बॉस की पार्टी

boss ki party

संजय कुंदन

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बॉस की पार्टी

संजय कुंदन

और अधिकसंजय कुंदन

    वह काफ़ी देर से आईने के सामने खड़ा हँसने की कोशिश कर रहा था। इस प्रयास में उसने कई विचित्र मुद्राएँ बनाईं, तरह-तरह की आवाजें निकालीं। हालाँकि वह आश्वस्त नहीं हो पा रहा था कि यह सब जो उसने किया है, उन्हें हँसी की श्रेणी में शामिल किया जा सकता है या नहीं।

    जीवन में पहली बार उसके भीतर यह सवाल उठ रहा था कि हँसी आती कहाँ से है और कैसे? क्या हँसी के आने से पहले शरीर में कोई सरसराहट होती है जैसे बारिश पत्तों पर दस्तक देती है? क्या त्वचा का रंग बदलने लगता है, पुतलियाँ कुछ अलग तरह से हरकत करने लगती हैं?

    ज़िंदगी की सबसे स्वाभाविक क्रिया उसके लिए चुनौती बन गई थी। ऐसा लग रहा था कि वह किसी दूसरे ग्रह का प्राणी हो जो इंसान बनने की क़वायद में जुटा है।

    किसी गहरे आघात से जैसे कुछ लोगों की याददाश्त चली जाती है उसी तरह उसकी हँसी चली गई थी। कब चली गई थी, याद था। कितनी चोटें खाने के बाद ऐसा हुआ था, इसका कोई हिसाब था। पर वह हँसना चाहता था, क्योंकि हँसना अब उसे ज़रूरी लगने लगा था।

    वह उस हँसी को नहीं ढूँढ़ रहा था जो चली गई थी। वह अपने भीतर उस हँसी से मिलती-जुलती एक और हँसी हँसने की ताक़त पैदा कर रहा था। वह ऐसी हँसी की तलाश कर रहा था जो सामने वाले को प्रसन्न कर दे। उसे ऐसी हँसी की दरकार थी जो उसे हर माहौल में स्वीकार्य बनाए। जो उसे छुपा ले। जिसे रोते हुए भी हँसा जा सके। जो उसका परम मूर्ख और अज्ञानी होना साबित कर सके।

    उसका नाम देवेश कुमार था और वह एक निजी कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर था। वह अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ दिल्ली के निम्न मध्यवर्गीय लोगों के मुहल्ले में एलआईजी फ्लैट में किराए पर रहता था।

    दो दिन पहले उसके जीवन में एक ऐसी घटना घटी जिसने उसे हँसी खोजने पर मजबूर कर दिया था। हुआ यह कि परसों उसके दफ़्तर में प्रमोशन और सालाना इंक्रीमेंट की लिस्ट आई थी। एक बार फिर देवेश का प्रमोशन नहीं हुआ था। उसे हर बार की तरह बस दो सौ रुपए की इंक्रीमेंट दी गई थी। यह उसके लिए दुखद था, लेकिन उसके परिवार के लिए यह वज्रपात साबित होने वाला था क्योंकि देवेश से ज़्यादा उसका परिवार प्रमोशन की उम्मीदें पाले बैठा था। पिछले छह महीने से उसका परिवार प्रमोशन की कल्पना के साथ जी रहा था।

    पत्नी ने योजना बना रखी थी कि उसका प्रमोशन होगा तो वे लोग एलआईजी छोड़कर एमआईजी में चले जाएँगे। चूँकि बच्चे बड़े हो रहे थे इसलिए अब एक और कमरे की ज़रूरत पड़ रही थी। बच्चे भी तरह-तरह के ख़्वाब देख रहे थे। उसका बेटा चीनू कहता, “पापा का प्रमोशन होगा तो साइकिल लूँगा।”

    बेटी रिंकी की ख़्वाहिश थी, “पापा का प्रमोशन होते ही डांस क्लास में एडमिशन लूँगी।”

    अब छोटे-छोटे प्रसंगों में भी उसका प्रमोशन शामिल था। जब एक चादर थोड़ी फट गई तो पत्नी ने कहा, “अब प्रमोशन के बाद ही नई चादर लेंगे।”

    एक दिन उसने देवेश से कहा, “तुम बहुत कमज़ोर होते जा रहे हो। तुम्हें रोज़ एक गिलास दूध पीना चाहिए, लेकिन अभी बड़ी मुश्किल से बच्चों को ही मिल पाता है। कोई बात नहीं, प्रमोशन के बाद दो किलो लेना शुरू कर देंगे।”

    प्रमोशन होने से ये सारे सपने दम तोड़ चुके थे। देवेश यह सोचकर काँप उठा कि जब उसकी पत्नी और बच्चों को यह पता चलेगा तो उन पर क्या गुज़रेगी।

    दफ़्तर के सारे लोगों को प्रमोट किया गया था। यहाँ तक कि प्रिंस कुमार को लगातार दूसरी बार प्रोन्नति दी गई थी। प्रिंस कुमार उसका जूनियर था। पिछले साल प्रमोशन पाकर वह उसके समकक्ष गया था। अब वह उसका सीनियर हो जाने वाला था। जीवन में पहली बार देवेश अपमान की चुभन महसूस कर रहा था।

    देवेश ने तय किया कि वह अपने जीएम मिस्टर बत्रा से साफ़-साफ़ बात करेगा। आख़िर किस अपराध का दंड मिला है उसे? दिन-रात खटने और अक्सर अपने दफ़्तर के काम के लिए छुट्टी के दिनों को स्वाहा करने का क्या यही परिणाम है?

    वह झटके से मिस्टर बत्रा के केबिन में घुसा और उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गया।

    “एनीथिंग सीरियस?” बत्रा ने मुँह बनाकर पूछा।

    “यस!” देवेश ने ज़ोर से कहा।

    “बताइए।”

    “मैं सिर्फ़ यह जानना चाहता हूँ कि मुझे किस अपराध का दंड मिला है?”

    “दंड, कैसा दंड?

    “सबको प्रमोशन मिला, लेकिन मुझे नहीं।”

    “देखो देवेश, यह तो टॉप मैनेजमेंट का डिसीजन है।”

    सर, आप मुझे बहलाइए मत। मुझे पता है आप जो रिकमेंड करते हैं वही होता है। आपने मुझे रिकमेंड क्यों नहीं किया?”

    बत्रा ने कुछ नहीं कहा। वह इधर-उधर देखने लगा। देवेश बोला, “सर मैं आपसे कुछ पूछ रहा हूँ। यह जानने का मुझे पूरा हक़ है। आपने मुझे प्रमोशन क्यों नहीं दिया? मुझमें ऐसी क्या कमी है? क्या मैं ठीक से काम नहीं करता?”

    “काम ही सब कुछ नहीं है। बिहेवियर भी कोई चीज़ है।

    “मेरे व्यवहार में कमी है? मैं तो यहाँ किसी से ज़्यादा मतलब ही नहीं रखता।

    “यही तो बात है। आप यहाँ इन्वॉल्व नहीं होते। लगता ही नहीं कि आपको कंपनी से कोई मतलब है। आप हर समय खोए रहते हैं। इसका तो यही अर्थ हुआ कि आप हर समय पर्सनल प्रॉब्लम के बारे में सोचते रहते हैं।''

    देवेश के लिए यह अप्रत्याशित था। उसने कहा, “सर, महत्वपूर्ण यह नहीं है कि मैं क्या सोचता हूँ। असल बात है कि मैं करता क्या हूँ...।”

    “यही तो मैं कह रहा हूँ।” बत्रा ने बात काटते हुए कहा, आप अपनी बॉडी लैंग्वेज सुधारें। पता नहीं आप किस दुनिया में जीते हैं। हमें अप टू डेट मैनेजर्स चाहिए। समझ गए कवि जी...।”

    बत्रा ने जब ‘कवि जी' कहा तो उसकी आँखों में वही शरारत झलकी जो अक्सर नज़र आया करती थी। बत्रा देवेश को ‘कवि जी' कहकर चिढ़ाया करता था।

    बत्रा की नज़र में 'कवि' वह शख़्स नहीं था जो कविताएँ लिखता हो। अच्छी हिंदी बोलने वाले, गुमसुम रहने वाले सारे लोग उसकी नज़र में कवि थे, उसके लिए शुद्ध हिंदी बोलना एक मज़ाक का विषय था।

    एक बार फिर बत्रा ने कहा, “समझ गए कवि जी! चाय पिएँगे?”

