क्षमा

kshama

प्रेमचंद

और अधिकप्रेमचंद

    एक

    मुसलमानों को स्पेन-देश पर राज्य करते कई शताब्दियाँ बीत चुकी थीं। कलीसाओं की जगह मस्जिदें बनती जाती थीं; घंटों की जगह अज़ान की आवाज़ें सुनाई देती थी। ग़रनाता और अलहमरा में वे समय की नश्वर गति पर हँसने वाले प्रासाद बन चुके थे, जिनके खंडहर अब तक देखने वालों को अपने पूर्व ऐश्वर्य की झलक दिखाते हैं। ईसाइयों के गण्य-मान्य स्त्री और पुरुष मसीह की शरण छोड़कर इस्लामी भ्रातृत्व में सम्मिलित होते जाते थे, और आज तक इतिहासकारों को यह आश्चर्य है कि ईसाइयों का निशान वहाँ क्योंकर बाक़ी रहा! जो ईसाई-नेता अब तक मुसलमानों के सामने सिर झुकाते थे, और अपने देश में स्वराज्य स्थापित करने का स्वप्न देख रहे थे उनमें एक सौदागर दाऊद भी था। दाऊद विद्वान और साहसी था। वह अपने इलाक़े में इस्लाम को क़दम जमाने देता था। दीन और निर्धन ईसाई विद्रोही देश के अन्य प्रांतों से आकर उसके शरणागत होते थे और वह बड़ी उदारता से उनका पालन-पोषण करता था। मुसलमान दाऊद से सशंक रहते थे। वे धर्म-बल से उस पर विजय पाकर उसे शस्त्र-बल से परास्त करना चाहते थे। पर दाऊद कभी उनका सामना करता। हाँ, जहाँ कहीं ईसाइयों के मुसलमान होने की ख़बर पाता, वहाँ हवा की तरह पहुँच जाता और तर्क या विनय से उन्हें अपने धर्म पर अचल रहने की प्रेरणा देता। अंत में मुसलमानों ने चारों तरफ़ से घेर कर उसे गिरफ़्तार करने की तैयारी की। सेनाओं ने उसके इलाक़े को घेर लिया। दाऊद को प्राण-रक्षा के लिए अपने संबंधियों के साथ भागना पड़ा। वह घर से ग़रनाता में आया, जहाँ उन दिनों इस्लामी राजधानी थी। वहाँ सबसे अलग रहकर वह अच्छे दिनों की प्रतीक्षा में जीवन व्यतीत करने लगा। मुसलमानों के गुप्तचर उसका पता लगाने के लिए बहुत सिर मारते थे, उसे पकड़ लाने के लिए बड़े-बड़े इनामों की विज्ञप्ति निकाली जाती थी; पर दाऊद की टोह मिलती थी।

    दो

    एक दिन एकांतवास से उकताकर दाऊद ग़रनाता के एक बाग़ में सैर करने चला गया। संध्या हो गई थी। मुसलमान नीची अबाएँ पहने, बड़े-बड़े अमामे सिर पर बाँधे, कमर से तलवार लटकाए रविशों में टहल रहे थे। स्त्रियाँ सफ़ेद बुर्क़े ओढ़े, ज़री की जूतियाँ पहने बेंचों और कुर्सियों पर बैठी हुई थीं। दाऊद सबसे अलग हरी-हरी घास पर लेटा हुआ सोच रहा था कि वह दिन कब आएगा, जब हमारी जन्मभूमि इन अत्याचारियों के पंजे से छूटेगी! वह अतीत काल की कल्पना कर रहा था, जब ईसाई स्त्री और पुरुष इन रविशों में टहलते होंगे, जब यह स्थान ईसाइयों के परस्पर वाग्विलास से गुलज़ार होगा।

    सहसा एक मुसलमान युवक आकर दाऊद के पास बैठ गया। वह इसे सिर से पाँव तक अपमान-सूचक दृष्टि से देखकर बोला—क्या अभी तक तुम्हारा हृदय इस्लाम की ज्योति से प्रकाशित नहीं हुआ?

