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शहतूत

shahtut

मनोज कुमार पांडेय

और अधिकमनोज कुमार पांडेय

    तुम्हारे पास बहुत सारी स्मृतियाँ हैं। तुम स्मृतियों में सिर से पैर तक डूबे हुए हो पर ये स्मृतियाँ तुमने खोज-खोज कर इकट्ठा की हैं सो तुम नहीं जानते कि इनमें से कितनी चीज़ें वास्तव में तुम्हारे साथ घटी थीं और कितनी दूसरों की स्मृति का हिस्सा हैं! या वे कौन-सी घटनाएँ हैं जो वास्तव में कभी घटी ही नहीं, किसी के भी जीवन में पर तुरंत ही तुम्हें ख़याल आता है कि तुम दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि ये घटनाएँ किसी की भी स्मृति का हिस्सा नहीं हैं याकि किसी के भी जीवन में सचमुच नहीं घटीं। क्या तुम दुनिया भर के लोगों को जानते हो?

    तो वहाँ एक प्राइमरी स्कूल है जिसमें मैं पढ़ता हूँ स्कूल की इमारत में सिर्फ़ तीन कमरे और एक बरामदा है। बरामदा सामने है। बरामदे के पीछे एक कमरा है। बरामदे के आजू-बाजू दो कमरे हैं जो सामने की तरफ़ एक अंडाकार उभार लिए हुए हैं। इन तीन कमरों में से सिर्फ़ एक में दरवाज़ा है और एक खिड़की भी, जिसकी चौखट कोई उखाड़ ले गया है। इस कमरे की दूसरी खिड़कियों में ईंटें चुनवा दी गई हैं। बाक़ी दोनों कमरों की खिड़कियाँ इतनी बड़ी हो गई हैं कि सोचना पड़ता है कि उन कमरों में दरवाज़े से जाया जाए या खिड़कियों से। जिस एक कमरे में दरवाज़ा है और जिसकी एक खिड़की की चौखट कोई उखाड़ ले गया है, उसमें सिर्फ़ लोहे की चौखानेदार पत्तियाँ भर बची हैं। इन पत्तियों के बाहर से मैं इस कमरे में बहुत देर तक झाँकता रहता हूँ। इस कमरे में दो साबुत कुर्सियाँ हैं, एक मेज़, तीन लकड़ी की आलमारियाँ, एक झूला कुर्सी, एक काठ का घोड़ा, एक सरकसीढ़ी, कुछ नई पुरानी किताबें, दो ज़ंग खाए बक्से और उनके ऊपर बेतरतीब ढंग से रखी हुई परीक्षा वाली कॉपियाँ। इस कमरे में हमेशा ताला बंद रहता है। यह सुबह के दस साढ़े दस बजे खुलता है और इसके भीतर की दोनों कुर्सियाँ निकाली जाती हैं। एक मिसिर मास्टर के लिए और एक बालगोविन्न मास्टर के लिए। शाम को फिर ताला खुलता है—दोनों कुर्सियाँ फिर से इसी कमरे में रख दी जाती हैं और फिर से ताला बंद कर दिया जाता है। एक बार कई दिनों तक इस कमरे की चाबी मेरे पास भी रही थी पर मुझे खिड़की से झाँकना ज़्यादा अच्छा लगता है।

    स्कूल, स्कूल में नहीं स्कूल के पश्चिम के बाग़ में चलता है। आम के पेड़ों की हरी छाया में। पेड़ ख़ूब बड़े-बड़े हैं इसलिए पेड़ हमारी पहुँच में नहीं हैं। बस उनकी छाया ही हमारी पहुँच में है। स्कूल चलते-चलते बाग़ की सतह चिकनी और समतल हो गई है। इसी बाग़ में कोई पाँच पेड़ छाँट लिए जाते हैं और उन पाँच पेड़ों के नीचे पाँच कक्षाएँ चलती हैं। कक्षाओं का मुँह पेड़ की तरफ़ होता है जहाँ पेड़ की बग़ल में एक कुर्सी जाती है। मिसिर मास्टर और बालगोविन्न मास्टर जब एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाते हैं तो उनके साथ उनकी कुर्सियाँ भी जाती हैं। मास्टर पहले पहुँच जाते हैं और खड़े रहते हैं फिर पीछे-पीछे कुर्सी पहुँचती है। मास्टर कुर्सी पर बैठ जाते हैं। हम सब बच्चे भी बैठ जाते हैं। हम ज़मीन पर बैठते हैं। हम अपने बैठने के लिए घर से बोरियाँ ले कर आते हैं और लौटते समय बोरी अपने झोले में भर लेते हैं। झोला भी बोरी से बना होता है और कई बार कई लड़कों के कपड़े भी। ये बोरियाँ जाड़े में हमारे दोहरे काम आती हैं स्कूल से लौटते हुए हम इसमें आग तापने के लिए सूखी पत्तियाँ बटोर कर घर ले जाते हैं।