    “नहीं, बिलकुल नहीं।” देवेश ने कुर्सी से उठते हुए कहा।

    “अरे आपकी वाली पिलाऊँगा।” बत्रा ने कहा और ज़ोर से हँसा।

    “आपकी वाली” से उसका आशय उस चाय से था जिसमें दूध और चीनी डाली जाती थी। वह ख़ुद काली चाय पीता था और उसे ही असली तथा संभ्रांत लोगों की चाय बताता था। उसका कहना था कि चाय में चीनी और दूध डालना पिछड़ेपन की निशानी है। जब वह अपने चैंबर में मैनेजरों की मीटिंग करता तो लोगों को ख़ुद चाय बनाकर देता। जब देवेश को वह चीनी डालते हुए देखता तो हँसते हुए कहता, “कवि टाइप लोग चाय नहीं शरबत पीते हैं।”

    कवि टाइप लोगों में वह उन्हें शामिल करता था जो कॉन्वेंट में नहीं पढ़े थे, जो पिछडे हिंदी भाषी प्रदेशों के निम्न मध्यवर्गीय लोग थे। उसका मानना था कि इन लोगों में सिविक सेंस नहीं होता है। ये लोग कहीं भी नाक छिड़क देते हैं या पेशाब कर देते हैं। ये मज़दूर या क्लर्क बनने के लायक़ ही हैं। ये अच्छे मैनेजर नहीं बन सकते। वह इन लोगों के लिए एक और शब्द का इस्तेमाल करता था—एचएमटी यानी हिंदी मीडियम टाइप।

    ‘आपकी वाली’ कहकर बत्रा ने देवेश को उसकी औक़ात याद दिलाने की कोशिश की थी। देवेश इस प्रस्ताव को ठुकराकर बाहर निकल आया।

    बाहर आते ही उसकी नज़र प्रिंस कुमार और घनश्याम पर पड़ी। वे कुछ फुसफुसा रहे थे। देवेश को देखते ही वे सकपकाते हुए इधर-उधर हो गए। देवेश को लगा ये लोग ज़रूर उसकी और बत्रा की बातें सुनने की कोशिश कर रहे होंगे।

    ये दोनों बत्रा के ख़ास आदमी थे। ये भी ‘एचएमटी' ही थे ,लेकिन इनकी हर समय कोशिश रहती थी कि वे ऐसा कुछ करें कि इस श्रेणी से बाहर नज़र आएँ। बत्रा जब हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले लोगों की हँसी उड़ा रहा होता तो प्रिंस कुमार और घनश्याम सिर्फ़ उसका समर्थन करते बल्कि ऐसे लोगों की असफलताओं के कुछ क़िस्से भी प्रस्तुत कर देते।

    देवेश अपनी सीट तक आया। एक अजीब-सी झनझनाहट हो रही थी पूरे शरीर में। वह बैठने का साहस नहीं कर पा रहा था। वह काफ़ी देर तक यूँ ही इधर-उधर टहलता रहा। वह समझ नहीं पा रहा था कि अपने परिवार को कौन-सा मुँह दिखाएगा।

    वह शाम को इस तरह घर पहुँचा, जैसे कोई अपराध करके आया हो। उसे लग रहा था प्रमोशन होने की बात सुनकर पत्नी कहीं बरस पड़े। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह इतना ही बोली, “अब क़िस्मत में जो लिखा रहेगा वही होगा न।” दोनों ने तय किया कि इस बात की भनक बच्चों को नहीं लगने देनी है। अगर वे पूछेंगे तो बात टाल दी जाएगी।

    देवेश को रात भर नींद नहीं आई। रह-रहकर बत्रा की बातें याद रही थीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि बत्रा उससे पीछा छुड़ाना चाहता है। इस उम्र में देवेश नौकरी छोड़ने का जोखिम कैसे ले सकता है। अब दूसरी जगह आसानी से नौकरी मिल जाएगी, इसकी क्या गारंटी है।

    यहीं रहना पड़ेगा। लेकिन कैसे? संभव है बत्रा उसे और अपमानित करे। उसे अपने आपको बदलना होगा। उसे अपने को दफ़्तर के अनुकूल बनाना होगा।

    कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सब उसके हँस पाने के कारण हो रहा है। प्रिंस कुमार और घनश्याम हर समय हँसते रहते थे—ख़ासकर बत्रा के सामने। बत्रा की हर बात पर वे हँस देते थे। बत्रा की हँसी में वे अपनी हँसी मिलाते थे। पता नहीं वे कैसे जान जाते थे कि बत्रा अब हँसेगा और वे हँसने लगते थे। देवेश उस वक़्त अपने को असहाय महसूस करता। वह चुपचाप बैठा रहता।

    बत्रा ने आज उससे कहा था कि वह इन्वॉल्व नहीं होता। कहीं उसके हँसने का बत्रा ने यह अर्थ तो नहीं लगा लिया।

    उसे याद है एक बार उन लोगों के सामने बत्रा ने कहा था, इस देश में तानाशाही की ज़रूरत है। सारी पॉलिटिकल पार्टियों के दफ़्तरों पर ताला लगा देना चाहिए।” इस बात पर प्रिंस कुमार और घनश्याम ने पहले सहमति में सिर हिलाया फिर हँसने लगे। बत्रा भी ज़ोर से हँसा।

    और आपकी क्या राय है कवि जी? बत्रा ने देवेश से पूछा।

    देवेश इस बात से सहमत नहीं था। उसने कहा, यह आपकी राय हो सकती है।

    हाँ, आप तो डेमोक्रेसी रखेंगे ही ताकि आपके भाई-बंधु चोरी करें और नेता लोग उन्हें छुड़ा सकें।”

    इस बेतुकी बात पर भी देवेश को छोड़कर सब हँसे।

    एक बार बत्रा ने कहा, जिनका वेतन पाँच हज़ार रुपए मासिक से कम है, उन्हें बच्चा पैदा करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। अगर वे बच्चे पैदा करें तो उन्हें जेल में डाल दिया जाए।”

    घनश्याम और प्रिंस कुमार ने इस बात पर ऐसा मुँह बनाया जैसे कोई बहुत बड़ी बात कह दी गई हो। वे इस पर भी हँसे।

    अगर उनकी ही तरह देवेश भी हँसा होता तो शायद वह भी बत्रा की गुड बुक में होता और आज उसे यह दिन देखना पड़ता। इस तरह बत्रा ने उसके सपने पर लात जमाई होती।

    अपने लिए सही मगर परिवार के लिए हँसी को ढूँढ़ना ज़रूरी था। इतने दिनों तक तो बग़ैर हँसी के भी जीवन की गाड़ी निकलती चली आई थी। लेकिन अब उसके बग़ैर काम नहीं चलने वाला था।

    उसने दिमाग़ पर ज़ोर देकर याद करने की कोशिश की—वह पिछली बार कब हँसा था? उसे अपने बच्चों के साथ हँसी के कुछ प्रसंग याद आए पर वह ठीक-ठीक याद नहीं कर सका कि ऐसा कब हुआ था। अब तो बच्चों के साथ भी वह कम ही समय बिता पाता था। पत्नी के साथ अब सिर्फ़ समस्याओं पर ही बात होती थी। उसमें हँसने की गुंज़ाइश कम ही थी। अक्सर चर्चा तनाव में ही ख़त्म होती थी। मुहल्ले के कुछ लोग जब दाँत निपोरते हुए उसे नमस्कार करते तो वह बस हाथ जोड़ देता। थोड़ी-बहुत बातचीत कर लेता, लेकिन मुस्कुराने की कोशिश नहीं करता। दफ़्तर में वह किसी से भी ज़्यादा बात करने से बचता था।

    लेकिन शुरू से वह ऐसा नहीं था। वह तो एक हँसमुख आदमी था। हर समय अपनी हँसी बिखेरता चलता था। स्कूल में उसके एक टीचर उसे हँसमुख लाल कहकर पुकारते थे।

    वह हँसते-हँसते ही जीना चाहता था। उसके क़द की तरह उसकी इच्छाएँ भी छोटी थीं। उसे बच्चों के साथ रहना पसंद था। वह बचपन में अपने से छोटे बच्चों के साथ रहता और उनके लिए नए-नए खेल रचता था। वह अपने मुहल्ले के बच्चों का प्रिय 'भइया' था।

    धीरे-धीरे उसने अपना लक्ष्य तय कर लिया कि वह प्राइमरी स्कूल का मास्टर बनेगा और कभी संभव हुआ तो बच्चों के लिए अलग स्कूल खोलेगा। जब वह मैट्रिक में था तब उसने अपने पिताजी को अपने लक्ष्य के बारे में बताया। पिताजी ने सिर पीट लिया। बोले, मुझे नहीं पता था कि तुम मेरे सपनों को इस तरह मिट्टी में मिला दोगे। मेरे जैसा छोटा आदमी तुम्हारे लिए इतना ऊँचा सोचता है और एक तुम हो कि...। तुम्हें आख़िर किस चीज़ की कमी है।”

    देवेश समझ नहीं पाया कि उसके शिक्षक बनने की योजना पर पिताजी इतने दुखी क्यों हो गए। पिताजी ने अपनी संघर्ष-गाथा विस्तारपूर्वक सुनाई कि किस तरह उन्होंने बचपन में एक दुकान में काम करते हुए पढ़ाई की और काफ़ी दौड़-धूप और जुगाड़ करके रूटीन क्लर्क बने। यह कथा सुनाने का मक़सद यह था कि देवेश शिक्षक जैसे तुच्छ पद का सपना देखे, वह बड़ा अफ़सर बनने का ख़्वाब देखे। इसके लिए उसके पिता हर तरह का त्याग करने के लिए तैयार हैं।

    पिताजी ने अपनी संघर्ष-गाथा को एक छड़ी की तरह इस्तेमाल किया। देवेश को जब भी वह पढ़ाई छोड़कर इधर-उधर घूमते-फिरते देखते तो भावुक होकर कहने लगते, “एक मैं था कि इतनी विपत्ति के बीच भी अपना रास्ता किसी तरह बनाया और एक तुम हो कि...।

    यह सुनकर देवेश एक अपराधबोध से भर उठता था। इससे उबरने का एक ही रास्ता था कि वह किताब खोलकर बैठ जाए। यह अलग बात थी कि उसका अपनी पाठ्य-पुस्तकों में ज़रा भी जी नहीं लगता था। मैट्रिक में वह एम.ए. स्तर की मनोविज्ञान या इतिहास की पुस्तकें पढ़ता था, लेकिन अपनी किताबें बहुत कम छूता था।

    बावजूद इसके वह ठीक-ठाक अंकों से पास हुआ और अपने क़स्बे के एक कॉलेज में पढ़ने लगा। वहाँ वह अपनी एक सहपाठी के प्रेम में पड़ गया। यह भी एक अलग तरह का प्रेम था। उन दिनों लड़के-लड़कियों में बहुत कम ही बात हो पाती थी। क़स्बे का माहौल ऐसा नहीं था कि वे कॉलेज में खुलकर बात कर सकें या कहीं और मिल सकें।