    दाऊद ने गंभीर भाव से कहा—इस्लाम की ज्योति पर्वत-शृंगों को प्रकाशित कर सकती है। अँधेरी घाटियों में उसका प्रवेश नहीं हो सकता।

    उस मुसलमान अरब का नाम जमाल था। यह आक्षेप सुनकर तीखे स्वर में बोला—इससे तुम्हारा क्या मतलब है?

    दाऊद—इससे मेरा मतलब यही है कि ईसाइयों में जो लोग उच्च श्रेणी के हैं, वे जागीरों और राज्याधिकारों के लोभ तथा राजदंड के भय से इस्लाम की शरण में सकते हैं; पर दुर्बल और दीन ईसाइयों के लिए इस्लाम में वह आसमान की बादशाहत कहाँ है जो हज़रत मसीह के दामन में उन्हें नसीब होगी! इस्लाम का प्रचार तलवार के बल से हुआ है, सेवा के बल से नहीं।

    जमाल अपने धर्म का अपमान सुनकर तिलमिला उठा। गर्म होकर बोला—यह सर्वथा मिथ्या है। इस्लाम की शक्ति उसका आंतरिक भ्रातृत्व और साम्य है, तलवार नहीं।

    दाऊद—इस्लाम ने धर्म के नाम पर जितना रक्त बहाया है, उसमें उसकी सारी मस्जिदें डूब जाएँगी।

    जमाल—तलवार ने सदा सत्य की रक्षा की है।

    दाऊद ने अविचलित भाव से कहा—जिसको तलवार का आश्रय लेना पड़े, वह सत्य ही नहीं।

    जमाल जातीय गर्व से उन्मत्त होकर बोला—जब तक मिथ्या के भक्त रहेंगे, तब तक तलवार की ज़रूरत भी रहेगी।

    दाऊद—तलवार का मुँह ताकने वाला सत्य ही मिथ्या है।

    अरब ने तलवार के क़ब्ज़े पर हाथ रखकर कहा—ख़ुदा की क़सम, अगर तुम निहत्थे होते, तो तुम्हें इस्लाम की तौहीन करने का मज़ा चखा देता।

    दाऊद ने अपनी छाती में छिपाई हुई कटार निकालकर कहा—नहीं, मैं निहत्था नहीं हूँ। मुसलमानों पर जिस दिन इतना विश्वास करूँगा, उस दिन ईसाई रहूँगा। तुम अपने दिल के अरमान निकाल लो।

    दोनों ने तलवारें खींच लीं। एक-दूसरे पर टूट पड़े। अरब की भारी तलवार ईसाई की हलकी कटार के सामने शिथिल हो गई। एक सर्प की भाँति फन से चोट करती थी, दूसरी नागिन की भाँति उड़ती थी। लहरों की भाँति लपकती थी, दूसरी जल की मछलियों की भाँति चमकती थी। दोनों योद्धाओं में कुछ देर तक चोटें होती रहीं। सहसा एक बार नागिन उछलकर अरब के अंतस्तल में जा पहुँची। वह भूमि पर गिर पड़ा।

    तीन

    जमाल के गिरते ही चारों तरफ़ से लोग दौड़ पड़े। वे दाऊद को घेरने की चेष्टा करने लगे। दाऊद ने देखा, लोग तलवारें लिए दौड़े चले रहे हैं। प्राण लेकर भागा। पर जिधर जाता था, सामने बाग़ की दीवार रास्ता रोक लेती थी। दीवार ऊँची थी, उसे फाँदना मुश्किल था। यह जीवन और मृत्यु का संग्राम था। कहीं शरण की आशा नहीं, कहीं छिपने का स्थान नहीं। उधर अरबों की रक्त-पिपासा प्रतिक्षण तीव्र होती जाती थी। यह केवल एक अपराधी को दंड देने की चेष्टा थी। जातीय अपमान का बदला था। एक विजित ईसाई की यह हिम्मत कि अरब पर हाथ उठाए! ऐसा अनर्थ!

