अपराध

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संजीव

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    रात के ख़ौफ़नाक अँधेरे को चीरते हुए मेरी ट्रेन भागती जा रही है। एक अँधेरी सुरंग है कि मेरे समूचे अस्तित्व को निगलती जा रही है। यूँ मैंने सारी खिड़कियाँ बंद कर ली हैं, फिर भी एक शोर है कि जिस्म के पुर्ज़े-पुर्ज़े धमक रहे हैं, यादों का एक क़ाफ़िला है कि मेरे मरु-मन का ज़र्रा-ज़र्रा कुनमुनाकर ताकने लगता है।

    ज़ेहन में धीरे-धीरे आकार ले रही है एक हवेली... क़स्बे में व्यवस्था और सत्ता की प्रतीक मेरी हवेली—'कंचनजंघा'। धीरे-धीरे कई चेहरे उभर रहे हैं, प्रभुसत्ता रोबीले सेशन जज-पापा, एस.पी.—बड़े भैया, जिलाधीश—छोटे भैया, गृह विभाग के सचिव—जीजा, उनके प्रभाव का एहसास कराती हुई गवीली बहन, सबके अपने-अपने पोस्टेड ज़िलों में चले जाने पर उदास राजमाता की तरह मम्मी, जाने कितने मंत्रियों, अफ़सरों और ऊँचे ओहदे वालों के गड्डमड्ड चेहरे! एक अजीब-सा खिंचाव, एक अजीब-सा ख़ौफ़ समाया रहता है यहाँ के लोगों में कंचनजंघा के प्रति।

    मैंने बचपन से ही इस खिंचाव का अनुभव किया है। कपड़े की बॉल और पीढ़े का बल्ला बनाकर खेले जा रहे क्रिकेट या काँच की गोलियों जैसे खेल, गवर्नेस, ख़ानसामा, दाइयाँ, ट्यूटर्स, सेंट-विसेंट और सेंट पैट्रिक्स स्कूलों में पलते मेरे वजूद को देखकर थम जाते और वे मुझे टुकुर-टुकुर ताकने लगते। ऐसा लगता, मुझे मेरी इच्छा के विरुद्ध कुछ इतर, कुछ विशिष्ट बनाने का षड्यंत्र चल रहा है और एक अस्वीकार समाता रहा अवचेतन में। पापा कहते, ''जाने किस धातु का बना है!'' पूरे परिवार में 'सिद्धार्थ' की उपाधि से मैं आभूषित था।

    “ख़ैर, एक लड़का ऐसा ही सही!” और माँ सबकी चिंताओं पर स्टॉप लगा दिया करतीं।

    प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाख़िले के बाद पहली बार परिवार की तमाम बंदिशों से मिली आज़ादी, जगह-जगह दीवारों पर लिखे—पॉलिटिकल पावर फ्लोज़ फ़्रॉम बरेल ऑफ़ गन!... नक्सलबाड़ीर पोथ आमादेर पोथ! ...जैसे नारे। माओ की लाल किताब, कॉलेज स्ट्रीट के फुटपाथों तथा कॉलेज स्क्वायर पार्क के 'गोलदीघी' के होने वाले हेतमपुर, विद्यासागर, यादवपुर, शिवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों के बीच के घुमंतू चर्चे! ...ऐसे गर्म-परिवेश में पकने लगा था मेरा झिझक-भरा शाँत व्यक्तित्व। कुछ ही दिनों में मन के अवचेतन में दबा अस्वीकार सर उठाने लगा। क्लास तो हम नाममात्र को करते। हाँ, इस बीच बहुत-सा बाहरी साहित्य पढ़ने को मिला। मार्क्स, ऐंगेल्स, हेगेल, लेनिन और माओ पर विस्तृत चर्चाओं में शामिल होने का मौक़ा मिला और बुर्जुआ, पेटी बुर्जुआ, रिवीजनिस्ट, प्रतिक्रियावादी, होमोसेपियंस, लाल सलाम आदि नए-नए शब्द जुड़े मेरे शब्दकोश में और इन्हीं के साथ-साथ परिचय के फैलते दायरे में जुड़ा सचिन-संघमित्रा का परिवार, जहाँ अकसर ही मेरी शामें गुज़रने लगीं। उनके पिता 'कल्याणी सेनिटोरियम' में क्षय का उपचार करा रहे थे और उनकी अनुपस्थिति हमारे लिए वरदान साबित हो रही थी। कभी-कभी हमारे वाद-विवाद अतिरेक में इतने तीव्र हो उठते कि बग़ल के कक्ष में पढ़ती हुई संघमित्रा ग़ुस्से से उफनती हुई, भड़भड़ाकर किवाड़ खोलकर, धम-धम पाँव पटकती हुई हमारे बीच खड़ी होती, ''आई से स्टॉप दिस नॉनसेंस! अपने कैरियर के साथ-साथ मेरा कैरियर भी ले डूबेगा। बुलबुल!'' सचिन को वह उसके बुलाने वाले नाम 'बुलबुल' से ही बुलाया करती थी। ...और हम सन्नाटा खींच लिया करते। वार्तालाप की चिंदियाँ बिखर जातीं।

    वह मेडिकल की ओर मेधावी छात्र थी, सचिन से एक साल बड़ी होने का लाभ उठाकर गार्जियन की तरह डाँटा करती। इम्तिहान वग़ैरा के चक्कर होते तो वह दरवाज़े पर खड़ी-खड़ी हमारी बातें सुनती और मूड में आने पर हमारी पूरी बटालियन पर अकेले ही तिलमिला देने वाला सधा वार करती, जो अपना कैरियर नहीं बना सका, वह सोसाइटी और देश का क्या बनाएगा?'

