ग़लत पते की चिट्ठियाँ

ghalat pate ki chitthiyan

योगिता यादव

योगिता यादव

ग़लत पते की चिट्ठियाँ

योगिता यादव

और अधिकयोगिता यादव

    एक थी सांदली रानी। खाती सुनार का थी, गाती कुम्हार का थी। सुनार दिन भर पसीना बहाता। उसके लिए सुंदर झुमके और बालियाँ गढ़ता। फिर उसे पहनाता। हर बार बाली और झुमके के लिए उसे कानों में नए छेद करने पड़ते। कान छिदवाने की पीड़ा में उसकी आँखें नम हो जातीं। पर वह किए जा रही थी। कुम्हार मिट्टी इकट्ठी करता। उसे चाक पर चढ़ाता। गोल गोल घूमते चाक पर मिट्टी नाचने लगती। कुम्हार सांदली रानी से पूछता कि बताओ क्या बनाऊँ। उसकी मिट्टी से वो कभी मीठे शरबत की सुराही बनवाती, कभी पूजा का दीया। कुम्हार बना देता।

    अब क्योंकि समय बदल रहा था। जातियों के किले टूट रहे थे। पेशे बदल रहे थे। इसलिए अब सुनार, सुनार था। वह मल्टीनेशनल कंपनी का एक क़ाबिल एम्पलॉई था कनक कपूर। कुम्हार भी कुम्हार था वह कॉलेज में पढ़ाता था कबीर कुमार। कॉलेज से आते-जाते कभी-कभार कबीर उस बस स्टॉप के पास से गुज़र जाता जहाँ सांदली रानी यानी मंजरी अपने बच्चों को स्कूल बस में चढ़ाने जाती थी। तो यूँ ही शिष्टाचार वश बातचीत हो जाती और यूँ ही वह पूछ लेता, ''सेहत कैसी है?'', ''कुछ ज़रूरत हो तो बताइएगा।'' दिन भर की दौड़ भाग में अक्सर मंजरी की सेहत के साथ कुछ कुछ लगा ही रहता था और घर भर की ज़रूरतों में उसे किसी किसी चीज़ की ज़रूरत पड़ती ही रहती थी, सो ये दोनों सवाल उसके दिल के सबसे ज़्यादा नर्म सवाल बन गए थे। जिनका वह अकसर यही जवाब देती, ''अच्छी हूँ'', ''नहीं-नहीं थैंक्यू।''

    सांदली रानी यूँ तो राजपूताने से थी, पर जातियों के किले टूटने से बहुत पहले ही राजपूताने के भव्य भ्रम भी गिरने लगे थे। जागीरों के खो जाने के बाद भी जो शासन करते रहना चाहते थे, उनके लिए नया कोर्स शुरू हो गया था—एमबीए। सो होनहार इस लड़की को परिवार ने एमबीए करवा दी। फ़ुरसत में 'फार फ़्रॉम मैडिंग क्राउड’ और 'ग्रेट एक्सपेक्टेशंस’ जैसी विश्‍वस्‍तरीय किताबें पढ़ने वाली मंजरी ने बढ़िया ग्रेड के साथ एचआर में एमबीए कंप्लीट की। फिर कनक कपूर से शादी की। मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत कनक कपूर पहले ही लाखों रुपया कमा रहा था, सो एमबीए की डिग्री पर चालीस-पचास हज़ार रुपए की नौकरी करवाने से बेहतर था कि घर में ही पत्नी के ज्ञान और व्यवहार का लाभ लिया जाए। यूँ भी आजकल घर में फुल टाइम मेड रखो तो वह दस हज़ार से कम नहीं लेती। उस पर पत्नी अगर रोज़ ऑफ़िस जाएगी तो साड़ी-गाड़ी के साथ और बहुत से ख़र्च बढ़ जाते हैं। फिर परिवार को बांधने वाला एक शीराज़ा भी तो चाहिए। जो पचास हज़ार और ख़र्च करने पर भी नहीं मिलने वाला था। ये सारी कैलकुलेशन देखते हुए कनक कपूर ने डिग्रियाँ सँभालकर स्टडी-रूम की एक ड्राअर में रख दीं और मंजरी को घर-भर के काम पर लगा दिया। मंजरी जब कनक कपूर की ज़िंदगी में आई वह बेहद ख़ूबसूरत और सुडौल थी। अकसर वेस्टर्न ड्रेसेज पहना करती थी। शादी में कनक कपूर और उनके परिवार ने मंजरी के लिए भारी-भारी साड़ियाँ और लहँगे ख़रीदे। लेबर लॉ और कंपनी एक्ट पढ़कर आई मंजरी को खाना-वाना बनाना कुछ नहीं आता था। सासू माँ ने अंग्रेज़ी में लिखी गई भारतीय व्यंजनों की रेसिपी बुक्स बहू रानी को तोहफ़े में दीं। कुछ परंपरागत व्यंजन पहले खिलाए, फिर बनाने सिखाए। मंजरी धीरे-धीरे सीख रही थी। सास ने बड़े स्नेह से मंजरी को समझाया कि स्प्रेड शीट पर 'कॉस्ट टू कंपनी’ कैलकुलेट करने से ज़्यादा मुश्किल है सारी रोटियाँ एक ही वज़न और एक ही आकार की गोल बनाना। लेकिन क्योंकि मंजरी एक क़ाबिल और होनहार लड़की है, सो देखिए उसने रोटी गोल बनाना भी सीख लिया। मल्टीनेशनल कंपनी के क़ाबिल ऑफ़िसर कनक कपूर को अक्सर मीटिंगों, कॉन्फ्रेंसों में जाना होता। वहाँ उसे बफे में भाँति-भाँति के व्यंजन खाने और खिलाने होते। कभी इंडियन, कॉन्टीनेंटल, चायनीज, इटेलियन, पंजाबी, बंगाली और जाने क्या-क्या... जो स्वाद, जो अंदाज़ उसे लज़ीज़ लगते, उन्हें वह घर ले आता। पति के स्वाद का ख़्याल रखने वाली मंजरी ने अब चाइनीज़ और इटेलियन डिशीज़ की रेसिपी बुक्स ख़रीदीं। कनक कपूर शादी की पहली सालगिरह पर मंजरी के लिए एक 'टेबलेट’ ले आए। इस पर वह इंटरनेट पर और भी कई तरह की रेसिपीज़ सर्च कर सकती थीं। खिलाने और परोसने के और भी कई अंदाज़ सीख सकती थी। वह देख सकती थी कि अब लॉन में हेंगिंग फ़्लावर पॉट लगाने का चलन है या क्यारियों में कारनेशन के पौधे लगाने का। स्टडी-रूम में जो कुर्सी मंजरी ने अपने पढ़ने के लिए लगवाई थी उस पर अब अकसर इस्त्री किए जाने वाले कपड़ों का ढेर पड़ा रहता। जब भी उसे फ़ुरसत होती वह स्टडी-टेबल पर मोटी चादर बिछाकर इस ढेर के कुछ कपड़े इस्त्री कर देती। बाक़ी का ढेर किसी को दिख जाए इसके लिए उसने स्टडी रूम की खिड़कियों पर मोटे पर्दे डाल दिए थे। स्टडी रूम पर ज़्यादातर समय ताला पड़ा रहता। भारी, महँगी साड़ियों का पल्ला कमर में खोंसे वह सर्चिंग, सर्फ़िंग और सर्विंग में बिज़ी रहती। फ़्री साइज़ साड़ियों में उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी जींस का साइज़ 28 से, 32 और 32 से 36 हो गया। अब वह और भरी-भरी, और सुंदर दिखने लगी थी। गोद भी भरी। गोल-मटोल दो बच्चों से। कितना सुंदर परिवार है न—जो देखता मोहित हो जाता। परफ़ेक्ट फ़ैमिली। पढ़ी-लिखी एचआर में एमबीए की डिग्री वाली लड़की रसोई में स्वादिष्ट-पौष्टिक पकवान बना रही है। लाखों रुपया कमाने वाला कनक कपूर पत्नी की पल-पल की ख़बर रखता है। हर फ़ैशन की साड़ियाँ उसके वार्डरोब में शामिल करता जाता है। और बच्चे अपनी शरारतों के साथ दादा-दादी और रिश्तेदारों के वात्सल्य की छाँव में बड़े हो रहे थे।

