सुजान भगत

sujan bhagat

प्रेमचंद

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सुजान भगत

प्रेमचंद

और अधिकप्रेमचंद

    एक

    सीधे-सादे किसान धन हाथ आते ही धर्म और कीर्ति की ओर झुकते हैं। धनिक समाज की भाँति वे पहले अपने भोग-विलास की ओर नहीं दौड़ते। सुजान की खेती में कई साल से कंचन बरस रहा था। मेहनत तो गाँव के सभी किसान करते थे, पर सुजान के चंद्रमा बली थे। ऊसर में भी दाना छींट आता, तो कुछ-न-कुछ पैदा हो ही जाता था। तीन वर्ष लगातार ऊख लगती गई। उधर गुड़ का भाव तेज़ था। कोई दो-ढाई हज़ार हाथ में गए। बस, चित्त की वृत्ति धर्म की ओर झुक पड़ी। साधु-संतों का आदर-सत्कार होने लगा, द्वार पर धूनी जलने लगी, कानूनगो इलाक़े में आते, तो सुजान महतो के चौपाल में ठहरते, हल्के के हेड-कांसटेबिल, थानेदार, शिक्षा-विभाग के अफ़सर एक-न-एक उस चौपाल में पड़ा ही रहता। महतो मारे ख़ुशी के फूले समाते। धन्य भाग! उनके द्वार पर अब इतने बड़े-बड़े हाकिम आकर ठहरते हैं। जिन हाकिमों के सामने उसका मुँह खुलता था, उन्हीं की अब 'महतो-महतो' करते ज़बान सूखती थी। कभी-कभी भजन-भाव हो जाता। एक महात्मा ने डौल अच्छा देखा तो गाँव में आसन जमा दिया। गाँजे और चरस की बहार उड़ने लगी। एक ढोलक आई, मँजीरे मँगवाए गए, सत्संग होने लगा। यह सब सुजान के दम का जुलूस था। घर में सेरों दूध होता, मगर सुजान के कंठ तले एक बूँद जाने की भी क़सम थी। कभी हाकिम लोग चखते, कभी महात्मा लोग। किसान को दूध-घी से क्या मतलब, उसे तो रोटी और साग चाहिए। सुजान की नम्रता का अब पारावार था। सबके सामने सिर झुकाए रहता, कहीं लोग यह कहने लगें कि धन पाकर उसे घमंड हो गया है। गाँव में कुल तीन कुएँ थे, बहुत से खेतों में पानी पहुँचता था, खेती मारी जाती थी। सुजान ने एक पक्का कुआँ और बनवा दिया। कुएँ का विवाह हुआ, यज्ञ हुआ, ब्रह्मभोज हुआ। जिस दिन कुएँ पर पहली बार पुर चला सुजान को मानो चारों पदार्थ मिल गए। जो काम गाँव में किसी ने किया था, वह बाप-दादा के पुण्य-प्रताप से सुजान ने कर दिखाया।

    एक दिन गाँव में गया के यात्री आकर ठहरे। सुजान ही के द्वार पर उनका भोजन बना। सुजान के मन में भी गया यात्रा करने की बहुत दिनों से इच्छा थी। यह अच्छा अवसर देखकर वह भी चलने को तैयार हो गया।

    उसकी स्त्री बुलाकी ने कहा—अभी रहने दो, अगले साल चलेंगे।

    सुजान ने गंभीर भाव से कहा—अगले साल क्या होगा, कौन जानता है। धर्म के काम में मीन-मेष निकालना अच्छा नहीं। ज़िदगानी का क्या भरोसा?

    बुलाकी—हाथ ख़ाली हो जाएगा।

    सुजान—भगवान की इच्छा होगी तो फिर रुपए जाएँगे। उसके यहाँ किस बात की कमी है।

    बुलाकी इसका क्या जवाब देती। सत्कार्य में बाधा डालकर अपनी मुक्ति क्यों बिगाड़ती? प्रात:काल स्त्री और पुरुष गया करने चले। वहाँ से लौटे, तो यज्ञ और ब्रह्मभोज की ठहरी।