    उन्होंने एक रास्ता निकाला। वे कॉलेज से निकलते और दो अजनबी यात्रियों की तरह बस या टेंपो में सवार हो जाते। कई बार तो उन्हें आस-पास सीट भी नहीं मिलती थी, फिर भी इस मुहल्ले से उस मुहल्ले घूमते रहते। वे एक टेंपो से उतरते और दूसरे में सवार हो जाते। बीच-बीच में एक-दूसरे को देखते और मुस्कुराते। कभी-कभी बात भी करते। क़स्बे के किसी भीड़-भाड़ वाले इलाक़े से गुज़रते हुए देवेश कल्पना में खोया रहता कि वह अपनी प्रेमिका के साथ रंगीन बादलों पर चल रहा है या किसी घाटी में चहलक़दमी कर रहा है। तब उसके पास खूब हँसी थी। उसके रोए-रोए से हँसी के सोते फूट पड़ते थे।

    जाने कैसे पिताजी को उसके प्रेम का पता चल गया। उन्होंने उसकी मोहब्बत के विरोध में एक बार फिर वही हथियार इस्तेमाल किया। उन्होंने उसे समझाया, “देखो इस उम्र में प्रेम हो ही जाता है। लेकिन यह भी उसी को होता है। जिसे भरपेट भोजन मिलता है, जिसके पास अच्छा बिस्तर और मकान रहता है। यह सब तुम्हारे पास है। यह सब तुम्हें इसलिए नसीब हुआ है, क्योंकि मैंने अपने जीवन में भारी कष्ट उठाए हैं। नमक और धनिया तौलते हुए मैंने पढ़ाई की।” यह कह कर वह थोड़ा ठहरे फिर अपनी आँखें पोंछीं और कहना शुरू किया, “वैसे यह प्रेम तो है नहीं। इस उम्र में इसी तरह सबको शरीर लुभाता है। चलो मान लिया कि यह प्रेम है। लेकिन इसका क्या अंत होगा, यह कभी सोचा है? जब तक प्रेम है, तब तक तो ठीक, लेकिन उसके बाद? तुम लोग तो यही सोचोगे कि शादी कर लें। उसी के बाद तो सारी समस्या शुरू होगी। तुम पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दे नहीं रहे हो। इस ख़तरनाक समय में नौकरी-चाकरी मिलना इतना आसान नहीं है। जब दाल-रोटी का मामला आएगा तो सारा प्यार उड़ जाएगा। तब पछताओगे कहाँ फँस गए। पत्नी बनते ही हर लड़की एक जैसी हो जाती है। अभी वह परी लग रही फिर रणचंडी नज़र आने लगेगी। बाक़ी तुम सोच लो...।”

    एक बार फिर वह गहरे अपराधबोध से भर गया। उसने कॉलेज जाना ही बंद कर दिया। एक बच्चे के माध्यम से उसकी प्रेमिका ने संदेश भी भिजवाया पर उसने कोई जवाब नहीं दिया, हालाँकि कल्पना में वह उससे मिलता रहा, हँसता-बोलता रहा।

    काफ़ी दिनों बाद परीक्षा के दौरान उससे मुलाक़ात हुई। उसने बताया कि उसकी शादी तय हो गई है। फिर वह फूट-फूटकर रोने लगी। देवेश को एक तरह से राहत महसूस हुई, लेकिन यह भी लगा कि अब वह कभी हँस नहीं पाएगा। वह आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर में चला आया। यहाँ उसका ज़रा भी मन नहीं लगता था। लेकिन वह जब भी निराश होता अपने पिता की संघर्ष-गाथा को याद कर लेता।

    यहाँ उसका हँसना कम हो गया था, पर हँसी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई थी। यहाँ भी वह कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ा रहा था, पर इनके साथ उतना मज़ा नहीं आता था जितना अपने शहर के बच्चों के साथ आता था।

    पिताजी के कहने पर वह बड़े बेमन से प्रतियोगिता परीक्षाओं में बैठता रहा पर सफलता हाथ नहीं लगी। फिर उसने एक मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट से डिप्लोमा किया। यह उसके काम आया। उसे दिल्ली की एक निजी कंपनी में नौकरी मिल गई।

    पिताजी बड़े प्रसन्न हुए। बेटा दिल्ली में नौकरी करेगा—यही उनके लिए गर्व का विषय था। हालाँकि राजधानी में ऐसी ढेरों कंपनियाँ थीं लेकिन ‘असिस्टेंट मैनेजर' पद में एक वज़न था, चाहे तनख़्वाह जो भी हो। पिताजी ने हर जगह देवेश की तनख़्वाह चार गुना बढ़ाकर बताई और उसके ओहदे का खूब ढिंढोरा पीटा। साल बीतते ही अपने से ज़्यादा हैसियत वाले परिवार में देवेश का रिश्ता भी तय कर दिया। देवेश ने उनके हर निर्णय को जिस तरह स्वीकार किया था उसी तरह इसे भी मंजूर कर लिया।

    नया जीवन उसे रास नहीं आया था। कहाँ तो वह शिक्षक बन बच्चों की खिलखिलाहट के बीच एक शांत जीवन गुज़ारना चाहता था, कहाँ उसके हिस्से में एक आपाधापी का जीवन गया था। एक थोपी हुई ज़िंदगी ने उसकी हँसी को लील लिया था। लेकिन इस जीवन के लिए हँसी ज़रूरी थी, वह हँसी जो भले ही उसकी अपनी हो, मगर अपनी जैसी लगे। उसे हँसी की ज़रूरत थी। वह जो स्वीकृति की। हँसी हो, वह जो सहमति की हँसी हो, वह जो अधीनता की हँसी हो।

    उसने तय किया कि वह कल से हँसेगा।

    दूसरे दिन जब वह दफ़्तर के लिए निकला तो उसे लगा जैसे वह परीक्षा देने के लिए जा रहा हो। आज तक उसने कई परीक्षाएँ दी थीं, पर किसी में भी वह इस तरह नर्वस नहीं हुआ था।

    दफ़्तर पहुँचते ही उसके पसीने छूटने लगे। समझ में गया कि हँसना कितना कठिन काम है। जब चपरासी उसकी टेबल पर पानी रखने आया तो जग से थोड़ा छलक गया। इस पर देवेश ने हँसने की कोशिश की। उसने ताक़त लगाकर हँसी सरीखी आवाज़ निकाली जिससे वह चपरासी घबरा गया। उसने संदेह की नज़रों से देवेश को घूरा और चला गया।

    देवेश बाथरूम में जाकर हँसने का अभ्यास करने लगा। थोड़ी ही देर बाद एक हाथ उसकी पीठ पर रेंगने लगा। फिर लगा कोई पूरी ताक़त लगाकर उसकी पीठ दबा रहा है। उसकी तथाकथित हँसी हवा हो गई। वह तेज़ी से पलटा। उसके पीछे उसके सहयोगी मिश्राजी खड़े थे।

    देवेश ने झेंपते हुए पूछा, ”क्या बात है?”

    “सर, मुझे लगा कि आपको उल्टी रही है, इसलिए मैं पीठ दबाने लगा।”

    लेकिन आप आए कब।” देवेश को लगा जैसे उसकी चोरी पकड़ी गई।

    अभी-अभी सर!”

    “ठीक है, ठीक है”, कहकर देवेश जल्दी से अपनी सीट पर गया। पता नहीं मिश्राजी ने उसके बारे में क्या सोचा होगा।

    तभी बत्रा दिखाई पड़ा। देवेश ने सोचा, यही मौक़ा है। क्यों वह अपनी मुस्कुराहट के साथ उसका स्वागत करे। उसकी बदली हुई मुद्रा बत्रा को यह एहसास दिलाएगी कि उसके कहने पर देवेश में परिर्वतन रहा है। बत्रा की नाराज़गी कुछ कम होगी।

    देवेश उठा और हँसने की कोशिश करता हुआ बत्रा की ओर बढ़ा। उसे लगा कोई चीज़ उसके गले में घुसती जा रही है। उसे अपने पैर भी जमते से मालूम पड़े। उसने अपने को घसीटा।

    बत्रा तक पहुँचा, लेकिन समझ नहीं पाया कि क्या करे। उसने बस हाथ जोड़ दिए। बत्रा ठिठका। उसने देवेश को ऊपर से नीचे तक देखा फिर अजीब-सा मुँह बनाकर बोला, “कहिए, फिर कोई शिकायत...।”

    “नहीं सर, बस ऐसे ही।” देवेश ने अपने को सामान्य बनाने की कोशिश की।

    “ऐसे ही!” बत्रा को जैसे विश्वास नहीं हुआ, वह उसे घूरता हुआ चला गया। देवेश अपनी सीट पर लौट आया। जब उसने और लोगों को हँसी-मज़ाक करते देखा तो उसे हैरत हुई।

    एक समय था जब वह भी इसी तरह हँसी-मज़ाक करता था। खूब हँसता-हँसाता था पर आज...। उसने इंटरनेट पर हँसी से संबंधित वेबसाइट की खोज शुरू कर दी। उसे पता चला कि हँसी का बाक़ायदा एक विज्ञान है जिसे गेलोटोलॉजी कहते हैं। उसने इसके बारे में जानकारियाँ खँगाल डालीं। यह तो कहा गया था कि हँसी आती क्यों है, लेकिन इसके बारे में कुछ नहीं कहा गया था कि हँसी जाती क्यों है। हँसने के क्या-क्या फ़ायदे हैं, यह तो बताया गया था, लेकिन हँसने के क्या-क्या नुकसान हैं, इस पर एक लाइन नहीं मिली।

    एक जगह लिखा था कि मन की किसी जटिल गुफा से हँसी फूटती है। आदमी जब प्रसन्न होता है तो हँसता है। हँसते हुए आदमी तनावमुक्त हो जाता है। हँसी रक्तचाप कम करती है, इसलिए यह एक व्यायाम है। लोगों को कोशिश करके हँसना चाहिए। यही वजह है कि शहरों में अब लॉफिंग क्लब खुलने लगे हैं, जहाँ लोग ठहाके लगाते हैं।

