भैया एक्सप्रेस

bhaiya express

अरुण प्रकाश

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भैया एक्सप्रेस

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    इज़ ही भैया?

    ट्रेन की रफ़्तार तेज़ होती जा रही थी। दरवाज़े से लटके रामदेव के लिए धूल भरी तेज़ हवा में आँख खुली रखना मुश्किल था। कब तक लटका रहेगा बंद दरवाज़े पर? रामदेव ने दरवाज़े पर ज़ोर से थाप मारी। उसके कंधे से लटकता झोला गिरते-गिरते बचा।

    कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला। वह सँभलता हुआ अंदर घुसा और दरवाज़ा भिड़ाकर डिब्बे के गलियारे में गमछे से मूँगफली के छिलके और सिगरेट के टोंटों को हटाने लगा। दरवाज़ा खोलने वाले फ़ौजी ने घृणा से मुँह बिचकाया 'भैणचो..मरने चले आते हैं! ये रिज़र्वेशन का डिब्बा है। तेरा रिज़र्वेशन है?'

    रामदेव चुप! अठारह साल के साँवले, पतले रामदेव के लिए यह पहली लंबी यात्रा थी। अब तक उसने तिलरथ के अगले स्टेशन बरौनी तक ही रेल यात्रा की थी। रिज़र्वेशन से उसका पाला ही नहीं पड़ा था। पहली दफ़ा वह बिहार तो क्या, अपने जिले से भी बाहर निकला था। अपने भाई विशुनदेव से उसने ज़रूर सुन रखा था कि पंजाब जाने में क्या-क्या परेशानी होती है। दिल्ली होकर पंजाब जाने में सुविधा होती है। और, आसाम मेल दिल्ली जाती है। बरौनी स्टेशन पर डिब्बे में लोग बोरे में सूखी मिर्च की तरह ढूंसे जाते थे। आख़िर ट्रेन खुल गई तो जो डिब्बा सामने आया, उसी में दौड़कर लटक गया था।

    'टिकट है!' रामदेव ने बमुश्किल कहा।

    'टिकट होने से क्या होता है? यह रिज़र्वेशन का डिब्बा है, समझे?'

    अब रामदेव क्या करे, चुप, डरी आँखों से फ़ौजी को देखता रहा। पुरानी बेडौल पैंट और हैंडलूम की बेरंग शर्ट पहनकर रामदेव अपने मोहल्ले में ही आधुनिक होने का स्वांग कर सकता था। इस नई दुनिया में सारी चीज़ें अचंभे से भरी थीं।

    कुर्ते और शलवार में लिपटी, सामने के बर्थ पर लेटी औरत ने अँग्रेज़ी उपन्यास को आँखों के सामने से हटाया और उस फ़ौजी से पूछा, 'सिविल कंपार्टमेंट इज़ लाइक धर्मशाला...इज़ ही भैया?'

    'हाँ लगता तो है!' फ़ौजी भुनभुनाकर रामदेव की ओर मुख़ातिब हो गया, 'तुमको कहाँ जाना है?'

    'पंजाब।'

    रामदेव को लगा कि वह यहाँ बैठा रहा तो इन बड़े लोगों की नज़र में चढ़ा रहेगा। वह उठा और बाथरूम के सामने वाले गलियारे में अँगोछा बिछाकर झोले का तकिया बनाकर लेट गया। ट्रेन में घुसने से लेकर पिछले एक सप्ताह तक के दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गए।

    दसवीं का इम्तिहान ख़त्म होते ही माई पंजाब जाने-आने के लिए पैसे का इंतिज़ाम करने लगी थी। गाँव का कोई आदमी मार-काट की वजह से पंजाब जाकर उसके भैया विशुनदेव को ढूँढ़ने को तैयार नहीं था। कई लोगों से मिन्नत करने के बाद, माई रामदेव को ही पंजाब भेजने पर तैयार हो गई। पैसों की समस्या साँप की तरह फ़न काढ़े फुकार रही थी। पुश्तैनी पेशा-अनाज भूनने में क्या रखा है? कनसार में अनाज भुनवाने लोग आते नहीं। मकई की रोटी अशराफ़ लोग खाते नहीं। दाल इतनी महँगी है कि लोग चने की दाल बनवाएँगे कि कनसार में चना भुनवाकर सत्तू बनवाएँगे? उस पर इतनी मेहनत-गाँव के बग़ीचों, बंसवाड़ियों में सूखे पत्ते बटोरकर जमा करो, उन्हें जलाकर अनाज भूनकर पेट की आग ठंडी करो। किसी तरह एक शाम का भोजन जुट पाता। आख़िर माई उपले थापकर, गुल बनाकर बेचने लगी थी। तब किसी तरह भोजन चलने लगा। लेकिन कोई काम पड़ता तो क़र्ज़ लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था। इस बार भी पंडितजी ने ही पैसों की मदद की। भैया की शादी में क़र्ज़ बढ़ा तो मुश्किल हो गई। मूल तो मूल, सूद सुरसा की भाँति बढ़ने लगा। आख़िर भैया को थाली-लोटा, कंबल, वंशी लेकर कमाने पंजाब जाना पड़ा। वहाँ से वह पैसा भेजता तो माई सीधा पंडितजी को जाकर देती। क़र्ज़ चुकने को ही था कि अचानक सब कुछ बंद।

