उपहार

Uphaar

भगवतीप्रसाद वाजपेयी

और अधिकभगवतीप्रसाद वाजपेयी

    विमला खाना परोस रही थी। कमल बैठा पत्र लिख रहा था। वह सोचता था कि जब इसे समाप्त कर लूँगा, तब उठूँगा। देर ही क्या है, कुछ भी तो और अधिक नहीं लिखना है। बस, यही दो-तीन, हाँ दो ही पंक्तियाँ और लिखने को हैं कि फिर मैं हूँ और भोजन।

    और विमला मन-ही-मन झुँझला रही थी कि जब तक मैं शाक पकाऊँ-पकाऊँ तब तक तो आफ़त मचा दी। दो-दो मिनट में विकल हो-होकर पूछते रहे कि कितनी देर है—कितनी देर है। और अब जब मैं खाना परोसने लगी तो 'आया, आया, बस अभी हाल आया' कह रहे हैं—मगर आते नहीं! बस, इनकी यही प्रकृति मुझे अच्छी नहीं लगती। कितनी तक़लीफ़ होती है खाना पकाने में! बनाना पड़े तो मालूम हो जाए। और मालूम क्या हो जाए। ख़ुद भी तो खा सके उसे। फिर भी किसी तरह जो मर-खप के बना भी लूँ तो यह हाल है इनका कि मुझे बेवक़ूफ़ बनना पड़ता है। कुछ कहो, तो झट जवाब दे बैठेंगे कि फिर बनाती ही बेकार हो—मैंने तो हज़ार बार कहा कि महराजिन रख लो।...मैं भी बैठी रहूँगी इसी तरह। जब बुलाना व्यर्थ है तो बुलाया ही क्यों जाए? न, मैं अब नहीं बुलाऊँगी, नहीं, किसी तरह नहीं।

    'अरे सुनती हो?'

    विमला को ही लक्ष्य करके कमल ने कहा था। लेकिन विमला ने सुनकर भी नहीं सुना। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। वह क्यों उत्तर दे? किसका उत्तर दे? किसे उसके उत्तर की अपेक्षा है? जब कहते-कहते हार गई, तब नहीं आए। और अब इतनी देर के बाद भी वहीं से कहते हैं—सुनती हो? कौन सुनती है? कोई नहीं सुनती। क्यों सुने कोई? क्या पड़ी है उसे जो सुने? वह नहीं सुनती है। कोई नहीं सुन रहा है। कोई सुनने क्यों लगा? वह सुनती तो है मगर नहीं सुनती, हाँ, नहीं सुनती।

    कमल अब उठकर उसके पास चला आया। वह चला तो आया पर निकट खड़ा रहकर बोला—कुछ लोग गए हैं और उनसे इसी समय दो बातें कर लेनी है। बेचारे बड़ी दूर से आए हैं। मुझसे यह नहीं हो सकता। कि उन्हें बैरंग वापस लौटा दूँ। कुछ वक़्त देना ही पड़ेगा। कुछ ऐसी ही आवश्यकता है। समझती हो न? तुम अब खाना खा लो। मुझे शायद देर ही लग जाए।... शायद क्या बल्कि निश्चित है देर लग जाना।

    विमला ने पहले तो चाहा कि वह चुप ही रहे अब भी, उनकी इस बात का कोई उत्तर दे। किंतु वह वास्तव में इस प्रकार की नारी नहीं है। परिस्थिति और कारण को लेकर उसकी मर्यादा की अवमानना करना उसकी प्रकृति के प्रतिकूल है। वह अतीत से उलझती रहती है क्योंकि उसी का प्रभाव लेकर भविष्य को देखती है; किंतु वर्तमान की उपेक्षा उसे स्वीकार नहीं होती। अतएव उसने कहा—किंतु क्या दस-पाँच मिनट के लिए उन्हें रोक नहीं सकते? वे लोग क्या तुम्हारा इस समय भोजन करना भी रोक देना उचित समझेंगे? तुम्हारी असुविधा का क्या उन्हें कुछ भी ख़याल होगा?