    पर कभी-कभार सांदली रानी यानी मंजरी की देह से चंदन की ख़ुशबू आने लगती। पता नहीं क्यों! पर जब भी यह ख़ुशबू आती मंजरी का मन अजीब सा हो जाता। उसे अपने भीतर से कुछ खोने, कुछ कर पाने का भाव उठने लगता। ऐसी कौन सी सुगंध है जो महंगे से महंगे रूम फ़्रेशनर से भी ज़्यादा उसे परेशान कर देती है। इसी खोज में मंजरी कभी-कभी बहुत उदास हो जाती। इस उदासी के बीच भी कुछ कहाँ रुकने वाला था। बच्चे बड़े हो रहे थे, उनकी ज़रूरतें बढ़ रहीं थीं। मंजरी बच्‍चों और परिवार की ज़रूरतों के हिसाब से ख़ुद को ढाल रही थी। मसलन अब उसे समझ आने लगा था कि बड़े वाले सोनू को पढ़ाने से पहले उसे ख़ुद सारी किताबें पढ़नी होंगी। और अगर यही लापरवाही जारी रही तो कोई ट्यूशन ढूँढनी होगी।

    यूँ ही एक दिन उदासी के बाद भी मुस्कुराते हुए मंजरी ने कबीर से बच्चों के लिए कोई होम ट्यूटर ढूँढने को कह दिया। मंजरी के गुदगुदे बच्चों को जब मुस्कुराते देखता तो कबीर कुमार को अपने बच्चों का लोहेदार अनुशासन में कसा बचपन परेशान करने लगता। असल में बस स्‍टॉप पर मंजरी और दोनों बच्चों का मुस्‍कुराकर अभिवादन करने वाले कबीर कुमार को कॉलेज में पढ़ाते हुए ही अपने साथ की एक लड़की से प्यार हो गया था। जो पद में उनसे जूनियर पर हौसले में सीनियर थी। वह लड़की जैसे बिल्कुल लोहार थी। उसके भीतर ग़ज़ब का लोहा था। वह किसी से भी लोहा ले सकती थी। अपने परिवार से भी। अब प्यार तो प्यार है। यह ऐसी धुंध है जिसके आग़ोश में सब ढक जाता है। प्यार की धुँध में कबीर की मिट्टी और अस्मिता का लोहा सब एक हो गया, लंबे अरसे तक एक ही रहा और दोनों परिणय बंधन में बँध गए। पर मिट्टी तो मिट्टी है, कितनी भी ढको, अपना कच्चापन कहाँ छोड़ पाती है। यही कच्चापन जब बहुत बढ़ जाता तो अस्मिता को खीझ होने लगती। उसे लगता कि उसने मिट्टी के माधो से प्यार कर लिया है। इस मिट्टी के साथ गृहस्थी बसाकर उसने अपने भीतर के लोहे को जंग लगा ली है। इस चिढ़-चिढ़ेपन में उसका लोहा और ज़्यादा कठोर होकर उसके व्यवहार में उतर आता। वह लोहे की बातें करतीं। बच्चों को लोहे की ज़ंजीरों से जैसे अनुशासन में बाँधने की कोशिश करती। यही कबीर बेबस हो जाता। पता तो अस्मिता को भी था कि वह अपने परिवार के साथ ज़्यादती कर रही है, पर उसे डर था कि अगर उसने ज़रा भी ढील दी तो कबीर की मिट्टी उसके भीतर के लोहे को जंग लगा देगी। वह दिन में बार-बार फ़ोन करती। पूछती कि कहाँ हो, क्या कर रहे हो? कब लौटोगे? अब तक क्यों नहीं लौटे? कबीर जब किताबें पढ़ चुका होता, वह उन्हें बेवजह उलटती-पलटती। इश्क के ककहरे में गच्‍चा खाई अस्मिता को अब हर किताब से नफ़रत हो चली थी। अब कुछ भी पढ़ने को उसका जी नहीं चाहता था। इन गुम हुए फूलों से बेपरवाह कबीर कविताई के चक्‍कर में पड़ गया था। कभी सराहने भर को अस्मिता उन कविताओं की तारीफ़ भी करती। पर ज़्यादातर कविताओं में से ख़ुद को गुम ही पाती। वह इन कविताओं में कोई गुम हुआ फूल ढूंढ रही थी। यूँ ही कभी-कभी उसे लगता कि कितना अच्छा होता अगर प्यार-व्यार में पड़े बग़ैर उसने दिमाग़ से काम लिया होता। और उस बिजनेसमैन से शादी की होती, जिसके पास इस्पात से औज़ार बनाने की बड़ी-बड़ी मशीनें हैं। यहां शायद वह ठगी गई। यही सोचते-सोचते उसके सिर में डिप्रेशन का एक कील बराबर लोहा उतर आता और वह दर्द से परेशान हो उठती।