    “दीदी, तूमी बूझबेना। एइजे पूँजीवादी, सोमोन्तोवादी शिक्षा-व्योवस्था...!”

    “चुप कोर! प्रोतिभा थाकले जे कोने जाएगा थेके स्कोप कोरे नेवा जाए आर ना थाकले...”

    “थाक! थाक!”

    और दोनों भाई-बहन मुँह फुला लिया करते।

    उन दिनों संघमित्रा को मैं कनखियों से देख लिया करता और यदाकदा वह इसे मार्क कर लिया करती। मगर किसी बेतकल्लुफ़ी के अभाव में उसका अस्तित्व मेरे मन में अँखुआ नहीं पाया था। आख़िर वह झिझक भी टूट गई 'दीघा' की पिकनिक पर। वहाँ पहली बार मैं उसके व्यक्तित्व के सौंदर्य के घटक पर अभिभूत हुआ।

    मैं पानी के अंदर जाने से डर रहा था और वह ताने दे बैठी थी, 'यह हिम्मत है और चले हो बग़ावत करने!' मैंने बताया, 'मेरी मम्मी को किसी साधु ने बताया था कि मेरी मौत पानी में होगी। इसीलिए वहाँ पास ही गंगा और यहाँ गोलदीघी के पास रहकर भी तैरना सीख नहीं सका आज तक।' वह हँसते-हँसते गिर पड़ी थी मेरे बदन पर, “...ओह! ...ओह!! ...डोंट माइंड!” फिर सचिन को इशारा करते हुए बोली, 'एई जे तुमार 'जोद्धारा' ...की बोलो तोमारा ...लाल सिपाई!' सचिन अपनी शिकस्त से उबरने के लिए बोला, 'दीदी कितनी बड़ी ‘जोद्धा' है... जानते हो? पहली बार लैब में मुर्दे की चीर-फाड़ देखकर बेहोश हो गई थी।'—'सच!' मैंने चिढ़ाया तो वह छिछले पानी में मुझे ढकेलती हुई मारने दौड़ पड़ी।

    “सत्ता पा जाने पर तुम भी वैसे ही ढल जाओगे... जे जाय लोंका, सेइ होय रावोन!” आँचल निचोड़ते हुए वह कहने लगी, “देखती हूँ, बड़े आए हो ख़ूनी क्रांति करने वाले, समाज और व्यवस्था बदलने वाले, डिस्पैरिटी मिटाने वाले! अरे, मैं कहती हूँ, चूल्हे में डालो मार्क्स, लेनिन, माओ, चाओ को! आदमी अपनी प्रवृत्ति से ही हिंसक होता है, अपराधवृत्ति ख़त्म करनी है तो जींस बदल डालो... जींस!”

    पूजा की छुट्टियों में घर आया तो पापा सारा-कुछ सूँघ बैठे थे। आते वक़्त उन्होंने साफ़तौर पर मुझे बता दिया कि पढ़ना है तो ढंग से पढ़ो, वरना छोड़कर चले आओ। मम्मी ने तो मुझसे आश्वासन ही ले लिया कि मैं अपने पाँव डगमगाने नहीं दूँगा। लेकिन कलकत्ता आने पर 'फिर बेताल डाल पर' वाली बात हो जाया करती। मैं भी जाता तो संघमित्रा मुझे हॉस्टल में ही बुलाने चली आती। मैं जब कहता, ''विरोक्तो कोरो रानी!'' (उसका पुकारने का नाम रानी था) तो वह ठिठोली कर बैठती, ''एसो आमार राजकुमार, एसो ना!'' और मेरी मोर्चाबंदी भरभराकर गिर जाती।

    मेरे साहित्यिक रुझान पर दोनों ही कुढ़ा करते। सचिन बिगड़कर बोलता, भावुकता, चेतना का अपव्यय है, डिस्ट्रैक्शन है। ये लफ़्फ़ाज़, कामचोर, माटी के शेर, क्रांति का साहित्य लिखने वाले इन लोगों को फ़ील्ड में ले जाया जाए तो पेशाब कर दें। इन सबों को खेतों और फ़ैक्टरियों में लगा देना चाहिए!' फिर वह वियतनाम, कंबोडिया, लाओस, कोरिया, चिली, क्यूबा, रूस, चीन आदि की बातें ले बैठता। संघमित्रा तो अकसर इससे भी बुरी खिंचाई पर उतर आती, “तुम्हारे जैसे नाइंटी परसेंट साहित्यकार घोर कामी, सुविधावादी और भ्रष्ट होते हैं। तुम तो विभीषण हो इस दल में... बन सकोगे मुकुंद दास... छेड़े दाउ बोंगो नारी, आर पोड़ो ना रेशमी चूड़ी... यू आर पेटी बुर्जुआ!”