    कमल ने लक्ष्य किया विमला ख़ुद भी भूखी है। समय भी अधिक हो गया। इसी स्थिति में उसने बनाया है। कितनी देर से वह प्रतीक्षा में बैठी है। और अब जब कि मुझे उसके साथ बैठकर खाना चाहिए, मैं उससे इस प्रकार का प्रस्ताव कर रहा हूँ।

    उसने एक बार फिर जो विमला के उत्तप्त अरुण मुख की ओर ध्यान से देखा तो उसे अपना प्रस्ताव सर्वथा अप्रीतिकर प्रतीत हुआ। वह लौट पड़ा। लौटते हुए कह गया—अच्छा, तो मैं अभी आया। उन्हें कमरे में आदर के साथ बिठा आऊँ और साथ ही दस मिनट तक और अधिक प्रतीक्षा करने की अनुमति ले आऊँ।

    'आह! तुम आए हो मेरे राधाकांत बाबू—यह डेपूटेशन लेकर, अच्छा! लेकिन यार बहुत दिनों में मिले हो और फिर इस डेपूटेशन के साथ। ख़ैर, मैं अभी आया। मैंने अभी तक भोजन नहीं किया है। कुछ इतने आवश्यक कार्यों में लगा रहा कि भोजन करने तक को समय पर उठ सका। जा ही रहा था कि पता चला आप लोग तशरीफ़ लाए हैं।' कमल ने स्वाभाविक उल्लास-मुखरित ढंग से कहा।

    'अच्छा तो है! कर आओ भोजन, लेकिन अकेले-ही-अकेले भोजन कर लोगे?' राधा बाबू ने हँस के मृदुल दोलन में साधारणतया कह दिया—उसी प्रकार जैसे कोई भी मित्र दूसरे से ऐसी स्थिति में प्रायः कह ही देता है।

    'अच्छी बात है, मेरा सौभाग्य! चलो, तुम भी चलो।' कमल के उत्तर के साथ उसका हार्दिक उल्लास भी मिश्रित होकर फूट निकला।

    'ऐसे नहीं जाता। इस तरह तुमको तो कुछ मालूम होगा, किंतु दूसरी आत्मा को जो आकस्मिक कष्ट होगा उसे मैं कैसे सहन करूँगा? यार कमलेश, मुझे इस समय भोजन नहीं करना है, मैं तो यूँ ही कह उठा था। मैं भोजन कर चुका हूँ।' राधा बाबू कहते-कहते गंभीर हो उठे।

    कमल ने लक्ष्य किया यह राधाकांत एक समय कितना चटुल था? क्लास-भर इसके मारे परेशान, बल्कि एक प्रकार से आंदोलित रहता था। और आज देखता हूँ कि इस कालांतर में ही वह कैसा विवेकशील बन गया है।

    तब उस राधाकांत के प्रति कमल पहले अजेय आदरभाव से देखकर रह गया, फिर कुछ सोच-समझकर बोला—नहीं राधे, असुविधा की कोई बात होगी। कम पड़ेगा तो कुछ और बाज़ार से मँगवा लूँगा। चलो!चलो! अब तुम्हें चलना पड़ेगा।

    ****

    मेरे एक मित्र भी खाएँगे विमला! बड़े ज़बरदस्त आदमी हैं। इच्छामात्र करने से सफलता इनके चरण चूमती रही है। मुझे इनका क्लासफेलो रहने का गौरव प्राप्त हो चुका है। मुझे पता ही था कि जेल जाकर भी यह शैतान बजाए दुर्बल पड़ने के इतना मोटा पड़ जाएगा। देखती क्या हो, वज़न में तीन मन से कम होगा। यह जो कुछ भी तुमने बना रखा है, मैं तो समझता हूँ केवल इसके लिए भी काफ़ी होगा।' कमल ढूंढ-ढूँढकर ऐसे शब्दों का प्रयोग कर रहा है जिससे विमला को पता चल जाए कि उसका यह मित्र ऐसा-वैसा साधारण व्यक्ति नहीं है। बड़ा आदमी तो वह है ही, साथ ही उसका घनिष्ठ मित्र भी है।

    तब विमला ने स्वामी के इस घनिष्ठ मित्र को केवल एक-दृष्टि से देखकर साड़ी को सिर पर आगे तक कुछ और अधिक खिसका लिया है। दो थालियों में भोजन जैसा परोसकर रखा था, उसे पूर्ववत रखकर उसमें थोड़ा-थोड़ा कम कर लिया है, क्योंकि आकस्मिक आतिथ्य और समय-असमय के जलपान के लिए जो मिष्ट और सलोने खाद्य पदार्थ उसने बना रखे हैं, उनका भी उपयोग उसे अब करना है। बाज़ार से ही कुछ मँगाना पड़ा, तो फिर गृहस्थी की मर्यादा ही क्या रही?