    देवेश ने सोचा, वह भी तो लगातार कोशिश कर ही रहा है—हँसने की। आज नहीं तो कल, सफलता मिल ही जाएगी। वह हिम्मत नहीं हारेगा।

    तभी उसने घनश्याम और प्रिंस कुमार को बत्रा के जन्मदिन के बारे में बात करते सुना। कल यानी रविवार को बत्रा का बर्थ डे था और वे दोनों बर्थ डे पार्टी में जाने की योजना बना रहे थे।

    बत्रा हर साल अपने जन्मदिन पर एक भव्य पार्टी का आयोजन करता था। दफ़्तर के लोग उसमें आमंत्रित नहीं होते थे, पर प्रिंस कुमार और घनश्याम बिना बुलाए पहुँच जाते थे। दूसरे दिन वे दफ़्तर में पार्टी की चर्चा करते और लोग मुग्ध होकर सुनते। देवेश उनसे दूर रहता। आज तक उसने बत्रा को मुबारकबाद तक नहीं दी थी। लेकिन इस बार उसे अपना रवैया बदलना होगा। ख़ामखाँ बत्रा से दूरी बनाए रखने का क्या मतलब है। अगर वह भी पार्टी में चला जाए तो बत्रा को अच्छा लगेगा। वह पार्टी में घनश्याम और प्रिंस कुमार की तरह हँसता हुआ बत्रा के सामने खड़ा रहेगा। बत्रा को यह एहसास कराना ज़रूरी है कि वह झुक रहा है।

    आज सुबह उसकी नींद जल्दी खुल गई थी। उसे पार्टी में जाना है, यह सोचकर वह रोमांचित हो उठा। उसने सोचा आज दिन भर वह प्रैक्टिस करेगा और अपनी देह पर फावड़ा-हथौड़ी मार-मारकर कहीं कहीं से हँसी की धार निकाल बाहर करेगा।

    संयोग से उसका परिवार जल्दी ही पड़ोस में किसी के यहाँ पूजा में चला गया। देवेश बाथरूम में आईने के सामने अपने अभियान में जुट गया।

    अपना चेहरा देखते हुए उसने सोचा इसमें कुछ ऐसा बदलाव लाना चाहिए जिससे दूसरों को हँसी सके और उसे भी। सोचते हुए उसकी नज़र अपनी मूँछों पर पड़ी। अरे! यह तो पहले सूझा ही नहीं। इन्हें विदा किया जाए। मूँछों से मुक्ति पा लेने से उसका एक अलग ही व्यक्तित्व सामने आएगा।

    एक बार उसने कॉलेज के दिनों में मूँछे सफ़ाचट कर ली थीं। उसका ख़ूब मज़ाक बनाया गया था। वह सबसे सफ़ाई देता फिरता था कि ग़लती से कट गई हैं। वह तो दाढ़ी बना रहा था, लेकिन रेज़र फिसलकर मूँछों पर चला गया।

    देवेश ने जल्दी से शेविंग क्रीम निकाली और मूँछों पर लगाने लगा। फिर वह ब्रश धोकर उन पर रगड़ने लगा।

    “काट दूँगा मैं उन्हें। मैं वह सब कुछ काटकर फेंक दूँगा जो मेरे परिवार को ख़ुशहाली से दूर रख रहा है। मैं अपने मन-मस्तिष्क से झाड़-झंखाड़ उखाड़ फेंकूँगा जिन्होंने मुझे दुनिया में अलग-थलग कर रखा है।” यह सोचते हुए उसने जल्दी-जल्दी रेज़र चलाना शुरू किया।

    उसके चेहरे पर भीतर से एक और चेहरे ने झाँका। एक देवेश को धकियाकर दूसरा देवेश खड़ा हुआ, लेकिन देवेश को हँसी नहीं आई। यह नया चेहरा एकदम दयनीय दिख रहा था।

    तभी दरवाज़े की घंटी बज उठी। वह समझ गया, उसका परिवार गया। अब उसके चेहरे की परख होगी।

    उसने दरवाज़ा खोला तो उसकी पत्नी चौंकी। बेटे ने ग़ौर से देखा फिर चिल्लाया, “बंदर-बंदर।'' बेटी ने कहा, “अरे पापा, आप?”

    सब अंदर आए, पत्नी के चेहरे पर थोड़ी नाराज़गी दिखी। देवेश ने पूछा, “मैं कैसा लग रहा हूँ?

    “चिरकुट दिख रहे हो और क्या?”

    देवेश ने इसे पॉजिटिव कमेंट माना। उसे लगा वह अपने लक्ष्य में कामयाब हुआ है। उसने पत्नी से कहा, आज मुझे बत्रा के यहाँ जाना है। आज उसका बर्थ डे है न।”

    “तो इस तरह कार्टून बनकर जाओगे।”

    “हाँ, वह कार्टूनों को ही पसंद करता है।

    पत्नी कुछ समझ सकी। वह भुनभुनाती हुई चली गई। वह बच्चों के पास आया।

    “क्या मुझे देखकर हँसी रही है?” उसने पूछा।

    “बहुत रही है।” यह कहकर चीनू उसके गाल छूने लगा।

    लेकिन रिंकी ने कहा, “छी।”

    देवेश को अंदाज़ा नहीं था कि पार्टी शुरू कितने बजे से होती है। वह उतावला हो रहा था। बत्रा गुड़गाँव में रहता था। वहाँ उसने एक शानदार कोठी बनवाई थी। देवेश को पता भी नहीं था कि उसके घर से गुड़गाँव जाने में कितना वक़्त लगेगा।

    वह बार-बार पार्टी के बारे में ही सोच रहा था। बत्रा इतना बड़ा अधिकारी है, उसकी पार्टी भी शानदार और भव्य होती होगी—बिल्कुल फ़िल्मों की पार्टियों की तरह।

    कहीं ऐसा हो कि बत्रा देवेश को देख ही पाए। फिर जाने का क्या मतलब रह जाएगा।

    उसे पार्टी में जल्दी पहुँचना होगा, मेहमानों के आने से पहले ही। पता नहीं, प्रिंस कुमार और घनश्याम उसे देखकर क्या सोचेंगे। कुछ भी सोचें, क्या फ़र्क़ पड़ता है। वह उनसे कहेगा कि बत्रा साहब ने ख़ुद उसे बुलाया है।

    क्यों बत्रा को फ़ोन पर पहले ही मुबारकबाद दे दी जाए। आज तक उसने ऐसा नहीं किया था। इन्हीं सब औपचारिकताओं को निभाने के कारण ही तो बत्रा उसके प्रति दुर्भावना रखता है।

    देवेश ने बत्रा का मोबाइल नंबर मिलाया, लेकिन वह इंगेज्ड रहा था। उसने दो-तीन बार डायल किया। हर बार यही संदेश मिला—“यह नंबर व्यस्त है।”

    फ़ोन पर बधाई देना बेकार है। बेहतर होगा कि वह सीधे पार्टी में पहुँचकर बत्रा को चकित कर दे। वहाँ वह अधिक से अधिक व्यस्त दिखने की कोशिश करेगा। उसे प्रयास करना होगा कि वह बार-बार बत्रा के सामने आए। वह ऐसा कर सकता है कि किसी वेटर से शराब या सॉफ्ट ड्रिंक वाली ट्रे ले ले और ख़ास मेहमानों को परोसे।

    काश उसे डांस करना आता। वह अपने बेहतरीन नृत्य से सबका ध्यान अपनी ओर खींच सकता था। मूँछ काटकर जाने का उसका आइडिया एकदम सही है। उसे देखकर लोगों का थोड़ा मनोरंजन होगा।

    देवेश फिर आईने के सामने खड़ा हो गया और अपने गाल पर हाथ फेरने लगा। उसने इस बार हँसने की कोशिश नहीं की, आँख मूँदकर सोचा कि वह हँसता हुआ कैसा दिखेगा।

    तभी पत्नी ने आकर कहा, “निहारते रहो अपना सुंदर चेहरा... कब से खाने के लिए आवाज़ दे रही हूँ, सुन ही नहीं रहे।”

    वह खाना खाने आया। जल्दी से खाना ख़त्म कर बिस्तर पर लेट गया। हर रविवार को वह खाने के बाद एक-दो घंटे सोया करता था। पर आज उसे नींद नहीं आई। जब उसे पत्नी के खर्राटे सुनाई देने लगे तो वह उठा और बालकनी में चक्कर काटने लगा।

    शाम चार बजे वह गुड़गाँव के लिए निकल पड़ा। उसने सोचा शाम छह बजे तक पहुँच जाना ठीक रहेगा, पार्टी शुरू होने से पहले। वह सबसे पहले पहुँचकर बत्रा को अपना चेहरा दिखाने को आतुर था। उसने ऑफ़िस की डायरी से बत्रा का पता नोट कर जेब में रख लिया था।

    वह यह नहीं समझ पा रहा था कि उसे तोहफ़ा क्या दिया जाए। उसने बड़ी देर तक इस पर दिमाग़ खपाया कि आख़िर कौन-सी नायाब चीज़ दी जाए जिसे बत्रा लंबे समय तक याद रखे। फिर उसने यह इरादा ही छोड़ दिया। उसने तय किया कि वह बुके ही भेंट करेगा।

    वैसे तो उसे पार्टी-वार्टी से डर लगता था। भीड़ और शोर-शराबा उसे पसंद नहीं था। उसे लगता था कि इन मौक़ों पर लोग आत्मीयता का दिखावा करते हैं। वह शादियों में जाने से बचता था। वह आज तक कुछ रिश्तेदारों की शादी में ही गया था, जहाँ जाना उसकी मजबूरी थी। लेकिन अब उसे अपनी यह आदत बदलनी होगी। उसे अब जहाँ भी मौक़ा लगे, वह जाएगा।

