कानों में कँगना

Kano Me Kangna

राधिका रमण प्रसाद सिंह

राधिका रमण प्रसाद सिंह

कानों में कँगना

राधिका रमण प्रसाद सिंह

और अधिकराधिका रमण प्रसाद सिंह

     

    1

    किरन! तुम्हारे कानों में क्या है?
    उसके कानों से चंचल लट को हटाकर कहा—कँगना।
    अरे! कानों में कँगना? सचमुच दो कंगन कानों को घेरकर बैठे थे।
    हाँ, तब कहाँ पहनूँ?
    किरन अभी भोरी थी। दुनिया में जिसे भोरी कहते हैं, वैसी भोरी नहीं। उसे वन के फूलों का भोलापन समझो। नवीन चमन के फूलों की भंगी नहीं, विविध खाद या रस से जिनकी जीविका है, निरंतर काट-छाँट से जिनका सौंदर्य है, जो दो घड़ी चंचल चिकने बाल की भूषा है—दो घड़ी तुम्हारे फूलदान की शोभा। वन के फूल ऐसे नहीं। प्रकृति के हाथों से लगे हैं। मेघों की धारा से बढ़े हैं। चटुल दृष्टि इन्हें पाती नहीं। जगद्वायु इन्हें छूती नहीं। यह सरल सुंदर सौरभमय जीवन हैं। जब जीवित रहे, तब चारों तरफ़ अपने प्राणधन से हरे-भरे रहे, जब समय आया, तब अपनी माँ की गोद में झड़ पड़े।
    आकाश स्वच्छ था—नील, उदार, सुंदर। पत्ते शांत थे। संध्या हो चली थी। सुनहरी किरनें सुदूर पर्वत की चूड़ा से देख रही थीं। वह पतली किरन अपनी मृत्यु-शैया से इस शून्य निविड़ कानन में क्या ढूँढ़ रही थी, कौन कहे! किसे एकटक देखती थी, कौन जाने! अपनी लीला-भूमि को स्नेह करना चाहती थी या हमारे बाद वहाँ क्या हो रहा है, इसे जोहती थी—मैं क्या बता सकूँ? जो हो, उसकी उस भंगी में आकांक्षा अवश्य थी। मैं तो खड़ा-खड़ा उन बड़ी आँखों की किरन लूटता था। आकाश में तारों को देखा या उन जगमग आँखों को देखा, बात एक ही थी। हम दूर से तारों के सुंदर शून्य झिकमिक को बार-बार देखते हैं, लेकिन वह सस्पंद निश्चेष्ट ज्योति सचमुच भावहीन है या आप-ही-आप अपनी अंतर-लहरी से मस्त है, इसे जानना आसान नहीं। हमारी ऐसी आँखें कहाँ कि उनके सहारे उस निगूढ़ अंतर में डूबकर थाह लें।
    मैं रसाल की डोली थामकर पास ही खड़ा था। वह बालों को हटाकर कंगन दिखाने की भंगी प्राणों में रह-रहकर उठती थी। जब माखन चुराने वाले ने गोपियों के सर के मटके को तोड़कर उनके भीतर किले को तोड़ डाला या नूर-जहाँ ने अंचल से कबूतर को उड़ाकर शाहंशाह के कठोर हृदय की धज्जियाँ उड़ा दीं, फिर नदी के किनारे बसंत-बल्लभ रसाल-पल्लवों की छाया में बैठी किसी अपरूप बालिका की यह सरल स्निग्ध भंगिमा एक मानव-अंतर पर क्यों न दौड़े।
    किरन इन आँखों के सामने प्रतिदिन आती ही जाती थी। कभी आम के टिकोरे से आँचल भर लाती, कभी मौलसिरी के फूलों की माला बना लाती, लेकिन कभी भी ऐसी बाल-सुलभ लीला आँखों से होकर हृदय तक नहीं उतरी। आज क्या था, कौन शुभ या अशुभ क्षण था कि अचानक वह बनैली लता मंदार माला से भी कहीं मनोरम दीख पड़ी। कौन जानता था कि चाल से कुचाल जाने में—हाथों से कंगन भूलकर कानों में पहिनने में—इतनी माधुरी है। दो टके के कँगने में इतनी शक्ति है। गोपियों को कभी स्वप्न में भी नहीं झलका था कि बाँस की बाँसुरी में घूँघट खोलकर नचा देनेवाली शक्ति भरी है।
    मैंने चटपट उसके कानों से कंगन उतार लिया। फिर धीरे-धीरे उसकी उँगुलियों पर चढ़ाने लगा। न जाने उस घड़ी कैसी खलबली थी। मुँह से अचानक निकल आया—
    किरन! आज की यह घटना मुझे मरते दम तक न भूलेगी। यह भीतर तक पैठ गई। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें और भी बड़ी हो गईं। मुझे चोट-सी लगी। मैं तत्क्षण योगीश्वर की कुटी की तरफ़ चल दिया। प्राण भी उसी समय नहीं चल दिए, यही विस्मय था।