    परंतु उसने कहा—आइए।

    तब कमल अपने राधे को लेकर भोजन करने बैठ गया। वह भोजन कर रहा है और साथ ही कुछ सोचता भी जाता है। यो निरंतर उसे कुछ-न-कुछ सोचना ही पड़ता है। बात कम काम अधिक यही उसकी प्रकृति है। किंतु जब कोई मित्र आया हो और साथ में भोजन कर रहा हो तब भी मौन ही बने रहना तो कुछ अधिक उत्तम या आवश्यक प्रीतिकर या शोभन प्रतीत नहीं होता। मानों इसी बात को लक्ष्यकर कमल ने कह दिया—और कहो राधे, ख़ूब अच्छी तरह से हो न? किसी प्रकार की कोई असुविधा या कष्ट या...और क्या कहूँ? अंतिम शब्द कहते-कहते कमल राधे के मुँह की ओर देखकर हँस पड़ा।

    'देखता हूँ, तुम बहुत बड़े आदमी हो गए। यहाँ तक कि तुमने इतना वैभव अर्जित कर लिया, इतना कि तुम्हें देखकर मुझे ईर्ष्या होती है तो भी तुम्हारा वह असाधारण सारल्य ज्यों-का-त्यों बना है।' राधे भोजन करते हुए अपनी ये बातें इतने मंद क्रम से करता जाता है कि तो उसकी आहारगति प्रतिहत होने पाती है, वार्ता-विनोद में ही किसी प्रकार की अरोचक गति का संयोग हो पाता है। साथ-ही-साथ वह कभी-कभी विमला पर भी एक दृष्टि डाल देता है।

    'तो तुम्हारा ख़याल यह है कि काल-गति से हमारी प्रकृति भी बदल जाती है। लेकिन भाई राधे, मैं ऐसा नहीं मानता! जीवन के प्रकपित अवधान हमारी गति बदल सकते हैं, हमारे आचार-व्यवहार की रूपरेखा को भी उलट-पुलट डालते हैं। मैं यह मानता हूँ। किंतु, किंतु हमारी नैसर्गिक प्रकृति पर उनका अनुशासन कभी चल नहीं सकता, क्षणिक परिवर्तन करने में भले ही वे यदा-कदा सफल होते रहें।'

    राधे कमल की इस बात को सुनकर मुस्कराने लगा।

    और कमल ने उसके इस हास को यथार्थता को लक्ष्य करके कहा—जान पड़ता है मेरे साथ तुम्हारा मतभेद पूर्ववत बना है।

    विमला दोनों को बातें करते छोड़कर भंडार में चली गई थी। लौटकर उसने दो-दो कटोरियों में मिष्टान्न और नमकीन पदार्थ दोनों थालियों के निकट रख दिए। तब उसी समय एक कटोरी से कुछ ख़ुरमे एक साथ उठाकर मुँह में डालने के पूर्व राधे बोला—तुम्हारे गार्हस्थ्य-जीवन के इस सफल स्वरूप के लिए मैं तुम्हें बधाई देता हूँ कमलेश!

    कमल हँसने लगा। बोला—अच्छा-अच्छा, यह बात है! धन्यवाद।

    फिर विमला की ओर उत्फुल्ल लोचनों से देखकर कहने लगा—सुनती हो विमला, राधे तुम्हें बधाई दे रहा है।

    विमला चाहती तो उत्तर में कुछ कह सकती थी। किंतु वह कुछ कह सकी। हाँ, विकल्प में थोड़ी मुड़कर, कढ़ाई में रखे हुए शाक को एक कटोरे में संभालकर रखने में व्यस्त अवश्य हो गई।

    तब राधे ने उस समय विमला को ही कुछ कहने का अवसर दिया, कमलेश को। अब वह उसकी उस बात पर गया जिस पर उसे मतभेद था। वह बोला- हाँ, तुम्हारी उस बात को तो मैं भूल ही गया था—प्रकृति-परिवर्तन के संबंध में जो तुमने अभी कही थी।