    देवेश ने दफ़्तर में अक्सर लोगों को बत्रा की कोठी के बारे में बात करते सुना था। ख़ासकर प्रिंस कुमार और घनश्याम उसका इस तरह वर्णन करते जैसे वह कोई नायाब नमूना हो। उनका कहना था वह गुड़गाँव का सबसे बढ़िया मकान है।

    गुड़गाँव एक नमूना था—आधुनिक भारत का, भूमंडलीकृत भारत का। देश में विदेशी पूँजी का जो बीज बोया गया था, उसकी फ़सल यहाँ दिखने लगी थी।

    यहाँ दुनिया के कई बड़े देशों की औद्योगिक इकाइयाँ थीं। यहाँ कॉल सेंटर थे जिनमें नौजवान रोज़ दस से पंद्रह घंटे तक काम करते थे। वे सात समुंदर पार के किसी बैंक का हिसाब रखते थे या दिन भर सैकड़ों लोगों को फ़ोन करते थे। फ़ोन पर वे मशीनी भाषा बोलते थे। वे उस तरह विनम्र होते जिस तरह एक मशीन हो सकती थी। वे उस तरह अनुरोध करते जिस तरह एक कंप्यूटर अनुरोध कर सकता था। उन्हें उतनी ही तनख़्वाह मिलती थी जितने में वे किसी तरह जीवित रह सकें। हफ़्ते-दो हफ़्ते पर एक ज़बरदस्त पार्टी होती थी जिसमें वे जमकर शराब पीते और झूमते-नाचते। ऐसा करते हुए उन्हें लगता कि वे विश्व ग्राम के नागरिक हैं।

    उनकी जेब में सेलफ़ोन का लेटेस्ट मॉडल रहता था। इसी में उनकी आत्मा रहती थी। यह सेलफ़ोन उन्हें औरों से अलग होने के एहसास से भर देता था। इसी के ज़रिए वे दुनिया से जुड़े थे। वे इसी के ज़रिए प्रेम करते और घृणा भी। वे प्रेम करते, संभोग करते और अपने अंतरंग क्षणों का चित्र सेलफ़ोन से उतारकर बाज़ार में बेच देते। उनके लिए जीवन का हर प्रसंग बिकाऊ था। उनके लिए यह ज़िंदगी ही तिजारत थी।

    जिन देशों ने अपने संविधान में श्रमिकों के अधिकारों के लिए पन्ने रंग डाले थे, उन्होंने यहाँ की अपनी औद्योगिक इकाइयों में मज़दूरों के अधिकारों पर ताला जड़ रखा था। उनकी नज़र में एक भारतीय मज़दूर की क़ीमत उनके कंप्यूटर के एक मामूली पुर्ज़े से भी कम थी। जब मज़दूर कुछ बोलता तो उन कंपनियों के अफ़सरान चौंक जाते थे, जब मज़दूर कुछ माँगते थे, वे भड़क उठते थे। राज्य की पुलिस उन कंपनियों के प्राइवेट गार्ड की तरह खड़ी रहती थी—आदेश की प्रतीक्षा में।

    उन कंपनियों के संचालक ईश्वर की तरह थे जो इस देश को स्वर्ग में बदलने आए थे। दिक्क़त यह थी कि स्वर्ग का निर्माण मज़दूरों के बग़ैर मुमकिन नहीं था। मज़दूर जब सड़क पर उतर आते थे तो पूरे देश में हाहाकार मच जाता था। लगता था अब टूटा, अब टूटा स्वर्ग बनाने का सपना। देश का मध्यवर्ग, छाती पीटने लगता था, औद्योगिक संगठनों के अगुआ, फॉरेन रिटर्न आर्थिक विश्लेषक और पत्रकार स्यापा करने लगते थे कि बचाओ गुड़गाँव को, बचाओ गुड़गाँव को। नाक कट गई देश की, इन क्षुद्र मज़दूरों की वजह से।

    इसे गुड़गाँव में पहुँचकर देवेश थोड़ी देर के लिए ठिठका। उसने जल्दी से अपनी जेब टटोली। उसका परिचय-पत्र उसके पास था। उसे राहत मिली। बत्रा के यहाँ, उसे अंदर जाने से रोका गया तो...। लेकिन क्यों रोका जाएगा। आख़िर वह बत्रा की कंपनी का स्टाफ है, वह भी मैनेजर। वह उस प्रबंधक वर्ग का है जिसके ऊपर इस देश को सँवारने का भार है। उसे इस पर गर्व क्यों नहीं है? उसे अपनी वरिष्ठता का एहसास क्यों नहीं है? वह अपने को गया-गुज़रा आदमी क्यों समझता है?

    “मुझे गर्व है कि मैं मैनेजर हूँ।” भुनभुनाया देवेश। उसे और किन-किन चीज़ों पर गर्व करना चाहिए? हिंदू होने पर, सवर्ण होने पर या कुछ और पर...।

    उसे बत्रा की तरह सोचना चाहिए। बॉस इज ऑलवेज राइट। उसे भी अपनी पोज़ीशन को एंज्वॉय करना चाहिए। आज वह हँसेगा, हँसकर रहेगा।

    देवेश ने जैसा सोचा था, वैसा ही था बत्रा का मकान, आधुनिक स्थापत्य का नमूना, सामने कई गाड़ियाँ लगी थीं। मतलब यह कि लोग आने लगे थे। बाहर से ही सजावट दिख रही थी। देवेश बड़ी देर तक खड़ा रहा। उसके भीतर धुकधुकी हो रही थी। वह साहस करके आगे बढ़ा और गेट तक आया। उसने देखा कि अहाते में आकर्षक वर्दी पहने वेटर इंतज़ाम में जुटे हैं। एक तरफ़ कोने में खाने की चीज़ें रखने के लिए दो काउंटर बनाए गए थे, एक तीसरा काउंटर भी था। बीचोंबीच एक बड़ी-सी टेबल लगाई गई थी। शायद इसी पर केक काटा जाने वाला था।

    वहाँ वेटरों के अलावा और कोई नज़र नहीं रहा था। देवेश समझ नहीं पाया कि आख़िर बत्रा का परिवार रहता कहाँ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस घर में घुसने का कोई और रास्ता है। बड़े लोग घर में कई गेट रखते होंगे।

    उसने एक वेटर से पूछा, “बत्रा साहब कहाँ हैं?

    वेटर ने पहले समझने की कोशिश की फिर बोला, “मेरे को पता नहीं।

    देवेश ने थोड़ा सकुचाते हुए कहा, “इस घर में घुसने का कोई और रास्ता है क्या?”

    “नहीं जी।” वेटर ने कहा और प्लेटें निकालने लगा। तभी स्पीकर पर एक धुन बजने लगी।

    वह अंदर चला आया। अब उसका साहस थोड़ा बढ़ा। वह घूम-घूमकर मकान का मुआयना करने लगा। तभी मकान के भीतर से एक आदमी निकला और वेटरों को निर्देश देने लगा। देवेश ने सोचा यह बत्रा का नौकर हो सकता है। उसने उससे पूछा, “बत्रा साहब कहाँ हैं?”

    “साहब मंदिर गए हैं।” उसने जवाब दिया।

    तो क्या बत्रा जन्मदिन के अवसर पर पूजा करने गया है।

    “आप कहाँ से आए हैं? उस आदमी ने पूछा।

    “दफ़्तर से। मैं उनके ऑफ़िस में... मेरा मतलब है, उनके अंडर काम करता हूँ।”

    “बैठिए।” यह कहकर जब उसने कुर्सी की ओर इशारा किया तो देवेश को अच्छा लगा। उसने उत्सुकता ज़ाहिर की, दफ़्तर से कुछ और लोग भी आए हैं क्या?”

    पता नहीं।” यह कहकर वह आदमी चला गया। देवेश बैठा नहीं। वह खड़ा इधर-उधर देखता रहा। इस बीच रोशनी जला दी गई। संगीत थोड़ा और तेज़ हो गया। तभी गेट पर थोड़ी गहमागहमी हुई।

    एक बड़ी कार आकर रुकी। उसमें से एक लंबा-चौड़ा आदमी निकला। उसने सिल्क का कुर्ता और धोती पहन रखी थी। उसके गले से एक चेन लटक रही थी जिसकी चमक बता रही थी कि वह सोने की थी। कार के आगे से एक खद्दरधारी उतरा जिसके चेहरे पर रुक्षता थी। दोनों तेज़ी से अंदर घुसे। पीछे से एक पुलिस वैन रुकी। एक पुलिस वाला भी उनके साथ चला।

    कहीं यह कोई मंत्री-वंत्री तो नहीं! बत्रा की हर तरह के लोगों से जान-पहचान थी। शायद इसीलिए कंपनी का मालिक उसे इतना महत्व देता था। इस साल उसकी तनख़्वाह दुगुनी कर दी गई थी।

    ऐसे-ऐसे दो-चार लोग और गए तो देवेश को बत्रा पहचानेगा भी नहीं। वह बेकार ही चला आया। उसका मिशन कामयाब होने वाला नहीं है।

    देखते ही देखते दो-तीन गाड़ियाँ और रुकीं। कुछ लोग उतरे। हँसती-खिलखिलाती महिलाएँ आईं गहनों से लदी हुईं, तिलमिला देने वाली सुगंध फेंकती हुईं। कुछ और खद्दरधारी आए। एक साधु भी कुछ चेलों के साथ आया। सब आते और जाने कहाँ अंदर गुम हो जाते।

    देवेश अपना बुके उठाए आँख फाड़े उन्हें देखता रहा। खाना लग चुका था। दूसरी ओर गिलास और बोतलें भी रख दी गई थीं। बत्रा कहाँ है? अगर वह दिख जाए तो देवेश बुके थमाकर निकल लेगा।