    “देखते जाओ... मेरा पहला वार होगा मेरी हवेली पर...!” मैं कॉलर हिला दिया करता और इस पर दोनों हँस पड़ते।

    धीरे-धीरे सचिन की गतिविधियाँ बढ़ती गईं। इस बीच ‘ख़त्म करो' अभियान भी चल निकला। दो-एक बार वह मुझे भी उत्तरी बंगाल के ग़रीब किसानों के बीच व्यवस्था से मोहभंग कराने के उद्देश्य से ले गया। हड्डियों पर मढ़े हुए चाम। धँसी पनीली आँखें, मैले-चिथड़े, शोषण की जड़ तक देखती हुई मेरी दृष्टि पारदर्शी हो उठी। अगर मैं नक्सल नहीं हुआ तो संघमित्रा की वजह से, जो वहाँ से लौटने पर मेरी नज़र उतारने के लिए नेशनल म्यूज़ियम, ट्रॉपिकल मेडिसिन, ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़िज़िकल हाइजिन एण्ड मेडिकल साइंसेज़ या और नहीं तो गंगा के किनारे पड़े बैंचों पर बैठाकर मुझे जीवों और सभ्यता का विकास समझाया करती। बातों ही बातों में उसने एक दिन बताया था कि वह सचमुच खोज करना चाहती है जींस पर और एक उत्साही निरपेक्ष अध्यापक की तरह बिना लज्जा के जेनेटिक्स और मनुष्य के अंग-प्रत्यंग की बहुत-सारी बातें बता डाली थीं।

    सचिन ने बाद में क्लासें करना छोड़ ही दिया था। मैंने संघमित्रा से शिकायत की तो उसके आते ही वह फ़ट पड़ी, क्यों रुलाते हो बुलबुल! जानते हो, बाबा टी.बी. के पेशेंट हैं, मैं उन्हें यह सब बता नहीं सकती। इसीलिए न...!' लेकिन सचिन को रानी के आँसू रोक पाए, परिवार की ज़िम्मेदारी। थ्योरेटिकल परीक्षाओं में भी वह अनुपस्थित रहा तो आख़िरी पर्चा देते ही पता करने उनके घर जा पहुँचा। शाम की मरकरी नियोन की शोख़ बत्तियाँ जल उठी थीं सड़कों पर। मगर उस मकान में मात्र धुँधली रौशनी मातम-सी बरस रही थी।

    “दीदी तोमाके जेतेड़ होवे!' सचिन रानी से अनुनय कर रहा था, और हात-टा एक बारेकई उड़े गेछ। होय तो ब्लीडिंग होएई मारा जाबे।”

    “आर काउ के पाओ नी?” रानी बोली।

    “काउ के नीये गेले सोबी फास होये जाबे जे...”

    फिर मेरे कंधे पर हाथ रखकर, 'वेट टिल आई रिटर्न!' कहकर रानी जो गई तो आज तक इंतिज़ार कराती रही।

    बाद के चंद साल संक्रमण के साल रहे। टेररिस्ट सचिन पर तरह-तरह के मुक़दमों के फंदे लटक गए थे और संघमित्रा का नाम पार्टी के प्रवर संगठनकर्ताओं में गिना जाने लगा था। उसके विषय में तरह-तरह के मिथ प्रचलित हो चले थे... कि ख़ून करने में उसे कैसी ख़ुशी होती है!... अब फलाँ-फलाँ पूँजीपति, राजनेता, अफ़सर और पार्टी के विश्वासघातक उसकी सूची में है!... फलाँ-फलाँ घूसख़ोर अफ़सर और ऊँची फ़ीस लेने वाले डॉक्टर और वकील को तो धमकी का ख़त भी चुका है!... एक मुर्दे को चीरते देखकर बेहोश हो जाने वाली संघमित्रा कहाँ से कहाँ पहुँच गई थी!

    मेरी स्थिति कुछ विचित्र थी। पापा ने ज़बरदस्ती 'प्रेसिडेंसी' छुड़वा दिया था। साइंस छोड़कर, आर्ट्स लेकर सोशोलॉजी में मैं एम.ए. कर चुका था और कई तरह के संकर संस्कार मुझे आधा तीतर, आधा बटेर बनाकर छोड़ गए थे। घर की समृद्ध परंपरा छोड़कर मैं यूनियन लीडरी, समाज-सेवा और प्राध्यापकी-तीनों को ही अपने प्रयोग का क्षेत्र बनाए हुए था। संघमित्रा से मिलने के लिए मैंने टाटा के जादूगोड़ा के जंगल, आंध्र के जंगल और धान के खेत, मध्य प्रदेश के बीहड़... कहाँ के चक्कर नहीं लगाए। मगर तब तक शायद वह भावनाओं, आवेगों से ऊपर उठ चुकी थी। शायद मेरी यूनियन, सोशल सर्विस और लेक्चररशिप हताशा के ज़ख़्म को ढकने के साधन-मात्र थे। माँ ने साफ़तौर पर ऐलान कर दिया था कि मुझे हर हालत में उनके पास रहना है। इतनी बड़ी हवेली अकेले भाँय-भाँय करती है और मैं हर हालत में वहाँ बना हुआ था। पिताजी कूड़े से भी काम लायक़ चीज़ें निकाल लिया करते थे। यह उनकी बणिक-बुद्धि कहूँ या विलक्षण बुद्धिमत्ता, वह हर चीज़ को कैश कराना जानते थे। अपने स्वभाव के विपरीत मुझे उन्होंने आड़े-उलटे प्रोत्साहन देना शुरू किया। उनकी कृपा से प्रारंभिक चरणों में ही सफलताएँ मिलती गईं और अब मैं कई यूनियनों का अध्यक्ष बन बैठा था। लेकिन पापा के लिए ये मात्र मील के पत्थर थे, मंज़िल नहीं। उनका इरादा था कि आगामी चुनावों में मुझे कहीं से खड़ा करवा देंगे। शायद प्रांतीय या केंद्रीय नेतृत्व के सामने की पंक्ति में आने की जो रिक्तता मेरे अक्षय-वट परिवार में रह गई थी, वह मुझसे पूरी की जानी थी। लेकिन इन सबसे उदासीन रहकर जब मुझे अपनी लेक्चररशिप और यूनियन वग़ैरा में ज़ियादा व्यस्त पाने लगे तो एक दिन ब्रेनवाश के लिए मेरे सोशोलॉजी विभाग के हेड के हाथों एक नए पर्चे के रूप में उनकी नई योजना सामने थी।

    “इस पर साइन कर दो।” वो बोले।

    “यह क्या है?”

