दोज़ख़ी

dozakhi

शानी

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और अधिकशानी

    मैं दबे पाँव दाख़िल हुआ। बाहर का गेट मैंने धीरे से खोला— ऐसे कि आवाज़ हो। घर के सामने वाला दरवाज़ा उड़का हुआ था— हमेशा की तरह। मैंने उसे भी धीरे से धकेला था। असल मे मैं जमील के सामने बिल्कुल अचानक आना चाहता था— दिल के दौरे की तरह।

    यह भोपाल-जैसे शहर की दुपहरी थी— ढलती हुई। दिन में इतना सूनापन और आलस्य था कि अक्सर लोग सो रहे थे। मैं जानता था कि यह जमील के घर पर मिलने का वक़्त था। शहर और उसके अपने मिज़ाज के लिहाज़ से ही नहीं, उसके काम के एतबार से भी। उसका कॉलेज सुबह-शाम लगता था और सारी दुपहर ख़ाली रहती थी।

    जमील दीवान पर लेटा हुआ था, दीवार की ओर मुँह किए। आहट से चौंक कर जब उसने देखा तो एकाध पल बस देखता ही रह गया। हैरान! फिर “अरे” कहता हुआ हड़बड़ाकर उठा और हम दोनों लिपट गए। उसकी जकड़ ज़बरदस्त थी। बाँहें उसकी लंबी और मज़बूत थी और हथेलियाँ जैसे मेरी पीठ में धँस जाना चाहती थी, गोश्त-पोश्त को छेदती हुई। पहली बार लगा कि हाथ की उँगलियाँ भी बोलती हैं।

    “कब आया?” कई पल बाद उसने गर्दन हटाकर पूछा, लगभग रुँधे हुए स्वर में। उसका चेहरा अब भी मेरे इतने पास था कि दोनों एक-दूसरे को देख नहीं पा रहे थे।

    “सुबह,” मैंने कहा, “दक्षिण एक्सप्रेस से।”

    अलग हुए। बैठे।

    “मैं आज सुबह ही याद कर रहा था”, वह बोला और गावतकिए से टिककर मेरी ओर देखने लगा। वह ऐसी भरपूर नज़र थी, जिसमें आप समो लेना चाहते हैं— सब-कुछ। तभी बग़ल वाले कमरे का परदा हटाकर बीवी कनीज़ आई, हँसती हुई। सलाम किया। पास बैठी। बोली। पूछा। ख़ुश हुई।

    “बाजी कैसी हैं?” मैंने कनीज़ से कहा, “उनसे मेरा सलाम...”

    “नमाज़ पढ़ रही हैं”, वह अंदर देखती हुई बोली, “और तुम्हारे लिए क्या लाऊँ? पहले खाना खा लो...”

    “इस वक़्त?” मैं हँसने लगा, हमेशा की तरह। मैं जानता था कि आख़िर वह खाना लाएगी और मैं खाऊँगा। वह उठकर अंदर चली गई।

    “अब बाजी की तबीअत कैसी रहती है?” मैंने जमील से पूछा।

    बाजी का तख्त़ बाहर से ही दिखता है और घर में दाख़िल होते हुए मैंने देख लिया था कि वह नमाज़ पढ़ रही हैं। सवाल जैसे असुविधाजनक था। जमील सिगरेट का पैकेट टटोलने लगा। मिला तो एक जलाई और मेरी ओर देखकर सिर हिला दिया, यानी बस ठीक है। और फीकेपन से मुस्कराया। बाजी-भाईजान यानी माँ-बाप। बाजी कई महीनों से बीमार चल रही थीं। घर पर हुए नए हादसे से भी पहले। शायद तभी से जब एक दिन भाईजान अचानक नहीं रहे थे। रात वे ठीक-ठाक सोए थे, लेकिन सुबह नहीं उठे, बस!

    “कौन है अल्लन?” भीतर से बाजी की आवाज़ आई। वह शायद मुसल्ले से उठ रही थी। अल्लन यानी जमील। जमील ने मेरा नाम बताया। कहा कि मैं दिल्ली से आया हूँ, सलाम कर रहा हूँ। उन्होंने वहीं से दुआएँ दीं, बहुत थकी हुई आवाज़ में। फिर कुछ बड़बड़ाती-सी रही। क्या, यह मेरी समझ में नहीं आया। सोचा कि दरवाज़े तक जाकर उन्हें देख लें, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी। उनका सामना करना मेरे बस की बात नहीं थी।

    “और ?” थोड़ी देर बाद जमील ने मुझे वापस लाते हुए कहा, कहीं और ले जाने के लिए।

    “तेरी दिल्ली कैसी है?”

    “मेरी!”

    जमील मुस्कराया।

    “दिल्ली एक दोज़ख़ है, मैं पहले अक्सर कहा करता था। चार साल पहले जब मैं इस शहर से निकाला गया था तो मेरे मन में बहुत तल्ख़ी थी। यह देश-निकाला पिछली सरकार की इनायत थी और मेरे लिए यह भूलना मुश्किल था कि मैं दिल्ली आया नहीं, फेंका गया हूँ। अब वह बात नहीं रही, लेकिन तो मैं दिल्ली का हो सकता हूँ और दिल्ली मेरी, जमील यह जानता था।

    “चल, मेरठ की मारकाट की सही। क्या हाल है?”

