वह बात न मीरा ने उठाई, न ख़ुद उसने। मिलने से पहले ज़रूर लगा था कि कोई बहुत ही ज़रूरी बात है जिस पर दोनों को बातें कर ही लेनी हैं, लेकिन जैसे हर क्षण उसी की आशंका में उसे टालते रहे। बात गले तक आ-आकर रह गई कि एक बार फिर मीरा से पूछे—क्या इस परिचय को स्थायी रूप नहीं दिया जा सकता?—लेकिन कहीं पहले की तरह उसे बुरा लगा तो? उसके बाद दोनों में कितना खिंचाव और दुराव आ गया था!
पता नहीं क्यों, ताजमहल उसे कभी ख़ूबसूरत नहीं लगा। फिर धूप में सफ़ेद संगमरमर का चौंधा लगता था, इसलिए वह उधर पीठ किए बैठा था। लेकिन चौंधा मीरा को भी तो लग सकता है न? हो सकता है, उसे ताज सुंदर ही लगता हो। परछाईं उधर यमुना की तरफ़ होगी, इधर तो सपाट धूल में झलमल करता संगमरमर है, बस। इस तपते पत्थर पर चलने में तलुओं के झुलसने की कल्पना से उसके सारे शरीर में फुरहरी दौड़ गई।
तीन साल बाद एक-दूसरे को देखा था। देखकर सिर्फ़ मुस्कुराए थे, आश्वस्त भाव से—हाँ, दोनों हैं और वैसे ही हैं—मीरा कुछ निखर आई है और शायद वह...वह पता नहीं कैसा हो गया है! जाने कितने पूरे-के-पूरे वाक्य, सवाल-जवाब उसने मीरा को मन-ही-मन सामने बैठाकर बोले थे, प्रतिक्रियाओं की कल्पना की थी और अब बस, खिसियाने ढंग से मुस्कुराकर ही स्वागत किया था। उस क्षण से ही उसे अपने मिलने की व्यर्थता का अहसास होने लगा था, जाने क्यों। क्या ऐसी बातें करेंगे वे, जो अकसर नहीं कर चुके हैं? साल-छ: महीने में एक-दूसरे के कुशल समाचार जान ही लेते हैं।
उठे हुए घुटनों के पास लॉन की घास पर मीरा का हाथ चुपचाप रखा था। बस, उँगलियाँ इस तरह उठ-गिर रही थीं, जैसे किसी बहुत नाज़ुक बाजे पर हल्के-हल्के गूँजते संगीत की ताल को बाँध रही हों। मीरा ने लोहे का छल्ला डाल रखा था—शायद शनि का प्रभाव ठीक रखने के लिए। उसने धीरे से उसकी सबसे छोटी अँगुली में अपनी अँगुली हुक की तरह अटका ली थी, फिर हाथ उठाकर दोनों हथेलियों में दबा लिया था। फिर धीरे-धीरे बातों की धारा फूट पड़ी थी।
विजय का ध्यान गया—बड़ी-बड़ी मूँछोंवाला कोई छोटा-सा कीड़ा मीरा की खुली गर्दन और ब्लाउज़ के किनारे आ गया था। झिझक हुई, ख़ुद झाड़ दे या बता दे। उसने अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लिया—प्रवेश-द्वार की सीढ़ियाँ झाड़ियों की ओट आ गई थीं, सिर्फ़ ऊपर का हिस्सा दीख रहा था। हिचकिचाते हुए कैरम का स्ट्राइकर मारने की तरह उसने कीड़ा उँगुलियों से परे छिटका दिया, नसों में सनसनाहट उतरती चली गई। उँगलियों से वह जगह यूँही झाड़ दी, मानो गंदी हो गई थी। मीरा उसी तन्मय भाव से अपनी सहेली के विवाह की पार्टी में आए लोगों का वर्णन देती रही—उसने कुछ नहीं कहा। न वहाँ रखा विजय का हाथ हटाया ही। विजय ने एक बार फिर सशंक निगाहों से इधर-उधर देखा और आगे बढ़कर उसको दोनों कनपटियों को हथेलियों से दबाकर अपने पास खींच लिया। नहीं, मीरा ने विरोध नहीं किया। मानो वह प्रत्याशा कर रही थी कि यह क्षण आएगा अवश्य। लेकिन पहले उसके माथे पर तीखी रेखाओं की परछाइयाँ उभरीं और फिर मुग्ध मुस्कुराहट की लहरों में बदल गईं...। एक अजीब, बिखरती-सी सिमटी, धूप छाँहीं मुस्कुराहट। विजय का मन हुआ, रेगिस्तान में भटकते प्यासे की तरह दोनों हाथों से सुराही को पकड़कर इस मुस्कुराहट की शराब को पागल आवेश में पीता चला जाए...पीता चला जाए...गट...गट और आख़िर लड़खड़ाकर गिर पड़े। पतले-पतले होंठों में एक नामालूम-सी फड़कन लरज़ रही थी। उस रूमानी बेहोशी में भी विजय को ख़याल आया कि पहले एक हाथ से मीरा चश्मा उतार ले—टूट न जाए। तब उसने देखा, हरियाले फव्वारों-जैसे मोरपंखियों के दो-तीन पेड़ों के पीछे पूरे-पूरे दो ताजमहल चश्मे के शीशों में उतर आए हैं...दूधिया हाथी दाँत के बने-से दो सफ़ेद नन्हे-नन्हे खिलौने...