    “तुम्हें शोध करने की अनुमति देने के लिए दरख़्वास्त...मेरे गाइडेंस में।”

    “लेकिन...!” मैं उलझन में पड़ गया।

    “बिला वजह माथापच्ची कर रहे हो। विषय तुम्हारे परिवार के लोग रोज़ ही मथा करते हैं। तुम्हें बस इतना करना है कि पुरानी थीसिसें देख-सुनकर कुछ नए नोट्स जोड़कर लिख डालना है।”

    “कौन-सा विषय है?” मैं उत्सुक हुआ।

    “क्राइम!”

    जाने क्यों अंग्रेज़ी का यह शब्द सुनते ही बहेलिए द्वारा मिथुन-युगल क्रोंच को मारने की दर्दनाक और दहशत-भरी आवाज़ कानों में घुल उठती है...जैसे परिंदों के शोर से जंगल गूँज उठा हो और टप-टप ताज़ा रक्त टपक रहा हो।

    मैंने अतिरेक में उनका हाथ पकड़ लिया, “मैं करूँगा, ज़रूर करूँगा मगर एक शर्त... थीसिसें देख-सुनकर नहीं, स्वयं स्वतंत्र सर्वेक्षण और अध्ययन करके।”

    “ठीक है।” इस बार सामने बैठे पापा स्वयं बोल उठे। सामयिक रूप से मेरा ध्यान हटा पाने में सफल होकर वे राहत की नि:श्वास फेंक बैठे थे।

    अपराध और अपराधी की प्रकृति और प्रकार, व्यक्तिगत और परिवेशगत संस्कार और उद्दीपनाएँ, मनोवैज्ञानिक तथा समाजशास्त्रीय विवेचन और विश्लेषण करने हेतु मैं एक थाने से दूसरे थाने की फ़ाइलों में बिखरी आँकड़ों की सांख्यिकी में भटक रहा था कि एक दिन एक थाने के बाहर सचिन के पिता राखाल बाबू ने पकड़ लिया। वे काफ़ी बदहवास लग रहे थे। उन्होंने बताया कि... अभी-अभी सचिन को पकड़कर इसी थाने में ले आया गया है। बहुत मारा है, पुलिस ने... कहते हुए आँखों से आँसू गिरने लगे उनके। मैंने दारोग़ा को अपना परिचय देते हुए इस मामले में सहानुभूति बरतने का अनुरोध किया। दारोग़ा मुझे लिए-लिए अंदर आए। सचिन को उनके कमरे में ले आया गया। उन्होंने नीचे पाँव हिलाते हुए नेतानुमा आदर्शवादिता वाले अंदाज़-ए-बयाँ में कहा, “तुम लोग कल के भविष्य हो। मुझे युवा शक्ति का इस प्रकार अपव्यय होना बिलकुल पसंद नहीं। ये बिलावजह का ख़ून-ख़राबा और अपराधकर्म छोड़कर आदर्श नागरिक क्यों नहीं बनते?”

    सचिन, जिसके चेहरे पर पीटे जाने की स्पष्ट छाप थी, चुपचाप सीलिंग फ़ैन का नाचना देखता रहा। फिर नाक का ख़ून बाँहों से पोंछकर तिरस्कार-भरे स्वर में बोल पड़ा, “आपको यह बात समझ में नहीं आएगी दारोग़ाजी, आप अपने लड़के को भेज दीजिए, उसे समझा दूँगा।”

    दारोग़ाजी एकबारगी अप्रतिहत हो उठे। उन्होंने थूक निगला और कंधे उचकाकर झेंप झाड़ते-से बोले, “दैन आ'म हेल्पलेस!”

    वह थाना भैया के अधिकार-क्षेत्र में आता था। मैंने राखाल बाबू को यह आश्वासन देकर विदा किया कि भैया से कहकर सचिन के लिए कोई कोर-कसर उठा नहीं रखूँगा। भैया के पास पहुँचा तो उन्हें बात करने-भर की फ़ुरसत नहीं थी। कोई पार्टी चल रही थी वहाँ, किसी मंत्री के दौरे के बाद। संभवतः आमंत्रित मेहमान पुलिस विभाग के ही लोग थे। मेरा परिचय और रिसर्च का उद्देश्य जानते ही चर्चा उतर पड़ी पुलिस पर... कि विदेशों में पुलिस को कितना वेतन, अत्याधुनिक उपकरण और सुविधाएँ तथा सम्मान प्राप्त हैं।

    “मगर यहाँ की तरह वहाँ के पुलिस स्टेशन अपराध के ब्रीडिंग स्टेशन तो नहीं है!” मैंने हस्तक्षेप किया। मेरी बात को एक वरिष्ठ अधिकारी ने 'हो-हो-हो-हो' हँसकर उड़ाते हुए कहा, “अमाँ यार, हमीं पर सारी तोहमतें क्यों? हम तो नाचने वाले हैं, नचाने वाला कोई और है।”

    “कुछ इसी से मिलती-जुलती बात वे अपराधी भी कह रहे थे, जिनसे शोध के दौरान मैं मिला।”

    “क्या?” मेरी बात पर तक़रीबन सारे लोग मेरे आस-पास जमा हो गए थे।

    “कहते थे...हम तो वेश्या है। सब छुप-छुपकर मिलते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं।

    मगर बाहर शान दिखाने के लिए हमें गाली देते हैं।”