    सारी बिरादरी निमंत्रित हुई ग्यारह गाँव में सुपारी बाँटी। इस धूमधाम से कार्य हुआ कि चारों ओर वाह-वाह मच गई। सब यही कहते थे कि भगवान् धन दे तो, दिल में ऐसा ही दे। घमंड तो छू नहीं गया, अपने हाथ से पत्तल उठाता फिरता था। कुल का नाम जगा दिया, बेटा हो तो ऐसा हो। बाप मरा तो घर-घर में भूनी-भाँग नहीं थी। अब लक्ष्मी घुटने तोड़ कर बैठी हैं।

    एक द्वेषी ने कहा—'कहीं गड़ा हुआ धन पा गया है।' तो चारों ओर से उस पर बौछारें पड़ने लगीं—हाँ, तुम्हारे बाप-दादा जो ख़ज़ाना छोड़ गए थे, वही उसके हाथ लग गया है। अरे भैया, यह धर्म की कमाई है। तुम भी तो छाती फाड़ कर काम करते हो, क्यों ऐसी ऊख नहीं लगती, क्यों ऐसी फ़सल नहीं होती? भगवान् आदमी का दिल देखते हैं; जो ख़र्च करना जानता है, उसी को देते हैं।

    दो

    सुजान महतो सुजान-भगत हो गए। भगतों के आचार-विचार कुछ ओर ही होते हैं। भगत बिना स्नान किए कुछ नहीं खाता। गंगा जी अगर घर से दूर हों और वह रोज़ स्नान करके दुपहर तक घर लौट सकता हो, तो पर्वों के दिन तो उसे अवश्य ही नहाना चाहिए। भजन-भाव उसके घर अवश्य होना चाहिए। पूजा-अर्चना उसके लिए अनिवार्य है। खान-पान में भी उसे बहुत विचार रखना पड़ता है। सबसे बड़ी बात यह है कि झूठ का त्याग करना पड़ता है। भगत झूठ नहीं बोल सकता। साधारण मनुष्य को अगर झूठ का दंड एक मिले, तो भगत को एक लाख से कम नहीं मिल सकता। अज्ञान की अवस्था में कितने ही अपराध क्षम्य हो जाते हैं। ज्ञानी के लिए क्षमा नहीं है, प्रायश्चित्त नहीं है, अगर है भी तो बहुत कठिन। सुजान को भी अब भगतों की मर्यादा को निभना पड़ा। अब तक उसका जीवन मजूर का जीवन था। उसका कोई आदर्श, कोई मर्यादा उसके सामने थी। अब उसके जीवन में विचार का उदय हुआ, जहाँ का मार्ग काँटों से भरा हुआ है। स्वार्थ-सेवा ही पहले उसके जीवन का लक्ष्य था, इसी काँटे से वह परिस्थितियों को तौलता था। वह अब उन्हें औचित्य के काँटों पर तौलने लगा। यों कहो कि जड़-जगत् से निकल कर उसने चेतन-जगत् में प्रवेश किया। उसने कुछ लेन-देन करना शुरू किया था, पर अब उसे ब्याज लेते हुए आत्मग्लानि-सी होती थी। यहाँ तक कि गउओं को दुहाते समय उसे बछड़ों का ध्यान बना रहता था—कहीं बछड़ा भूखा रह जाए, नहीं तो उसका रोयाँ दुखी होगा। वह गाँव का मुखिया था, कितने ही मुक़दमों में उसने झूठी शहादतें बनवाई थीं, कितनों से डाँड़ लेकर मामले को रफ़ा-दफ़ा करा दिया था। अब इन व्यापारों से उसे घृणा होती थी। झूठ और प्रपंच से कोसों दूर भागता था। पहले उसकी यह चेष्टा होती थी कि मजूरों से जितना काम लिया जा सके लो और मजूरी जितनी कम दी जा सके, दो; पर अब उसे मजूरों के काम की कम, मजूरी की अधिक चिंता रहती थी—‘कहीं बेचारे मजूर का रोयाँ दुखी हो जाए। यह उसका सखुनतकिया-सा हो गया—'किसी का रोयाँ दुखी हो जाए।' उसके दोनों जवान बेटे बात-बात में उस पर फब्तियाँ कसते, यहाँ तक कि बुलाकी भी अब उसे कोरा भगत समझने लगी, जिसे घर के भले-बुरे से कोई प्रयोजन था। चेतन-जगत् में आकर सुजान भगत कोरे भगत रह गए।