    स्कूल के पूरब की तरफ़ एक पुराना-सा कुआँ है। जब स्कूल खुला रहता है तो उसकी जगत पर एक रस्सी-बाल्टी रखी रहती है। हमें ख़ूब प्यास लगती है। हम जितना पानी पीते हैं उससे ज़्यादा गिराते हैं। कुएँ का पानी ख़ूब ऊपर तक है। हम इसे जादुई कुआँ कहते हैं। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है इसका पानी ठंडा होता चला जाता है और जैसे-जैसे जाड़ा आता है इसका पानी गर्म होता चला आता है। कुएँ के पूरब में मेहँदी के कई झाड़ थे जिन पर हम झूला झूलते थे। एक बार मैं इस पर झूल रहा था कि मिसिर मास्टर आते दिखाई पड़े। मैं जल्दी से उतरने लगा और नीचे गिरा। मिसिर मास्टर ने मुझे कई डंडे मारे पर मैं उठ नहीं पाया। थोड़ी देर में मेरा पैर ऐसे सूज आया जैसे मुझे हाथीपाँव हो गया हो। मिसिर मास्टर ने चारपाई मँगवाई और मुझे घर भिजवा दिया। हफ़्ते भर बाद जब मैं फिर से स्कूल आया तो वहाँ मेहँदी का एक भी झाड़ नहीं बचा था। उनकी जगह पर कुछ चीख़ती हुई खूँटियाँ भर थीं। तब भी जब मैं उधर से गुज़रता हूँ तो कभी स्याही गिर जाती है तो कभी क़लम। कितना भी ढूँढ़ो, वहाँ गुम हुई चीज़ें दुबारा कभी नहीं मिलती। खूँटियों के आगे जाने की हमें मनाही है। आगे जंगल शुरू हो जाता है।

    स्कूल में दो ही मास्टर हैं। एक मिसिर मास्टर, एक बालगोविन्न मास्टर। दोनों कुर्ता पहनते हैं। बालगोविन्न मास्टर की तोंद बहुत बड़ी है। जब वह चलते हैं तो उनकी तोंद आगे-पीछे होती हुई बहुत मज़ेदार लगती है। बालगोविन्न मास्टर छड़ी लेकर चलते हैं पर हमें मारने के लिए उन्हें बाँस की पतली-पतली टहनियाँ पसंद हैं जो चमड़े को चूमती हैं तो एक शाइस्ता-सी सटाक की आवाज़ होती है और जिस्म में पतली-पतली लाल रेखाएँ बन जाती हैं जो थोड़ी देर बाद जिस्म के नक़्शे पर उभरी लाल पगडंडियों-सी दिखाई देने लगती हैं बालगोविन्न मास्टर इन पगडंडियों पर बिना छड़ी लिए ही चलते हैं।

    मिसिर मास्टर ख़ूब काले हैं और काली-काली मूँछे रखते हैं। उनका घर स्कूल के पश्चिम के बाग़ के पश्चिम में है। वह अपनी मिसिराइन को ख़ूब पीटते हैं। कई बार जब वह मिसिराइन को पीट रहे होते हैं तो उनकी चीख़ें हम तक पहुँच जाती हैं। पीटने के दृश्य हम तक पहुँच जाते हैं। जिस दिन भी ऐसा होता है हम दिन भर डरे रहते हैं। क्या हमारा पिटना मिसिराइन को दिखता होगा तो वे भी ऐसे ही डर जाती होंगी? मिसिर मास्टर की मेरे पिता से ख़ूब जमती है। मेरे पिता भी मास्टर हैं सुबह मेरे पिता मिसिर मास्टर के यहाँ जाते हैं तो शाम को मिसिर मास्टर मेरे यहाँ जाते हैं। मैं पिता से भी डरता हूँ और मिसिर मास्टर से भी। मिसिर मास्टर कक्षा में जब कभी इम्तहान लेते हैं सारे बच्चों की कॉपियाँ मुझसे जँचवाते हैं और मेरी कॉपी ख़ुद जाँचते हैं। इससे क्लास में मेरा रुतबा थोड़ा बढ़ जाता है और मैं चाहता हूँ कि ये स्थिति हमेशा क़ायम रहे।