    कबीर अपनी दुनिया में मगन। उसे कहाँ पता था कि उसका मिट़टीपना अस्मिता के लोहे को जंग लगा रहा है। पर हाँ इतना ज़रूर समझता था कि अस्मिता का कठोर मन अब उसकी नर्म भाषा समझ नहीं पा रहा है। पर ये दो बच्चे हैं जिनमें अभी थोड़ी सी मिट्टी बाक़ी है और जिनको अभी चुनौतियों से थोड़ा लोहा लेना है, उनके लिए वह बेपरवाही की एक मुस्कान अपने होंठों पर लिए घूमता। वह पढ़ता-पढ़ाता। लिखता और लिखवाता। बस मिट्टी को जंग बताए जाने की हताशा को ख़ुद पर हावी होने से बचाता।

    यूँ ही हताशा को अपने भीतर दबोचे वह बस स्टॉप के पास से गुज़र रहा था कि उसे याद आया कि वह मंजरी के बच्‍चों के लिए अभी तक कोई होम ट्यूटर नहीं ढूँढ पाया है। मंजरी के पास तो सौ काम थे, उसे कहाँ किसी एक काम कोई ख़ास ख़बर रहती थी। आज भी मंजरी सुबह की जल्दबाज बदहवासी में बच्चों को लिए बस के पीछे दौड़ रही थी। असल में हुआ यूँ कि कल सोनू स्कूल से घर लौटते हुए पानी की बोतल कहीं गुमा आया। बोतल का ख़्याल उसे तब आया जब रात के आठ बज गए थे। अब इस समय अगर वाटर बॉटल लेने बाज़ार जाती तो डिनर डिस्टर्ब हो जाता। डिनर बहुत ज़रूरी था। बढ़ते बच्चों के लिए यह ज़रूरी है कि वह समय पर अच्छा खाना खाएँ। वह भी सोने से कम से कम दो घँटे पहले। ताकि हाज़मा भी ठीक बना रहे। वरना और सौ तरह की मुश्किलें बच्चों के साथ हो जाती हैं। छोटा वाला मोनू अगर रात को सोते समय दूध पिए तो उसे सुबह फ़्रेश होने में देर हो जाती है। अब एक देरी का मतलब लगातार और कई कामों की देर है। सोनू और मोनू दोनों वक्त पर खाना खाएँ, वक्त पर होमवर्क करें और वक्त पर सो जाएँ ताकि सुबह वक्त पर उठ सकें, ये सब ज़िम्मेदारियाँ मंजरी की थीं। इन्हीं ज़िम्मेदारियों की रेलमपेल में वह अक्सर कुछ कुछ भूल ही जाती थी। जैसे इस बार हुआ। सोनू वाटर बॉटल स्कूल में गुमा आया और उसे ख़्याल ही नहीं रहा। अब सुबह फ़्रिज की प्लास्टिक बॉटल को साफ़ कर, उस पर सोनू के नाम की स्लिप लगाकर फ़िल्टर्ड वाटर भरने में लगभग सात मिनट एक्स्ट्रा लग गए। प्लास्टिक की बोतल पर कोई भी पैन ढंग से काम नहीं करता। इसलिए मंजरी ने सफेद कागज पर स्कैच पैन से सोनू का नाम और क्लास लिखी और फिर सेलो टेप से उसे बोतल पर चिपका दिया। सोनू इतना लापरवाह है कि उसके साथ उसे ख़ास एहतियात बरतनी पड़ती है। वरना पाँचवीं क्लास तक पहुँचते तो बच्चे बहुत समझदार हो जाते हैं। सोनू की लापरवाहियाँ भी मंजरी को बेवजह उलझाए रखती और वह खीझ उठती। उसी खीझ में अकसर सोनू पिट जाता। फिर सासू माँ से मंजरी को डाँट पड़ती। इस सब मिली-जुली खींचतान में बस छूट गई और मंजरी उस छूटती हुई बस को आवाज़ देते हुए दौड़ रही थी। अगर बच्चों के पापा होते तो इसी बस को अगले स्टॉप पर पकड़ा जा सकता था। पर पापा तो अब यहां नहीं थे न।

