिकने नहीं पाई। स्टेशन के पास आते ही मेरी छाती धड़कने लगी। पण्डों का झुंड मेरे पीछे पड़ेगा, इस ख़याल से मेरे गात्र ढीले पड़ गए। रूस के जंगल का कोई मुसाफ़िर भेड़ियों के झुंड को अपना पीछा करते देखकर भी इतना घबराया होगा। डरते-डरते मैं ट्रेन से अतरा, और एक गाड़ीवान के पास जाकर उससे कहा—भाई, जितना किराया लेना हो, ले लो, लेकिन मुझे फ़ौरन यहाँ से दुर्गाघाट की तरफ़ ले चलो। गाडीवान ने गाड़ी तो हाँकी, लेकिन फिर भी दो पण्डे अपने अपने पोथे बग़ल में दवाकर मेरे पीछे दौड़े। मैं उनके चंगुल से ज्यों-त्यों छुटकारा पाकर अनन्त भट्ट के घर जा पहुँचा।

    अनन्त भट्ट बड़े भले आदमी थे। अपना कर्मकांड भलीभाँति निवाहते थे। यजमानों की आव-भगत अपने कुलकी प्रतिष्ठा के अनुरूप करते और अपनी आय बढ़ाते थे। साहूकारी का धंधा भी करते थे। सोने से पहले मुझे पण्डों का ख़याल आया। मैंने सोचा, अनंत भट्ट भी तो एक तरह के पण्डे ही हैं। अगर ये यहाँ होते, तो मेरी यात्रा सुचारु रूप से हो पाती। विलायत के हर बड़े शहर में होटल होते है। 'हाउस एजेंट्स' होते है। टॉमस कुक-जैसी कंपनियाँ होती हैं। हर बंदरगाह पर शिपिंग एजेंट्स भी मिलते है। क्या ये पण्डे वही काम हमारे जीवन के अनुरूप ढंग से नहीं करते? पण्डे को चिट्ठी लिखते ही वह हमें लेने के लिए स्टेशन पर आता है। घर ले जाकर रहने का प्रबंध करता है। दर्शनीय मंदिर और स्थान दिखाता है, अन सबका माहात्म्य भी बताता है, हमारे साथ बाज़ार मे भी आता है, और इस सबके लिए लेता क्या है? जो कुछ हम दे दें। जितनी सस्ती और सादी व्यवस्था दुनिया में और कहीं मिलेगी।

    तब हमें इन पण्डों से घबराहट क्यों होती है? जिसका कारण यही है कि पण्डों का अब तक इस बात का पूरा मान नहीं हुआ है कि वे अब गुरु या पुरोहित रहकर 'हाउस एजेंट्स' या 'होटेल कीपर' ही रह गए हैं। दो आदर्श संभालने की कोगिश में उनकी यह दंशा हो गई है। सच पूछिय, तो ये पण्डे यात्रियों के गुरु कहलाते है। अपनी भलमनसाहत और आतिथ्य धर्म के अनुसार शुरू-शुरु में जिन्होंने अपने यजमानों की ख़ातिरदारी की होगी। बाद में धनवान यात्रियों को देखकर ब्राह्मणों का हृदय लोभते विचलित हो उठा होगा। ब्राह्मण कहते हैं कि पण्डों का लाभ सीताजी का बाप है। धन्य है इन ब्राह्मणों को, जो अपने भद्दे-से-भद्दे दीप के लिए भी व्यास या शीनक ऋषि के नाम से पौराणिक प्रमाण अत्पन्न कर सकते हैं। इन गंगापुत्रों में से कुछ आधुनिक पद्धति स्वीकार कर 'हाउस एजेंट्स' और 'ट्राव्हलर्स गाइड' बन जाएँ, और जिस तरह अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा करें, तो भी वे ख़ूब कमाएँगे और यात्रियों के आशीर्वाद भी पाएँगे।