    जिस तरह पीछा करने वाले कुत्तों के सामने गिलहरी इधर-उधर दौड़ती है, किसी वृक्ष पर चढ़ने की बार-बार चेष्टा करती है, पर हाथ-पाँव फूल जाने के कारण बार-बार गिर पड़ती है, वही दशा दाऊद की थी।

    दौड़ते-दौड़ते उसका दम फूल गया; पैर मन-मन भर के हो गए। कई बार जी में आया इन सब पर टूट पड़े और जितने महँगे प्राण बिक सकें, उतने महँगे बेचे; पर शत्रुओं की संख्या देखकर हतोत्साह हो जाता था।

    लेना, दौड़ना, पकड़ना का शोर मचा हुआ था। कभी-कभी पीछा करने वाले इतने निकट जाते थे कि मालूम होता था, अब संग्राम का अंत हुआ, वह तलवार पड़ी; पर पैरों की एक ही गति, एक कावा, एक कन्नी उसे ख़ून की प्यासी तलवार से बाल-बाल बचा लेती थी।

    दाऊद को अब इस संग्राम में खिलाड़ियों का-सा आनंद आने लगा। यह निश्चय था कि उसके प्राण नहीं बच सकते, मुसलमान दया करना नहीं जानते, इसलिए उसे अपने दाँव-पेंच में मज़ा रहा था। किसी वार से बचकर उसे अब इसकी ख़ुशी होती थी कि उसके प्राण बच गए, बल्कि इसका आनंद होता था कि उसने क़ातिल को कैसा ज़िच किया।

    सहसा उसे अपनी दाहिनी ओर बाग़ की दीवार कुछ नीची नज़र आई। आह! यह देखते ही उसके पैरों में एक नई शक्ति का संचार हो गया, धमनियों में नया रक्त दौड़ने लगा। वह हिरन की तरह उस तरफ़ दौड़ा और एक छलाँग में बाग़ के उस पार पहुँच गया। ज़िंदगी और मौत में सिर्फ़ एक क़दम का फ़ासला था। पीछे मृत्यु थी और आगे जीवन का विस्तृत क्षेत्र। जहाँ तक दृष्टि जाती थी, झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ नज़र आती थीं। ज़मीन पथरीली थी, कहीं ऊँची, कहीं, नीची। जगह-जगह पत्थर की शिलाएँ पड़ी हुई थीं। दाऊद एक शिला के नीचे छिपकर बैठ गया।

    दम-भर में पीछा करने वाले भी वहाँ पहुँचे और इधर-उधर झाड़ियों में, वृक्षों पर, गड्ढों में, शिलाओं के नीचे तलाश करने लगे। एक अरब उस चट्टान पर आकर खड़ा हो गया, जिसके नीचे दाऊद छिपा हुआ था। दाऊद का कलेजा धक्-धक् कर रहा था। अब जान गई! अरब ने ज़रा नीचे को झाँका, और प्राणों का अंत हुआ? संयोग, केवल संयोग पर अब उसका जीवन निर्भर था। दाऊद ने साँस रोक ली, सन्नाटा खींच लिया। एक निगाह पर उसकी ज़िंदगी का फ़ैसला था, ज़िंदगी और मौत में कितना सामीप्य है!

    मगर अरबों को इतना अवकाश कहाँ था कि वे सावधान होकर शिला के नीचे देखते। वहाँ तो हत्यारे को पकड़ने की जल्दी थी। दाऊद के सिर से बला टल गई। वे इधर-उधर ताक-झाँककर आगे बढ़ गए।

    चार

    अँधेरा हो गया। आकाश में तारागण निकल आए और तारों के साथ दाऊद भी शिला के नीचे से निकला। लेकिन देखा, उस समय भी चारों तरफ़ हलचल मची हुई है, शत्रुओं का दल मशालें लिए झाड़ियों में घूम रहा है; नाकों पर भी पहरा है, कहीं निकल भागने का रास्ता नहीं है। दाऊद एक वृक्ष के नीचे खड़ा होकर सोचने लगा कि अब क्योंकर जान बचे। उसे अपनी जान की वैसी परवा थी। वह जीवन के सुख-दुख सब भोग चुका था। अगर उसे जीवन की लालसा थी, तो केवल यही देखने के लिए कि इस संग्राम का अंत क्या होगा। मेरे देशवासी हतोत्साह हो जाएँगे, या अदम्य धैर्य के साथ संग्राम-क्षेत्र में अटल रहेंगे।