    उसी समय बत्रा की गाड़ी सामने आकर रुकी। देवेश जल्दी से उस ओर बढ़ा। गाड़ी से पहले एक महिला उतरी फिर बत्रा निकला। देवेश ने बत्रा की ओर बुके बढ़ा दिया और कहा, “सर, जन्मदिन बहुत-बहुत मुबारक हो।''

    बत्रा थोड़ा असमंजस में दिखा। उसने बुके ले लिया और आगे बढ़ने लगा। फिर ठहरा, मुड़कर उसने देवेश को देखा और ज़ोर से बोला, “अरे यार कवि जी, तुम हो।”

    देवेश को लगा जैसे उसने कोई बड़ा क़िला फ़तह कर लिया हो।

    “हैप्पी बर्थ डे।” उसने भाव-विभोर होकर कहा। बत्रा ने ज़ोर का ठहाका लगाया और कहा, “यार, ये तुमने क्या हुलिया बना लिया है। मैंने तो पहचाना ही नहीं।” फिर उसने उस महिला से कहा, “ज्योति, ये हैं हमारे कवि जी।”

    देवेश समझ गया कि वह मिसेज बत्रा हैं। उसने दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। मिसेज बत्रा ने भी हाथ जोड़े और मुस्कुराईं। फिर वह तेज़ी से अंदर घुस गईं।

    बत्रा देवेश के कंधे पर हाथ रखकर चलने लगा। देवेश फूला नहीं समा रहा था। उसे उम्मीद नहीं थी कि इतनी जल्दी इतनी बड़ी सफलता मिल जाएगी। वह तो यह सोचकर डरा हुआ था कि बत्रा उसकी ओर ध्यान देगा ही नहीं, लेकिन वह तो बड़ी आत्मीयता से उससे मिल रहा था।

    बत्रा उसे अंदर ले आया। अंदर एक बड़ा हॉलनुमा कमरा था, जिसमें सोफ़े लगे थे। जो लोग अभी बाहर से आए थे, वे सब वहाँ बैठे थे।

    बत्रा को देखते ही सब एक साथ उठे, “बधाई हो बधाई हो, हैप्पी बर्थ डे” का स्वर गूँज उठा।

    देवेश की आँखें प्रिंस कुमार और घनश्याम को ढूँढ़ रही थीं। वे शायद अभी नहीं आए थे या इस बार वे नहीं आने वाले थे। अच्छा है, वे आए। देवेश ने इस बार बाज़ी मार ली। वह यह सोच ही रहा था कि उसने देखा कि प्रिंस कुमार और घनश्याम अंदर से एक बड़े ट्रे में केक पकड़े चले रहे हैं। तो ये कमबख़्त पहले से ही घुसे हुए थे...। देवेश सन्न रह गया। लेकिन उसने तत्काल अपने को सामान्य बनाया और बत्रा से पूछा, “सर, मेरे लायक़ कोई सेवा हो तो बताएँ।”

    अरे नहीं-नहीं। एंज्वॉय, एंज्वॉय।” यह कहकर बत्रा उस धोती-कुर्ता वाले आदमी से बातें करने लगा, फिर कुछ देर बाद उसने देवेश को इशारे से बुलाया और उस आदमी से कहा, “ये हैं कवि जी, आप ही के स्टेट के हैं। हमारे दफ़्तर में काम करते हैं।”

    “अच्छा”, उस धोती-कुर्ते वाले ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें नचाते हुए कहा, तो ये कवि हैं, हो जाए कोई कविता-उविता।”

    देवेश ने सोचा कि वह साफ़-साफ़ कह दे कि वह कवि नहीं है। बत्रा उसे यूँ ही कवि कहता है। लेकिन अचानक उसके ज़ेहन में यह विचार कौंधा कि वह कविता सुनाकर अपनी धाक जमा सकता है। अगर उसने मेहमानों का मनोरंजन कर दिया तो बत्रा ख़ुश हो जाएगा।

    मगर वह कौन-सी कविता सुनाए? कॉलेज के दिनों में उसने कुछ तुकबंदी की थी, पर वह सब अब याद करना मुश्किल था। पढ़ाई के दौरान उसका साहित्य से ताल्लुक़ बना हुआ था, लेकिन अब पढ़ाई-लिखाई से नाता टूट गया था।

    यहाँ इस तरह के लोगों के बीच कैसी कविताएँ सुनाई जा सकती हैं। वह दिमाग़ पर ज़ोर देने लगा। उसने वर्षों पहले पढ़ी कुछ पुरानी शाइरी याद करने की कोशिश की। इधर-उधर के शब्द उठाकर जोड़-तोड़कर वह पंक्तियाँ गढ़ने लगा। सब लोग अहाते में गए थे। बीच वाली टेबल पर केक रख दिया गया। लेकिन देवेश का इन सब चीज़ों पर ध्यान नहीं था। वह शब्दों के जंगल में दौड़ रहा था।

    केक काटा गया, तालियाँ बजीं, खिलखिलाहट गूँजी, मुबारकबाद देने का सिलसिला चला... लेकिन देवेश पंक्तियाँ गढ़ने की क़वायद में ही लगा रहा। आज उसे 'कवि जी' होना प्रमाणित करना था।

    लोग कुर्सियों पर बैठने लगे। शराब परोसी जाने लगी। देवेश को आख़िरकार कुछ लाइनें सूझ गईं। वह बत्रा के पास आकर बोला, सर, मैं एक कविता सुनाना चाहता हूँ।

    बत्रा कुछ कहता इससे पहले ही धोती-कुर्ते वाले ने कहा, “हो जाए, हो जाए।”

    बत्रा ने ऊँची आवाज़ में कहा, लेडिज एंड जेंटलमैन, मेरे कुलीग मिस्टर देवेश एक कविता सुनाना चाहते हैं।”

    सारे लोग एक घेरा बनाकर खड़े हो गए। इतने लोगों की नज़रें अपने ऊपर पाकर देवेश थोड़ा घबराया। उसने ग़ौर किया कि घनश्याम और प्रिंस कुमार के चेहरे का रंग उड़ा जा रहा है। इससे उसका उत्साह बढ़ा। उसने कहा, “लेडिज एंड जेंटलमैन, मैं अपने बड़े भाई, गुरु और बॉस मिस्टर बत्रा को कविता में मुबारकबाद देना चाहता हूँ।

    फिर उसने दो-तीन बार गला साफ़ किया और सुनाने लगा :

    ''सितारों से भी आगे है तेरी मंज़िल

    हज़ारों साल यह सजती रहे महफ़िल

    दुश्वारियाँ हों दूर, बढ़े तेरी आँखों का नूर

    बढ़े दौलत बढ़े शोहरत

    ग़मों को जीत लेने की

    मिले हर पल नई ताक़त

    फ़रिश्ते दे रहे दुआ

    रहो सलामत रहो सलामत

    मेरे रहनुमा

    जन्मदिन हो मुबारक

    मुबारक मुबारक!''

    लोगों ने तालियाँ बजाईं। बत्रा ने देवेश की पीठ थपथपाई। तभी भीड़ में से किसी ने कहा, “एक और।” कुछ महिलाओं ने फ़रमाइश की, “वंस मोर।“

    देवेश धर्मसंकट में पड़ गया। इतनी मुश्किल से उसने एक कविता गढ़ी थी। अब क्या करे वह? उसने बिना सोचे-विचारे कहना शुरू किया :

    ''तेरे साये को झुक-झुक सलाम करता हूँ

    अपनी हर साँस को तेरे नाम करता हूँ

    तेरे हर रुख़ में एक इशारा है

    तेरे हुक्म पे ही अपना काम करता हूँ

    हर ग़म में तू सहारा है

    तू कहे तो दिन तू कहे तो शाम कहता हूँ''

    इस बार पहले से भी ज़्यादा शाबाशी मिली। उसे मन ही मन हँसी आई। इन दो कौड़ी की कविताओं ने कमाल कर दिया था। ये घटिया कविताएँ उसे मुसीबत से निकालने वाली थीं। वे उसकी तरक़्क़ी का रास्ता खोलने जा रही थीं।

    सारे मेहमानों के बीच देवेश अचानक लोकप्रिय हो उठा। घनश्याम और प्रिंस कुमार एक कोने में कर्मचारी की तरह खड़े नज़र रहे थे, वहीं देवेश हाई प्रोफ़ाइल लोगों से घुल-मिलकर बातें कर रहा था। किसी ने उससे कहा, “आइए-आइए आप भी लीजिए। कवि लोग तो इसके शौक़ीन होते हैं।”

    देवेश के जी में आया कि वह भी गिलास उठा ले। मगर परिणाम सोचकर वह डर गया। उसने आज तक नहीं पी थी। पीने से पता नहीं क्या गड़बड़ हो जाएगी। उस सज्जन ने आग्रह किया, “पीजिए-पीजिए।”

    बत्रा ने उसे बचा लिया, “कवि जी शराब नहीं पीते, इन्हें जूस पिलाइए।”

    लेकिन बग़ैर पिए ही देवेश के ऊपर नशा चढ़ने लगा। यह सफलता का मद था। उसे उम्मीद से कहीं ज़्यादा कामयाबी हाथ लगी थी। वह इस अवसर का भरपूर इस्तेमाल करना चाहता था। लोग टुकड़ों-टुकड़ों में बँटकर शराब पी रहे थे, गप्प लड़ा रहे थे। देवेश किसी एक ग्रुप के पास चला जाता और बातचीत में शामिल हो जाता। गप्प करते-करते सब हँस पड़ते थे। देवेश ने सोचा, उसे भी हँसना चाहिए। अगर वह नहीं हँसेगा तो उसका ग़लत अर्थ निकाला जाएगा। उसे हमेशा की तरह हँसने में कष्ट हो रहा था, लेकिन उत्साह में वह उस तकलीफ़ को भूल गया। फिर उसे लगा जैसे हँसने के लिए अतिरिक्त प्रयत्न नहीं करना पड़ रहा है। लेकिन थोड़ी देर बाद उसे एहसास हुआ कि उसके प्रति लोगों का व्यवहार बदल रहा है। वह ज्यों ही हँसता लोग हँसना बंद कर उसे देखने लगते फिर बात बदल देते या इधर-उधर सरक जाते।