    सुजान के हाथों से धीरे-धीरे अधिकार छीने जाने लगे। किस खेत में क्या बोना है, किसको क्या देना है, किससे क्या लेना है, किस भाव क्या चीज़ बिकी, ऐसी महत्त्वपूर्ण बातों में भी भगत जी की सलाह ली जाती। भगत के पास कोई जाने ही पाता। दोनों लड़के या स्वयं बुलाकी दूर ही से मामला कर लिया करती। गाँव-भर में सुजान का मान-सम्मान बढ़ता था, अपने घर में घटता था। लड़के उसका सत्कार अब बहुत करते। उसे हाथ से चारपाई उठाते देख लपक कर ख़ुद उठा लेते, उसे चिलम भरने देते, यहाँ तक कि उसकी धोती छाँटने के लिए भी आग्रह करते थे। मगर अधिकार उसके हाथ में था। वह अब घर का स्वामी नहीं, मंदिर का देवता था।

    तीन

    एक दिन बुलाकी ओखली में दाल छाँट रही थी कि एक भिखमंगा द्वार पर आकर चिल्लाने लगा। बुलाकी ने सोचा, दाल छाँट लूँ तो उसे कुछ दे दूँ। इतने में बड़ा लड़का भोला आकर बोला—अम्माँ, एक महात्मा द्वार पर खड़े गला फाड़ रहे हैं। कुछ दे दो। नहीं तो उनका रोयाँ दुखी हो जाएगा।

    बुलाकी ने उपेक्षा-भाव से कहा—भगत के पाँव में क्या मेहँदी लगी है, क्यों कुछ ले जाकर नहीं दे देते। क्या मेरे चार हाथ हैं? किस-किसका रोयाँ सुखी करूँ? दिन भर तो ताँता लगा रहता है।

    भोला—चौपट करने लगे हैं, और क्या! अभी महँगू बेंगन देने आया था। हिसाब से 7 मन हुए। तौला तो पौने सात मन ही निकले। मैंने कहा—दस सेर और ला, तो आप बैठे-बैठे कहते हैं, अब इतनी दूर कहाँ जाएगा। भरपाई लिख दो, नहीं तो उसका रोयाँ दुखी होगा। मैंने भरपाई नहीं लिखी। दस सेर बाक़ी लिख दी।

    बुलाकी—बहुत अच्छा किया तुमने, बकने दिया करो। दस-पाँच दफ़े मुँह की खाएँगे, तो आप ही बोलना छोड़ देंगे।

    भोला—दिन-भर एक-न एक खुचड़ निकालते रहते हैं। सौ दफ़े कह दिया कि तुम घर-गृहस्थी के मामले में बोला करो, पर इनसे बिन बोले रहा ही नहीं जाता।

    बुलाकी—मैं जानती कि इनका यह हाल होगा, तो गुरुमंत्र लेने देती।

    भोला—भगत क्या हुए कि दीन-दुनिया दोनों से गए। सारा दिन पूजा-पाठ में ही उड़ जाता है। अभी ऐसे बूढ़े नहीं हो गए कि कोई काम ही कर सकें।

    बुलाकी ने आपत्ति की—भोला, यह तुम्हारा कुन्याव है। फावड़ा, कुदाल अब उनसे नहीं हो सकता, लेकिन कुछ कुछ तो करते ही रहते हैं। बैलों को सानी-पानी देते हैं; गाय दुहाते हैं और भी जो कुछ हो सकता है, करते हैं।

    भिक्षुक अभी तक खड़ा चिल्ला रहा था। सुजान ने जब घर में से किसी को कुछ लाते देखा, तो उठकर अंदर गया और कठोर स्वर से बोला—तुम लोगों को कुछ सुनाई नहीं देता कि द्वार पर कौन घंटे-भर से खड़ा भीख माँग रहा है। अपना काम तो दिन-भर करना ही है, एक छन भगवान् का काम भी तो कर दिया करो।

    बुलाकी—तुम तो भगवान् का काम करने को बैठे ही हो, क्या घर-भर भगवान् ही का काम करेगा?