    कनक कपूर को लगने लगा था कि परिवार के ख़र्च बढ़ रहे हैं। जिस हिसाब से एजुकेशन महँगी होती जो रही है उस हिसाब से उन्हें अगले बारह साल की ज़रूरतों की तैयारी अभी से करनी पड़ेगी। इसी सोच के साथ उन्होंने एक नई कंपनी में एप्लाई कर दिया। इस कंपनी ने इन्हें केवल पहले से ऊँचा पद दिया, बल्कि सीधे कनाडा में पोस्टिंग कर दी। तनख़्वाह पहले वाली तनख़्वाह से लगभग डबल और रहना-खाना सब कंपनी के खाते में। कुल मिलाकर तनख़्वाह पूरी की पूरी बची हुई। इतना अच्छा ऑफ़र भला कोई हाथ से कैसे जाने देता। सो कनक कपूर कनाडा चले गए।

    घर की ज़िम्मेदारियों और बच्चों की शैतानियों के बीच मंजरी को छोड़कर। नहीं असल में छोड़ा भी नहीं था। वह बिल्कुल मंजरी के टच में थे। अक्सर उनकी स्काइप पर बातें होतीं। टेबलेट का फ़्रंट कैमरा ऑन करवाकर वह घर भर का और मंजरी का भी जायज़ा लेते रहते।

    पर बच्चों को स्कूल कौन छोड़ता। कबीर ने इस बार जब हाय हैलो किया तो मंजरी प्यासी मैना सी बोल उठी, ''आप प्लीज़ बच्चों को थोड़ा आगे तक छोड़ देंगे? इनकी स्‍कूल बस छूट गई है। अभी अगले स्टॉप पर मिल जाएगी।’’ कबीर ठहरा मिट्टी का आदमी। उसने गाड़ी का लॉक खोला और दोनों बच्चों को उसमें बैठा लिया और बोल पड़ा, ''आप भी साथ बैठ जाइए। मुझे पता नहीं चलेगा, बस के रूट के बारे में।’’

    बच्चों में उलझी उलझी सी मंजरी ने बिखर आए बालों को फिर से क्लचर में कसा और अगली सीट पर बैठ गई। थोड़ी ही दूर पहुँचकर बच्चों की स्कूल बस तो मिल गई पर कुछ चीज़ें इस मुलाक़ात के बाद अटक कर रह गईं। कबीर की गाड़ी के डेशबोर्ड पर शेक्सपीयर की किताबें पड़ीं थीं। इन किताबों पर मंजरी ने कुछ नहीं कहा पर एक कसक मंजरी के मन में रह गई कि अगर उसने ड्राइविंग सीख ली होती तो आज उसे यूँ किसी अनजान आदमी का अहसान लेना पड़ता। कनक के कनाडा जाते ही गाड़ी पर कनक के छोटे भाई आरव का अधिकार हो गया था। माँ-पिताजी जिस को भी ज़रूरत होती वह आरव के साथ गाड़ी में बैठकर चले जाते। बच्चों को भी चाचू बहुत प्यारे थे। बस चिढ़ मंजरी को ही थी। जबकि दोनों लगभग हम उम्र थे, लेकिन मंजरी उससे बचती ही रहती। एमबीए करने के बाद भी मंजरी के भीतर से राजपूताने के भ्रम और ठसक कम नहीं हुए थे। वह हर रिश्ते में एक ख़ास तरह की दूरी बनाए रखना चाहती थी, और आरव दूरियों को जल्द से जल्द पाटने में विश्वास रखता था। भाई की गाड़ी और भाभी की साड़ी उसके लिए लगभग समभाव के थे। घर की ज़िम्मेदारियाँ तो वह संभाल ही रहा था, लेकिन अपने ओछे मज़ाक और ग़ैर-ज़रूरी रोक-टोक के कारण कई बार मंजरी से डाँट खा चुका था। पर हर बार बाद में परिवार से मंजरी को ही डाँट पड़ती थी। कभी बचपना कहकर, कभी ज़िम्मेदारी कहकर आरव की बात सही साबित कर दी जाती। ऐसे में घर में गाड़ी होते हुए भी उसे बच्चों को छोड़ने के लिए कबीर को कहना पड़ा।