पता नहीं क्यों, उसे ताजमहल कभी अच्छा नहीं लगा। ध्यान आया, अवांछित बूढ़े प्रहरी की तरह ताजमहल पीछे खड़ा देख रहा है। बातों के बीच वह उसे कई बार भूल गया था, लेकिन दाँतों में अटके तिनके-सा अचानक ही उसे याद आ जाता था कि वे उसकी छाया में बैठे हैं जो महान् है, जो विराट है...जो...? इतनी बड़ी इमारत! इसके समग्र सौंदर्य को एकसाथ वह कभी कल्पना में ला ही नहीं पाया...एक-एक हिस्सा देखने में कभी उसमें कुछ सुंदर लगा नहीं। लोगों के अपने ही मन का काव्य और सौंदर्य रहा होगा जो इसमें आरोपित करके देख लेते हैं। कभी मौक़ा मिलेगा तो वह हवाई जहाज़ से ताज की सुंदरता के समग्र हो पाने की कोशिश करेगा। कई विहंगम चित्र इस तरह के देखे तो हैं...और तब सारे वातावरण के बीच कोई बात लगी तो है...मगर ये चश्मे के काँचों में झलमलाते, धूप में चमकते ताज...। खिंचाव वहीं थम गया। उसने बड़े बेमालूम-से ढंग से गहरी साँस ली और अपने हाथ हटा लिए, आहिस्ते से।—’नहीं, यहाँ नहीं। कोई देख लेगा...’ यह उसे क्या हो गया...?
सहसा मीरा सचेत हो आई। उमड़ती लाज छिपाने के लिए सकपकाकर इधर-उधर देखा, कोई भी तो नहीं था। पास वाली लाल-लाल ऊँची दीवार पर अभी-अभी राज-मज़दूर-से लगनेवाले मरम्मतिए लोग आपस में हँसी-मज़ाक़ करते एक दूसरे के पीछे भागते गए हैं। बंदर की तरह दीवार पर भाग लेने का अभ्यास है। रविश के पार-पड़ोस के लॉन में दो-तीन माली पाइपों को इधर-उधर घुमाते पानी लगा रहे थे—वे भी अब नहीं हैं। खाना खाने गए होंगे। मीरा ने बग़ल से साड़ी खींचकर कंधे का पल्ला ठीक कर लिया। फिर विजय ने अनमने भाव से घास का एक फूल तोड़ा और आँखों के आगे उँगलियों में घुमाने लगा। मीरा ने चश्मा उतारकर, मुँह से हल्की-सी भाप दी और साड़ी से काँच पोंछे, बालों की लटों को कानों के पीछे अटकाया और चश्मा लगाकर कलाई की घड़ी देखी।
बड़ा बोझिल मौन आ गया था दोनों के बीच। विजय को लगा, उन्हें कुछ बोलना चाहिए, वरना यह चुप्पी का बोझ दोनों के बीच की किसी बहुत कोमल चीज़ को पीस देगा। हथेली पर यूँही उस तिनके से क्रास और त्रिकोण बनाता वह शब्दों को ठेलकर बोला, “तो फिर अब चलें...? देर बहुत हो रही है...”
मीरा ने सिर हिला दिया। लगा, जैसे वह कुछ कहते-कहते रुक गई हो या प्रतीक्षा कर रही हो कि विजय कुछ कहना चाहता है, लेकिन कह नहीं पा रहा। फिर थोड़ी देर चुप्पी रही। कोई नहीं उठा। तब फिर उसने मरे-मरे हाथों से जूतों के फीते कसे, अख़बार में रखे और संतरे और मूँगफली के छिलके फेंके। बैठने के लिए बिछाए गए रूमाल समेटे गए और दोनों टहलते हुए फाटक की तरफ़ चले आए।
तीन का समय होगा—हाथ में घड़ी होते हुए भी उसने अंदाज़ लगाया। धूप अभी भी बहुत तेज़ थी। एकाध बार गले और कनपटियों का पसीना पोंछा। आते समय तो बारह बजे थे। उस वक़्त उसे हँसी आ रही थी, मिलने का समय भी उन लोगों ने कितना विचित्र रखा है...
जैसे इस समय से बहुत दूर खड़े होकर उसने दुहराया था—बारह...बजे, जून का महीना और ताजमहल का लॉन। वह पहले आ गया था और प्रतीक्षा करता रहा था। उस समय कैसी बेचैनी, कैसी छटपटाहट, कैसी उतावली थी...यह समय बीतता क्यों नहीं है? बहुत दिनों से घड़ी की सफ़ाई नहीं हो पाई, इसलिए शायद सुस्त है। अभी तक नहीं आई। इन लड़कियों की इसी बात से सख़्त झुँझलाहट होती है। कभी समय नहीं रखतीं। जाने क्या मज़ा आता है इंतिज़ार कराने में! वह जान-बूझकर उधर आने वाले रास्ते की ओर से मुँह फेरे था। उम्मीद कर रहा था कि सहसा मुड़कर उधर देखेगा तो पाएगा कि वह आ रही है। लेकिन दो-तीन बार ऐसा कर चुकने