    पंजाब में ख़ून-ख़राबे की ख़बर मिलती तो माई के साथ-साथ रामदेव का भी दिल डूबता। माई को पड़ोसी ताने मारते। इतना ही दुख था तो ख़ून-ख़राबे में बेटे को कमाने पंजाब काहे भेजा? अगर विशुनदेव पंजाब नहीं जाता तो वे सब बेघर हो जाते। जनार्दन उनके घर की ज़मीन ख़रीदने की ताक में था। पंडितजी का तक़ाज़ा तेज़ हो रहा था। घर ही बचाने-बसाने विशुनदेव को पंजाब जाना पड़ा था। बहू आती तो कहाँ रहती, क्या खाती? नई ज़िंदगी के कोंपल को माई कैसे मसलने देती? भरे मन से माई ने विशुनदेव को पंजाब जाने दिया था। सब ठीक-ठाक होता जा रहा था कि अचानक सब कुछ बंद।

    लेटे-लेटे रामदेव ने क़मीज़ की चोर जेब में हाथ डाला। जेब में रेलवे टिकट, भाई के पतेवाला पोस्टकार्ड और पैसों को छूकर उसे इत्मीनान हो आया। झोले का तकिया ठीक से जमाकर आँख बंद कर सोने की कोशिश की। ट्रेन की खटर-पटर, गलियारे में फैली बदबू थी ही। डर भी था और इतना था कि नींद में भी पंजाब-सी उथल-पुथल थी। विशुनदेव! विशुनदेव!

    भैया पंजाब से पिछली दफ़ा लौटा तो वहाँ के क़िस्से ख़ूब सुनाता था। माई भी रोज़ रात उससे पंजाब के बारे में पूछती थी।

    'रोटी खाने? भात नई मिलै छौ?'

    'माई, लोग सब खाना के रोटी कहै छै! बड़का गिलास में चाह! ओह चाह हिया कहाँ?'

    'मर सरधुआ! चाह तो हिमैं बनबे करेई छै!'

    'नइगे माई, सब बनिहारवाला चाह में अफ़ीम के पानी मिलाए दै छै, वैइसे थकनी हेठ भे जाइछै! बनिहार लोग ख़ूब काम कइलक।'

    'कत्ते देर काम करै छहि?'

    'सात बजे भोर सै बजे साँझ तक! बीच में रोटी खाइके छुट्टी-एक घंटा।'

    'सब ताश खेललकर, हम्में अपनी बँसुरी-बंजइलौं। हमर मलकिनी ठीक छौ। हाँक पारतौ-ए विशुनदेव! विशुनदेव! मलकिनी कै हमरी बाँसुरी बजेनाई ख़ूब नीक लगैइछै! विद्यापति, चैतावर सुने लेल पागल। पढ़लो छे गे माई बी.ए.पास!'

    'ख़ूब सुखितगर मालिक छौ?'

    'ख़ूब कि फटफटिया, ट्रैक्टर, जीप महल सन घर। दूगो बेटा। दिल्ली में नौकरी में लागल, टीभी से हो छै!'

    'उ कथी?'

    'जेना रेडियो में ख़ाली गाने बोलई छै ने, टीभी में गाना के साथ-साथ सिनेमा एहन फोटूओ देखेवई छै!'

    'मालिक मारै-पीटे नईं छौ!'

    'कखनो-कखनो, गाली हरदम भैनचो... भैनचो बकै छ।'

    'की करभी, पैसा कमेनाइ खेल नईं छै। मन नईं लागै होतौ?'

    'ग़रीब नईं रहने माई, पंजाब कहियो नईं जैति अइ पैसा...'