    सुजान—कहाँ आटा रखा है, लाओ, मैं ही निकाल कर दे आऊँ। तुम रानी बन कर बैठो।

    बुलाकी—आटा मैंने भर कर पीसा है, अनाज दे दो। ऐसे मुड़चिरों के लिए पहर रात से उठकर चक्की नहीं चलाती हूँ।

    सुजान भंडार घर में गए और एक छोटी-सी छाबड़ी को जौ से भरे हुए निकाले। जौ सेर भर से कम था। सुजान ने जान-बूझकर, केवल बुलाकी और भोला को चिढ़ाने के लिए, भिक्षा परंपरा का उल्लंघन किया था। तिस पर भी यह दिखाने के लिए कि छाबड़ी में बहुत ज़्यादा जौ नहीं है, वह उसे चुटकी से पकड़े हुए थे। चुटकी इतना बोझ सँभाल सकती थी। हाथ काँप रहा था। एक क्षण विलंब होने से छाबड़ी के हाथ से छूट कर गिर पड़ने की संभवना थी, इसलिए वह जल्दी से बाहर निकल जाना चाहते थे। सहसा भोला ने छाबड़ी उनके हाथ से छीन ली और त्यौरियाँ बदल कर बोला—सेंत का माल नहीं है, जो लुटाने चले हो। छाती फाड़-फाड़ कर काम करते हैं, तब दाना घर में आता है।

    सुजान ने खिसियाकर कहा—मैं भी तो बैठा नहीं रहता।

    भोला—भीख, भीख की ही तरह दी जाती है, लुटाई नहीं जाती। हम तो एक बेला खाकर दिन काटते हैं कि पति-पानी बना रहे और तुम्हें लुटाने की सूझी है। तुम्हें क्या मालूम कि घर में क्या हो रहा है।

    सुजान ने इसका कोई जवाब दिया। बाहर आकर भिखारी से कह दिया—बाबा, इस समय जाओ, किसी का हाथ ख़ाली नहीं है और पेड़ के नीचे बैठ कर विचारों में मग्न हो गया। अपने ही घर में उसका यह अनादर! अभी वह अपाहिज नहीं है, हाथ-पाँव थके नहीं हैं, घर का कुछ कुछ काम करता ही रहता है। उस पर यह अनादर! उसी ने घर बनाया, यह सारी विभूति उसी के श्रम का फल है, पर अब इस घर पर उसका कोई अधिकार नहीं रहा। अब वह द्वार का कुत्ता है, पड़ा रहे और घरवाले जो रूखा-सूखा दे दें, वह खाकर पेट भर लिया करे। ऐसे जीवन को धिक्कार है। सुजान ऐसे घर में नहीं रह सकता।

    संध्या हो गयी थी। भोला का छोटा भाई शंकर नारियल भरकर लाया। सुजान ने नारियल दीवार से टिकाकर रख दिया! धीरे-धीरे तंबाकू जल गया। ज़रा देर में भोला ने द्वार पर चारपाई डाल दी। सुजान पेड़ के नीचे से उठा।

    कुछ देर और गुजारी। भोजन तैयार हुआ। भोला बुलाने आया। सुजान ने कहा—भूख नहीं है। बहुत मनावन करने पर भी उठा। तब बुलाकी ने आकर कहा—खाना खाने क्यों नहीं चलते? जी तो अच्छा है?