    “वहाँ दंगे का इतिहास बहुत पुराना है, सन् सैतालीस से भी पुराना। नया मैं क्या बताऊँ! वही कह सकता हूँ जो अख़बारों में है। हाँ, सुना है कि मुरादाबाद और अलीगढ़ में बहुत तनाव है।”

    “तुझे अख़बारों पर भरोसा होता है?”

    मैं चुप हो गया।

    “जो लोग दहाने पर बैठे हैं, वे जानते हैं।” उसने कहा।

    “कहाँ है दहाना?”

    “दिल्ली दहाना नहीं है— मुल्क का, मेरठ का, जमशेदपुर या भागलपुर का...?

    मैं कमरे की दीवारों को देखने लगा, जिनमें कई आकारों की पेंटिंग्स लटकी हुई थीं, कनीज़ की बनाई हुई। उनमें हुसैन और हेब्बार का मिला-जुला प्रभाव साफ़ था। ज़ाहिर है कि मैं बचना चाहता था! शायद हम दोनों बचना चाहते थे, उससे जिसके छिड़ जाने का डर हम दोनों को ही था।

    “तेरी पुरानी शक्ल लौट आई है,” जमील ने बात पलटते हुए कहा, “पिछली बीमारी में जाने वह कहाँ चली गई थी!”

    “यह हार्ट-अटैक की देन है,” मैंने कहा और दंभभरी हँसी हँसने लगा, ऐसे जैसे मैं कोई क़िला जीत आया हूँ।

    “अब तो तू बिल्कुल ठीक है न?” उसने पूछा।

    “बिल्कुल का तो पता नहीं। हाँ, ठीक ज़रुर हूँ। उतना ही ठीक, जितना दिल के मरीज़ रहते है।”

    और यह कहने के साथ ही मुझे लगा कि मेरे स्वर में आत्मदया गई है। मैंने पुराने दंभ में लौटते हुए कहा, “असल में, अब मैंने परवाह करना छोड़ दिया है। जब आना है, जाएगी। तब डॉक्टरों के चलते रुकेगी और मेरे रोके।”

    “बहुत दिनों तक यहाँ किसी को पता नहीं था, जमील ने कहा, “अफ़वाह की तरह ख़बर आई थी कुछ उल्टी-सीधी। हम लोगों ने घबराकर दिल्ली फ़ोन किया था, लेकिन तुम्हारे वहाँ के दोस्तों ने कहा कि वैसी कोई बात नहीं है। अस्पताल में ज़रूर है, ‘इंटेंसिव केयर यूनिट’ में भी है; लेकिन हार्ट-वार्ट का मामला नहीं है। वो तो दिल्ली से तुझे देखकर लौटे पंकज ने बताया कि सब-कुछ कितना सीरियस था...” यह हुआ कैसे?”

    “उसी तरह, जैसे यह होता है— अचानक?”

    “घर पर ?...”

    “नहीं, दफ़्तर में।”

    “कैसे?”

    “मैं बातें कर रहा था एक मिलने वाले से। एकाएक मुझे बेचैनी-सी हुई। सीने में जकड़न और दर्द के बगूले उठ आए थे और मैं पसीने में सराबोर हो गया। मेरी आवाज़ बिल्कुल मद्धिम हो गई थी, दिल डूबने लगा था। मैं उठना चाहता था, लेकिन मुझ में दम नहीं था। मैं बैठे रहना चाहता था, लेकिन इतनी बेचैनी और घबराहट कि...” थोड़ी ही देर में मैं फ़र्श पर लेटा छटपटा रहा था....”

    कहते-कहते मैं रुक गया क्योंकि जमील के चेहरे पर एक आतंक मैं साफ़-साफ़ देख रहा था जो मैं चाहता था। मुझे ख़ुशी थी कि मेरी जिस यातना को यहाँ मामूली ढंग से लिया था, मैं उसका हिसाब बराबर कर रहा था। दिल्ली के अपने दोस्तों के रवैए पर ग़ुस्सा रहा था, सो अलग। यह ठीक है कि एक मसलेहत के तहत मेरी बीमारी की संजीदगी को छिपाया गया था, लेकिन उस मसलेहत ने मुझे उस सबसे यहाँ महरूम कर रखा था, जो मैं चाहता था। लगभग एक साल के बाद मैंने इस शहर में प्रवेश किया था, एक ऐसे आदमी की तरह जो दुर्लभ होते-होते एकाएक रह गया था।

    “तुम्हें याद है, मैंने ताज़ियत का ख़त तुम्हे कब लिखा था? वह सात अप्रैल का दिन था, और कोई घंटे-भर पहले मैंने तुम्हें लिखा था? तब मैंने सोचा भी नहीं था कि थोड़ी ही देर बाद मैं भी उस रास्ते पर पहुँच जाऊँगा जहाँ से हसीन कभी नहीं आया।”

    तभी भीतर से कनीज़ निकल आई और मेरे सामने कबाब-रोटियों की रकाबी रखती हुई बोली, “लो, खाओ!” फिर एक स्टूल खींचकर सामने ही बैठ गई। पहला ही लुकमा तोड़ते हुए मुझे लगा कि हसीन का नाम मुझे नहीं लेना चाहिए था। शायद मैं चाहता भी नहीं था, लेकिन बात की रौ थी। लेकिन क्यों नहीं? क्या मैं पुरसे के लिए नहीं आया था? पुरसा वह भी हसीन का। यह वह आदमी था जो अभी कल तक इसी शहर में दूसरों के पुरसे के लिए जाया करता था और नहीं जानता था कि उसे क्या कहना चाहिए। वह चुपचाप बैठ जाया करता था— सूनी आँखों से एक तरफ़ देखता हुआ।