    'हाँ, हाँ, कहो कहो। मैं जानना चाहता हूँ इस विषय में तुमने क्या अनुभव किया है, तुम्हारे विचार क्या है?' कमल ने कहा ही था कि राधे बोल उठा—असल बात यह है कमलेश भाई कि मनुष्य की प्रकृति ही को पहले ज़रा समझ लेने की ज़रूरत है। क्या उसकी प्रकृति है, और क्या अप्रकृति, वास्तव में इसी को समझ लेना आवश्यक है। लोग प्रायः कहा करते हैं फलाँ आदमी तो बिल्कुल ही बदल गया। लोग उसकी रूप-रेखा, उसके आकार-प्रकार को देखकर ही प्रायः इस तरह की बातें कह डालते हैं। पर परि- स्थितियों के चक्र में घूमने और छिन्न-भिन्न होते हुए उसके क्षण-क्षण के जीवन को देखकर वे यह नहीं सोचते कि प्रकाश सदा प्रकाश ही रहता है। यह बात दूसरी है कि कोई प्रकाश दिन का हो, कोई निशा का। अब यहाँ प्रश्न यह है कि दिन का प्रकाश तो प्रकाश है और उसे संसार स्वीकार करता है। किंतु जो प्रकाश रजनी के अंतर से फटा हुआ है वह अंधकार क्यों है?

    तब तत्काल उत्तरंग मानस से कमलेश बोल उठा—वंडरफुल! कितनी अच्छी बात तुमने अनायास कह डाली! वाह!!

    विमला ने उसी समय एक बार राधे के उस तेजोमय मुख की ओर दृष्टिक्षेप किया। थोड़ी देर से उसकी छाती के भीतर भूकंप-कालीन रत्नाकर की भाँति जो भीम विस्फूर्जन प्रतिध्वनित हो रहा था राधे के इस कथन को लेकर और फिर एक बार उसकी ओर देखकर आप-से-आप वह बिल्कुल शिथिल, ध्वस्त हो उठा। जिस त्यक्त अतीत ने आज अभी उसके मन-प्राण तक को बार-बार स्तंभित, विकल-विकंपित कर-करके एक अव्यक्त अभियोग से अतिशय अस्थिर किंवा विमूढ़ कर डाला था, निमेपमात्र के इस वैकल्पिक उपायन से उसके पराभूत चित्त की सारी दुर्बलता बात-की-बात में निष्प्रभ प्रशांत हो उठी।

    इसी समय भोजन करके दोनों मित्र उठ खड़े हुए।

    ****

    रात के ग्यारह बजे हैं? कमलेश सो रहा है। पास ही विमला भी लेटी हुई करवटें बदल रही है। कुछ स्वप्न उसके मानसपट पर उतर आए हैं।

    'तुम्हारी यह आदत अच्छी नहीं है, भैया!'

    'कौन-सी?

    'पूछते हो कौन-सी!'

    'लो, जब मालूम नहीं है तब पूछना भी गुनाह है।'

    'हाँ, गुनाह। मैं तुमसे भैया जो कहती हूँ।'

    वह चुप रह गया। उसका मुख यकायक उतर गया। कोई बात वह फिर कह सका। तब वह चलने लगी। कुछ उद्विग्न होकर अपना तिरस्कार अपने ऊपर लादकर। किंतु उसी समय उसने सुना, वह कह रहा है—मेरी इस बुरी आदत के अनुभव करने का तुम्हें अब कभी अवसर मिलेगा विमला! मैं यहाँ से चला जाऊँगा।

    वह लौट पड़ी। अपनी मर्यादित गंभीरता से विचलित होकर वह बोली— सचमुच, क्या तुम कानपुर छोड़ दोगे?

    'छोड़ना ही पड़ेगा विमला क्योंकि मनुष्य की प्रकृति बदल नहीं सकती। उत्तर में वह कुछ कह सकी थी। यद्यपि उन निर्वाक निःस्पद, निष्ठुर क्षणों ने उसके इस जीवन को हो व्यर्थ कर डाला, तो भी उन क्षणों को वह फिर कभी पा सकी। आज तक पा सकी।

    किंतु वह था कितना दृढ़प्रतिज्ञ! उसने कानपुर छोड़ ही दिया। यद्यपि उसने कोई अपराध नहीं किया था। एकमात्र यही आदत थी उसकी कि वह मुझे देखकर पुलकित हो उठता था। उसके उस हास्य-मुखरित आनन की उद्दीप्त आभा, उसकी उल्लास-तृप्त आँखें, अपना आंतरिक भाव प्रकट करने का लोभ संवरण कर सकती थी। मुहल्ले की बात ठहरी। वह कभी-कभी अपनी सखियों के साथ निकलती, कभी माँ-भाभी के साथ। और इन सबके साथ निकलने पर भी वह उसकी ओर एक बार देखे बिना मानता था। फलतः एक अदम्य बहिरभिमुखी लज्जा से वह बिल्कुल संकुचित तथा अभिभूत हो उठती थी।