    सुजान को सबसे अधिक क्रोध बुलाकी ही पर था। यह भी लड़कों के साथ है! यह बैठी देखती रही और भोला ने मेरे हाथ से अनाज छीन लिया। इसके मुँह से इतना भी निकला कि ले जाते हैं, तो ले जाने दो। लड़कों को मालूम हो कि मैंने कितने श्रम से यह गृहस्थी जोड़ी है, पर यह तो जानती है। दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। भादों की अँधेरी रात में मड़ैया लगा के जुआर की रखवाली करता था, जेठ-बैसाख की दुपहरी में भी दम लेता था, और अब मेरा घर पर इतना भी अधिकार नहीं है कि भीख तक दे सकूँ। माना कि भीख इतनी नहीं दी जाती लेकिन इनको तो चुप रहना चाहिए था; चाहे मैं घर में आग ही क्यों लगा देता। कानून से भी तो मेरा कुछ होता है। मैं अपना हिस्सा नहीं खाता, दूसरों को खिला देता हूँ; इसमें किसी के बाप का क्या साझा। अब इस वक़्त मनाने आई है! इसे मैंने फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ, नहीं तो गाँव में ऐसी कौन औरत है, जिसने ख़सम की लातें खाई हों, कभी कड़ी निगाह से देखा तक नहीं। रुपए-पैसे, लेना-देना, सब इसी के हाथ में दे रखा था। अब रुपए जमा कर लिए हैं, तो मुझी से घमंड करती है। अब इसे बेटे प्यारे हैं, मैं तो निखट्टू; लुटाऊ, घर-फूँकू, घोंघा हूँ। मेरी इसे क्या परवाह। तब लड़के थे, जब बीमार पड़ी थी और मैं गोद में उठा कर बैद के घर ले गया था। आज उसके बेटे हैं और यह उनकी माँ है। मैं तो बाहर का आदमी हूँ, मुझसे घर से मतलब ही क्या। बोला—अब खा-पीकर क्या करूँगा, हल जोतने से रहा, फावड़ा चलाने से रहा। मुझे खिलाकर दाने को क्यों ख़राब करेगी? रख दो, बेटे दूसरी बार खाएँगे।

    बुलाकी—तुम तो ज़रा-ज़रा-सी बात पर तिनक जाते हो। सच कहा है, बुढ़ापे में आदमी की बुद्धि मारी जाती है। भोला ने इतना तो कहा था कि इतनी भीख मत ले जाओ, या और कुछ?

    सुजान—हाँ, बेचारा इतना कह कर रह गया। तुम्हें तो मज़ा तब आता, जब वह ऊपर से दो-चार डंडे लगा देता। क्यों? अगर यही अभिलाषा है, तो पूरी कर लो। भोला खा चुका होगा, बुला लाओ। नहीं, भोला को क्यों बुलाती हो, तुम्हीं जमा दो, दो-चार हाथ। इतनी कसर है; वह भी पूरी हो जाए।

    बुलाकी—हाँ और क्या, यह तो नारी का धर्म ही है। अपने भाग सराहो कि मुझ जैसी सीधी औरत पा ली। जिस बल चाहते हो, बिठाते हो। ऐसी मुँहज़ोर होती तो तुम्हारे घर में एक दिन निबाह होता।

    सुजान—हाँ, भाई, वह तो मैं ही कह रहा हूँ कि तुम देवी थी और हो। मैं तब भी राक्षस था और अब भी दैत्य हो गया हूँ। बेटे कमाऊ हैं, उनकी-सी कहोगी, तो क्या मेरी-सी कहोगी; मुझसे अब क्या लेना-देना है।

    बुलाकी—तुम झगड़ा करने पर तुले बैठे हो और मैं झगड़ा बचाती हूँ कि चार आदमी हँसेंगे! चलकर खाना खा लो सीधे से, नहीं तो मैं भी जाकर सो रहूँगी।

    सुजान—तुम भूखी क्यों सो रहोगी, तुम्हारे बेटों की तो कमाई है; हाँ, मैं बाहरी आदमी हूँ।

    बुलाकी—बेटे तुम्हारे भी हैं।

    सुजान—नहीं, मैं ऐसे बेटों से बाज़ आया। किसी और के बेटे होंगे। मेरे बेटे होते तो क्या मेरी यह दुर्गति होती?

    बुलाकी—गालियाँ दोगे तो मैं भी कुछ कह बैठूँगी। सुनती थी, मर्द बड़े समझदार होते हैं, पर तुम तो सबसे न्यारे हो। आदमी को चाहिए कि जैसा समय देखे, वैसा काम करे। अब हमारा और तुम्हारा निर्वाह इसी में है कि नाम के मालिक बने रहें और वही करें, जो लड़कों को अच्छा लगे। मैं यह बात समझ गई, तुम क्यों नहीं समझ पाते? जो कमाता है, उसी का घर में राज होता है; यही दुनिया का दस्तूर है। मैं बिना लड़कों से पूछे कोई काम नहीं करती; तुम क्यों अपने मन की करते हो। इतने दिनों तो राज कर लिया; अब क्यों इस माया में पड़े हो। चलो, खाना खा लो।

    सुजान—तो अब मैं द्वार का कुत्ता हूँ?