    देवेश एक ग्रुप से दूसरे ग्रुप में चला गया। वहाँ भी ऐसा ही हुआ। फिर वह महिलाओं की तरफ़ बढ़ा। औरतों ने भी मुँह फेर लिया। वह जब कुछ बोलने लगा तो एक महिला तेज़ी से भागी। देवेश ने देखा कि एक आदमी बत्रा को उसकी ओर उँगली दिखाकर कुछ कह रहा है। देवेश ने अपने को ऊपर से नीचे तक देखा। उसे समझ में नहीं रहा था कि ऐसा क्या हो गया है कि लोगों का नज़रिया उसके प्रति बदल चुका है। वह तो एकदम संतुलित है, बाक़ी लोग तो शराब पीकर तरह-तरह की हरकतें कर रहे हैं, उन पर तो किसी को आपत्ति नहीं है। वह बत्रा के पास पहुँचा और बोला, “सर मज़ा रहा है। ऐसी पार्टी तो हमने देखी ही नहीं।” फिर जब वह हँसा तो बत्रा की मुख-मुद्रा बदल गई। बत्रा कुछ बोलता, उससे पहले ही एक सिक्योरिटी गार्ड ने उसके कान में कुछ कहा। वह गेट की तरफ़ चला गया।

    देवेश समझ नहीं पा रहा था कि माजरा क्या है। कुछ देर पहले उसकी कविता पर दाद देने वाले लोग उससे किनारा क्यों करने लगे हैं। अभी कुछ देर पहले जिस आदमी ने उसे अपना विजिटिंग कार्ड देकर घर पर आने का निमंत्रण दिया था, वह भी उसे देखते ही मुँह क्यों फेर रहा है।

    आख़िर वह किससे पूछे। घनश्याम से या प्रिंस कुमार से? ये दोनों तो जले-भुने हुए हैं। ये सही बात थोड़े ही बताएँगे। वह उस आदमी के पास गया जिसने उसे विजटिंग कार्ड दिया था।

    देवेश ने पूछा, “मुझसे कोई ग़लती हो गई है क्या?

    “नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।” यह कहकर वह आदमी दूसरी ओर चला गया। उसकी बातों से बेरुख़ी साफ़ झलक रही थी।

    देवेश ने सोचा, वह ख़ामखाँ परेशान है। यह उसका भ्रम भी हो सकता है कि लोग उससे कट रहे हैं। आख़िर वह इतना महत्वपूर्ण तो है नहीं कि हर आदमी उसी पर ध्यान देता रहे।

    क्यों एक कविता और सुनाई जाए। ऐसा करके वह मेहमानों का ध्यान फिर खींच सकता है। लेकिन क्या सुनाए? वह दिमाग़ पर ज़ोर देने लगा। उसे पता रहता कि यहाँ कविता सुनानी पड़ेगी तो वह पाँच-दस कविताएँ रटकर आता। तभी उसने देखा कि कुछ महिलाएँ नाच रही हैं और लोग उन्हें घेरे खड़े हैं। वह भी वहाँ पहुँचा। सब ताली बजा-बचाकर हँस रहे थे। उसने भी ताली बजाई और ज्यों ही हँसने की कोशिश की, उसे लगा उसके सीने में कुछ फँस रहा है। उसने आँखें बंद कर लीं और पूरी ताक़त लगाकर ज़ोर का ठहाका लगाया।

    उसने आँखें खोलीं तो देखा कि नाचने वाली महिलाएँ सहमी हुई खड़ी हैं और लोग खुसुर-फुसुर कर रहे हैं। उसके कंधे पर किसी ने हाथ रखा। उसने घूमकर देखा। प्रिंस कुमार खड़ा था। उसने इशारे से अपने साथ चलने को कहा। एक कोने में ले जाकर वह फुसफुसाया, “भाई साहब, खाना शुरू हो चुका है। आप खा क्यों नहीं लेते? आपको दूर जाना है।”

    “मेरी चिंता मत करो यार।” देवेश ने कहा और वापस वहीं चला आया। नृत्य फिर शुरू हो चुका था। इस बार कुछ पुरुष भी शामिल थे। देवेश ने महसूस किया कि नृत्य के दर्शक नृत्य से ज़्यादा उसे देख रहे हैं। कोई सीधा-सीधा तो कोई तिरछी नज़रों से।

    देवेश ने देखा कि घनश्याम उसकी ओर चला रहा है। वह वहाँ से जाने लगा। घनश्याम भी उसके पीछे-पीछे चला आया। उसने उसे पकड़कर कहा, “बत्रा साहब ने कहा है कि आप यहाँ से चले जाएँ।”

    देवेश समझ गया कि यह प्रिंस कुमार घनश्याम की साज़िश है, उन्हें यह बर्दाश्त नहीं हो पा रहा कि वह बत्रा की नज़र में चढ़े। उसने घनश्याम को झिड़क दिया, “क्या बात कर रहे हो। बत्रा साहब ऐसा क्यों कहेंगे?”

    “उन्होंने ख़ुद मुझे बुलाकर कहा है कि मैं आपको जाने के लिए बोलूँ।

    “ठीक है, मैं बत्रा साहब से पूछता हूँ।” यह कह कर देवेश भीड़ की तरफ़ बढ़ा। वह बत्रा को खोजने लगा। पर वह दिखा नहीं। थोड़ी देर बाद मिसेज बत्रा आईं। देवेश ने सोचा उनसे गर्मजोशी से मिलना चाहिए। वह उनके सामने जाकर खड़ा हो गया। मिसेज बत्रा नृत्य देखने लगीं, तभी एक आदमी ने नाचते-नाचते अपनी टोपी हवा में उछाली, फिर नाटकीय अंदाज़ में उसके नीचे सिर ले जाकर उसे पहना। इस पर मिसेज बत्रा ज़ोर से हँसी। देवेश भी ज़ोर लगाकर हँसा। मिसेज बत्रा तमतमा उठीं, “ये क्या कर रहे हैं आप? यह कहकर वे चली गईं। कुछ देर बाद मुस्टंडा-सा आदमी देवेश के पास आया और कान में बोला, “आपको बत्रा साहब बुला रहे हैं, आइए मेरे साथ।”

    देवेश उस आदमी के पीछे-पीछे चलने लगा। वह अंदर आया। हॉल को पार करने के बाद एक कॉरीडोर से होकर वह देवेश को एक छोटे से कमरे में ले गया।

    “बैठिए।” उसने कहा।

    “यहाँ!” देवेश को हैरानी हुई।

    वह मुस्टंडा कुछ क्षण देवेश को देखता रहा फिर झटके से बाहर निकला और दरवाज़ा बंद कर दिया।

    “खटाक” की आवाज़ आई यानी उसने बाहर से कुंडी लगा दी थी।

    अरे! देवेश समझ गया कि उसे इस कमरे में बंद कर दिया गया है। लेकिन क्यों? उसकी आँखों के सामने कुछ फ़िल्मों के दृश्य तैर गए जिसमें कोई माफ़िया डॉन किसी को मिलने के लिए बुलाता है और इसी तरह कमरे में बंद कर देता है।

    क्या बत्रा उसी तरह का ख़तरनाक आदमी है? वह चाहता क्या है?

    देवेश ने चारों तरफ़ नज़रें दौड़ाईं। यह स्टोर रूम लग रहा था। दो पुरानी कुर्सियाँ थीं और एक टेबल। एक कोने में अख़बार का बंडल पड़ा था। एक तरफ़ कुछ टूटे खिलौने भी थे। प्लास्टिक के कुछ जार रखे थे। एक पुराने मॉडल का टी.वी. था जिस पर धूल जमी थी।

    क़रीब आधा घंटा बीत गया, लेकिन बत्रा नहीं आया और उसका कोई संदेश।

    कहीं उसे जानबूझकर तो नहीं बंद किया गया है? हो सकता है, यह बात बत्रा को मालूम हो। कहीं यह प्रिंस कुमार या घनश्याम की बदमाशी तो नहीं। लेकिन इस घर में उनकी क्यों चलेगी। कहीं मिसेज बत्रा...। वह उससे नाराज़ भी हो गई थीं। पर क्यों? उसने तो कोई अभद्रता नहीं की थी उनके साथ। वह तो उनकी हँसी में शामिल था। यह अपमानित करने का नया तरीक़ा तो नहीं...। हो सकता है कि यह सब बत्रा के निर्देश पर ही हुआ हो। तो क्या उसकी प्रसन्नता और वह सब कुछ जो थोड़ी देर पहले हुआ, एक नाटक था?