    जब रात अधिक बीत गई और शत्रुओं की घातक चेष्टा कुछ कम होती दीख पड़ी तो दाऊद ख़ुदा का नाम लेकर झाड़ियों से निकला और दबे-पाँव, वृक्षों की आड़ में, आदमियों की नज़र बचाता हुआ, एक तरफ़ को चला। वह इन झाड़ियों से निकलकर बस्ती में पहुँच जाना चाहता था। निर्जनता किसी की आड़ नहीं कर सकती। बस्ती का जन-बाहुल्य स्वयं आड़ है।

    कुछ दूर तक तो दाऊद के मार्ग में कोई बाधा उपस्थित हुई, वन के वृक्षों ने उसकी रक्षा की; किंतु जब वह असमतल भूमि से निकलकर समतल भूमि पर आया, तो एक अरब की निगाह उस पर पड़ गई। उसने ललकारा। दाऊद भागा। क़ातिल भागा जाता है! यह आवाज़ हवा में एक ही बार गूँजी, और क्षण-भर में चारों तरफ़ से अरबों ने उसका पीछा किया। सामने बहुत दूर तक आबादी का नामोनिशान था। बहुत दूर पर एक धुँधला-सा दीपक टिमटिमा रहा था। किसी तरह वहाँ तक पहुँच जाऊँ। वह उस दीपक की ओर इतनी तेज़ी से दौड़ रहा था, मानो वहाँ पहुँचते ही अभय पा जाएगा। आशा उसे उड़ाए लिए जाती थी। अरबों का समूह पीछे छूट गया, मशालों की ज्योति निष्प्रभ हो गई। केवल तारागण उसके साथ दौड़े चले आते थे। अंत को वह आशामय दीपक के सामने पहुँचा। एक छोटा-सा फूस का मकान था। एक बूढ़ा अरब ज़मीन पर बैठा हुआ रेहल पर कुरान रखे उसी दीपक के मंद प्रकाश से पढ़ रहा था। दाऊद आगे जा सका। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। वह वहीं शिथिल होकर गिर पड़ा। रास्ते की थकन घर पहुँचने पर मालूम होती है।

    अरब ने उठकर कहा—तू कौन है?

    दाऊद—एक ग़रीब ईसाई। मुसीबत में फँस गया हूँ। अब आप ही शरण दें, तो मेरे प्राण बच सकते हैं।

    अरब—ख़ुदा-पाक तेरी मदद करेगा। तुम पर क्या मुसीबत पड़ी हुई है?

    दाऊद—डरता हूँ कहीं कह दूँ तो आप भी मेरे ख़ून के प्यासे हो जाएँ।

    अरब—अब तू मेरी शरण में गया, तो तुझे मुझसे कोई शंका होनी चाहिए। हम मुसलमान हैं, जिसे एक बार अपनी शरण में ले लेते हैं उसकी ज़िंदगी-भर रक्षा करते हैं।

    दाऊद—मैंने एक मुसलमान युवक की हत्या कर डाली है।

    वृद्ध अरब का मुख क्रोध से विकृत हो गया, बोला—उसका नाम?