    ख़बर मुझे यह भी दफ़्तर से मिली थी, दिल्ली में, जमील ने नहीं दी थी। इस शहर से भी नहीं गई थी, बुरहानपुर से सईद महमूद ने लिखा था—

    “तुम्हें यह जानकर बहुत सदमा होगा,” उसने ख़त में कहा था कि हम दोनों का अज़ीज़ दोस्त हसीन अहमद सिद्दीकी का नाइजीरिया में इंतकाल हो गया। उसका हार्ट-फेल हो गया था। नसरीन भाभी उसकी मय्यत लेकर भोपाल आई थी और उसे दफ़नाकर मैं कल लौटा हूँ। हम लोगों को जो होना था हुआ, लेकिन सोचो कि तीन छोटे-छोटे बच्चों के साथ रह गई एक जवान औरत के साथ जो नाइंसाफ़ी हुई है, क्या उसकी कोई तलाफ़ी हो सकती है?

    बड़ी देर तक मैं ख़त लिए बैठा रह गया था। मैंने उसे कोई तीन बार पढ़ा था और हसीन के नाम पर पाँच बार नज़र डाली थी। मैं यक़ीन करना चाहता था, लेकिन हो नहीं रहा था और जब हुआ तो उस पल के हज़ारों में राहत और छुटकारे की साँस थी। फिर मैंने दुःख को धीरे-धीरे समेटकर अपने भीतर इकट्ठा किया था और एक़दम दुःखी हो गया था।

    “यह भी कोई बात हुई?” मैं उसके बाद हर आने वाले को बताकर कह रहा था, “क्या यह उसके जाने की उम्र थी और वह भी दिल के दौरे से! वह तो मुझ से भी दो साल छोटा था। वह ख़ुदा से खौफ़ खाने वाला और परहेज़गार आदमी था और सिगरेट तक नहीं पीता था।”

    यह सब कहते हुए या तो मैं डरा हुआ था या शायद अपने डर को दूर कर रहा था, हालाँकि दफ़्तर से घर लौटने तक भी उससे पीछा नहीं छूटा था। वह कहीं इतने अंदर पहुँचकर बैठ गया था कि उसने मुझे एकाएक चुप कर दिया। ख़बर यह घर के लिए भी बड़ी थी, लेकिन मैंने उस दिन बीवी से भी नहीं कहा— इस डर से कि घर पर भी देर तक वही ज़िक्र होता रहेगा और रात को हसीन का चेहरा मुझे सोने नहीं देगा। उस रात मैं सो तो गया, लेकिन हसीन ने तंग बराबर किया। उसका चेहरा चारों ओर से आकर मुझ पर आक्रमण करता था और सपने में सारी रात उसकी मय्यत दिखाई दी— कई दिन पुरानी मय्यत! यह उस दिन ही नहीं, उसके अगले दिन भी हुआ था और उसके भी अगले दिन, हालाँकि मैं किसी से कुछ भी नहीं कह रहा था। ताज़ियत का ख़त भी तीन दिनों तक टालने के बाद मैंने जमील को लिखा था और मैं भी हसीन की तरह नहीं जानता था कि पुरसे में क्या कहना चाहिए...

    बात अजीब सही, लेकिन सच तो यह है कि हसीन मेरा दोस्त नहीं रह गया था, ख़ासकर इधर के बरसों में—जब वह नाइजीरिया चला गया था या शायद उससे भी पहले जब मैं धीरे-धीरे उसके छोटे भाई जमील का दोस्त हो गया था।

    पंद्रह बरस पहले जब मैं भोपाल आया था तो दोस्ती उसी से हुई थी। दोनों भोपाल में बाहर से आए हुए थे और वहाँ हमारा कोई घर नहीं था। हसीन में एक ख़ास तरह का मरदाना आकर्षण था— सीधे अपनी ओर खींच लेने वाला। वह लंबा और छरहरा था और हल्के-हल्के गंजा हो रहा था। पहले ही दिन मैंने देख लिया था कि वह एक महीन अहसासों वाला ऐसा ग़ुस्सैल और आक्रामक आदमी है जो अपने-आप पर भी हँस सकता था। वह इतने छोटे-छोटे और ख़ूबसूरत मुबालग़े करता था कि कोई भी हँसता-हँसता उसका हो जाता था। तब हम लोग पुराने भोपाल की अमीरगंज गली में रहते थे और जवान थे। हसीन एक प्राइवेट कॉलेज में विज्ञान पढ़ाता था और मैं एक दफ़्तर में कलम घसीट रहा था। मुहल्ला पुराने रईसों और खमीरों का था और हम-जैसे फटेहाल इक्का-दुक्का ही पड़े हुए थे अपने-अपने मुँह छिपाए हुए।

    असल में, हम दोनों की दोस्ती दो तंगदस्त, कुंठित और ग़ुस्सैल आदमियों का ऐसा मेल थी जो दोनों को राहत देती थी। रीझा पहले मैं ही था, बाद में उसे रिझा लिया था, हालाँकि हम दोनों अलग-अलग क़िमाश के लोग थे। वह विज्ञान पढ़ाता था लेकिन दकियानूस और मज़हबी था और हँसी-हँसी में अपने को जन्नती कहता था। मेरा विज्ञान से कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन मैं उसी के सहारे अपने को आधुनिक लगता था और प्रगतिशील बना हुआ था— हसीन का फ़तवा सिर-माथे पर लिए हुए मैं दोज़ख़ी हूँ। सच्चाई यह है कि हम दोनों एक-दूसरे को दोज़ख़ी समझते थे और दोनों मिलकर उस तीसरे को जो हमारे बीच नहीं होता था, लेकिन जिसे हम काँदू कहते थे।

    “तुम मक्कार हो,” एक बार उसने ग़ुस्से में खेलते हुए मुझसे कहा था, “अव्वल दर्जे के पाखंडी और धूर्त...”