    मेरी कक्षा में एक लड़का है ‘अशोक कुमार निर्मल’। उसका घर का नाम बितानू है। हम भी उसे बितानू कहते हैं और अपनी स्याहियाँ उसके कपड़े या झोले पर पोंछ देते हैं। वह शिकायत करता है तो मिसिर मास्टर हँसने लगते हैं। कहते हैं कि ‘तू क्यों रोता है बे! तेरी माई जैसे इतने लोगों का धोती है वैसे ही तेरा भी धो देगी।’ पूरी कक्षा फिसिर-फिसिर करने लगती है और बितानू का चेहरा तमतमा उठता है। अब धीरे-धीरे उसने शिकायत करनी बंद कर दी है। हम उसके साथ बदमाशी करते हैं तो वह जलती आँखों से हमें देखता है और जाने क्या-क्या बुदबुदाने लगता है! इधर उसका बुदबुदाना बढ़ता जा रहा है पर हम उसकी बुदबुदाहट की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते हैं क्योंकि मिसिर मास्टर और कक्षा की बहुसंख्या हमारे साथ होती है। मैं अपनी कक्षा में पढ़ने में सबसे अच्छा हूँ। मुझे अधिकतर सवालों के जवाब आते हैं। पर एक दिन ऐसा हुआ कि मिसिर मास्टर ने जो सवाल दिए उनमें से पाँच में से तीन मुझे नहीं आते थे। पूरा दम लगाकर भी मैं गणित के उन सवालों को हल नहीं कर पाया। मुझे मिसिर मास्टर से डर लगा। ऐसे किसी भी मौक़े पर मिसिर मास्टर दूसरों की अपेक्षा मुझे ज़्यादा पीटते थे। कहते, ससुर बाभन का लड़का होकर तुम्हारा ये हाल है।’ या ‘पढ़ोगे नहीं ससुर तौ का निर्मलवा की तरह गदहा चराओगे?’ लड़कियों के लिए कहते, ‘इन ससुरिन को, क्या करना है! घर में रहेंगी, चूल्हा-चौका करेंगी और लड़िका जनेंगी।’ ऐसा कोई भी प्रसंग पूरी कक्षा पर भारी गुज़रता है। मैं या जो भी उनके कोप का भोजन बनता है पिट-पिटकर चकनाचूर हो जाता है और दूसरों के चेहरे बिना पिटे ही सहम जाते हैं लड़कियाँ पानी-पानी हो जाती हैं। पर बितानू कुछ दूसरी तरह का है। उसकी आँखें लाल हो जाती हैं और वहाँ आग दहकने लगती है। इसीलिए वह सबसे ज़्यादा मार खाता है।

    तो उस दिन इसी बितानू ने पाँच के पाँचों सवालों के जवाब सही-सही दिए थे और मैं पाँच में से तीन का जवाब नहीं दे पाया था, पर मेरी कॉपी तो मिसिर मास्टर सबके बाद में जाँचते हैं पहले तो मैं ही बाक़ी कॉपियाँ जाँचता हूँ तो उस दिन मैंने जान-बूझकर बितानू के तीन सवालों को ग़लत काट दिया। मेरी कॉपी मिसिर मास्टर ने देखी। तीन सवाल तो मैंने किए ही नही थे। सबके साथ-साथ मेरी भी पिटाई अच्छे से हुई बल्कि मेरी कुछ ज़्यादा ही अच्छे से, क्योंकि बाभन होने की वजह से और पिता के साथ दोस्ताना संबंधों की वजह से मिसिर मास्टर मेरे प्रति कुछ ज़्यादा ही ज़िम्मेदारी महसूस करते हैं। तो मिसिर मास्टर ने मेरे बदन का भूगोल बदल दिया। कहीं नदियाँ निकल आईं तो कहीं छोटे-छोटे पहाड़। पर इतना जैसे कम था।

    बितानू उठा और अपनी कॉपी ले कर मिसिर मास्टर के पास पहुँच गया। बोला, ‘मास्साब मेरे ये सवाल सही हैं, फिर भी राजकरन ने ग़लत काट दिया।’

    मिसिर मास्टर ने उसे उपहास के भाव से देखा और बोले, ‘तौ अब धोबी-धुर्रा बाभन में ग़लती निकालेंगे?’ फिर पता नहीं क्या सोच कर बोले, ‘ला कापी इधर ला।

    मैं तो सच पहले से ही जानता था। मिसिर मास्टर ने मेरी तरफ़ देखा और मैं मशीन की तरह उठ कर उनके पास जा पहूँचा। बस चार डंडे की सजा मिली पर दूसरे दिन बितानू ज़्यादा पिटा क्योंकि ‘निर्मल’ होने के बावजूद वह गंदे कपड़े पहन कर आया था। उस दिन के बाद से बितानू ने स्कूल आना छोड़ दिया। कक्षा में एक जगह ख़ाली हो गई और मेरे भीतर भी। मुझे लगा कि अगर उस दिन मैंने उसके सवाल ग़लत नहीं काटे होते तो बितानू स्कूल नहीं छोड़ता, पर जल्दी ही मेरा भ्रम टूट गया।