    2

    एक दिन था कि इसी दुनिया में दुनिया से दूर रहकर लोग दूसरी दुनिया का सुख उठाते थे। हरिचंदन के पल्लुवों की छाया भूलोक पर कहाँ मिले; लेकिन किसी समय हमारे यहाँ भी ऐसे वन थे, जिनके वृक्षों के साये में घड़ी घाम निवारने के लिए स्वर्ग से देवता भी उतर आते थे। जिस पंचवटी का अनंत यौवन देखकर राम की आँखें भी खिल उठी थीं वहाँ के निवासियों ने कभी अमरतरु के फूलों की माला नहीं चाही, मंदाकिनी के छींटों की शीतलता नहीं ढूँढ़ी। नंदनोपवन का सानी कहीं वन भी था! कल्पवृक्ष की छाया में शांति अवश्य है; लेकिन कदम की छहियाँ कहाँ मिल सकती। हमारी-तुम्हारी आँखों ने कभी नंदनोत्सव की लीला नहीं देखी; लेकिन इसी भूतल पर एक दिन ऐसा उत्सव हो चुका है, जिसको देख-देखकर प्रकृति तथा रजनी छह महीने तक ठगी रहीं, शत-शत देवांगनाओं ने पारिजात के फूलों की वर्षा से नंदन-कानन को उजाड़ डाला।
    समय ने सब कुछ पलट दिया। अब ऐसे वन नहीं, जहाँ कृष्ण गोलोक से उतरकर दो घड़ी वंशी की टेर दें। ऐसे कुटीर नहीं जिनके दर्शन से रामचंद्र का भी अंतर प्रसन्न हो, या ऐसे मुनीश नहीं जो धर्मधुरंधर धर्मराज को भी धर्म में शिक्षा दें। यदि एक-दो भूले-भटके हों भी, तब अभी तक उन पर दुनिया का परदा नहीं उठा—जगन्माया की माया नहीं लगी। लेकिन वे कब तक बचे रहेंगे? लोक अपने यहाँ अलौकिक बातें कब तक होने देगा! भवसागर की जल-तरंगों पर थिर होना कब सम्भव है?
    हृषीकेश के पास एक सुंदर वन है; सुंदर नहीं अपरूप सुंदर है। वह प्रमोदवन के विलास-निकुंजों जैसा सुंदर नहीं, वरंच चित्रकूट या पंचवटी की महिमा से मंडित है। वहाँ चिकनी चाँदनी में बैठकर कनक घुँघरू की इच्छा नहीं होती, वरंच प्राणों में एक ऐसी आवेश-धारा उठती है, जो कभी अनंत साधना के कूल पर पहुँचाती है—कभी जीव-जगत के एक-एक तत्व से दौड़ मिलती है। गंगा की अनंत गरिमा—वन की निविड़ योग निद्रा वहीं देख पड़ेगी। कौन कहे, वहाँ जाकर यह चंचल चित्त क्या चाहता है—गंभीर अलौकिक आनंद या शांत सुंदर मरण।