    बुलाकी—बात जो थी, वह मैंने कह दी; अब अपने को जो चाहो समझो।

    सुजान उठे। बुलाकी हार कर चली गई।

    चार

    सुजान के सामने अब एक नई समस्या खड़ी हो गई थी। वह बहुत दिनों से घर का स्वामी था और अब भी ऐसा ही समझता था। परिस्थिति में कितना उलट-फेर हो गया था; इसकी उसे ख़बर थी। लड़के उसकी सेवा-सम्मान करते हैं, यह बात उसे भ्रम में डाले हुए थी। लड़के उसके सामने चिलम नहीं पीते, खाट पर नहीं बैठते, क्या यह सब उसके गृहस्वामी होने का प्रमाण था? पर आज उसे यह ज्ञात हुआ कि यह केवल श्रृद्धा थी, उसके स्वामित्व का प्रमाण नहीं। क्या इस श्रद्धा के बदले वह अपना अधिकार छोड़ सकता था? कदापि नहीं। अब तक जिस घर में राज किया, उसी घर में पराधीन बन कर वह नहीं रह सकता। उसको श्रद्धा की चाह नहीं, सेवा की भूख नहीं। उसे अधिकार चाहिए। वह इस घर पर दूसरों का अधिकार नहीं देख सकता। मंदिर का पुजारी बन कर वह नहीं रह सकता।

    न-जाने कितनी रात बाक़ी थी। सुजान ने उठकर गँड़ासे से बैलों का चारा काटना शुरू किया। सारा गाँव सोता था, पर सुजान करबी काट रहे थे। इतना श्रम उन्होंने अपने जीवन में कभी किया था। जब से उन्होंने काम करना छोड़ा था, बराबर चारे के लिए हाय-हाय पड़ी रहती थी। शंकर भी काटता था, भोला भी काटता था, पर चारा पूरा पड़ता था। आज वह इन लौंडों को दिखा देगा कि चारा कैसे काटना चाहिए। उनके सामने कटिया का पहाड़ खड़ा हो गया। और टुकड़े कितने महीन और सुडौल थे, मानो साँचे में ढाले गए हों।

    मुँह अँधेरे बुलाकी उठी, तो कटिया का ढेर देखकर दंग रह गई। बोली—क्या भोला आज रात- भर कटिया ही काटता रह गया? कितना कहा कि बेटा, जी से जहान है, पर मानता ही नहीं। रात को सोया ही नहीं।

    सुजान भगत ने ताने से कहा—वह सोता ही कब है। जब देखता हूँ, काम ही करता रहता है। ऐसा कमाऊ संसार में और कौन होगा!

    इतने में भोला आँखे मलता हुआ बाहर निकला। उसे भी यह ढेर देखकर आश्चर्य हुआ। माँ से बोला—क्या शंकर आज बड़ी रात को उठा था, अम्माँ?

    बुलाकी—वह तो पड़ा सो रहा है। मैंने तो समझा, तुमने काटी होगी।

    भोला—मैं तो सबेरे उठ ही नहीं पाता। दिन भर चाहे जितना काम कर लूँ, पर रात को मुझसे नहीं उठा जाता!

    बुलाकी—तो क्या तुम्हारे दादा ने काटी है?

    भोला—हाँ, मालूम तो होता है। रात-भर सोए नहीं।

    बुलाकी—मुझ से कल बड़ी भूल हुई। अरे! वह तो हल लेकर जा रहे हैं! जान देने पर उतारू हो गए हैं क्या?

    बुलाकी—क्रोधी तो सदा के हैं। अब किसी की सुनेंगे थोड़े ही।

    भोला—शंकर को जगा दो, मैं भी जल्दी से मुँह-हाथ धोकर हल ले जाऊँ।

    जब और किसानों के साथ भोला हल लेकर खेत में पहुँचा, तो सुजान आधा खेत जोत चुके थे। भोला ने चुपके से काम करना शुरू किया। सुजान से कुछ बोलने की उसकी हिम्मत पड़ी।

    दुपहर हुआ। सभी किसानों ने हल छोड़ दिए। पर सुजान भगत अपने काम में मग्न हैं। भोला थक गया है। उसकी बार-बार इच्छा होती है कि बैलों को खोल दे। मगर डर के मारे कुछ कह नहीं सकता। उसको आश्चर्य हो रहा है कि दादा कैसे इतनी मेहनत कर रहे हैं।

    आख़िर डरते-डरते बोला—दादा, अब तो दुपहर हो गई। हल खोल दें न?