    दाऊद—उसका नाम जमाल था।

    अरब सिर पकड़कर वहीं बैठ गया। उसकी आँखें सुर्ख़ हो गईं; गर्दन की नसें तन गईं; मुख पर अलौकिक तेजस्विता की आभा दिखाई दी, नथुने फड़कने लगे। ऐसा मालूम होता था कि उसके मन में भीषण द्वंद्व हो रहा है, और वह समस्त विचार-शक्ति से अपने मनोभावों को दबा रहा है। दो-तीन मिनट तक वह इसी उग्र अवस्था में बैठा धरती की ओर ताकता रहा। अंत में अवरुद्ध कंठ से बोला—नहीं-नहीं, शरणागत की रक्षा करनी ही पड़ेगी। आह! जालिम! तू जानता है, मैं कौन हूँ। मैं उसी युवक का अभागा पिता हूँ, जिसकी आज तूने इतनी निर्दयता से हत्या की है! तू जानता है, तूने मुझ पर कितना बड़ा अत्याचार किया है? तूने मेरे ख़ानदान का निशान मिटा दिया है! मेरा चिराग़ गुल कर दिया! आह, जमाल मेरा इकलौता बेटा था। मेरी सारी अभिलाषाएँ उसी पर निर्भर थीं। वह मेरी आँखों का उजाला, मुझ अँधे का सहारा, मेरे जीवन का आधार, मेरे जर्ज़र शरीर का प्राण था। अभी-अभी उसे क़ब्र की गोद में लिटाकर आया हूँ। आह, मेरा शेर, आज ख़ाक के नीचे सो रहा है। ऐसा दिलेर, ऐसा दीनदार, ऐसा सजीला जवान मेरी क़ौम में दूसरा था। जालिम, तुझे उस पर तलवार चलाते ज़रा भी दया आई! तेरा पत्थर का कलेजा ज़रा भी पसीजा! तू जानता है, मुझे इस वक़्त तुझ पर कितना ग़ुस्सा रहा है? मेरा जी चाहता है कि अपने दोनों हाथों से तेरी गर्दन पकड़कर इस तरह दबाऊँ कि तेरी ज़बान बाहर निकल आए, तेरी आँखें कौड़ियों की तरह बाहर निकल पड़ें। पर नहीं, तूने मेरी शरण ली है, कर्तव्य मेरे हाथों को बाँधे हुए है; क्योंकि हमारे रसूल-पाक ने हिदायत की है, कि जो अपनी पनाह में आए, उस पर हाथ उठाओ। मैं नहीं चाहता कि नबी के हुक्म को तोड़कर दुनिया के साथ अपनी आक़िबत भी बिगाड़ लूँ। दुनिया तूने बिगाड़ी, दीन अपने हाथों बिगाड़ लूँ? नहीं। सब्र करना मुश्किल है; पर सब्र करूँगा। ताकि नबी के सामने आँखें नीची करनी पड़ें। आ, घर में आ। तेरा पीछा करने वाले दौड़े रहे हैं। तुझे देख लेंगे, तो फिर मेरी सारी मिन्नत-समाजत तेरी जान बचा सकेगी। तू नहीं जानता कि अरब लोग ख़ून कभी माफ़ नहीं करते।

    यह कहकर अरब ने दाऊद का हाथ पकड़ लिया, और उसे घर में ले जाकर एक कोठरी में छिपा दिया। वह घर से बाहर निकला ही था कि अरबों का एक दल द्वार पर पहुँचा।

    एक आदमी ने पूछा—क्यों शैख़ हसन, तुमने इधर से किसी को भागते देखा है?

    ‘हाँ देखा है।’

    ‘उसे पकड़ क्यों लिया? वही तो जमाल का क़ातिल था!’

    ‘यह जानकर भी मैंने उसे छोड़ दिया।’

    ‘ऐं! गज़ब ख़ुदा का! यह तुमने क्या किया? जमाल हिसाब के दिन हमारा दामन पकड़ेगा, तो हम क्या जवाब देंगे?’

    ‘तुम कह देना कि तेरे बाप ने तेरे क़ातिल को माफ़ कर दिया।’

    ‘अरब ने कभी क़ातिल का ख़ून नहीं माफ़ किया।’

    ‘यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी है, मैं उसे अपने सिर क्यों लूँ?’