    बस यही उसका अपराध था—और उससे सलग्न यही उसकी असुविधा।

    और उसके बाद यह आज का दिन है।

    'तुम्हारे गार्हस्थ्य-जीवन के इस सफल स्वरूप के लिए मैं तुम्हें बधाई देता हूँ।' और मेरे गार्हस्थ्य-जीवन का यह कैसा सफल स्वरूप है! किंतु जो प्रकाश रजनी के अंतर से फूटा हुआ है वह अंधकार क्यों है? कौन कहता है कि वह अंधकार है! क्या अब भी किसी में इतना साहस है कि वह उसे अंधकार कह सके? किंतु यह बात तो तुमने अपने आपको देखकर कह डाली है क्योंकि तुम एक प्रकार के अकल्पित स्वप्न हो। किंतु यह तो एक कविता हुई। और इस विमला के भीतर जो नारी है वह तो वैसी उस प्रकार की निरी कविता नहीं है, उसका एक शरीर है, एक पिंड! कभी उसे छूकर देखते तो जान पाते कि बाहर से प्रकाशमयी झलक मारने वाली इस विमला के भीतर का अंधकार अभी तक पूर्ववत् स्थिर है। अपने स्थान से वह टस-से-मस भी नहीं है। अभी तक उसके भीतर की गर्वित नारी उसी प्रकार तृषित है, जैसी वह कभी पहले थी। उसके प्रकृत स्वरूप का सांगोपांग अर्थ किया ही नहीं जा सका—यहाँ तक कि वह अभी तक माँ भी नहीं हो सकी! और फिर भी तुम उसके गार्हस्थ्य-जीवन का साफल्य देखने चले थे। ओह! इस परिवार का अंतरंग देखकर, उसके बाह्य स्वरूप पर तुम ऐसे मुग्ध हो उठे कि बधाई भी उसे दे डाली। किंतु तुम्हारी यह बधाई तो उन्हीं के लिए थी। मेरे साथ उसका संबंध क्या? वह बधाई मेरे लिए नहीं है, नहीं है।

    किंतु ठीक तो है। उन्होंने कह डाला था—सुनती हो विमला, राधे तुम्हें बधाई दे रहा है।

    लेकिन उनके कहने से भी वह बधाई मेरे लिए नहीं हो सकती। वह उनके लिए थी, हाँ, उन्हीं के लिए। तो क्या वास्तव में वे बधाई के पात्र हैं? क्यों भला? क्या वे बधाई के पात्र केवल इसलिए हैं कि मेरे जीवन की यह धारा भी उन्हीं के साथ-साथ प्रवाहित हो रही है? तो तुम सोचते हो कि यह विमला अभी तक इसमें समर्थ है कि उसकी संगति का योगमात्र किसी को भी बधाई का पात्र बना सकता है? उफ़, तुम ऐसा क्यों मानते हो राधे भैया? क्या तुम अपनी प्रतिज्ञा भूल गए? क्या तुम्हें याद नहीं रहा तुमने किसी को कुछ कहा था? कहा था कि मेरी इस बुरी आदत के अनुभव करने का अब तुम्हें कभी अवसर मिलेगा... तो फिर इतने दिनों के बाद तुमने यह अवसर क्यों दिया?

    झर, झर, झर!

    ये आँसुओं की बूँदें हैं कि सुधार्णव के मोती?

    ओह! जीवन के ये दस वर्ष यूँ ही बीत गए। युग पलटा, कितने भूकंप आए। कितनी रिमझिम रातें, कितनी शारदी निशाएँ, कितने वासंतिक दोलन आए और गए, किंतु राधे की छाया भी कहीं देख पड़ी। और एक युग के बाद जानबूझकर भी नहीं अनायास वे जो इस कुटीर में ही पड़े, तो यह विमला, यह मूर्त कालिमा अपने आपको देखकर दोष देती है उसे, जो दिवाकर की भाँति वरेण्य और मनरवी है!

