सुभाषित रत्न

subhashait ratn

माधवराव सप्रे

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सुभाषित रत्न

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और अधिकमाधवराव सप्रे

    एक दिन एक विद्वान् ब्राह्मण किसी धनवान मनुष्य के पास गया और कहने लगा—“महाराज, मैं कुटुंबवत्सल पंडित हूँ। आजकल भयंकर कराल रूपी दुष्काल ने चारों ओर हाहाकार मचा दिया है। अन्न महँगा हो जाने के कारण अपना चरितार्थ नहीं चला सकता। आप श्रीमान हैं। परमेश्वर ने आपको अटूट संपत्ति दी है। कृपा करके मुझे अपना आश्रय दीजिए। इससे मेरी विद्वत्ता की सार्थकता होगी और आपका नाम भी होगा। बिना आश्रय के पंडितों की योग्यता प्रकट नहीं होती। कहा है कि बिना आश्रय शोभत पंडिता, वनिता, लता! अर्थात् पंडित, वनिता, लता बिना आश्रय के शोभा को प्राप्त नहीं होते, अतएव हे महाराज, मुझे आश्रयदान दे, यश संपादन कीजिए।”

    पंडितजी का उक्त प्रस्ताव सुनकर धनिक महाशय ने कहा—“पंडित जी सुनो, द्रव्य-प्राप्ति के लिए हमें कई प्रकार के उद्योग करने पड़ते हैं। हमारे परिश्रम से कमाए हुए धन में तुम्हारा क्या हक़ है? हर एक मनुष्य को चाहिए कि स्वपराक्रम से द्रव्यार्जन करे। निरुद्योगी मनुष्य को आश्रय देने से देश में आलस की वृद्धि होती है। क्या तुमने पाश्चात्य लोगों का मत नहीं सुना? तुम तो बड़े विद्वान् हो, फिर दरिद्र की नाईं भीख क्यों माँगते हो? जो विद्या तुमने सीखी है, उसके बल पर कुछ रोज़गार करो, नहीं तो नौकरी करो।”

    “सच है”, पंडितजी ने कहा, “महाराज, सच है। आप बहुत ठीक कहते हैं! हम विद्वान् होकर ऐसे दरिद्र क्यों हैं, इस बात की शंका जैसे आपको आई, वैसी ही मुझे भी आई थी।”

    इस शंका का निवारण करने के लिए एक दिन मैं प्रत्यक्ष लक्ष्मी के पास गया, और उससे पूछा कि हे—

    पद्ये मूढ़जने ददासि द्रविणं विद्वत्सु किं मत्सरो।

    हे लक्ष्मी, तू ऐसे (उस धनिक की ओर अंगुरी बताकर) मूढ़ लोगों को द्रव्य देती है, और विद्वानों को नहीं देती, तो क्या तू विद्वानों का द्वेष करती है?” इस पर लक्ष्मीजी ने उत्तर दिया कि, हे ब्राह्मण—

    नाहं मत्सरिणी चापि चपला नैवास्ति मूर्खे रतिः।

    मूर्खेभ्यो द्रविणं ददामि नितरां तत्कारणं श्रूयतां

    विद्वान् सर्वजनेषु पूजित तनुर्मूर्खस्य नान्याः गतिः॥

    मैं विद्वानों का मत्सर नहीं करती, मैं चंचल भी नहीं हूँ, और मैं मूर्खों पर कभी प्रेम रखती हूँ। परंतु मूर्ख मनुष्यों को नितराम् मैं द्रव्य दिया करती हूँ। उसका जो कारण है, वह सुनो। विद्वान लोगों की तो सर्वत्र पूजा हुआ करती है, और मूर्खों को कोई नहीं पूछता, इसीलिए मैं मूर्खों को द्रव्य दिया करती हूँ क्योंकि उन्हें दूसरी गति ही नहीं है।”

    “महाराज, लक्ष्मीजी का यह उत्तर यथार्थ है। आज मुझे उसका अनुभव मिला। आप भी इसी मालिका में हैं, यह बात मुझे विदित थी।”

    ऐसा कहकर पंडित जी अपने घर चले आए।

    दो

    जिस धनवान पुरुष की सभा में उक्त पंडित महाशय गए थे, उनके पास चापलूसी करने वाले कई ख़ुशामदी लोग भी बैठे थे।

    अपने मालिक पर ऐसी मखमली झड़ने की नौबत देखकर उनमें से एक बोल उठा कि “पंडित जी, ऐसे संस्कृत श्लोक कहने वाले यहाँ कई आते हैं। क्या आप समझते हैं कि आप बड़े सुभाषित वक्ता हैं? कुछ ऐसी बात कहते जिससे हमारे सरकार ख़ुश होते, तो तुम्हारा काम भी हो जाता!”

    इस मुँह देखी बातें करने वाले मनुष्य को अब क्या करें, विचारा सुभाषित का महत्त्व नहीं जानता, समयोचित भाषण करने से चतुर पुरुष को कितना आनंद होता है, यह उसको मालूम नहीं है, यद्यपि यह धनवाद मनुष्य पैसे की गर्मी से अंधा हो गया है तो भी उसके मन को शिक्षा का कुछ संस्कार हुआ है। अतएव इसके सामने सुभाषित प्रशंसा करना अनुचित होगा। ऐसा अपने मन में सोचकर पंडितजी ने कहा, “हे महाराज—

    पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।

    मूढैः पाखाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते॥

    इस पृथ्वी में अन्न, जल और सुभाषित—ये ही तीन मुख्य रत्न हैं। मूर्ख लोग हीरा, माणिक आदि पत्थर के टुकड़ों को ही रत्न कहते हैं।”

    यह सुनकर श्रीमान् गृहस्थ अपने मन में बड़ा ही लज्जित हुआ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : इंदुमती व हिंदी की अन्य पहली-पहली कहानियाँ (पृष्ठ 64)
    • संपादक : विजय झारी
    • रचनाकार : माधवराव सप्रे
    • प्रकाशन : इतिहास शोध संस्थान दिल्ली

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