    इसी वन में एक कुटी बनाकर योगीश्वर रहते थे। योगीश्वर योगीश्वर ही थे। यद्दापि वह भूतल ही पर रहते थे, तथापि उन्हें इस लोग का जीव कहना यथार्थ नहीं था। उनकी चित्तवृत्ति सरस्वती के श्रीचरणों में थी या ब्रह्मलोक की अनंत शांति में लिपटी थी। और वह बालिका—स्वर्ग से एक रश्मि उतरकर उस घने जंगल में उजेला करती फिरती थी। वह लौकिक मायाबद्ध जीवन नहीं था। इसे बंधन-रहित बाधाहीन नाचती किरनों की लेखा कहिए—मानो निर्मुक्त चंचल मलय वायु फूल-फूल पर, डाली-डाली पर डोलती फिरती हो या कोई मूर्तिमान अमर संगीत बे-रोकटोक हवा पर या जल की तरंग-भंग पर नाच रहा हो। मैं ही वहाँ इस लोग का प्रतिनिधि था। मैं ही उन्हें उनकी अलौकिक स्थिति से इस जटिल मर्त्य-राज्य में खींच लाता था।
    कुछ साल से मैं योगीश्वर के यहाँ आता-जाता था। पिता की आज्ञा थी कि उनके यहाँ जाकर अपने धर्म के सब ग्रंथ पढ़ डालो। योगीश्वर और बाबा लड़कपन के साथी थे। इसीलिए उनकी मुझ पर इतनी दया थी। किरन उनकी लड़की थी। उस कुटीर में एक वही दीपक थी। जिस दिन की घटना मैं लिख आया हूँ, उसी दिन सबेरे मेरे अध्ययन की पूर्णाहुति थी और बाबा के कहने पर एक जोड़ा पीतांबर, पाँच स्वर्णमुद्राएँ तथा किरन के लिए दो कनक-कंगन आचार्य के निकट ले गया था। योगीश्वर ने सब लौटा दिए, केवल कंगन को किरन उठा ले गई।
    वह क्या समझकर चुप रह गए। समय का अद्भुत चक्र है। जिस दिन मैंने धर्मग्रंथ से मुँह मोड़ा, उसी दिन कामदेव ने वहाँ जाकर उनकी किताब का पहला सफ़ा उलटा।
    दूसरे दिन मैं योगीश्वर से मिलने गया। वह किरन को पास बिठा कर न जाने क्या पढ़ा रहे थे। उनकी आँखें गंभीर थीं। मुझको देखते ही वह उठ पड़े और मेरे कंधों पर हाथ रखकर गद्गद स्वर से बोले—नरेंद्र! अब मैं चला, किरन तुम्हारे हवाले है। यह कहकर किसी की सुकोमल उँगुलियाँ मेरे हाथों में रख दीं। लोचनों के कोने पर दो बूँदें निकलकर झाँक पड़ीं। मैं सहम उठा। क्या उन पर सब बातें विदित थीं? क्या उनकी तीव्र दृष्टि मेरी अंतर-लहरी तक डूब चुकी थी? वह ठहरे नहीं, चल दिए। मैं काँपता रह गया, किरन देखती रह गई।
    सन्नाटा छा गया। वन-वायु भी चुप हो चली। हम दोनों भी चुप चल पड़े, किरन मेरे कंधे पर थी। हठात अंतर से कोई अकड़कर कह उठा—हाय नरेंद्र! यह क्या! तुम इस वनफूल को किस चमन में ले चले? इस बंधनविहीन स्वर्गीय जीवन को किस लोकजाल में बाँधने चले?