    कनाडा जाने के बाद से कनक कुछ ज़्यादा ही पॉजेसिव हो गया था। रात में लंबी बातचीत करता। दिन भर का हालचाल जानना चाहता। माँ-पिताजी की अतिरिक्त केयर करता और सब हिदायतें मंजरी पर मढ़ता जाता। शुरु के पाँच दस मिनट मंजरी भी पूरे मन से बात करती। दिन भर का हाल बयां करतीं। बच्चों की शरारतें बताती, घर वालों के व्यवहार के बारे में कहती। बस ये शुरू के पाँच दस मिनट तो अच्छे चलते उसके बाद वह या तो कनक से अपने व्यवहारकुशल होने पर डाँट खाती रहती या यह सुनती रहती कि इस काम को जैसे उसने किया, वैसे किया जाता तो और बेहतर होता। दिन भर की थकी माँदी मंजरी जब पति की बातों में सहानुभूति के शब्द टोह रही होती, उसे खुरदरी सच्चाईयाँ बताई जातीं। वह भीग जाती, आँसुओं में। उसके गले के भीतर बहुत कुछ रुँध जाता। आज भी जब उसने सोनू के वाटर बॉटल गुम कर देने, बच्चों के लेट होने और फिर कबीर की गाड़ी से बच्चों को अगले स्टॉप तक छोड़ने की बात कनक को बताई तो उसे लग रहा था कि अपनी डिग्रियों को स्टडी की ड्राअर में डलवाकर गृहस्थी के डाँसिंग फ़्लोर पर बिना थके थिरकने वाली मंजरी पर कनक का दिल बाग़-बाग़ हो उठेगा। लेकिन हुआ ठीक इसके उलट। मंजरी को ख़ूब डाँट पड़ी। कनक ने बताया कि फ़्रिज की प्लास्टिक बोतलें बच्चों के लिए कितनी 'अनहायजनिक’ हैं। गर्मियों के टेंपरेचर में उनमें कैमिकल बनने लगता है जो बच्चों की सेहत के लिए बिल्कुल ठीक नहीं। फिर उसे डांट पड़ी कि किसी अनजान आदमी, बस एक-दो बार हाय-हैलो करने वाले के साथ इस तरह गाड़ी में बैठना और बच्चों को बिठाकर उसे स्कूल बस का रूट बता देना कितना 'अनसेफ़’ है।—कि मंजरी ने अपनी पढ़ाई-लिखाई ही नहीं सजगता भी सब गोबर कर ली है। कनक ने जब यह कहा कि ''मुझे तो शक हो रहा है कि एमबीए की यह डिग्री तुमने अपनी मेहनत से ली है या बाप के रौब और पैसे से ख़रीदी है.’’ ...तो मंजरी झर-झर रोने लगी।

    बच्‍चे जब गहरी नींद में सो रहे थे और इन आँसुओं को पोंछने वाला आस-पास कोई नहीं था, तभी कनक के कुछ और शब्द मंजरी को खरोंचते चले गए।

    उसने कहा, ''इतने साल साथ रहने के बाद भी मंजरी परिवार संभालना नहीं सीखी। घर में देवर है, लेकिन उससे बात करते हुए तो शायद तुम्हारी ईगो हर्ट होती है।’’

    बातचीत स्काइप पर हो रही थी और मंजरी अपनी हिचकियाँ पल्लू में समेट रही थी ताकि बेडरूम के बाहर किसी को भीतर की आवाज़ों के बारे में अंदाज़ा हो। कनक को इस बात पर और गुस्सा आया कि मंजरी इतनी फूहड़ कैसे हो सकती है कि उसके इंटरनेशनल समय और कॉल को वह यूँ रोकर बर्बाद कर रही है। असल में उसे मंजरी के इस लकड़ीपने से ही कोफ़्त होती थी। ज़रा सी नर्मी मिले तो भीग जाती है, थोड़ा सा ताप दो तो सुलगने लगती है। अभी-अभी पड़ी डाँट से मंजरी गीली लकड़ी की तरह सुलग रही थी। कनक इस सब 'बेवजह’ के रोने-धोने को ‘त्रिया-चरित्र’ कहता था। उसका मानना था कि पत्नी तो बिल्कुल सोने के कंगन जैसी होनी चाहिए। जिसमें भले ही खोट मिला हो पर एक बार जिस साँचे में ढाल दो, ताउम्र वैसी की वैसी बनी रहे। कनक की स्वर्णमृग सी ख़्वाहिशें सोने के कंगन जैसी जीवन संगिनी के लिए मचल उठतीं।

    कुछ दिन बाद एक सुबह मंजरी को फिर बच्चों की स्कूल बस के स्टॉप पर कबीर कुमार गुज़रते हुए दिखे। इस बार दोनों ने एक-दूसरे को अधिक आत्मीयता से अभिवादन किया। जैसे अब पहचान पुख़्ता हो गई है। पर आज की इस पुख़्ता मुस्कान के बारे में मंजरी ने कनक को कुछ नहीं बताया। पिछली डाँट अभी वह भूल नहीं पाई थी।

    रात को जब टेबलेट का फ़्रंट कैमरा ऑन करके मंजरी कनक से बातें कर रहीं थी कनक को लगा कि मंजरी आज थकी कम और खुश ज़्यादा है। मंजरी को भी लगा कि कनक की बातों में आज उपदेश कम और उमंग ज़्यादा है। बातों ही बातों में कनक कपूर ने बताया कि उनके ऑफ़िस में एक नई एम्प्लाई आई है। मूलत: पाकिस्तान से है, लेकिन है सिंध की और पिछले कई सालों से कनाडा में ही रह रही है। हाइली क्वालीफ़ाइड यह लड़की वेस्टर्न ड्रेसेज पहनती है और बहुत सुंदर लगती है। सिंध की उस लड़की की यह तारीफ़ मंजरी को अच्छी नहीं लगी। पर वह सुनती रही। असल में मंजरी जब 28 से 36 होती जा रही थी कनक को तभी अहसास होने लगा था कि मंजरी अब उसके साथ चलती बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। उसका बड़ा हुआ वज़न और घरेलू टाइप के कपड़े इंटरनेशनल कॉन्फ़्रेंसों में उसके साथ चलने लायक नहीं रह गए हैं। जिसे कनक कपूर से सालों पहले पसंद किया था वह मंजरी अब की मंजरी से ज़्यादा ख़ूबसूरत थी और कनक कपूर का तब का स्‍टेटस अब के स्‍टेटस के सामने कुछ भी नहीं था। मंजरी जब यह सब सुनती तो एक अलग तरह की कुंठा से भर जाती। आज वही कुंठा एक बार फिर से उसके मन में उतर रही थी जब कनक सिंध की उस लड़की की तारीफ़ कर रहा था। इस बार उसने अपना वज़न कम करके ख़ुद को वेस्टर्न ड्रेसेज में कनक के साथ इंटरनेशनल डेलीगेट से मिलने लायक़ बनाने की ठानी।