    “क्यों, क्या तुमसे भी बड़ा?”

    “हाँ, मैं तो तुम्हारे पाँव की धूल भी नहीं हूँ।”

    “वह तो तुम वैसे भी नहीं हो।” मैंने हँसकर उड़ाना चाहा था।

    “तुम दोनों जहान के मज़े मारना चाहते हो,” उसने क़रीब-क़रीब बाल नोचते हुए कहा था, “नास्तिक-वास्तिक कुछ हो नहीं, वह तुम्हारा ढोंग है।

    “तुम्हारे जन्नती होने से भी बड़ा ढोंग?” मैंने प्रतिवाद किया था, क्यों नाहक़ फाके करते हो यार!”

    मैं अक्सर कहा करता था कि जो सचमुच रोज़ेदार होते हैं, वे सेहरी के बाद इफ़्तार और इफ़्तार के बाद सेहरी की फ़िक्र नहीं किया करते। जो लोग रमज़ान के दिनों में सुबह-शाम थैली लिए बाज़ार भागते नज़र आते थे, कभी मुर्ग तो कभी तीतर के लिए, कभी लवे तो कभी बटेर, कभी मछली तो कभी बिरयानी के लिए, मैं उनका मज़ाक उड़ाता था—यह जानते हुए भी कि इससे हसीन को चोट लगती है क्योंकि मैं यही चाहता था।

    “तुम हीयों में हो और शीयों में। यहाँ, वहाँ। अल्लाह तुम पर रहम करे।” वह मुझसे कहता था।

    यह सिर्फ़ एक दिन की बात नहीं थी। अक्सर हम दोनों किसी किसी ऐसी बात पर लड़ते थे। ग़ुस्से में एक-दूसरे से कभी बोलने की धमकी देते थे, लेकिन अगले दिन या उसके अगले दिन फिर मिलते थे। फिर से लड़ने के लिए...

    यह वह दौर था, जब मुल्क में फ़साद की फ़सल आई थी और एक के बाद कई शहरों में दंगे हो रहे थे— जबलपुर, भिवंडी, जलगाँव, अहमदाबाद, जमशेदपुर और..

    हम लोग भोपाल जैसे शहर में रह रहे थे, जिसमें दंगे का कोई इतिहास नहीं था, फिर भी डरे हुए थे, क्योंकि शहर में तनाव था। सरकार सतर्क हो गई थी। जगह-बेजगह पुलिस और होमगार्ड के जवान तैनात थे। रोज़ अफ़वाहें उड़ती थीं और बाहर से रोज़ ख़बरें आती थीं— हैबतनाक ख़बरें! बरसों से साथ-साथ रहे आए हिंदु-मुसलमान एक-दूसरे को संदेह और डर से देखने लगे थे, और छोटे-छोटे समूहों में बँट गए थे।

    “देख लो,” एक ऐसी ही शाम हसीन ने घबराए हुए स्वर में कहा था, “हैवान के बच्चों ने मुल्क का बँटवारा करके क्या कर दिया है...”

    उसने सुबह के अख़बार में कुछ और दिल दहलाने वाली ख़बरें पढ़ ली थीं। उसका शेव बढ़ा हुआ था और बाल रूखे थे— उड़े-उड़े-से। वह और दिनों से ज्य़ादा गंजा लग रहा था।

    “अब यह मुल्क रहने लायक़ नहीं रहा!” वह बोला, “किसी दिन हम लोग भी काटकर फेंक दिए जाएँगे और कोई रोने वाला नहीं होगा।”

    “क्यों, मैं जो हूँ। मैंने हँसकर कहा। दरअसल, मैं अपने और उसके डर को हँसकर उड़ाना चाहता था— अँधेरे में गाए जाने वाले गीत की तरह।

    “तुम भी नहीं होगे,” उसने आँख तरेरकर तल्ख़ी से जवाब दिया, “कल जब काफ़िरों का जत्था गँडासे और खंजर लेकर तुम्हारे दरवाज़े पर आएगा, तब कोई नहीं पूछेगा कि तुम क्या सोचते हो या तुम्हारे ख़यालात क्या हैं! पहचान के लिए तुम्हारा नाम काफ़ी है।”

    “तुम तो कह रहे थे कि पहचान के लिए सिर्फ़ नाम काफ़ी नहीं होता!”