    तो तुम मुझसे बोले क्यों नहीं? कुछ विस्मय और कुछ दुलार से ओत-प्रोत होकर तुमने मुझे निकट पाकर मेरा नाम लेकर पुकारा क्यों नहीं? तुम्हारी मुद्रा इतनी गंभीर क्यों बनी रही? एक बार भी सिर उठाकर तुमने मुझे ध्यान से देखा क्यों नहीं? हूँ, मुझसे छूटकर जाओगे कहाँ?

    झर! झर! झर!

    ये अमृत की बूँदें क्रमागत रूप से क्यों रही हैं? झरने से बूँदें तो यूँ निरंतर सकती है; किंतु इस प्रकार के अमृत बूँदों को वह कहाँ से लाएगा? और उनके निःस्त्राव के साथ यह निःस्वन कैसा है! ये रुदन की सिसकियाँ हैं कि निर्झर की उत्ताल ऊर्मिमालाओं का अजस्र मुखरित महोल्लास।

    ****

    'ऐं! तुम रोती हो विमला?'

    एकाएक उठकर झट से विद्युत प्रकाश प्रस्फुटित कर कमल विमला के पलंग पर आकर उससे मिश्रित होकर बैठ गया। फिर उसके सिर की कुंतलराशि, वेणी और उसके अंतिम छोर तक अपना वाम हस्त फेरते हुए बोला—रोती क्यों हो विमला? बतलाओ। मैं जानना चाहता हूँ, क्या मुझसे कोई अपराध हुआ है?'

    अब विमला आँसू पोंछकर स्थिर होकर बैठ गई। उसका एक हाथ अब भी कमल के हाथों में था। उसके रुद्र-गंभीर मुख की अप्रकृत भंगिमा देखकर कमल यकायक स्तब्ध हो उठा और उसी समय विमला बोली—अपराध? अपराध की बात पूछते हो?

    'हाँ!'

    'तो इस राधे को तुम अंदर क्यों ले आए? किससे पूछकर ले आए?

    'कमलेश अवाक हो उठा। तुरंत तो वह कोई भी उत्तर दे सका। किंतु क्षण भर के बाद बोला—वह मेरा एक मित्र था, चिरपरिचित मित्र। उसका स्वागत-सत्कार करना मेरे लिए आवश्यक था, किंतु वह कोई भी हो उसके संबंध में इतना सोचने की आवश्यकता ही क्या है?

    'वह क्यों आया था?'

    'एक प्रस्ताव लेकर।'

    'क्या उत्तर दिया?'

    'उसकी बात मान लेना ही मैंने उचित समझा। स्वदेश के पीछे उसने अपना जीवन उत्सर्ग कर रखा है। उसे निर्विरोध कौंसिल में जाना चाहिए। उसके पक्ष में मैंने अपने आपको रोक लिया है।'

    'जी—व—न—उ—त्स—र्ग कर रखा है।' विमला ने अतिशय मद स्वर में अटक-अटककर इस तरह कहा कि कमल उसकी अपरूप मुद्रा देखकर चकित-स्तंभित हो उठा। क्षण-भर रुककर बोला—बात क्या है विमला? मैं ज़रा साफ़-साफ़ जानना चाहता हूँ।

    'वह मेरा शत्रु है। मेरी जीवन-धारा को उसने व्यर्थ ही में विकृत करने को चेष्टा की है। मुहल्ले के नाते से मैं उसकी बहन होती हूँ। फिर भी जान-बूझकर उसने मेरी अवहेलना की। मैं इसे कैसे सहन कर सकती हूँ?

    ****

    'अरी पगली—यह मेरी ही भूल है? लेकिन तुम जानती हो विमला मैं कुछ आज का नया भुलक्कड़ नहीं हूँ। ख़ैर मुझे इसका दुःख है।' चलते-चलते वह अपनी सोने की घड़ी तुम्हें भेंट-स्वरूप दे गया है। उसने कहा भी था—यह घड़ी मेरी बहन को दे देना। तुम उसे ले लो अभी। वह मेरे कोट के भीतरी जेब में पड़ी है।'

    और विमला सोचती है—यह उपहार है कि मृत्य?

    स्रोत :
    • पुस्तक : गल्प-संसार-माला, भाग-1 (पृष्ठ 65)
    • संपादक : श्रीपत राय
    • रचनाकार : भगवतीप्रसाद वाजपेयी
    • प्रकाशन : सरस्वती प्रकाशन, बनारस
    • संस्करण : 1953

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