    अगले दिन शाम को मंडी से सब्जियाँ लाते हुए मंजरी ने आधा किलो नींबू, ढाई सौ ग्राम शहद का डिब्बा और एक कूदने वाली प्लास्टिक की रस्सी ख़रीद ली। घरेलू सामानों के थैले उठाए मंजरी ऑटो रिक्शा का इंतज़ार कर रही थी, उसी समय कबीर अपनी पत्नी अस्मिता के साथ वहाँ से गुज़र रहा था। कबीर ने मंजरी को देखा और मंजरी ने कबीर को। मंजरी ने एक पल को राहत की सांस ली कि अब उसे और ऑटो का इंतज़ार नहीं करना पड़ेगा। लेकिन कबीर ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया। मंजरी ठगी सी रह गई। ठगी हुई सी इसी हालत में उसने बिना कुछ पूछे ऑटो लिया और घर चली आई। आज उसका मन अनमना सा था। कनक के व्हाट्सएप पर कई मैसेज आए पर मंजरी ने स्काइप ऑन नहीं किया। वह बुझी बुझी सी सो गई। पर कबीर की इस हरकत की वजह नहीं ढूंढ पाई।

    ...

    मंजरी जल्द से जल्द कबीर से मिलना चाहती थी और पूछना चाहती थी कि क्या उसने सचमुच उसे नहीं देखा या जान बूझकर अनदेखा किया। दोनों ही स्थितियाँ मंजरी को अच्छी नहीं लगीं थीं।

    कुछ दिन बाद कबीर कुमार बस स्टॉप पर मिले। उन्होंने फिर अभिवादन में मुस्कुराहट बिखेरी पर मंजरी ने इस भाव से कि वह बहुत व्यस्त है आधी मुस्कान ली और आधी वहीं छोड़ दी। अगर सचमुच उस शाम को कबीर ने उसे देखा हो तो वह भी क्यों ग़ैरज़रूरी उत्सुकता दिखाए। लगातार दो-चार दिन यूँ ही आधी-आधी मुस्कानों वाली व्यस्त सी मुलाक़ात होती रही। पर आज बच्चों की पीटीएम थी और मंजरी को बच्चों के साथ स्कूल जाना था। मंजरी ऑटो रिक्शा का इंतज़ार कर रही थी कि तभी कबीर कुमार वहाँ से होकर गुज़रे और उन्होंने बस यूँ ही शिष्टाचारवश गाड़ी रोक दी। बच्चे चहक कर अधिकारभाव से गाड़ी में बैठने को आतुर हो उठे। लेकिन अभी कुछ गैप रखना ज़रूरी था। कनक ने बताया कि यह सब सुरक्षा के लिहाज़ से ठीक नहीं। कबीर ने इसरार किया कि उन्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी। दोनों का रूट एक ही है। पर फिर भी अगर मंजरी को ठीक लगे तो वह ज़्यादा कुछ नहीं कहेगा। जब तक कबीर की बात के अर्थ और गहरे होते मंजरी और बच्चे गाड़ी में बैठ चुके थे। रास्ते भर हल्की-फुल्की ख़ूब बातें हुई। कनक के कनाडा जाने के बाद से मंजरी के पास ख़ूब सारी बातें थीं जो अब तक सुनी नहीं गईं थीं। वहीं अस्मिता के लोहेपन से कबीर जब तब चोटिल होता रहता था, सो उसे भी एक नर्म आवाज़ की तलाश नहीं, पर कमी तो थी ही। मंजरी की बातों में नर्मी थी। कबीर के व्यवहार में अब भी एक कोरापन था। दोनों ने ख़ूब बातें कीं।

    —कबीर ने बताया कि वह कॉलेज में पढ़ाता है।

    —मंजरी ने बताया कि वह भी एमबीए है पर परिवार की ज़िम्मेदारियों को उसने प्राथमिकता दी।

    —कबीर ने बताया कि उसके दो बच्चे हैं जो उसे बहुत प्यार करते हैं और उसे रोल मॉडल मानते हैं।

    —मंजरी ने बताया कि इन दोनों की शैतानियों में उसकी आधी से ज़्यादा मत मारी जा चुकी है।

    —कबीर ने कहा कि आपको जब भी ज़रूरत हो आप मुझे बेझिझक कह सकती हैं।

    दोनों ने एक दूसरे के कॉन्टेक्ट नंबर एक्सचेंज किए।

    —मंजरी ने कहा कि घर में गाड़ी होते हुए भी उसे ऑटो रिक्शा का वेट करना पड़ता है।

    —कबीर ने कहा कि अब उसे भी गाड़ी चलानी सीख लेनी चाहिए।

    —मंजरी ने बताया कि अभी वह सोनू के लिए कोई अच्छी किताब ढूँढ रही है, कि उसकी ग्रामर बहुत वीक है।

    बातें ख़त्‍म हुईं पर बच्चों का स्कूल गया था... मंजरी में एक पुलक थी। वह कुछ-कुछ हल्की हो रही थी। गाड़ी से उतरते हुए उसने कहा, ''थैंक्यू’’

    कबीर ने कहा, ''सॉरी...’’

    मंजरी ने पूछा क्यूँ?