    “वह और बात थी। दूसरे सिलसिले में कही गई थी। मसलों को गड्डमड्ड मत किया करो। मैं जानता हूँ, तुम चालाकी कर रहे हो।”

    हाँ, मैं चालाकी कर रहा था। जान-बूझकर अनजान बने रहने की चालाकी। सच्चाई से डरकर भाग खड़े होने की चालाकी। हसीन से असहमत होने और उसे आहत करने की चालाकी। मैं हसीन से बिल्कुल सहमत नहीं होना चाहता था, क्योंकि उसकी बात मानना अपने पाँवों के नीचे के उस टीले को काटना था, जिस पर मैं खड़ा था।

    इस बीच एक ऐसी बात हुई जिसके बारे में मैंने कभी सोचा भी नहीं था। हसीन एकाएक मेरे लिए दुर्लभ हो गया था। सुबह उसको कॉलेज हुआ करता था, दोपहर में मेरा दफ़्तर। एक शाम का ही वक़्त था, जिसमें हम अक्सर मिला करते थे, लेकिन इधर वह कई शामों से ग़ायब था। मेरे लिए हसीन का घर अपरिचित नहीं था, जमील भी मेरे लिए नया नहीं था। मैं जानता था कि वह हसीन का छोटा भाई है और उसी कॉलेज में पढ़ता है। जब-जब मैं हसीन के यहाँ गपशप, चाय या खाने पर होता, अक्सर जमील भी हुआ करता था— यहाँ तक कि उसके बाप भाईजान भी। वह इस अर्थ में अजीब घर था कि यहाँ पहुँचे किसी भी दोस्त या मेहमान से पूरा घर मिलता था और सभी लोग बातचीत में शरीक होते थे। मुझे भाईजान का अपने बीच होना कई बार खलता था, क्योंकि उससे हमारी आजादी छिनती थी, लेकिन जमील का होना मुझे अच्छा लगता था। दरअसल, मैं जमील को शुरू से पसंद करता था।

    अब सोचता हूँ तो लगता है कि जमील का पहले मुझसे टकराना या हसीन के माध्यम से मिलना महज़ एक संयोग था, वरना शायद मैं सीधे उसी का दोस्त होता। यह बात तब भी लगी थी जब मैं हसीन का अता-पता करने कई बार उसके घर गया था और जमील मुझे नहीं मिला था। फिर मैं धीरे-धीरे हसीन से कट गया था।

    “हसीन भाई से आजकल शाम को मिलना मुश्किल है, मेरी दो-तीन बार की मायूसी के बाद जमील ने मुझे बताया था, “दरअसल ये और सईद महमूद उसी चक्कर में हैं।”

    “किस चक्कर में?”

    “ताज्जुब है कि आपको पता नहीं! क्या आप नहीं जानते कि दोनों बाहर निकलने की जुगाड़ में हैं?”

    “बाहर यानी?”

    “बाहर यानी कहीं भी। मिडिल ईस्ट, लीबिया, अफ्रीका और वहाँ जहाँ जॉब मिले, अच्छे पैसे मिलें! सईद महमूद की तो मज़बूरी है, ऐसे कॉलेज की मास्टरी में वह वैसे ही कंगाल है। चार-चार बेटियाँ सिर पर बैठी हुई हैं और बेटा पोलियो का शिकार है...हसीन भाई हैं कि वे बेहतर ज़िंदगी चाहते हैं...”

    सईद महमूद तब भोपाल में था और उसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर था। वह हम तीनों का दोस्त था, लेकिन किसी के हाथ नहीं आता था। क्योंकि हर वक़्त वह जल्दी में होता था— एक ऐसी बेचैनी-भरी जल्दी जो उसे कहीं दो पल से ज्य़ादा टिकने नहीं देती थी। वह आता तो बैठता नहीं था। बैठता तो पर तोलने लगता था और सच तो यह है कि उसके आते ही यह धड़का लगा रहता था कि वह किसी भी पल चला जाएगा। हसीन और उसकी दोस्ती एक हद तक पेशे की वजह से थी, लेकिन मिज़ाज़ के लिहाज से वह मेरे ज्य़ादा नज़दीक पड़ता था। फिर भी मुझे ताज्जुब नहीं हुआ, क्योंकि दोनों एक ही मक़सद के लिए इकट्ठे हुए थे, भले ही कारण अलग-अलग हो।

    “क्यों, भाग लिए?” कई दिनों के बाद जब हसीन पकड़ में आया तो मैंने उसे धर दबोचा। हसीन ने मुझे उसी अंदाज़ से देखा जिसमें उसकी छोटी-मोटी आँखें गोल होकर नुकीली हो जाती थीं और आक्रामक लगती थीं।

    “कौन भाग रहा है?”

    “तुम और कौन!”

    “मैं भाग नहीं रहा, जा रहा हूँ।”

    “एक ही बात है!”

    “एक ही बात नहीं है,” उसने ज़ोर देकर कहा, “भागने वाले पाकिस्तान में हैं। और वे कभी लौटकर नहीं आएँगे।”

    “तुम कौन लौटकर आने वाले हो!”

    “क्यों, मैं क्या काले हब्शियों के बीच मरने जा रहा हूँ?”

    “क्या पता!”

    “तुम-जैसे दोस्त तो यही दुआ करेंगे। करो...”

    “मैदान तो छोड़ ही रहे हो।”

    “दो-चार साल के लिए घर से बाहर निकलना मैदान छोड़ना है, भागना है? उसने बौखलाकर कहा, “मैं अपने और अपने बच्चों के मुस्तक़बिल के बारे में कुछ सोचूँ? यहीं पड़ा सड़ता रहूँ! अपने आसपास लुच्चों, लफंगों, बदकारों और बदमाशों को पनपता हुआ देखता रहूँ। रोज़ कुढ़ूँ...रोज़ लहू जलाऊँ?”