    हुआ यह कि मिसिर मास्टर के बेटे की तिलक थी। पिता गए हुए थे। मैं भी उनके साथ गया था। ख़ूब चहल-पहल थी। अचानक पता नहीं क्या सूझा कि मैंने बाएँ हाथ की तर्जनी और अँगूठे को मिला कर एक गोल घेरा बनाया और उसमें दाएँ हाथ की तर्जनी बार-बार डालने निकालने लगा। मैं यह काम पूरी तल्लीनता से कर रहा था। दो लड़के मुझे देख कर हँस रहे थे और कुछ इशारे कर रहे थे। पिता की निगाह मुझ पर गई तो उनका चेहरा कस उठा। उन्होंने मुझे बुलाया, कस कर कान उमेठा और घर जाने के लिए कहा। मैं मुँह बनाता और कान सहलाता घर चला आया।

    पिता रात में घर आए तब तक मैं सो गया था। उन्होंने मुझे बुलाने के लिए कहा तो दीदी गई और मुझे जगा लाई। पिता ने मुझे इतनी ज़ोर का थप्पड़ मारा कि मैं ज़मीन पर लोट गया। इसके बाद पिता ने कहा कि कल से स्कूल जाना बंद। मैं बहुत देर तक ज़मीन पर वैसे ही मुर्दे की तरह पड़ा रहा। फिर दीदी मुझे उठाने आई। मैंने उसका हाथ झटक दिया। ख़ुद उठा और बिस्तर पर पहुँच गया। पूरी रात मुझे नींद नहीं आई। मैं पूरी रात इस बारे में सोचता रहा कि पिता ने मुझे क्यों मारा! पर मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाया। अगले कई दिनों तक स्कूल जाना बंद ही रहा। पर मैं दिन में दो बार मैदान जाने का डिब्बा उठाता और स्कूल के पूरब तरफ़ जंगल में पहुँच जाता। वहाँ बैठे-बैठे मैं स्कूल की तरफ़ ताका करता।

    एक दिन मैं ऐसे ही वहाँ छुपा बैठा था और स्कूल की तरफ़ ताक रहा था कि बालगोविन्न मास्टर लोटा लेकर अंदर आते दिखाई पड़े। बालगोविन्न मास्टर थोड़ा-सा अंदर आए, एक जगह आड़ तलाशी और धोती खोलकर बैठ गए। बालगोविन्न मास्टर मुझे देख लें इस डर से में पीछे खिसकता चला गया। जब तक वह धोती खोल बैठे रहे, डर के मारे मेरी घिग्घी बँधी रही। वह उठने ही वाले थे कि एक बड़ा-सा ढेला आकर उनकी पीठ पर पड़ा। बालगोविन्न मास्टर हकबकाकर आगे रखे लोटे पर गिर गए। लोटे का सारा पानी गिर गया। बालगोविन्न मास्टर काँखते हुए चिल्लाए, ‘कौन है ससुर?’ किसी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया। मैं डर के मारे ज़मीन पर लेट-सा गया। बालगोविन्न मास्टर बहुत देर तक इधर-उधर देखते रहे, फिर उन्होंने बग़ल से लसोढ़े की पत्तियाँ तोड़ी और उससे अपना पिछवाड़ा साफ़ किया, इधर-उधर देखते हुए धोती पहनी और बाहर निकल गए।

    बालगोविन्न मास्टर बाहर निकल गए तो मुझे डर लगा। मैं उठ कर खड़ा हो गया और अनायास ही चारों तरफ़ देखा। चारों तरफ़ पेड़, झाड़ियाँ, फूल ही फूल। आम, महुआ, लसोढ़ा, बेर, करौंदा, कैथा, सेमल, नीम, बबूल, जंगलजलेबी, मकोय, ढिठोरी, चिलबिल और भी जाने क्या-क्या जिनके मैं नाम तक नहीं जानता। पेड़ों के ऊपर घनी लताएँ फैली हुई थीं। इतनी कि कई पेड़ दिख ही नहीं रहे थे, सिर्फ़ लताएँ दिख रही थीं। कुछ जगहों पर लताएँ भी नहीं दिख रही थीं, सिर्फ़ नीले-पीले फूल दिख रहे थे।

    मुझे सब कुछ जादू-जादू-सा लगा। मेरा डर उड़नछू हो गया। जैसे किसी सम्मोहन की क़ैद में मैं जंगल के भीतर की तरफ़ बढ़ने लगा। अंदर एक तालाब था जिसके किनारे-किनारे जलकुंभी फैली हुई थी। उसमें बैगनी रंग के गुच्छेदार फूल खिले हुए थे