    ''वो उस दिन बाज़ार में... अस्मिता साथ थी... आपको देखकर भी गाड़ी रोक नहीं सका।’’

    कानों का भी मुख होता है, यह अहसास आज मंजरी को हुआ। जब उसने बच्चों के सामने कबीर के इन शब्दों को अपने कानों में जल्दी-जल्दी निगल लिया। बिना कोई रिएक्शन दिए।

    जब तक मंजरी स्कूल के भीतर दाख़िल हुई उसके व्हाट्सएप पर मैसेज था। ''अच्छा लगा आपसे बात करके।’’

    यह रोशनदान था, खिड़की थी या गेटवे था...जो भी था कबीर ने मंजरी के लिए खोल दिया था।

    मंजरी लिखना चाहती थी, ''मुझे कितना अच्छा लगा, यह मैं बता नहीं सकती।’’ पर नहीं लिखा। और वह सीधे बच्चों के साथ टीचर्स से मिलने चली गई।

    ...

    अगली ही सुबह बच्चों के स्कूल जाने के बाद मंजरी ने प्लास्टिक की रस्सी कूदनी शुरू की। पैरों की धमक अभी अपना कोरस भी पूरा नहीं कर पाई थी कि निचले कमरे से सासू माँ की आवाज़ आई, ''मंजरी बेटा क्या हो रहा है?’’

    ''कुछ नहीं मम्मा’’ की धीमी-सी आवाज़ के साथ ही मंजरी ने रस्सी लपेटते हुए वापस ड्रेसिंग टेबल की ड्राअर में रख दी। और टॉवल उठाए बाथरूम चली गई।

    इधर मंजरी सुबह ख़ाली पेट गुनगुने पानी में नींबू और शहद मिलाकर पी रही थी कि उसी दौरान देवर आरव का रिश्ता तय हो गया। अभी पिछले दिनों जिस आरव को उसने अपना मोबाइल फ़ोन छेडऩे पर बेतहाशा डाँट लगाई थी, उसी की शादी के लिए उसे भरपूर तैयारियाँ करनी थीं। अगर वह ऐसा नहीं करेगी तो फिर कनक की डाँट कि उसे परिवार संभालना नहीं आया।

    —कि उसकी ईगो हमेशा नाक पर सवार रहती है।

    ...

    उस दिन की बातें मंजरी भूली थी, कबीर। कबीर ने मंजरी को मैसेज किया, ''मेरे पास ग्रामर की कुछ अच्छी किताबें हैं। आप चाहें तो ले सकती हैं।’’

    मंजरी इन किताबों को लेने कहीं और जाना चाहती थी। पर उसने बच्चों की स्कूल बस के स्टॉप पर ही तीन में से दो किताबें कबीर से ले लीं। उसे याद थीं कबीर की कार के डेशबोर्ड पर रखी शेक्सपीयर की किताबें। उसने कुछ संकोच के साथ उन किताबों के बारे में पूछा।

    कबीर ने अगले ही दिन शेक्सपीयर की दो किताबें मंजरी को दे दीं। कनक कपूर की गृहस्थी के साथ ही एक और ज़िंदगी थी जो अब मंजरी जीने लगी थी।

    शायद कनक भी।

    शायद कबीर भी।

    कभी-कभी इन दोनों रास्तों में ज़बरदस्त घर्षण हो जाता। जब कनक के फ़ोन के बीच में कबीर का मैसेज जाता। मंजरी का मन कबीर के मैसेज पर और आवाज़ कनक के फ़ोन पर अटक जाती। ज्यूँ-ज्यूँ मंजरी कनक से लापरवाह हो रही थी कनक की चौकीदारी मंजरी पर बढ़ती जा रही थी। वह दिन में कई बार मैसेज करके चैक करता कि मंजरी ऑनलाइन है या ऑफ़लाइन। मंजरी कभी ऑनलाइन होती, कभी ऑफ़लाइन। कभी मोबाइल ऑन रह जाता और वह काम में मसरूफ़ हो जाती। ऐसे समय में कनक का गुस्सा चौथे आसमान पर पहुँच जाता कि मंजरी की इतनी हिम्मत की ऑनलाइन होने के बावजूद वह उसके मैसेजेस का जवाब नहीं दे रही है। आख़िर यह टेबलेट, यह मोबाइल, यह घर सब उसी का है। इस सब के साथ ही मंजरी पर भी उसका मालिकाना हक बनता है। और फिर दोनों के बीच ठीक-ठाक तकरार होती।

    यह तकरार भी जब वह कबीर कुमार को सुनाती तो कबीर के भीतर की मिट्टी कुछ और नर्म हो जाती। उसे मंजरी की निरीहता पर दया आने लगती। पर हृदय यह सोचकर भी फूल जाता कि वह जिस डाली को सहला रहा है, वहाँ छाँव भले ही कम है पर काँटे भी तो लगभग के बराबर हैं।

    इधर कबीर की मिट्टी में बढ़ती हुई नमी को देखते हुए अस्मिता को उसमें फंगस लगने का डर सताने लगा था। वह कबीर की कॉल और मैसेज डिटेल चेक करती। कबीर यूँ तो सीधा-साधा था पर जाने किस रूप में मिल जाएँ भगवान की तर्ज़ पर अस्मिता को भी नाराज़ नहीं करना चाहता था। मंजरी के मैसेज कभी भी अस्मिता के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं, यही सोचकर वह हर मैसेज दिल में बसा लेता और मोबाइल से तत्‍काल डिलीट कर देता।

    कॉलेज में छात्राओं से घिरे रहने वाले प्रोफ़ेसर का इनबॉक्‍स ख़ाली कैसे हो सकता है, यही सोचकर अस्मिता की शक की सूईं हमेशा कबीर पर गढ़ी रहती। यूँ ही अवसाद में अपने शक की सब कहानियाँ वह दुखी होकर कौशल को बताती। कौशल वही उद्योगपति था जिससे शादी कर पाने का दुख अकसर अस्मिता को सालता रहता था। अस्मिता ख़ाली पीरियड में कबीर के ट्वीट और एफ़बी अकाउंट खंगालती। उसके लिखे शब्दों से नए अर्थ खोजने की कोशिश करती। पर हर बार उसे पहले से ज़्यादा लिजलिजापन महसूस होता। वह घृणा से भर जाती। फिर उसे ख़्याल आता बच्चों का। वह चुप लगा जाती। अपने अनुशासन को और कड़ा कर लेती। कि अगर यह भी बाप जैसे हो गए तो उसकी ज़िंदगी व्यर्थ हो जाएगी।

    ...