    दूसरे दिन हम मणिकर्णिका घाट पर नहाने गए। वहाँ गंगाजी का ही पानी लेकर गंगाजी का अभिषेक किया। फिर चक्रपुष्करिणी तीर्थ पर पहुँचे। पास खड़े हुए एक गंगापुत्र ने कहा—आइए महाराज, स्नान कीजिए। मैंने असे मना कर दिया। बाबा चौक गए। उन्होंने पूछा—क्यों इस तीर्थ का ज़ियादा माहात्म्य है? मैने जवाब दिया—क्यों नहीं? अगर आदतर इसमें एक बार नहा ले, तो फिर उसे नरक में जाने की ज़रूरत रह जाए। बाबा समझ गए। फिर भी, उनका कुतूहल तृप्त करने के लिए हम तीर्थ के पास गए। तीर्थ पर एक संगमरमर का पत्थर था। उसपर अँग्रेज़ी में विक्टोरिया रानी का नाम और दुसरी कुछ बातें लिखी थीं। और तीर्थ में? पाँच फुट चौड़ा और पचीस-तीस फुट लंबा एक गड्ढा। पानी का रंग हम देख सके। क्योंकि उस कुंड में रोज़ नहाने वाले हज़ारों यात्रियों के पसीने की मिट्टी उन पानी पर जम गई थी। तो भी सैकड़ों यात्री मृत्यु के बाद के नरक से बचने के लिए उस नरक में बड़े शौक़ से गोते लगा रहे थे। मुझे लगा आख़िर मारे शर्म के जिन लोगों को नरकवास से मुक्त कर देता होगा। क्योंकि उस कुंड में स्नान करने वाले भी जिसे देखकर घिनाए, वैसा कुंड आख़िर नरक में भी कहाँ से लाएगा?

    हम स्मशानघाट की तरफ़ चले। वहाँ कटी ही लकड़ियों का ढेर रचकर रखा था। मैंने सोचा, कहीं मेरे लिए ही तो वह नहीं रचाया गया है? जो मनुष्य काशीमें मरता है, असके कान में स्वयं महादेव तार स्वर से मंत्र पढ़ जाते हैं, और काशी-विश्वेश्वर हमेशा अपने शरीर में उसकी चिंता-भस्म का लेप करते हैं।

    आगे चलकर हमने विंदुमाधव का दर्शन किया। सिंधिया-होलकर के अन्नसत्र देखे। पुण्यश्लोका अहल्याबाई का स्मरण हुआ। अनकी व्यवस्था के अनुसार रोज़ काशी से रामेश्वर जानेवाली वहॅगीका चित्र दृष्टि के सामने आया। हमने विश्वनाथजी के दर्शन किए। वहाँ की वह भीड़, वह कीचड़, और सड़े हुए बिल्वपत्रों की वह गंध, ये सब कैसे ही क्यों हों, तो भी काव्यमय प्रतीत होते थे, और भक्तिभाव में वृद्धि ही करते थे। विश्वेश्वर के दरबार में कोसी भेदभाव नहीं है। सब समान है। दर्शनों के लिए चाहे जो जाए, चाहे जब जाए, 'मत जाओ' का नाम मिलेगा। मंदिर के गर्भगृह की दीवार में एक तिरछा छेद बनाया गया है। इस छेद को बनाने का कारण मेरी समझ में नहीं आया। लेकिन मंदिर की परिक्रमा करते वक़्त मैंने देखा कि दुनिया की यात्रा करनेवाले गोरे 'ग्लोव ट्रॉटरों' (तुरगयात्रियों) के लिए विश्वेश्वर के दर्शनों का प्रबंध करने के विचार से ही यह छिद्र बनाया गया है। जिस वक़्त हम गए, अस वक़्त वहाँ टॉमस कुक का एक एजेंट दो तीन मेमों को मंदिर के विषय में जानकारी दे रहा था। किसी ने मुझसे कहा कि मंदिर के गुंबद पर मढी हुई साने की चद्दर पंजाब केसरी रणजीत सिंह की श्रद्धा का एक चिह्न है। पास ही औरंगज़ेब की मस्जिद है, और बीच में ज्ञानवापी है। कहते है कि जब यवन पुराने मंदिर को भ्रष्ट करने आए, तब कलियुग की महिमा जानकर विश्वेश्वर की मूर्ति इस कुएँ में कूद पड़ी थी। यह कुआँ ठेठ पाताल तक गया है!