    3

    कंकड़ी जल में जाकर कोई स्थार्इ विवर नहीं फोड़ सकती। क्षण भर जल का समतल भले ही उलट-पुलट हो, लेकिन इधर-उधर से जलतरंग दौड़कर उस छिद्र का नाम-निशान भी नहीं रहने देती। जगत की भी यही चाल है। यदि स्वर्ग से देवेंद्र भी आकर इस लोक चलाचल में खड़े हों, फिर संसार देखते ही देखते उन्हें अपना बना लेगा। इस काली कोठरी में आकर इसकी कालिमा से बचे रहें, ऐसी शक्ति अब आकाश-कुसुम ही समझो। दो दिन में राम 'हाय जानकी, हाय जानकी' कहकर वन-वन डोलते फिरे। दो क्षण में यही विश्वामित्र को भी स्वर्ग से घसीट लाया।
    किरन की भी यही अवस्था हुई। कहाँ प्रकृति की निर्मुक्त गोद, कहाँ जगत का जटिल बंधन-पाश। कहाँ से कहाँ आ पड़ी! वह अलौकिक भोलापन, वह निसर्ग उच्छ्वास—हाथों-हाथ लुट गए। उस वनफूल की विमल कांति लौकिक चमन की मायावी मनोहारिता में परिणत हुई। अब आँखें उठाकर आकाश से नीरव बातचीत करने का अवसर कहाँ से मिले? मलयवायु से मिलकर मलयाचल के फूलों की पूछताछ क्योंकर हो?
    जब किशोरी नए साँचे में ढलकर उतरी, उसे पहचानना भी कठिन था। वह अब लाल चोली, हरी साड़ी पहनकर, सर पर सिंदूर-रेखा सजती और हाथों के कंगन, कानों की बाली, गले की कंठी तथा कमर की करधनी—दिन-दिन उसके चित्त को नचाए मारती थी। जब कभी वह सजधजकर चाँदनी में कोठे पर उठती और वसंतवायु उसके आँचल से मोतिया की लपट लाकर मेरे बरामदे में भर देता, फिर किसी मतवाली माधुरी या तीव्र मदिरा के नशे में मेरा मस्तिष्क घूम जाता और मैं चटपट अपना प्रेम चीत्कार फूलदार रंगीन चिट्ठी में भरकर जुही के हाथ ऊपर भेजवाता या बाज़ार से दौड़कर कटकी गहने वा विलायती चूड़ी ख़रीद लाता। लेकिन जो हो—अब भी कभी-कभी उसके प्रफुल्ल वदन पर उस अलोक-आलोक की छटा पूर्वजन्म की सुखस्मृतिवत् चली आती थी, और आँखें उसी जीवंत सुंदर झिकमिक का नाच दिखाती थीं। जब अंतर प्रसन्न था, फिर बाहरी चेष्टा पर प्रतिबिंब क्यों न पड़े।
    यूँही साल-दो-साल मुरादाबाद में कट गए। एक दिन मोहन के यहाँ नाच देखने गया। वहीं किन्नरी से आँखें मिलीं, मिलीं क्या, लीन हो गईं। नवीन यौवन, कोकिल-कंठ, चतुर चंचल चेष्टा तथा मायावी चमक—अब चित्त को चलाने के लिए और क्या चाहिए। किन्नरी सचमुच किन्नरी ही थी नाचनेवाली नहीं, नचानेवाली थी। पहली बार देखकर उसे इस लोक की सुंदरी समझना दुरुस्त था। एक लपट जो लगती—किसी नशा-सी चढ़ जाती। यारों ने मुझे और भी चढ़ा दिया। आँखें मिलती-मिलती मिल गईं, हृदय को भी साथ-साथ घसीट ले गईं।
    फिर क्या था—इतने दिनों की धर्मशिक्षा, शतवत्सर की पूज्य लक्ष्मी, बाप-दादों की कुल-प्रतिष्ठा, पत्नी से पवित्र-प्रेम एक-एक करके उस प्रतीप्त वासना-कुंड में भस्म होने लगे। अग्नि और भी बढ़ती गई। किन्नरी की चिकनी दृष्टि, चिकनी बातें घी बरसाती रहीं। घर-बार सब जल उठा। मैं भी निरंतर जलने लगा, लेकिन ज्यों-ज्यों जलता गया, जलने की इच्छा जलाती रही।