    “मुस्तक़बिल और बच्चे तो मेरे भी हैं।” मैंने कहा।

    “तुम अगर कीचड़ में पड़े रहना चाहते हो तो कोई क्या कर सकता है!” वह बोला, “न तो तुम ऊपर उठ सकते हो, उठना चाहते हो।”

    “पैसों के पीछे भागना ऊपर उठना है?”

    “यह बीमारों, निकम्मों और बुज़दिलों की फिलॉसफ़ी है, उसने चिल्लाकर कहा, “इसे तुम अपने ही पास रहने दो।”

    और वह तेज़ी में चला गया।

    नाइजीरिया जाने से पहले हसीन से यह मेरी आख़िरी बातचीत थी। कम से कम इस सिलसिले में। इसके बाद हम मिले ज़रूर, लेकिन हर मुलाक़ात सरसरी थी और हमारी बातों का कोई मतलब नहीं था। वैसे भी तब एक-दूसरे से हम लोग कट चुके थे। फिर एक दिन सुना कि वह चला गया— मुझसे बिना मिले और मुझे कहीं गहरे चोट करता हुआ। गया सईद महमूद भी, लेकिन उसका जाना एक उम्मीद पर लगाई हुई छलाँग थी। वह बीवी के बचे-खुचे ज़ेवर और मौरुसी ज़मीन बेचकर सऊदी अरब गया था, जबकि हसीन को नाइजीरिया के किसी स्कूल में बाक़ायदा काम मिला था और उसके लिए हवाई जहाज़ का टिकट आया था।

    “और कुछ लाऊँ?” कनीज़ मुझसे कह रही थी। मेरे सामने खड़ी और रकाबी की और बढ़ती हुई! मैं जैसे चौंका।

    “और क्या?”

    “कबाब या एकाध रोटी।”

    “बस, बस,” मैंने कहा, “अव्वल ही बहुत हो चुका। क़ायदे से मुझे खाना भी नहीं चाहिए था। दोपहर को खाना अक्सर मैं टालने की कोशिश करता हूँ— ख़ासकर बाहर। डॉक्टर कहते हैं कि इसे नियम बना लो...

    “और तुमने मान लिया?” जमील ने मुस्कराकर टोका और मैं हँसने लगा। जमील जानता था कि दिल्ली के ये तीन-चार बरस मैंने डॉक्टरों के पीछे कितनी एड़ियाँ रगड़ी हैं। अभी दिल्ली में पाँव भी नहीं जमे थे कि मालूम हुआ, मैं एक घातक बीमारी की चपेट में हूँ। क्या करता? नफ़रत या उनके खिलाफ़ अपने बड़बोलेपन ने मेरी कोई मदद नहीं की और मैं अस्पताल पहुँचकर एक फ़ाइल बन गया था— केस नं० सी—५३५।

    वे दोज़ख़ के दिन थे।

    रकाबी उठाकर कनीज़ गई नहीं, खड़ी रही, फिर दो पल मुझे घूरकर पूछा, “अभी पिछले दिनों तुम्हारा क्या हार्ट-वार्ट का कुछ...”

    मैंने चौंककर देखा। हाँ, चोट लगी थी। क्या कनीज़ को ख़बर भी नहीं थी? मैं तो समझ रहा था कि इस घर में कभी मेरे लिए नीम मातम का माहौल बना होगा और जब पहुँचूँगा तो मुझे ऐसा लिया जाएगा, जैसे लगभग खोया हुआ आदमी अचानक बरामद हो गया हो।

    “इसकी बुरी हालत हो गई थी, जमील कनीज़ से कहने लगा, ‘मैस्सिव हार्ट-अटैक’ था। कोई पचास घंटे ज़िंदगी और मौत के बीच झूलता रहा। वह तो दिल्ली-जैसी जगह थी, पेस-मेकर लगाकर बचा लिया, वरना ख़ुदा जाने क्या होता!”

    कनीज़ का चेहरा एक पल के लिए सफ़ेद हो गया— भय से। उसके बहनोई इसी से गए थे, बहन इसी से, समर इसी से और अब जेठ भी— जेठ यानी हसीन भाई। जाने से पहले वह सँभलती हुई बोली—

    “और सिगरेट पीना-भर मत छोड़ना, अच्छा!”

    थोड़ी देर बाद मेरी तिपाई के सामने चाय की ट्रे गई। स्टूल खींचकर कनीज़ मेरे सामने बैठ गई और चाय बनाने लगी। अंदर के कमरों में बाजी थीं, लेकिन उनके वहाँ होने का आभास यहाँ से मुश्किल था। पहले तो ख़ैर, वह नमाज़ पढ़ रही थीं, लेकिन इतनी देर में तो वह बाहर आई थीं और मुझमें ही इतना साहस था कि उठकर मैं ही उनसे मिल लूँ! मैं फिर दीवारों को देखने लगा, जिन पर कनीज़ की पेंटिंग्स लटकी हुई थीं— बरसों से उन्हीं जगहों पर और वैसी ही। लेकिन जैसे पहली बार ध्यान आया कि वे तुगरों के आसपास हैं। एक तुगरा था अल्लाह। दुसरा था मुहम्मद। उस दरवाज़े के ऊपर, जो घर के भीतर खुलता था, कुरान की एक आयत थी—‘इन्नल्लाहे मुअस्साबेरीन’ यानी सब्र करने वाले के साथ ख़ुदा है।

    क्या मैंने सब्र किया था? चाय का आख़िरी घूँट लेते हुए मैंने सोचा— क्या मैंने उन मित्रों को माफ़ नहीं किया था, जो अस्पताल में मुझे देखने या मुझसे मिलने नहीं आए थे, और क्यों उन दुश्मनों के लिए भी मैं नर्म हो गया था जो मेरे पलंग के पास आकर खड़े हो गए थे?

    “या अल्लाह!” तभी अंदर से बाजी की गुहारती हुई आवाज़ आई—

    “रजा बे रब्बी...”

    कनीज़ ने बर्तनों को ज़रुरत से ज्य़ादा आवाज़ करते हुए समेटा और ट्रे में रखने लगी— एक के बाद एक। फिर उठकर अंदर चली गई।

    “बाजी को कैसे सँभाला था?” कुछ पलों की चुप्पी के बाद मैंने पूछा।

    “सब अपने-आप सँभल जाते हैं,” वह बोला, “जिस वक़्त हसीन भाई की ख़बर नाइजीरिया से मिली थी, बाजी सख़्त बीमार थीं। लगता था, बचेंगी नहीं। मेरी समझ में नहीं रहा था कि मैं क्या करूँ। डॉक्टर से पूछा तो कहने लगा, पता नहीं ऐसी हालत में यह सदमा बरदाश्त भी कर पाती हैं या नहीं, लेकिन उन्हें बताना भी तो ज्य़ादती होगी। आख़िर कब तक छिपाओगे? मैं दो दिनों तक सबसे लड़ता रहा कि उन्हें बताया जाए। तुम तो जानते हो, वे हसीन भाई को हम सबसे ज्य़ादा चाहती थीं। मेरा कहना था कि क्या यह मुमकिन नहीं कि उन्हें कभी पता ही चले। झूठी चिट्ठियाँ मँगवाई जा सकती हैं या ऐसा ही कुछ...ज्य़ादा से ज्य़ादा उन्हें इतनी चोट तो लगती कि लड़के ने आँखें फेर लीं और नालायक निकल गया...लेकिन आख़िर मुझे ही हारना पड़ा। फिर उन्हें बताया गया और अब सब कुछ तुम्हारे सामने है...”

    मैंने पूछ तो लिया, लेकिन पूछने के साथ ही मुझे अपने सवाल के बेतुकेपन का ध्यान आया। यह वही सवाल था जो हर मिलने वाला मुझसे भी पूछता था और मुझे झुँझलाहट होती थी। मैं कहने लगा, “मेरा मतलब है कि इससे पहले कुछ...”

    “नहीं, कभी कुछ नहीं। दो-एक दिन पहले अपनी तबीअत के ठीक होने की शिकायत ज़रूर कर रहे थे। उस दिन वे रोज़ की तरह काम पर गए थे। भाभी से कह रखा था कि शाम को डॉक्टर के पास चले चलेंगे। शाम को वे तैयार भी हो गए थे, लेकिन उसी वक़्त उनका एक पाकिस्तानी दोस्त गया— एक वीडियो कैसेट के लिए और वे टी. वी. देखने लगे। शायद तुम नहीं जानते कि इधर उन्होंने हिंदी फ़िल्म के कैसेट्स और हिंदुस्तानी संगीत के एल-पीज़ का कितना बड़ा ज़खीरा कर रखा था।”

    हाँ, मैं नहीं जानता था। सात साल पहले जब हसीन यहाँ था, तो वह हिंदी फ़िल्मों से नफ़रत करता था और उसे हिंदुस्तानी संगीत में कोई दिलचस्पी नहीं थी।

    “अपने पाकिस्तानी दोस्त को ड्राइंग-रूम में छोड़कर वे अंदर एक कैसेट लेने गए थे, लेकिन कैसेट देखते-देखते उन्हें बेचैनी हुई और वे लेट गए। बस, मुश्किल से दो मिनट लगे होंगे...मैं समझ रहा था कि उनका क़फ़न-दफ़न वहीं हो चुका होगा। हम लोग रो-धोकर चुप भी हो चुके थे। कोई दस-बारह दिनों के बाद जब भाभी और बच्चों को लेने मैं बंबई पहुँचा तो मुझे गुमान भी नहीं था कि वे नाइजीरिया से हसीन भाई का ताबूत लेकर आई हैं। फिर सबके ज़ख़्म खुले, फिर एक बार नए सिरे से मातम हुआ...

    “और नसीब की संगदिली तो देखो,” थोड़ी देर ठहरकर जमील कहने लगा, “इसे तब होना था जब वे लौटने को ही थे। अभी छह महीने पहले जब वे यहाँ आए थे तो कहने लगे— बस, कुछ दिनों की बात और है, इस कांट्रेक्ट के ख़त्म होने के बाद मैं हिंदुस्तान लौट आऊँगा। कहने लगे— अब और वहाँ नहीं रहा जाता। कुछ भी कहो, अपना मुल्क फिर भी अपना मुल्क है...उन्होंने यहाँ ‘शिमला-हिल्स’ में अपनी पसंद का शानदार मकान बनवा लिया था। लौटने के बाद वे यहाँ क्या करेंगे यह तय हो चुका था और वे बहुत ख़ुश थे। तब उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा कि जिस घर की एक-एक ईंट उन्होंने इतने प्यार में रखवाई थी, उसमें वे कभी नहीं रह पाएँगे...पिछली बार एक अजीब बात हुई थी। जब मैं उन्हें एयरपोर्ट छोड़ने गया था तो ज़िंदगी में पहली बार एक हुमक-सी उठी थी। एकाएक जी में आया था कि उन्हें बहुत ज़ोर से भींच लूँ, एक़दम कलेजे से लगाकर, लेकिन फिर लगा कि यह कोरी जज़्बातियात होगी। हसीन भाई कौन हमेशा के लिए जा रहे हैं और अपने को रोककर मैंने वह मौक़ा हमेशा के लिए खो दिया। अब वही तकलीफ़ इतनी बड़ी कसक बन गई है कि हर वक़्त मुझे तंग करती रहती है। क्या तुमने कभी सोचा है कि हम अक्सर किसी जोम, किसी बौद्धिक गिरह या एक नामालूम-सी ज़िद के तहत ऐसे अवसरों को खोते रहते हैं जिनमें अक्सर वह आदमी छिपा होता है। हम उन्हें आगे के लिए मुल्तवी कर देते हैं— बिना यह जाने कि वे हमारी ज़िंदगी में फिर कभी नहीं आएँगे...”

    कनीज़ ने पान की तश्तरी मेरी तरफ़ बढ़ा दी। वह कब पानदान लेकर बैठी थी, मुझे पता नहीं थे। मैंने चुपचाप पान ले लिया।

    मैं जानता था कि जमील ने मुझे कहीं गहरे छू लिया है। लेकिन क्या वह सिर्फ़ छूना था, अपनी गिरफ़्त में लेकर निचोड़ना नहीं? मैं सामने की दीवार की ओर देखने लगा, जिस पर तुगरा लगा हुआ था— अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह...” देखते हुए।

    फिर तस्वीरें हसीन की। हसीन भाई अपने बाग़ में तीनों छोटे बच्चों के साथ। हसीन भाई अपनी गाड़ी में स्टीयरिंग के सामने जबकि भाभी कार का दरवाज़ा पकड़े खड़ी हैं। मैंने वह तस्वीर उठा ली जो इधर हाल की थी— शायद यहाँ की। उसमें सिर्फ़ हसीन था, सिर्फ़ उसका हँसता हुआ चेहरा। तस्वीर में वह बहुत तेज़ी से बुढ़ाता हुआ लगा और यह देखकर ताज्जुब हुआ कि उसके चेहरे पर संपन्नता की कोई छाप नहीं थी। उल्टे वह एक पेड़ की तरह सूख रहा था। वह पहले से कहीं ज्य़ादा गंजा हो गया था और उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी।

    “यह तो यहीं की लगती है?” मैंने कहा।

    “हाँ, वे इसी जगह लेटे थे और मैंने तस्वीर ले ली थी। अभी पिछली बार।”

    “इसमें हज़ामत क्यों बढ़ी हुई है?”

    “इधर उन्होंने दाढ़ी रख ली थी। तुम उनसे कब मिले थे?”

    “तीन-चार साल पहले, यहीं पर। उस बार मैं दिल्ली से आया था, तो इत्तिफ़ाक़ से वह यहीं था। बीच में एकाध बार वह अपने वीज़ा वग़ैरह के सिलसिले में दिल्ली आया तो उसने ख़बर भेजी थी, और मेरे घर भी पहुँचा था, लेकिन मैं जाने कहाँ उलझा हुआ था कि वक़्त पर नहीं पहुँच सका और वह बिना मिले चला गया।”

    मैं जमील से साफ़ झूठ बोल रहा था। सच तो यह है कि मैं हसीन से मिलना नहीं चाहता था और उसे जान-बूझकर टाल गया था। शायद मैं उससे बचना चाहता था, पता नहीं क्यों। हालाँकि मैं उसी की तस्वीर हाथ में लिए बड़ी देर से देख रहा था और मुझे एक बेचैन करने वाली और नामालूम-सी तकलीफ़ हो रही थी।

    “मालूम है, जब मुझे दौरा पड़ा तो डॉक्टरों ने क्या पूछा था?”

    जमील मेरी ओर देखने लगा। कनीज़ वहाँ से जा चुकी थी और हम दोनों अकेले थे।

    “कहने लगे, बताइए, जिस दिन आपको यह तकलीफ़ हुई उस दिन या उसके दो-एक दिनों में क्या हुआ था? किसी तरह का तनाव, कोई सदमा, कोई ऐसी-वैसी ख़बर जिसने आपको डिस्टर्ब किया हो? मैंने कहा, नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं। यह ठीक है कि मेरठ में दंगे हो रहे थे, लेकिन वहाँ मेरा कोई अज़ीज़ नहीं था। यह भी सही है कि पुरानी दिल्ली में तनाव था और कर्फ़्यू हुआ था, लेकिन मैं तो नई दिल्ली में रह रहा था। फिर मैंने कुछ सोचकर हसीन को बता दिया था, यह कहते हुए कि वह मेरा दोस्त ज़रुर था, लेकिन इधर कई बरसों में हम दोनों एक-दूसरे से बहुत दूर हो गए थे। अब लगता है कि पता नहीं उस बात में कहाँ तक सच्चाई थी। सच तो यह है कि सबकुछ के बावजूद हसीन एक साफ़, ईमानदार और नेक आदमी था और मैं उसे बहुत प्यार करता था, बहुत...”

    और यह कहते-कहते मैंने देखा कि मेरा गला रुँध गया है, आँखें भर आई हैं और मैं सचमुच रोने लगा हूँ...

    हाँ, सचमुच!

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