    वहाँ से हम वह मठ देखने गए, जिसमें बैठकर एकनाथ महाराज ने अपना 'नाथ भागवत' नामक ग्रंथ पूरा किया था। इसी स्थान पर यह सिद्ध हुआ था कि संस्कृत भाषा का सामर्थ्य और पावित्र्य मेरी मराठी में भी है। इस विचार के आते ही हृदय में भक्ति अमड़ आई। मैंने उन स्थान का दण्डवत् प्रणाम किया, एकनाथ स्वामी का स्मरण किया, और हम बिलिंग स्वामी की मूर्ति के दर्शन करने गए। त्रिलिंग स्वामी एक सुविख्यात दक्षिणी संन्यासी थे। उन्होंने काशीजी में अनेक मंदिरों और मकानों का जीर्णोद्धार कराया था। लेकिन वे एक भी नया मंदिर या नया मकान बनवाने को तैयार होते थे। इसका कारण स्पष्ट है। काशीजी के छोटे-मोटे मंदिरों और मूर्तियों की गिनती की जाए, तो सुनकी संख्या इतनी निकले कि वह काशी की जन-संख्या से बहुत कम तो हो। वहाँ और नए मंदिर बनवाने की ज़रूरत ही क्या है?

    हिंदुस्तान में अनेक साम्राज्य हो गए। अनेक राजधानियाँ हो गईं। आज वे राजधानियाँ या तो नामशेष हो गई है, या छोटे-छोटे गॉवों में रूपान्तरित हो गई है। लेकिन यह देवनगरी अनेक साम्राज्यों के अभ्युत्थान और पतन की साक्षी होकर भी आजतक ज्यों-को-त्यों बनी है। यदि भूतकाल को सजीव देखना हो, तो काशीजी में देख सकते है। गंगाजी अपने घाट-रूपी बंधनों को बार-बार तोड़ती ही रहती है, और जिस तरह अपनी माँ की लात खाकर भी बछड़ा दूध पीने दौड़ता ही है, उसी तरह लोग भी फिर-फिर नए-नए घाट बनवाते ही जाते है।

    वाराणसी में आज भी पूर्व मीमांसावादी कर्म-काण्डियों के यज्ञ-याग चलते रहते है, वेदांती द्वैत-अद्वैत का झगड़ा करके श्रोताओं को खंडन-खंड-खाद्य देते है; वैयाकरणी एक-एक शब्द की ख़ाल निकालते हैं; बंगाली और दक्षिणी नैयायिक 'गदाधारी' का अर्थ करने की कोशिश करते हैं; ईसाई और आर्यसमाजी वागयुद्ध की धूम मचाते है। वेदाभ्यासी दशग्रंथों का घोप करते हैं; कारीगर टॉकी चला-चलाकर पत्थर को देवता बनाते है, और कभी भृदेव अन्नक्षेत्र में खाकर निठल्ले बैठे-बैठे जीवित पत्थर बन जाते हैं।

    इसी नगरी में अँग्रज़ों और अन्त्यजों ने विश्वामित्र के ऋण से मुक्त होने में सत्यसंध हरिश्चन्द्र की मदद की थी। इमी नगरी में तुलसीदास ने रामकथा का गान किया था, और यहीं कबीर जी ने हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों को एक सूत्र में पिरोया था।

    कुछ लोग बनारस को The city of the dead and the dying—मृतकों और मरणान्मुन्वों की नगरी कहतें है। परंतु जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, हिंदुस्तान की अनेक नगरियाँ नामशेष हुर्इं; पर वाराणसी आज भी अमरपुरी ही है, क्योंकि काशीजी में सनातनधर्म का निवास है।

    एक दिन हम दशाश्वमेघ घाटसे पुलतक नाव में घूमने गए। गंगाजी कें स्पर्श के कारण शीतल और पावन पवन मंद-मंद बह रहा था। नाना प्रकार के मंदिर 'मुझे देखो, मुझे देखो', कहते हुए आँख के सामने खड़े होते जाते थे। मैं सबको श्रद्धापूर्वक प्रणाम करता था। जिस प्रकार चकमक पत्थर के टेढ़े-मेढ़े पहलू सुहावने लगते हैं, असी प्रकार काशी के मकानों की विशंखल शोभा दृष्टि को आकर्षित करती है। साँझ-सवेरे असंख्य स्त्री, पुरुष, बालक और वृद्ध गंगामैया की गोद में खेलते हुआ नज़र आते है।