    अरबों ने शैख़ हसन से ज़्यादा हुज़्ज़त की, क़ातिल की तलाश में दौड़े। शैख़ हसन फिर चटाई पर बैठकर कुरान पढ़ने लगा, लेकिन उसका मन पढ़ने में लगता था। शत्रु से बदला लेने की प्रवृत्ति अरबों की प्रकृति में बद्धमूल होती थी। ख़ून का बदला ख़ून था। इसके लिए ख़ून की नदियाँ बह जाती थीं, क़बीले के क़बीले मर मिटते थे, शहर के शहर वीरान हो जाते थे। उस प्रवृत्ति पर विजय पाना शैख़ हसन को असाध्य-सा प्रतीत हो रहा था। बार-बार प्यारे पुत्र की सूरत उसकी आँखों के आगे फिरने लगती थी, बार-बार उसके मन में प्रबल उत्तेजना होती थी कि चलकर दाऊद के ख़ून से अपने क्रोध की आग बुझाऊँ। अरब वीर होते थे। कटना-मरना उनके लिए कोई असाधारण बात थी। मरने वालों के लिए वे आँसुओं की कुछ बूँदें बहाकर फिर अपने काम में प्रवृत्त हो जाते थे। वे मृत व्यक्ति की स्मृति को केवल उसी दशा में जीवित रखते थे, जब उसके ख़ून का बदला लेना होता था। अंत को शैख़ हसन अधीर हो उठा। उसको भय हुआ कि अब मैं अपने ऊपर क़ाबू नहीं रख सकता। उसने तलवार म्यान से निकाल ली, और दबे पाँव उस कोठरी के द्वार पर आकर खड़ा हो गया, जिसमें दाऊद छिपा हुआ था। तलवार को दामन में छिपाकर उसने धीरे से द्वार खोला। दाऊद टहल रहा था। बूढ़े अरब का रौद्र रूप देखकर दाऊद उसके मनोवेग को ताड़ गया। उसे बूढ़े से सहानुभूति हो गई। उसने सोचा, यह धर्म का दोष नहीं, जाति का दोष नहीं। मेरे पुत्र की किसी ने हत्या की होती, तो कदाचित् मैं भी उसके ख़ून का प्यासा हो जाता। यही मानव-प्रकृति है।

    अरब ने कहा—दाऊद, तुम्हें मालूम है बेटे की मौत का कितना ग़म होता है।

    दाऊद—इसका अनुभव तो नहीं, पर अनुमान कर सकता हूँ। अगर मेरी जान से आपके उस ग़म का एक हिस्सा भी मिट सके, तो लीजिए, यह सिर हाज़िर है। मैं इसे शौक़ से आपकी नज़र करता हूँ। आपने दाऊद का नाम सुना होगा।

    अरब—क्या पीटर का बेटा?

    दाऊद—जी हाँ। मैं वही बदनसीब दाऊद हूँ। मैं केवल आपके बेटे का घातक ही नहीं, इस्लाम का दुश्मन हूँ। मेरी जान लेकर आप जमाल के ख़ून का बदला ही लेंगे, बल्कि अपनी जाति और धर्म की सच्ची सेवा भी करेंगे।

    शैख़ हसन ने गंभीर भाव से कहा—दाऊद, मैंने तुम्हें माफ़ किया। मैं जानता हूँ, मुसलमानों के हाथ ईसाइयों को बहुत तक़लीफ़ें पहुँची हैं, मुसलमानों ने उन पर बड़े-बड़े अत्याचार किए हैं, उनकी स्वाधीनता हर ली है! लेकिन यह इस्लाम का नहीं, मुसलमानों का क़सूर है। विजय-गर्व ने मुसलमानों की मति हर ली है। हमारे पाक नबी ने यह शिक्षा नहीं दी थी, जिस पर आज हम चल रहे हैं। वह स्वयं क्षमा और दया का सर्वोच्च आदर्श है। मैं इस्लाम के नाम को बट्टा लगाऊँगा। मेरी ऊँटनी ले लो और रातों-रात जहाँ तक भागा जाए, भागो। कहीं एक क्षण के लिए भी ठहरना। अरबों को तुम्हारी बू भी मिल गई, तो तुम्हारी जान की ख़ैरियत नहीं। जाओ, तुम्हें ख़ुदा-ए-पाक घर पहुँचावे। बूढ़े शैख़ हसन और उसके बेटे जमाल के लिए ख़ुदा से दुआ किया करना।

    दाऊद ख़ैरियत से घर पहुँच गया; किंतु अब वह दाऊद था, जो इस्लाम को जड़ से खोदकर फेंक देना चाहता था। उसके विचारों में गहरा परिवर्तन हो गया था। अब वह मुसलमानों का आदर करता और इस्लाम का नाम इज़्ज़त से लेता था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मानसरोवर (भाग-3) (पृष्ठ 193)
    • रचनाकार : प्रेमचंद
    • प्रकाशन : सरस्वती प्रेस, बनारस
    • संस्करण : 1947

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