    “राइट! अब हमारा ही देखा जाए। एक ओर तो हमारी अक्षमता के लिए हमें कोसा जाता है, दूसरी ओर हमारे काम में टाँग अड़ाई जाती है। एक उदाहरण लीजिए—हमने किसी गुंडे को पकड़ा। अब हर गुंड किसी-न-किसी एम.एल.ए., एम.पी., सेक्रेटराया मिनिस्टर वग़ैरा का आदमी, या आदमी का आदमी निकल आता है। फ़ोन पर फ़ोन! आख़िर वह बेदाग़ छूट जाता है... फिर क्या रह गई हमारी इज़्ज़त! कभी-कभी तो ईमानदारी की क़ीमत हमें सस्पेंशन में चुकानी पड़ जाती है।”

    “एक तरफ़ कहेंगे, पुलिस को अपना आचरण बदलना चाहिए, दूसरी तरफ़ गंदे से गंदे काम के लिए इस्तेमाल करेंगे।” दूसरे कद्दावर अधिकारी ने कहा।

    “यानी पुलिस अपने ग़लत कामों के लिए स्वयं दोषी नहीं है... यही न?”

    इस पर एक सन्नाटा-सा खिंच गया। शराब के नशे में एक इंस्पेक्टर बहकने लगा, “अरे साब! सत्ता के इस थोड़े-से सुख में हमने अपना क्या-क्या नहीं गँवाया... जाति, धर्म, ईमान, सभ्यता, संस्कृति!... कहने को तो अपने थाने के सामने हमने भी लिखकर टॅगवा दिया है—“हम आपके सेवक हैं, हमारे योग्य कोई सेवा?” मगर सेवक की विनम्रता से काम करें तो हो गई छुट्टी। हमें ऑड, यूड, क्रूड बनकर स्लैंग। लैंग्वेजेज़ इस्तेमाल करनी पड़ती हैं, जल्लाद की तरह पेश आना पड़ता है, इसलिए एक अलग ही डिक्शनरी होती है हमारी, एक अलग ही आचार-संहिता होती है और अलग ही चरित्र होता है हमारा। सब-कुछ अलिखित, पर व्यावहारिक!”

    काफ़ी रात गए भीड़ छँटी तो भाभी ने टोका, “कब तक छुटुवा घूमते रहोगे सिद्धार्थ! तुम्हारी यधोधरा रानी कब आएँगी?”

    “रानी!” ज़ेहन में नाच उठी “रानी” ऐसो आमार राजकुमार, ऐसो ना...! एक मदिरिल सपना अंगड़ाई लेता हुआ पानी में रूपहले बिंब-सा थरथराया। सोचा, सचिन की बात भैया से शुरू कर दूँ, मगर इस बीच फ़ोन घनघना उठा और ऐसी बेवक़ूफ़ी करने से बच गया। भैया फ़ोन अटेंड करके आए तो कपड़े बदलने लगे, बोले, “तुम आए, कोई बात भी हो सकी और उधर बुलावा गया... कोई ख़ून हो गया है.... फ़ौरन पहुँचना है... कहाँ यह सोने की रात... ढीले कपड़े पहने वे मंत्री लोग सो रहे होंगे, जिनकी सुरक्षा-व्यवस्था के लिए सात दिनों से मुझे तथा डी.एम. को चैन नहीं था... और कहाँ ये पम्प-शू नुमा भारी बूट, क्रीज़दार चुभती पैंट और शर्ट, स्टार्स, बेल्ट, रिवॉल्वर वग़ैरा लेकर ख़ूनी डाकुओं, ख़तरनाक नक्सलियों के पीछे मारा-मारा फिरूँ... तुम्हें कैसे बताऊँ!”

    भाभी का मज़ाकिया मूड उखड़ चुका था। वे बोलीं, “देखो, अपने को बचाना। बाहर तुलसी-चौरा पर मत्था टेकते जाना!” और भैया, भाभी की आज्ञा का पालन करते हुए चले गए। एक मातमी तनाव तन उठा। भाभी बड़ी देर तक रुआँसी, उनकी ख़ैर मनाती हुई, जिस-तिस को कोसती रहीं... ये आठ-नौ सौ की तनख़्वाह पर रात-रात भर ख़तरनाक अपराधियों का पीछा करना... लानत है ऐसी नौकरी पर! ब्लैक करने वाले सेठ, महीने-भर में लखपति बनने वाले इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स, व्हीकल्स लाइसेंस वाले आराम से सो रहे होंगे। वे नेता तक किसी ख़रीदी हुई कनीज़ को चिपटाए, नर्म बिछौने पर सो रहे होंगे, जिनके लिए सारे प्रोग्राम साइडट्रैक करके उनकी सुरक्षा के लिए बैंड बजाने वालों की तरह ग़ुलाम बनकर आगे-पीछे चलना पड़ा। और वे... ऐसे में कहीं कुछ हो गया तो...? देवरजी, तुम चाहे कुछ भी बनना, पुलिस अफ़सर क़तई मत बनना।”

    शुक्र था कि भैया सुबह तक सही-सलामत गए। थकावट के बावजूद मूड अच्छा देखकर जाते-जाते मैंने सचिन की बात छेड़ ही दी। मैंने उसके निर्दोष और ईमानदार होने की बात कहकर सचिन की रिहाई की बात की तो उनका मूड उखड़ गया।

    “कल से ही देख रहा हूँ, मेरी नौकरी खाने पर तुले हो। इन चोर-डकैतों के लिए मैं हस्तक्षेप करूँ, तुम्हें हो क्या गया है?” वे घुड़क उठे।