    सुजान—हाँ, खोल दो। तुम बैलों को लेकर चलो, मैं डाँड़ फेंक कर आता हूँ।

    भोला—मैं संजा को फेंक दूँगा।

    सुजान—तुम क्या फेंक दोगे। देखते नहीं हो, खेत कटोरे की तरह गहरा हो गया है। तभी तो बीच में पानी जम जाता है। इस गोइँड़ के खेत में बीस मन का बीघा होता था। तुम लोगों ने इसका सत्यानाश कर दिया।

    बैल खोल दिए गए। भोला बैलों को ले कर घर चला, पर सुजान डाँड़ फेंकते रहे। आध घंटे के बाद डाँड़ फेंक कर वह घर आए। मगर थकान, का नाम था। नहा-खाकर आराम करने के बदले उन्होंने बैलों को सहलाना शुरू किया। उनकी पीठ पर हाथ फेरा उनके पैर मले, पूँछ सहलाई। बैलों की पूँछ खड़ी थी। सुजान की गोद में सिर रखे उन्हें अकथनीय सुख मिल रहा था। बहुत दिनों के बाद आज उन्हें यह आनंद प्राप्त हुआ था। उनकी आँखों में कृतज्ञता भरी हुई थी। मानो वे कह रहे थे, हम तुम्हारे साथ रात-दिन काम करने को तैयार हैं।

    अन्य कृषकों की भाँति भोला अभी कमर सीधी कर रहा था कि सुजान ने फिर हल उठाया और खेत की ओर चले। दोनों बैल उमंग से भरे दौड़े चले जाते थे; मानों उन्हें स्वयं खेत में पहुँचने की जल्दी थी।

    भोला ने मड़ैया में लेटे-लेटे पिता को हल लिए जाते देखा; पर उठ सका। उसकी हिम्मत छूट गई। उसने कभी इतना परिश्रम किया था। उसे बनी-बनाई गिरस्ती मिल गई थी। उसे ज्यों-त्यों चला रहा था। इन दामों वह घर का स्वामी बनने का इच्छुक था। जवान आदमी को बीस धंधे होते हैं! हँसने-बोलने के लिए, गाने-बजाने के लिए; उसे कुछ समय चाहिए! पड़ोस के गाँव में दंगल हो रहा है! जवान आदमी कैसे अपने को वहाँ जाने से रोकेगा? किसी गाँव में बारात आई है; नाच-गाना हो रहा है! जवान आदमी क्यों उसके आनंद से वंचित रह सकता है? वृद्धजनों के लिए ये बाधाएँ नहीं! उन्हें नाच-गाने से मतलब; खेल-तमाशे से ग़रज़; केवल अपने काम से काम है।

    बुलाकी ने कहा—भोला, तुम्हारे दादा हल ले कर गए!

    भोला—जाने दो अम्माँ; मुझसे यह नहीं हो सकता!

    पाँच

    सुजान भगत के इस नवीन उत्साह पर गाँव में टीकाएँ हुईं! निकल गई सारी भगती। बना हुआ था। माया में फँसा हुआ है। आदमी काहे को है, भूत है।

    मगर भगत जी के द्वार पर अब फिर साधु-संत आसन जमाए देखे जाते। उनका आदर-सम्मान होता है। अब के उसकी खेती ने सोना उगल दिया है। बखारी में अनाज रखने की जगह नहीं मिलती। जिस खेत में पाँच मन मुश्किल से होता था, उसी खेत में अबकी दस मन की उपज हुई हैं।

    चैत का महीना था। खलिहानों में सतयुग का राज था। जगह-जगह अनाज के ढेर लगे हुए थे, यही समय है, जब कृषकों को भी थोड़ी देर के लिए अपना जीवन सफल मालूम होता है, जब गर्व से उनका हृदय उछलने लगता है। सुजान भगत टोकरों में अनाज भर-भर कर देते थे और दोनों लड़के टोकरे लेकर घर में अनाज रख आते थे। कितने ही भाट और भिक्षुक भगत जी को घेरे हुए थे। उनमें वह भिक्षुक भी था, जो आज से आठ महीने पहले भगत के द्वार से निराश होकर लौट गया था।

    सहसा भगत ने उस भिक्षुक से पूछा—क्यों बाबा, आज कहाँ-कहाँ चक्कर लगा आए?