    पाँच महीने कट गए—नशा उतरा नहीं। बनारसी साड़ी, पारसी जैकेट, मोती का हार, कटकी कर्णफूल—सब कुछ लाकर उस मायाकारी के अलक्तक-रंजित चरणों पर रखे। किरन हेमंत की मालती बनी थी, जिस पर एक फूल नहीं—एक पल्लव नहीं। घर की वधू क्या करती? जो अनंत सूत्र से बँधा था, जो अनंत जीवन का संगी था, वही हाथों-हाथ पराए के हाथ बिक गया—फिर ये तो दो दिन के चकमकी खिलौने थे, इन्हें शरीर बदलते क्या देर लगे। दिन भर बहानों की माला गूँथ-गूँथ किरन के गले में और शाम को मोती की माला उस नाचनेवाली के गले में सशंक निर्लज्ज डाल देना—यही मेरा जीवन निर्वाह था। एक दिन सारी बातें खुल गईं, किरन पछाड़ खाकर भूमि पर जा पड़ी। उसकी आँखों में आँसू न थे, मेरी आँखों में दया न थी।
    बरसात की रात थी। रिमझिम बूँदों की झड़ी थी। चाँदनी मेघों से आँख-मुँदौवल खेल रही थी। बिजली काले कपाट से बार-बार झाँकती थी। किसे चंचला देखती थी तथा बादल किस मरोड़ से रह-रहकर चिल्लाते थे—इन्हें सोचने का मुझे अवसर नहीं था। मैं तो किन्नरी के दरवाज़े से हताश लौटा था; आँखों के ऊपर न चाँदनी थी, न बदली थी। त्रिशंकु ने स्वर्ग को जाते-जाते बीच में ही टँगकर किस दुख को उठाया—और मैं तो अपने स्वर्ग के दरवाज़े पर सर रखकर निराश लौटा था—मेरी वेदना क्यों न बड़ी हो।
    हाय! मेरी अँगुलियों में एक अँगूठी भी रहती तो उसे नज़र कर उसके चरणों पर लोटता।
    घर पर आते ही जुही को पुकार उठा—जुही, किरन के पास कुछ भी बचा हो तब फ़ौरन जाकर माँग लाओ।
    ऊपर से कोई आवाज़ नहीं आई, केवल सर के ऊपर से एक काला बादल कालांत चीत्कार के चिल्ला उठा। मेरा मस्तिष्क घूम गया। मैं तत्क्षण कोठे पर दौड़ा।
    सब संदूक़ झाँके, जो कुछ मिला, सब तोड़ डाला; लेकिन मिला कुछ भी नहीं। अलमारी में केवल मकड़े का जाल था। शृंगार बक्स में एक छिपकली बैठी थीं। उसी दम किरन पर झपटा।
    पास जाते ही सहम गया। वह एक तकिये के सहारे नि:सहाय निस्पंद लेटी थी—केवल चाँद ने खिड़की से होकर उसे गोद में ले रखा था और वायु उस शरीर पर जल से भिगोया पंखा झल रही थी। मुख पर एक अपरूप छटा थी; कौन कहे, कहीं जीवन की शेष रश्मि क्षण-भर वहीं अटकी हो। आँखों में एक जीवन ज्योति थी। शायद प्राण शरीर से निकलकर किसी आसरे से वहाँ पैठ रहा था। मैं फिर पुकार उठा—किरन, किरन। तुम्हारे पास कोई गहना भी रहा है?
    हाँ,—क्षीण कंठ की काकली थी।
    कहाँ हैं, अभी देखने दो।
    उसने धीरे से घूँघट सरका कर कहा—वही कानों का कँगना।
    सर तकिये से ढल पड़ा—आँखें भी झिप गईं। वह जीवंत रेखा कहाँ चली गई—क्या इतने ही के लिए अब तक ठहरी थी?
    आँखें मुख पर जा पड़ीं—वहीं कंगन थे। वैसे ही कानों को घेरकर बैठे थे। मेरी स्मृति तड़ित वेग से नाच उठी। दुष्यंत ने अँगूठी पहचान ली। भूली शकुंतला उस पल याद आ गई; लेकिन दुष्यंत सौभाग्यशाली थे, चक्रवर्ती राजा थे—अपनी प्राणप्रिया को आकाश-पाताल छानकर ढूँढ़ निकाला। मेरी किरन तो इस भूतल पर न थी कि किसी तरह प्राण देकर भी पता पाता। परलोक से ढूँढ़ निकालूँ—ऐसी शक्ति इस दीन-हीन मानव में कहाँ?
    चढ़ा नशा उतर पड़ा। सारी बातें सूझ गईं—आँखों पर की पट्टी खुल पड़ी; लेकिन हाय! खुली भी तो उसी समय जब जीवन में केवल अंधकार ही रह गया।          

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी कहानियाँ (पृष्ठ 64)
    • संपादक : जैनेंद्र कुमार
    • रचनाकार : राधिकारमण प्रसाद सिंह
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 1977

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