    मन में तो आया कि पूछूँ, अगर किसी मिनिस्टर ने किसी गुंडे के लिए यही बात कही होती तो वे क्या करते! मगर चुप रह गया। बाद में सुना, एक पूरे के पूरे नक्सल गाँव को आग लगा देने के पुरस्कार स्वरूप उनकी तरक़्क़ी हो गई थी।

    याद आते हैं न्यायालयों के आँकड़े बटोरते वे भटकते हुए दिन। ग्राम पंचायतों के बने-बनाए फ़ार्मूलाबद्ध न्याय प्रहसन, दीवानी और फ़ौजदारी की रबर से भी लचीली और खिंचती हुई कार्रवाइयाँ। ऊँची कुर्सी पर बैठे अपनी तमाम ताम-झाम के बावजूद श्रीहीन जज, सरकारी और मुद्दई पक्ष के वकीलों के बहसने और विहँसने की कलाएँ। न्याय-मंदिरों के कितने ही मंज़र किसी डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म की तरह यादों के परदे पर उभरने लगते हैं... न्याय की प्रत्याशा में आगत... ऊबती, मुरझाती भीड़, मिठाइयों की दुकानों पर डकारती और ललकारती हुई नकली गवाहों की टोलियाँ, पुराने परचे और काग़ज़ातों के बंडल सँभाले अहलमद और मुनीम, रंडियों के दलालों की तरह आसामी फँसाते हुए वकीलों के दलाल, काले कोट पहने हुए वकीलों की चहलक़दमी, 'बीच-बीच में आसामी हाज़िर हो' की आवाज़ लगाता कोर्ट अर्दली, ड्रायर खोलकर दो-दो रुपयों पर फ़र्ज़ी मुक़दमों की तारीख़ बढ़ाते पेशकार।

    वे सर्दियों के दिन थे। कटखनी शीतलहर चल रही थी। मैं कचहरी के बाहर धूप में पापा के एक मित्र से बात कर रहा था कि एक रिक्शा रुका आकर मेरे पास। देखा तो जर्जर-क्लांत राखाल बाबू उतर रहे थे। काँपते हुए उन्होंने एक नज़र चारों तरफ़ का मुआयना किया, फिर एक कोने में मुझे ले आए।

    “बड़ी मुश्किल से मिले... कहाँ-कहाँ नहीं पता लगाया मैंने!”

    “कोई नई बात...?”

    “हाँ, सचिन का मुक़दमा तुम्हारे बाबा (पापा) के पास आए, ऐसी व्यवस्था मैंने कर ली है।”

    “अच्छा!”

    “बाक़ी तुम्हें देखना है। मैं मरने के पहले उसे निर्दोष देखना चाहता हूँ। मेरा बेटा, मेरी बेटी निर्दोष हैं।”

    “आपको सेनिटोरियम छोड़कर इस तरह नहीं आना चाहिए था, उनके लिए भी आपको ज़िंदा रहना है।” उन्हें रिक्शे पर बैठाकर मैं उसी दिन पापा के पास चला आया।

    पापा मुझे आया देखकर ख़ुश हुए। शोध के विषय में मेरी प्रगति पर संतोष ज़ाहिर करते हुए, 'न्याय' के प्रति मेरे दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए बोले, “देश-भर में जाने कितना अन्याय होता है और उसमें से जाने कितने पाते हैं हमारे पास और जाने कितनों का सही फ़ैसला कर पाते हैं हम! अब देखो, वकील न्याय के देवदूत हैं और इनका चरित्र...! जो जितने भयंकर अपराधी को, जितनी जल्दी निरपराध सिद्ध कर दे, वह उतना ही सफल वकील है। फिर जज का दिल और दिमाग़, न्याय की व्यवस्था भी कम करामाती नहीं है। एक कोर्ट से जो हार जाए, दूसरी कोर्ट से जीत जाता है। पेनलकोड में कई धाराएँ तक त्रुटिपूर्ण हैं।”

    “यानी न्याय वह तरल पदार्थ है जिसे जिस पात्र में ढाल दें, वैसा ही ढल जाएगा।”

    “साहित्य में तुम्हें ज़ोर आज़माना चाहिए।” पापा हँस पड़े थे।

    “और सोने और चाँदी के पात्रों में यह ज़ियादा शोभता है।” पापा की हँसी मुरझाने लगी। वे चौकन्ने हो गए, “कुछ कहना चाहते हो?”

    “पच्चीस तारीख़ को जिसका मुक़दमा आपकी आदलत में पेश होने वाला है, अपराधी नहीं है। मानवता के प्रति पूरी तरह निष्ठावान युवक है।”

    “यू मीन दैट नक्सलाइट?”

    “जी, चूँकि आप एक पिता है, अतः पिता के दिल का दर्द समझते हैं। टी.बी. से मरणासन्न पिता की एक ही ख़्वाहिश है कि वह अपने निर्दोष बेटे को निर्दोष बरी देखकर मरे।”

    पापा ने सिगार जला लिया। कुछ देर तक ख़ाली-ख़ाली आँखों से दीवारों पर देखते रहे, फिर एक सधी हुई आवाज़ में बोले, “बेटे, हम जिसे न्याय कहते हैं, वह तथ्य-सापेक्ष है, सत्य सापेक्ष नहीं है। तथ्य का प्रमाण स्वयं में सामर्थ्य-सापेक्ष है, अतः निर्णय लचीला होता है। हमारा तो यूँ जान लो, बस एक दायरा होता है... पुलिस एफ.आई.आर. प्रस्तुत करती है, चार्जशीट पेश करती है, गवाह होते हैं, अपराध के सबूत, अभियुक्त की सफ़ाई का दौर आता है, वकील होते हैं, कानून की किताबें होती हैं। इन सबमें से परत-दर-परत जो निष्कर्ष छन-छनकर आता है, हम वही निर्णय तो दे सकते हैं... और फिर तुम जिसकी सिफ़ारिश करने आए हो, उसका तो मुक़ाबला ही सत्ता से है, जो हमेशा न्यायपालिका पर हावी रहती है!”