    भिक्षुक—अभी तो कहीं नहीं गया भगत जी, पहले तुम्हारे ही पास आया हूँ।

    भगत—अच्छा, तुम्हारे सामने यह ढेर है। इसमें से जितना अनाज उठाकर ले जा सको, ले जाओ।

    भिक्षुक ने लुब्ध नेत्रों से ढेर को देख कर कहा—जितना अपने हाथ से उठाकर दे दोगे, उतना ही लूँगा।

    भगत—नहीं, तुमसे जितना उठ सके, उठा लो।

    भिक्षुक के पास एक चादर थी। उसने कोई दस सेर अनाज उसमें भरा और उठाने लगा, संकोच के मारे और अधिक भरने का उसे साहस हुआ।

    भगत उसके मन का भाव समझ कर आश्वासन देते हुए बोला—बस! इतना तो एक बच्चा भी उठा ले जाएगा।

    भिक्षुक ने भोला की ओर संदिग्ध नेत्रों से देखकर कहा—मेरे लिए इतना ही बहुत है।

    भगत—नहीं, तुम सकुचाते हो। अभी और भरो।

    भिक्षुक ने एक पंसेरी अनाज और भरा और फिर भोला की ओर सशंक दृष्टि से देखने लगा।

    भगत—उसकी ओर क्या देखते हो, बाबा जी मैं जो कहता हूँ, वह करो। तुमसे जितना उठाया जा सके, उठा लो।

    भिक्षुक डर रहा था कि कहीं उसने अनाज भर लिया और भोला ने गठरी उठाने दी, तो कितनी भद्द होगी और भिक्षुकों को हँसने का अवसर मिल जाएगा। सब यही कहेंगे कि भिक्षुक कितना लोभी है। उसे और अनाज भरने की हिम्मत पड़ी।

    तब सुजान भगत ने चादर लेकर उसमें अनाज भरा और गठरी बाँधकर बोले—इसे उठा ले जाओ।

    भिक्षुक—बाबा, इतना तो मुझसे उठ सकेगा।

    भगत—अरे! इतना भी उठ सकेगा! बहुत होगा, तो मन भर। भला ज़ोर तो लगाओ, देखूँ, उठा सकते हो या नहीं।

    भिक्षुक ने गठरी को आज़माया। भारी थी। जगह से हिली भी नहीं। बोला—भगत जी, यह मुझसे उठेगी।

    भगत—अच्छा बताओ, किस गाँव में रहते हो?

    भिक्षुक—बड़ी दूर है भगत जी, अमोल का नाम तो सुना होगा।

    भगत—अच्छा, आगे-आगे चलो, मैं पहुँचा दूँगा।

    यह कहकर भगत ने ज़ोर लगा कर गठरी उठाई और सिर पर रखकर भिक्षुक-के पीछे हो लिए। देखने वाले भगत का यह पौरुष देखकर चकित हो गए। उन्हें क्या मालूम था कि भगत पर इस समय कौन-सा नशा है। आठ महीने के निरंतर अविरल परिश्रम का आज उन्हें फल मिला था। आज उन्होंने अपना खोया हुआ अधिकार फिर पाया था। वही तलवार जो केले को भी नहीं काट सकती, सान पर चढ़कर लोहे को काट देती है। मानव जीवन में लाग बड़े महत्त्व की वस्तु है। जिसमें लाग है, वह बूढ़ा भी हो तो जवान है, जिनमें लाग नहीं, ग़ैरत नहीं, वह जवान भी हो तो मृतक है। सुजान भगत में लाग थी और उसी ने उन्हें अमानुषीय बल प्रदान कर दिया था। चलते समय उन्होंने भोला की ओर सगर्व नेत्रों से देखा और बोले—ये भाट और भिक्षुक खड़े हैं, कोई ख़ाली हाथ लौटने पावे।

    भोला सिर झुकाए खड़ा था। उसे कुछ बोलने का हौसला हुआ। वृद्ध पिता ने उसे परास्त कर दिया था।

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