    विशुनदेव का गौना सामने था। ख़र्चा जुटाने उसे दूसरी बार भी पंजाब जाना पड़ा। अपने इलाक़े में साल भर मज़दूरी का उपाय, और मज़दूरी भी पंजाब से आधी। विशुनदेव पंजाब से थोड़ा भविष्य लाने गया था।

    रात में कोई गाड़ी पंजाब नहीं जाती।

    नियॉन लाइट से जगमगाती नई दिल्ली स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर उतरते ही उसे लगा कि इतने लोगों के समुद्र में वह खो जाएगा। भीड़, धक्कम-मुक्का, अजनबी लोग और इतनी रौशनी! उसने अपने सीने को कसकर दबा लिया ताकि टिकट, पैसा और पते वाला पोस्टकार्ड कोई मार ले। वह ठिठक गया, पता नहीं गेट किधर है। आख़िर भीड़ में वह घुस गया। ओवर ब्रिज पारकर स्टेशन के बाहर गया।

    बाहर टैक्सरी, कार और थ्री व्हीलर की क़तारें। रात का समय। सब कुछ स्वप्न-लोक-सा था जैसा उसने हिंदी फ़िल्मों में देखा था। आसाम मेल रास्ते में ही पाँच घंटे लेट हो गई थी। उसे मालूम था कि दिल्ली से ट्रेन या बस से उसे अमृतसर जाना पड़ेगा। वह मुसाफ़िरख़ाने की ओर बढ़ा। पंजाब जाने वाली गाड़ी के बारे में किससे पूछे, सब तो अफ़सर की तरह लग रहे थे। मुसाफ़िरख़ाने के एक कोने में कुछ साधारण मैले-कुचैले कपड़ों में थकी-बुझी आँखों वाले लोग टिन की बदरंग पेटियों के पास बैठे थे। उन्हीं की तरफ़ बढ़ा।

    'ऊ सामने वाली खिड़की पर जाकर पूछो!'

    खिड़की पर कई लोग जमे थे। जब लोग हटे तो उसने बाबू से पूछा।

    'बाबू, अमृतसरवाली चली गई?'

    'हाँ!'

    'अब दूसरी गाड़ी कब जाएगी!'

    'अब तो भैया, कल जाएगी!'

    'इ तो बड़ा स्टेशन है?'

    आजकल रात में कोई गाड़ी पंजाब नहीं जाती।'

    वह मुड़ा, तो बाबू भी अपने दोस्त से बात करने लगा।

    'सारे हिंदुस्तान को पता है, रात में कोई ट्रेन पंजाब नहीं जाती फिर भी पूछ रहा था!' बाबू के दोस्त के स्वर में उपहास था।

    'बिहारी भैया था!' बाबू फिस्स से हँस पड़ा।

    'जलंधर, लुधियाने, सारे पंजाब में ये लोग भरे हैं।'

    'अरे बिहार से आनेवाली गाड़ी को पंजाब में भैया एक्सप्रेस कहते हैं! उस तरफ़ हर गाड़ी में ये लोग ठूँसे रहेंगे।'

    'वहाँ इन्हें काम नहीं मिलता?'

    'काम मिलता तो पंजाब थोड़े ही मरने जाते! भूख थोड़े ही रुकती है, इसलिए भैया एक्सप्रेस चलती रहेगी... सरकार की पटरी, सरकार की गाड़ी सब है ही!'

    घर पंजाब हो गया है

    'आजकल' रामदेव के लिए बड़ा शब्द है।

    पिछले चार महीने-सोते-जागते पहाड़ की तरह गुज़रे। भैया कैसा होगा? पंजाब में बहा ख़ून का हर क़तरा, वहाँ चली हर गोली माई को लगती। रेडियो विशुनदेव का हाल-चाल थोड़े ही बोलेगा। माई फिर भी पंडित जी के यहाँ रेडियो सुन आती। वह भी चाय की दुकान पर अख़बार पढ़ आता। रजिस्ट्री चिट्ठी लौट आई तो माई रात-भर रोती रही। बेगूसराय जाकर उसी पते पर तार भिजवाया लेकिन कुछ नहीं पता चला। माई मन्नतें माँगती, पंडित जी के पंचाँग से शगुन निकलवाती, रो-धोकर उपले-गुल बेचने फूटलाइज़र टाउनशिप निकल जाती। इतनी मेहनत पर मौसी टोकती तो माई का एक ही जवाब होता, 'एगो बेटा पंजाब में, रमुआ पढ़ लिए जे एकरा पंजाब नईं जाए पडैय।'

    भौजी के यहाँ से अक्सर पूछवाया जाता—कोई ख़बर मिली? माई को लगता—शादी टूट जाएगी। कोई कब तक जवान बेटी को घर बिठाए रखेगा। माई को लगता, बेटे का पता नहीं, पतोहू छूट रही है। कोशिश करती कि किसी तरह बिखरते घर को आँचल में समेटे रहे।

    'रमुआ से पुतोहू के बियाह के देबैई', माई से यह सुनते ही रामदेव शर्म से काठ हो गया था। भौजी की साँवली, निर्दोष, बड़ी-बड़ी आँखों वाला चेहरा उसके सामने घूम गया था। अशराफ़ के घर में ऐसा