    “यानी आपके सिद्धांत बाँझ है?”

    पापा गंभीर हो गए। बोले, “देखो, ख़ून मेरी रगों में भी बहता है, पर मैं तुम्हारी तरह मूर्ख और भावनाजीवी नहीं। तुम्हें मालूम नहीं होगा, सी.बी.आई. वाले कब के तुम्हारे विरुद्ध क़दम उठा चुके होते... बचते आए हो तो अपने जीजाजी के चलते। लेकिन यही रवैया रहा तो...आई फ़ाइनली वार्न यू टु मेंड योरसेल्फ!” बुझा सिगार फेंककर वह उठकर बेचैनी में चलने लगे और मैं सर पकड़कर बैठ गया।

    मुक़दमे का निर्णायक दिन भी गया। वकील के लाख समझाने के बावजूद सचिन ने एक शब्द तक कहा अपनी सफ़ाई में, सिवाय उस बयान के, जो जब भी यादों को कुरेदता है तो हर्फ़-दर-हर्फ़ विस्फोट करता शोलों के अंबार भर देता है ज़ेहन में, “मुझे इस पूँजीवादी, प्रतिक्रियावादी, न्याय-व्यवस्था में विश्वास नहीं है। आम जनता भी जिसे न्याय का मंदिर कहती है, वह लुटेरों, पंडों और जूता-चोरों से भरा पड़ा है। यहाँ आते ही चपरासी, अहलमद, नाज़िर, पेशकार, क़ानूनगो से लेकर काला लिबादा ओढ़े वकील और गीता तथा गंगाजल की क़समें खाकर झूठी गवाहियाँ देने वाले गवाह, ये तमाम कुत्ते नोचने-खसोटने लगते हैं उसे। ये लाल थाने, लाल जेलखाने और लाल कचहरियाँ... इन पर कितने बेक़सूरों का ख़ून पुता है। वकीलों और जजों का काला गाउन जाने कितने ख़ून के धब्बों को छुपाए हुए है! परिवर्तन के महान रास्ते में एक मुकाम ऐसा भी आएगा, जिस दिन इन्हें अपना चरित्र बदलना होगा, वरना इनकी रोबीली बुलंदियाँ धूल चाटती नज़र आएँगी!”

    वकील ज़ोरों से चीख पड़ा, “योर ऑनर, दिस इज क्लियरली कॅण्टेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट!”

    बाहर शोर मच गया। जज की कुर्सी पर बैठे पापा चीख पड़े, “ऑर्डर! ऑर्डर!!” और मुद्दई पक्ष का वकील सचिन को पागल साबित करने में लग गया, ताकि उसे बचा सके।

    सचिन को अपराधी करार देते हुए सज़ा हो गई। फ़ैसला सुनते ही मेरे पास ही बैठे राखाल बाबू फफक-फफक कर रो पड़े। मुझे याद है, मैंने उन्हें सहारा देकर रिक्शे पर बैठाया था। बाद में हमने सुना कि जेल से जाते समय, रास्ते में ही पेशाब करने के बहाने, जंगलों में सचिन ऐसा ग़ायब हुआ कि पुलिस ढूँढ़ती रह गई। रोग और चिन्ता से जर्जर राखाल बाबू यह सदमा बरदाश्त कर पाए और 'रानी' और 'बुलबुल' को निर्दोष देखने का सपना लिए हुए ही दुनिया से चले गए। पुलिस उनकी मृत्यु के दो दिन बाद तक सेनिटोरियम के चारों ओर सादे लिबास में घूमती रही, मगर रानी आई, ना बुलबुल! लाश जब सड़ने लगी तो पुलिस की मदद से सेनिटोरियम वालों ने ही उसकी अन्त्येष्टि की।

    और अब नारी-निकेतन, बाल अपराध सुधार-गृह, रिफ़ॉर्मेटरीज़ होते हुए कारागृह! ऊँची-ऊँची दीवारें, सलाख़ोंदार मज़बूत फाटक, अपराधी-क़ैदियों का समुद्र! कोने-कोने पर ऊँचे मचानों पर बंदूक़ साधे ऊँघते सिपाही! विभिन्न सूत्रों से पता लगा था कि सचिन नाम का एक बंगाली युवक और संघमित्रा नाम की एक औरत, कुछ दिन हुए ट्राँसफ़र होकर, सेंट्रल जेल में आए हैं। जल्द ही मैंने शोध के निमित्त सेंट्रल जेल जाने की अनुमति प्राप्त कर ली।

    विशाल रक़बे में बिखरी दुर्भेद्य बदसूरत दीवारों से घिरी केंद्रीय कारा! कारा अधीक्षक, जो मेरे मजिस्ट्रेट भैया के मित्र थे, मुझे बताते चल रहे थे, यह जेल भारत की सबसे बड़ी जेलों से एक सेल्यूलर जेल है। साइकिल स्पोक्स की आकृति में फैले हुए सेल धुरी पर केन्द्रीभूत हो उठते हैं, जहाँ से कंट्रोल टावर इन सब पर निगरानी रख सकता है। ये रहे कारख़ाने... कपड़े, दरियाँ, काठ और लोहे के छिटपुट सामान बनाते हुए, ये रही लायब्रेरी, वह रहा मेडिकल, यह रहा पागलों का दड़बा, यह विशाल भीड़, जो देख रहे हो... ये रहे हाजती। उधर उन अलग-अलग क़तारों में रहते हैं स्टेट प्रिजनर्स... बड़े-बड़े नेता, विद्वान, लेखक रह चुके हैं यहाँ!' एक नज़र मेरे ऊपर पड़े प्रभाव का मुआयना करके वे फिर शुरू हो गए, “ये पार्टीशन जनाना सेल के लिए है। कोई पसंद आए तो बोलना।” अपने ही मज़ाक पर वे 'खीं-खीं' करते हुए हँस पड़े और दीवार के पास मेरी कल्पना में संघमित्रा उभरने लगी... मगर तत्क्षण ही स्वराघात से टूट गई।