    दशाश्वमेघ घाटपर एक परमहंस रहते थे। वे नंग रहा करते थे। जब मैं पहली बार बनारस गया था, तो मैंने उनका फोटो लेने का प्रयास किया था। परंतु वह निष्फल हुआ। मैं जिधर मुड़ता था, अधर ही वे अपनी पीठ फेरते जाते थे। अस दिन मैं बहुत खिन्न रहा, लेकिन बाद में मुझे यह विचार आया कि असे परमहस का फोटो लेना जंगलीपन है। अबकी बार मैं फिर उनके दर्शन करने गया, तो देखा कि वे वहाँ नहीं थे। किसी ने कहा, कुछ दिन पहले गंगाजी में बाढ आई थी, उसी में वे बह गए। कुछ लोगों ने अन्हें बचाने का प्रयत्न भी किया, लेकिन उन्होंने लौटने से साफ़ इंकार कर दिया, और गंगाजी में जल समाधि ले ली।

    काशी में जिस प्रकार अनेक धर्म और अनेक सम्प्रदाय है, उसी प्रकार वहाँ स्थापत्य और शिल्पकला के भी अनेक प्रकार हैं। दूसरे दिन हम अन्हें देखने निकले। सब देख-दाखकर शाम के वक़्त थिऑसॉफिस्ट लोगों के सेंट्रल हिंदू कॉलेज में पहुँचे। वहाँ सरस्वती का एक छोटा-सा मंदिर देखा। एक-दो बंगाली विद्यार्थी चद्दर ओठकर नंगे सिर घूम रहे थे। पास ही थिऑसॉफिकल लाजमे श्रीमती वेसण्टका व्याख्यान था। 'भविष्य का मनुष्य प्राणी कैसा होगा?' इस विषय पर विवेचन हो रहा था। व्याख्यान के बाद हम लोग रामकृष्ण-सेवाश्रम पहुँचे। वहाँ ब्रह्मचारी चंद्रशेखर नामक एक साधु थे। उन्होंने हमारा स्वागत किया। कई ब्रह्मचारी संस्कृत पढ़ते थे। पासवाले संग्रालय में चास्वाथ रोगियों की सेवा-शुउपा करते थे। सेवा श्रमका प्रबंध देखकर मैं ख़ुश हुआ। इतने में दो-तीन बंगाली शहर से तंबूरा और तबला लेकर आए। उन्होंने तंबूरे और तबले के साथ गाना शुरू कर दिया। संत कवि रामप्रसाद का गीत था। गायक अद्भुत थे। शाम को जब घर लौटे, तो असी गायन का स्वर कानों में गूँज रहा था।

    आख़िरी दिन हम कालभैरव के मंदिर में गए। वहाँ हमने अपने हाथ में और गले में रेशम का काला धागा बाँधा। मंदिर में जाकर

    तीक्ष्णदष्ट्र महाकाय कल्पान्त दहनोपम।

    भैरवाय नमस्तुभ्य, अनुज्ञां दातुमर्हसि॥

    कहकर काशीजी के इस कोतवाल से आज्ञा ली, और त्रिस्थली की यात्रा पूरी करने के उद्देश्य से गयाजी के लिए रवाना हुए। मैं जानता था कि गया के पण्डे यात्रियों को बहुत तंग करते हैं, इसलिए गया की सारी विधियों की दक्षिणा और ख़र्च का पैसा अनन्त भट्टजी को देकर हमने उनसे रसीद ले ली थी। जिसमें उतनी ही सुविधा थी, जितनी टॉमस कुक कंपनी को प्रवास का सारा ख़र्च देकर कूपन बुक लेने में होती है।

    हर एक हिंदुस्तानी को जीवन में एक बार वाराणसी के दर्शन अवश्य करने चाहिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : काका कालेलकर के यात्रा-संस्मरण (पृष्ठ 4-15)
    • रचनाकार : काका कालेलकर
    • प्रकाशन : नवजीवन मुद्रणालय
    • संस्करण : 1948

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