    जो भी हो, बत्रा से साफ़-साफ़ बात कर लेनी चाहिए। यह सोचकर उसने अपनी पैंट की बाईं जेब में हाथ डाला। अरे! मोबाइल तो है ही नहीं। उसने दाईं जेब में हाथ डाला। वहाँ भी नहीं था मोबाइल। फिर उसने शर्ट की जेब पर हाथ डाला। वहाँ भी नहीं...। वह फ़र्श पर इधर-उधर देखने लगा।

    आख़िर कहाँ चला गया मोबाइल। उसे अच्छी तरह याद है, वह घर से मोबाइल लेकर चला था। कहीं अहाते में तो नहीं गिर गया या किसी ने बस में तो नहीं निकाल लिया।

    देवेश की नसें फड़कने लगीं और साँस तेज़ चलने लगी। वह ज़ोर से चिल्लाया, “मुझे बाहर निकालो।” उसने ज़ोर से दरवाज़े पर चार-पाँच लात जमाईं। वह खिड़की की तलाश करने लगा। एक परदे से खिड़की छिपी थी। नीचे उसकी सिटकनी थी जो बड़ी सख़्त हो गई थी। उसमें जंग भी लगा था। देवेश ने उसे ऊपर उठाने की कोशिश की पर उसके हाथ में एक अजीब थरथराहट समा गई। उसने ऊपर देखा। उसमें रोशनदान भी था। उसने जल्दी-जल्दी टेबल पर एक कुर्सी रखी फिर उस पर चढ़ा और किसी तरह पंजों के बल खड़ा होकर रोशनदान तक पहुँच सका। बाहर दूर-दूर तक पेड़ नज़र रहे थे। दरख़्तों के पास कुछ ऊँची इमारतों में रोशनी झिलमिला रही थी। यह बत्रा के मकान का पिछवाड़ा था।

    देवेश ने किसी तरह रोशनदान में अपना मुँह लगाया और ज़ोर से चिल्लाया। उसकी आवाज़ उन पेड़ों के बीच जाकर कहीं खो जा रही थी। वह नीचे गया। उसने खिलौने देखे तो उसे अपने बच्चे याद गए। ये काफ़ी महँगे खिलौने थे जो ख़राब हो चुके थे। इन्हीं खिलौने के लिए उसके बच्चे ज़िद करते थे, पर वह ख़रीद नहीं पाता था। वह उन्हें किसी तरह सस्ते खिलौनों के लिए राज़ी कर लेता था।

    उसके बच्चों ने खाना खा लिया होगा। उनकी मम्मी उन्हें सो जाने की हिदायत दे रही होगी पर चीनू सो नहीं रहा होगा। वह देवेश का इंतज़ार कर रहा होगा। वह उसके बग़ैर सो नहीं पाता।

    देवेश का ध्यान बाहर की आवाज़ पर गया। संगीत की हल्की आवाज़ रही थी। बीच-बीच में ठहाके और लोगों की बातचीत भी सुनाई पड़ती थी।

    यह उसके जीवन का आख़िरी दिन भी हो सकता है। बत्रा उसे मारकर पीछे के जंगल में फेंक दे तो...। किसे पता चलेगा? देवेश जैसे लोगों की चिंता किसे है? इस शहर में उसके परिवार के अलावा उसका अपना है ही कौन?

    बाहर से किसी की ऊँची आवाज़ आने लगी जैसे कोई किसी को डाँट रहा हो। देवेश ने सुनने की कोशिश की, दो-तीन लोग चिल्ला रहे थे। “बास्टर्ड...फक यू फक यू” जैसे शब्द छन-छन कर रहे थे।

    अँधेरा छा गया। तो क्या यहाँ भी लाइट जाती है। ऐसा तो नहीं कि सिर्फ़ इस कमरे की लाइट जानबूझकर काट दी गई हो। उसने फिर चीख़ना चाहा, लेकिन उसके मुँह से आवाज़ निकल सकी। उसके पेट में अजीब कुड़कुड़ाहट होने लगी थी। चक्कर भी रहा था।

    कितना भयावह होता है वह क्षण जब जीवन पर पूरी तरह अँधेरा छा जाता है, उम्मीद के रहे-सहे निशान भी ख़त्म हो जाते हैं।

    उसे लगा वह कई प्रकाशवर्ष दूर नक्षत्रों के पास से अपने को देख रहा है—एक आदमी सड़क पर बस का इंतज़ार करता हुआ—एक आदमी अपनी पत्नी को तनख़्वाह थमाता हुआ—एक आदमी अपने बच्चों की उँगली पकड़ उन्हें स्कूल पहुँचाता हुआ—एक आदमी अपने बॉस के सामने सिर झुकाए खड़ा हुआ—एक आदमी हँसने की कोशिश करता हुआ—एक आदमी छह गुना आठ के कमरे में दम तोड़ता हुआ।

    लाइट गई। देवेश ने आँखें खोलीं। उसे कुछ समझ में नहीं रहा था कि यह सब सपना है या हक़ीक़त। तभी कुछ पैरों की आहट सुनाई पड़ी। कुछ लोग बातचीत कर रहे थे। उनमें एक महिला का स्वर भी शामिल था।

    दरवाज़ा खुला। सबसे पहले वही मुस्टंडा दिखा जिसने उसे बंद किया था। उसके पीछे एक और मुस्टंडा, बिल्कुल उसी के जैसा, खड़ा था। देवेश ने अपने को परिस्थितियों के हवाले खड़ा कर दिया था।

    पहले मुस्टंडे ने कहा, “आइए, चलिए।” दोनों मुस्टंडों ने उसका एक-एक हाथ पकड़ लिया, जैसे उसे पेशी के लिए ले जाया जा रहा हो। बाहर कोई महिला नहीं थी। हो सकता है वह चली गई हो।

    देवेश से चला नहीं जा रहा था। मुस्टंडे उसे सहारा दे रहे थे। वे उसे अहाते में लेकर आए जहाँ पार्टी चल रही थी, लेकिन अब वहाँ मेहमान नहीं दिखाई दे रहे थे, सिर्फ़ बैरे प्लेट समेट रहे थे।

    देवेश को बाहर लाया गया। एक गाड़ी में उसे धकेलकर दरवाज़ा बंद कर दिया गया। उसमें ड्राइवर पहले से बैठा था। दरवाज़ा बंद कर मुस्टंडे चले गए। गाड़ी चल पड़ी। पता नहीं देवेश कहाँ जा रहा है। हो सकता है कि उसका अपहरण किया जा रहा हो। उसे किसी अज्ञात स्थान पर ले जाया जा रहा हो। संभव है, उसे ख़त्म करने का नया तरीक़ा ढूँढ़ा गया हो।

    देवेश ने किसी तरह अपने को सँभाला और बोला, कहाँ ले जा रहे हो?”

    “आपको बाहर तक छोड़ देता हूँ, वहाँ से आपको बस मिल जाएगी, आप घर चले जाइएगा।” ड्राइवर ने जवाब दिया।

    घर! देवेश को विश्वास नहीं हुआ। क्या उसे छोड़ दिया गया? वह रिहा हो गया? क्या सचमुच?

    उसने अपने घर के बारे में सोचा उसका इंतज़ार करते-करते सब लोग सो गए होंगे। उन्होंने उसके मोबाइल पर कई बार रिंग किया होगा, फिर निराश हो गए होंगे।

    ''साहब, एक बात पूछूँ...? ड्राइवर ने थोड़ा सकुचाते हुए कहा।

    “पूछो।” देवेश बोला।

    “आप जानबूझकर उस तरह कर रहे थे?”

    “किस तरह? देवेश हैरत में पड़ गया।

    “आप कभी कुत्ते की तरह भौंकने लगते थे, कभी सुअर की तरह गुर्राने लगते थे।

    “क्या! ऐसा मैंने कब किया? देवेश जैसे आसमान से गिरा।

    “उस समय जब सब लोग नाच रहे थे और एक आदमी टोपी से खेल दिखा रहा था।”

    “मैं तो हँस रहा था।”

    नहीं, शुरू में तो लगा कि आप हँस रहे हैं, लेकिन फिर आपके मुँह से भयानक आवाज़ आने लगी। कुछ लोगों ने कहा कि आप नशे में ऐसा कर रहे हैं। फिर पता चला कि आपने तो पी भी नहीं है। आपके दफ़्तर के एक आदमी ने कहा कि आप थोड़ा खिसके हुए हैं। लेकिन बत्रा साहब ने तो कुछ और ही कहा।”

    “क्या कहा? देवेश की उत्सुकता बढ़ी।

    ''वह तो यह कह रहे थे कि आप जानबूझकर ऐसा कर रहे हैं। आप उनकी पार्टी ख़राब करने के लिए आए थे, क्योंकि आप उनसे बदला लेना चाहते थे। उन्होंने आपका प्रमोशन नहीं किया इसलिए।”

    “लेकिन मुझे घर में क्यों बंद कर दिया?”

    आपको घर में बंद कर दिया?” ड्राइवर के चेहरे पर आश्चर्य उभरा फिर उसने कुछ याद करते हुए कहा, “बत्रा साहब ने आपके दफ़्तर के उस आदमी को कहा था कि वह आपको किसी तरह वहाँ से हटाए, लेकिन उसने बताया कि आप जाने का नाम नहीं ले रहे हैं। फिर मैडम ने कहा कि आपको कहीं और बिठा दिया जाए। लेकिन उन्होंने घर में बंद करने को नहीं कहा होगा। बत्रा साहब बहुत नाराज़ हो गए हैं आपसे।”

    यह कहकर उसने गाड़ी रोक दी और उँगली से दूसरी ओर इशारा करते हुए कहा, वहाँ से दिल्ली के लिए बस मिल जाएगी।”

    देवेश बिना कुछ कहे उतर आया। ड्राइवर ने हाथ हिलाया और गाड़ी मोड़ ली। देवेश गाड़ी को जाते हुए देखता रहा।

    फिर उसने अपने बारे में सोचा। क्या वह एक भयानक हँसी हँस रहा था। कुत्ते की तरह भौंकते और सुअर की तरह गुर्राते वह कैसा लग रहा होगा। लोग उससे डर रहे होंगे।

    यह सोचकर उसे हँसी गई। उसने पूरी ताक़त लगाकर हँसी रोकने की कोशिश की। ऐसा करते हुए उसके आँसू निकल आए। वह उन्हें रोक नहीं पाया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (2000-2010 ) (पृष्ठ 47)
    • संपादक : कमला प्रसाद
    • रचनाकार : संजय कुंदन
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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