    घर में गहमागहमी का माहौल था। इधर बच्‍चों के एग्‍जाम शुरू होने वाले थे और उधर आरव की शादी के दिन भी नज़दीक रहे थे। एक माँ और भाभी होने के नाते मंजरी पर बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ बढ़ गईं थी। बच्‍चों की रिवीजन के साथ ही उसे सासू माँ के साथ नई बहू के लिए वरी बनाने पर ध्‍यान देना था। कनक कुछ ख़ास सामान कनाडा से ही ख़रीद कर लाने वाला था। तैयारियों में उसने जब मंजरी की ख़्वाहिश पूछी तो मंजरी ने रेड कलर का ख़ूब फूला हुआ वेस्टर्न गाउन मंगवा लिया। ख़्वाहिश बहुत बुरी नहीं थी, लेकिन उन हालात से मेल नहीं खाती थी, जो कनक कपूर घर पर छोड़ गए थे। वह लड़की जो ज़रा सी डाँट पर झर झर आंसू बहाती है...और ज़रा से प्यार में जिसने एमबीए की डिग्रियाँ भुला दी, उसमें आज लाल रंग का वेस्‍टर्न गाउन पहनने की ख़्वाहिश क्‍योंकर जाग उठी।

    सवालों की यही पड़ताल कनक कपूर का दिमाग़ छलनी किए दे रही थी। वीकेंड पर सिंध वाली लड़की के साथ कॉफी पीते हुए भी उसे यही बात बार-बार याद रही थी। वह चाहता तो शेयर कर सकता था, लेकिन इससे उसके आउटडेटेड विचारों की पोल खुल सकती थी। जिन विचारों को लेकर वह सिंध की उस लड़की के साथ कई डेट्स मना चुका था। उसके चॉकलेटी होंठों के बीच फ्रूट्स एंड नट्स जैसी खिलती मुस्कान से उसे अहसास होता कि उसने अगर शादी के लिए थोड़ा और इंतज़ार कर लिया होता तो मुमकिन है कि ऐसी कोई लड़की आज परमानेंट उसकी बाहों में होती।

    ...

    कनक कपूर जब ढेर सारा सामान लेकर भाई की शादी के लिए अपने घर वापस लौटा तो उस सामान में ख़ूब फूला हुआ रेड वेस्टर्न गाउन तो नहीं था पर दहकते सवालों वाली आँखें थीं। वह और सतर्क हो गए। मंजरी की पुलक उनमें अजीब सी चिढ़ भर देती। वह जब किसी भी छोटी-बड़ी गलती के लिए मंजरी को डाँटते तो वह हल्की मुस्कान के साथ उस काम को फिर से दुरुस्त कर देती। कनक को पहले मंजरी के रोने से कोफ़्त तो होती थी पर एक सुरक्षा भाव भी था कि मंजरी जब भी रोएगी, कनक का कँधा ढूँढेगी। पर अब उसका यूँ मुस्कुरा देना उसे छील जाता था। वह घुमा फिराकर मंजरी से कई सवाल पूछता। मंजरी अपनी किताबें पढ़ने में बिज़ी रहती। कनक का मन करता कि वह उसकी किताबें उठा फेंके। कनक ने जो टेबलेट मंजरी को रेसिपीज़ सर्च करने के लिए दिया था मंजरी अब उससे ऑनलाइन किताबें सर्च करती और पढ़ती रहती। कनक मंजरी के तन मन की तलाशी लेना चाहता था। कि कौन है जिसने इस लाचार सी, बेसुध सी लड़की में फिर से पुलक भर दी है। पर मंजरी ने पासवर्ड सेट कर दिया था, जिसका पता बच्चों को था, सास-ससुर को और ही कनक को। मंजरी की यह तालाबंदी कनक की बर्दाश्त के बाहर हो रही थी। उसने मोबाइल उठाया, पासवर्ड डाला...इस बार पासवर्ड ‘सोनूनॉटीमोनू’ था, ‘कनकमायल’। कनक कपूर तीसरा पासवर्ड ट्राई कर ही रहे थे कि मंजरी ने झट से उनके हाथ से मोबाइल छीन लिया और मोबाइल छीनते हुए मंजरी के शार्प, पेंटेड नाख़ून कनक कपूर की हथेली छील गए।

    तड़ाक! कनक कपूर ने खुन्नस भरा एक ज़ोरदार तमाचा मंजरी के गाल पर जमा दिया। जब तक कनक दूसरे चाँटे के लिए अपना हाथ उठाता मंजरी मुस्कुराते हुए किताब और मोबाइल हाथ में लिए कमरे से बाहर चली गई। मुस्‍कान भी ऐसी कि जैसे लिखा हो ‘रांग पिन एंटर्ड”

    ...आज फिर सांदली रानी की देह से चंदन की ख़ुशबू उठ रही है। यह ख़ुशबू किसकी है सुनार की... कुम्‍हार की... या पलकें खोल रही रानी की अधूरी कामनाओं की।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विपुल दिगंत (पृष्ठ 99)
    • रचनाकार : गोपालकृष्ण रथ
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2019

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए