पैंट

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विष्णु नागर

और अधिकविष्णु नागर

    हालत तो उसकी यह थी कि अगर वह रोज़ कुएँ में गिरता और निकलता, रोज़ पहाड़ पर चढ़ता और कूदता, ज़हर खाता और उसकी ज़ुबान बाहर निकल आती, तो भी उससे कोई कहने-सुनने वाला नहीं था। कोई नहीं पूछता कि तू जीता है कि मरता है। इतना अकेला था वह, इतनी उदासीन थी दुनिया उसके बारे में पर उसे हमेशा दुनिया की ही लगी रहती। दुनिया ऐसा कहेगी, दुनिया वैसा कहेगी, दुनिया में हूँ, तब तक तो ऐसा नहीं करूँगा, दुनिया में रहना है तो सब करना पड़ता है, दुनिया का चालचलन ही ऐसा है, दुनिया देख कर चलना पड़ता है, आदि। दुनिया का भूत उसके सिर पर ऐसा चढ़ बैठा था कि उतरने का नाम ही नहीं लेता था।

    एक बार उसके पास जेब-ख़र्च से ज़ियादा पैसा गए। उसने हिम्मत कर ली, एक अच्छी-सी पैंट सिलवाने की। कपड़ा लाया, दर्ज़ी को दे आया। पैंट सिलवा ली, पर पहनी नहीं। दुनिया क्या कहेगी? कहेगी कि इतनी अच्छी पैंट इस बुढ़ापे में! किसे दिखाने के लिए? कहाँ से आया पैसा? वह पैंट किसी को दे भी नहीं पाया क्योंकि कभी किसी को कुछ देने की उसकी हस्ती ही नहीं रही! घर में पैंट देख-देख ख़ुश होता और फिर बक्से में बंद कर रख देता।

    बहुत जी कड़ा करके और यह सोचकर कि दुनिया के सवालों का वह क्या जवाब देगा, उसने पैंट पहनने का इरादा बनाया, तो लगा, पैंट तो नई है, पर क़मीज़ पुरानी है। चप्पल का हाल तो बेहद ख़राब है। शर्ट और चप्पल नई हो तो पैंट पहनने का भी मज़ा है। कई दिनों तक वह यही सोचता रहा कि तीनों नई चीज़ों का जुगाड़ कैसे बैठाया जाए। उसने किसी तरह खाने-पीने का ख़र्च कम करके पहले नई चप्पल का इंतिज़ाम किया। फिर नई शर्ट के लिए बचत-अभियान शुरू हुआ। लेकिन इस बीच पुरानी चप्पल की हालत इतनी ख़स्ता हो चुकी थी कि उसे मोची के पास ले जाना भी अपनी हँसी उड़वाना था। इसलिए नई शर्ट आई नहीं और नई चप्पल पहननी पड़ी। लिहाज़ा सारी योजना का कबाड़ा हो गया।

    नई पैंट फिर मुसीबत बन गई। पुरानी पैंटें फटी नहीं थीं और वे सूती कपड़े की थी, जो पहनने के दूसरे दिन ही पुरानी लगती थीं। इसलिए वे दुनिया की आँखों में खटकती नहीं थी। यह पैंट कुछ क़ीमती थी और उसके मुक़ाबले तो इतनी क़ीमती थी कि महीनों नई लगती। इसलिए दुनिया जवाब माँगती। दुनिया के लोग सीधे-सीधे जवाब माँगे, तब तो वह दे भी दे, मगर टेढ़े-मेढ़े आड़े-तिरछे सवाल किए जाएँ, मुँह से बोला जाएँ, आँखों से सवाल किए जाएँ तो वह क्या जवाब दे!

    इसी उधेड़बुन में पैंट बक्से में पड़ी रहती। यह रोज़ रात को पैंट निकालता, उसे सहलाता, उसके कपड़े और सिलाई की मन-ही-मन तारीफ़ करता, कहीं गंदगी लग जाए इसका ख़याल रखता और फिर उसे तह करके, उसकी काल्पनिक धूल झाड़कर उसे सावधानी से बक्से में रख देता।

    फिर उसे घर में चोरी का भी डर रहने लगा। वह कल्पना करने लगा कि अगर पैंट की चोरी हो गई तो उसकी क्या हालत होगी। वह पैंट-चोरी की पुलिस में रिपोर्ट लिखवा पाएगा, किसी से अपना दुखड़ा रो पाएगा। उसने कई बार यह भी सोचा कि घर से जाते समय उसे एक पर्ची छोड़ जानी चाहिए−चोर के नाम कि−सारा सामान उठा ले जाना, पर भैया पैंट मत ले जाना। मगर फिर उसे ख़याल आता कि ज़रूरी नहीं कि चोर पढ़ा-लिखा हो, और पढ़ा-लिखा हुआ, तब तो पर्ची पढ़कर पैंट तो ज़रूर ही चुरा ले जाएगा।

    उसने कई-कई बार सामने में चोर को पैंट ले जाते हुए और चोर के सामने ख़ुद को गिड़गिड़ाते हुए पाया। इस तरह कई-कई रातें उसकी नींद ख़राब हुई। फिर दुबारा नींद नहीं आई। झूठ क्यों कहें, एक बार तो चोर के डर के मारे नींद में उसका पेशाब भी छूट गया।

    वह इस पैंट से, जिसके बारे में शायद ही कोई जानता हो, तंग गया था। वह इसे पहन सकता था, फेंक सकता था। वह इस पैंट से प्यार भी करता था और आजिज भी गया था। उसे अपनी इस पैंट के बारे में उतनी ही आशाएँ-आशंकाएँ होती थीं, जितनी माँ-बाप को अपने बेटे-बेटियों के बारे में होती हैं। जिस तरह कुछ कुँआरी माएँ अपने बच्चे को कूड़ेदान में फेंक देती हैं, उसी तरह उसने भी इस पैंट को फेंकने का इरादा बनाया। मगर बाद में वह इसकी कल्पना से भी डरने लगा। उसकी आँखों के सामने वह सारा दृश्य साकार हो गया, जो पैंट को कूड़ेदान में फेंकने पर उपस्थित होगा। जो पहला आदमी, सुबह-सुबह एकदम नई कोरी पैंट को देखेगा, उसे पहले तो इसे पा लेने की इच्छा होगी, फिर डर लगेगा कि कहीं कोई छुपकर देख रहा हो। जब वह डर पर विजय पा लेगा तो उसे आशंका होगी कि एकदम नई कोरी पैंट कोई क्यों छोड़ गया है? ज़रूर टोना-टोटका करके छोड़ा होगा। वह लोगों को बुलाएगा और मोहल्ले में हंगामा खड़ा करवा देगा। इसके बाद अपराधी की खोज होगी। लोग शक करते-करते उसके पास पहुँचेंगे। वह अपना अपराध कबूल कर लेगा। फिर लोग उसकी ऐसी गत बनाएँगे कि आत्महत्या के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा।

    उसने पाया कि वह इस पैंट से वाक़ई तंग गया है और अब इससे मुक्ति ज़रूरी है। उसने मोहल्ले से दूर किसी कूड़ेदान या नदी-तालाब में इसे फेंकने का निश्चय किया मगर थोड़ी ही देर में उसने पाया कि एक नई पैंट के साथ ऐसा सुलूक वह नहीं कर सकता। करेगा, तो कई-कई दिन तक यह सोचता रहेगा कि वह पैंट किसके हाथ लगी होगी, कहाँ गई होगी, उसे पहना गया होगा या फाड़कर फेंक दिया गया होगा। पैंट से तब भी पीछा नहीं छूटेगा। किसी को दान कर देना भी उसे दुस्साहस से कम नहीं लगता था।

    कई महीने पैंट बक्से में पड़ी रही। उसे निकालकर देखने का साहस भी उसे नहीं हुआ। लेकिन एक दिन जाने क्या सोचकर उसने पैंट निकाली तो पाया कि उसे कई जगह से कॉक्रोच खा चुके हैं। उसे बहुत सदमा लगा। वह रोया। वह पछताया कि क्यों वह दुनिया से इतना डरा कि उसने पैंट नहीं पहनी। वह जितनी अपनी निंदा कर सकता था, उसने की। वह जितना दुनिया को कोस सकता था, उसने कोसा। वह जितने कॉक्रोच मार सकता था, उसने मारे।

    अंत में, उसने ठंड की रातों में इस पैंट को पहनकर सोने का निर्णय किया। तीन साल उसने इस तरह निकाल दिए। इसकी वजह से रात में उसे दो-तीन बार दिक्क़तों का सामना भी करना पड़ा। एक बार उसका पेट ख़राब था। रात में सोते-सोते अचानक पाख़ाना लगा। उस हालत में उसे उतारकर पायजमा पहनने का संकट झेलना पड़ा। तब वह घर से बाहर बने पाख़ाने में जा पाया। एक बार आधी रात को उसके कोई मेहमान गए। साँकल बजने पर उसकी नींद खुली। उसने पता किया कि कौन आया है। आश्वस्त हो जाने पर वह दरवाज़े तक गया और लौट आया। पैंट का ख़याल गया था। उसने पैंट निकाली, पायजमा पहना, पैंट को बक्से में बंद किया, तब बाहर आया। इस बीच मेहमान काफ़ी हैरान-परेशान हुए। बाद में उससे अजीब-अजीब सवाल किए।

    एक और बार की बात है। पड़ोस में 'चोर-चोर' का शोर सुनकर वह हड़बड़ी में बाहर आया। बाहर आकर पैंट का ख़याल आया। वह अंदर भागा। पैंट बदली और बाहर आया। लेकिन तब से उसे शंका होने लगी थी कि किसी किसी ने तो उसकी यह फटी पैंट ज़रूर देख ली होगी। वह आदमी ज़रूर मेरी हँसी उड़ाता होगा। वह ज़रूर इस ताक में होगा कि मुझे फिर से इस हालत में देख ले। उसे उस पैंट को बर्दाश्त करना भारी लगा। हालाँकि दूसरे ही क्षण उसे ख़याल आया कि तीन ठंडों में काम देने के बावजूद तीन और ठंडे इसमें निकल सकती है।

    दरअसल, कॉक्रोच द्वारा पैंट को काट लिए जाने के बाद उसका इस पैंट से मोह और बढ़ गया था। वह कॉक्रोचों को बता देना चाहता था कि उसके ख़ून-पसीने की कमाई की इस तरह तौहीन नहीं की जा सकती। वह इस पैंट में लगा एक-एक पैसा वसूल करके रहेगा। वह भूल नहीं पाएगा इस पैंट को।

    यह सोचते-सोचते कभी-कभी तो उसमें इतनी हिम्मत जाती कि वह इसी पैंट के साथ सड़क पर निकलने की सोचता। उसे उस हँसी की कल्पना भी नहीं दहलाती, जो इस पैंट के पहनने पर सड़क और दफ़्तर में सुनाई देगी। कई बार इस निर्णय को स्थगित करते-करते, कई-कई रातों को इस बारे में सोचते-सोचते, एक दिन उसने पैंट पहनना तय ही कर लिया। वह पैंट पहन कर बाहर निकला। उसने किसी से बात नहीं की। किसी की बात नहीं सुनी। किसी की ओर नहीं देखा। दफ़्तर में भी उसने यही किया। उसने आम दिनों की तरह सारा काम किया पर किसी से बोला नहीं। किसी से व्यंग्य, किसी हँसी-मज़ाक, किसी आग्रह का जवाब नहीं दिया। किसी को अपनी बीड़ी नहीं पिलार्इ। किसी से माचिस उधार नहीं माँगी। उसने किसी पर क्रोध नहीं किया। किसी पर दया नहीं दिखाई।

    उसका यह व्यवहार सबके बीच कौतूहल का विषय बना रहा मगर किसी में हिम्मत नहीं हुई कि उससे दो बातें कर ले।

    लेकिन अगले दिन से उसने दूसरी रणनीति अपनाई। अगर कोई इस पैंट को लेकर उसकी हँसी उड़ाएगा,

    तो वह इसका भरपूर जवाब देगा। गाली देना ज़रूरी होगा तो गाली देगा, मारपीट ज़रूरी हुई तो मारपीट करेगा। और रोज़-रोज़ इसी पैंट को पहनकर दफ़्तर जाएगा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1980-1990) (पृष्ठ 86)
    • संपादक : लीलाधार मंडलोई
    • रचनाकार : विष्णु नागर
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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