    “यह रहा 'टी-सेल'... सबसे ख़तरनाक अपराधी यहाँ रखे जाते हैं। किस प्रकार के कितने क़ैदी हैं, उनकी संख्या तुम्हें इस सूची से मिल जाएगी।” उन्होंने दीवार पर टॅगी सूची की ओर इशारा किया, “ये जगह-जगह टँगी हुई हैं। मुझे, अफ़सोस है, तुम्हें हम फाँसी के किसी क़ैदी से नहीं मिलवा सकेंगे।” हँसते हुए उन्होंने सूची में मृत्युदंड दंडित क़ैदियों के आगे इशारा किया, वहाँ क्रॉस लगा हुआ है। कंट्रोलिंग टावर पर से उन्होंने मुझे दूर स्थित फाँसी के मंच और वीरान कंडेम्ड सेल भी दिखाए।

    “कहाँ-कहाँ जाना है, क्या-क्या सवाल कर सकते हो, इसकी शर्तें तुम्हें दी जा चुकी है, फिर भी एहतियात के तौर पर बता दूँ, सेल नंबर 15, 16, 17 में मत जाना... नक्सली सेल है।'

    कुछ ही दिनों में उन सबसे ऊब गया। सफ़ेद धोती, हाफ़ क़मीज़, टख़नों तक का पाजामा...मेरी पारदर्शिनी नज़र इनमें अपराध के चिन्ह ढूँढ़ने में असफल रही। यह सवाल बराबर कोंचता रहा कि आख़िर कौन-सी मजबूरी है कि लोग अपराध में प्रवृत्त हो जाते हैं... और वह कौन-सी विभाजन-रेखा है, जिसके तहत ये शिनाख़्त किए जा सकते हैं। सारा मामला सरसों में भूत जैसा विरोधाभासों से ग्रस्त था। नारी निकेतन, बाल अपराध सुधार-गृह और रिफ़ॉर्मेटरीज़ के सिद्धांतों और आचरणों में गहरी खाई थी। क़ैदियों के नाम पर मिलने वाला राशन खाते हुए जेल के कर्मचारी, के भेंट बन-बनकर राज करते हुए धाकड़ दादा क़ैदी, उसके तथा जेल के ज़रख़रीद ग़ुलाम बने रिसते और पिसते हुए पिद्दी क़ैदी, वही वर्ग-विभाजन, वही वर्ण-विभाजन, जेल की बदसूरत ऊँची प्राचीरों में घुटकर रह जाने वाली यातनाओं की चीख़ें और अलमारियों में क़रीने से सजी, पर जाले की ज़ंजीरों में बँधी जेल मैनुअल्स की पोथयाँ! वह सेल्यूलर जेल मुझे मकड़ी के जाले जैसा लगा। रेशे-रेशे में बिंधे थे इंसान और बीच में मकड़ी के स्थान पर खड़ा था कंट्रोलिंग टावर!

    जज़्बातों की तरह जलते हुए दिन क़ैदियों के समुद्र में डूबते-उतराते, संतरण करते हुए बुझ रहे थे और दुःस्वप्नों जैसी नाउम्मीद लंबी रातें पुलिस मैनुअल्स, जेल मैनुअल्स, सोशोलॉजी, साइकोलॉजी, आँकड़ों, ग्राफ़ों में तिरोहित हो रही थीं। मेरी एक खोज पूरी हो रही थी और एक का कूल-किनारा भी नज़र नहीं रहा था। डेस्परेट होकर एक दिन जेल सुपरिटेंडेंट के दफ़्तर में जा पहुँचा। वे उस समय एक नवागत नक्सली क़ैदी से जाने क्या उगलवाने के चक्कर में परेशान हो रहे थे। मेरे सामने एक ही ज़ोरों का मुक्का उसके जड़ों पर पड़ा और उसका चश्मा दूर जा छिटका। वे फिर से बड़ी निर्दयतापूर्वक उसके बालों को पकड़कर नचाने लगे। मुझे देखा तो वापस ले जाने का हुक्म देकर बैठ गए। नक्सली युवक अपना ख़ून पोंछने की बजाय अपना चश्मा टटोलने लगा। चश्मे के अभाव में उसकी स्थिति अंधे जैसी हो रही थी। मुझसे रहा गया। मैंने स्वयं चश्मा उठाकर उसे दिया, तो पता चला, उसके काँच दरक चुके थे।

    “साले ने मूड ऑफ़ कर दिया। हाँ, तुम कहो अपनी...” जेल अधीक्षक प्रकृतिस्थ होने की कोशिश में मुस्काए।

    “मुझे संघमित्रा और सचिन से मिलना है... ज़रूरी तफ़तीश के लिए।”

    “सचिन से तो नहीं मिल सकते, ऊपर से बिना अनुमति प्राप्त किए। हाँ, संघमित्रा को बुलवाए देता हूँ।” उनके हुक्म पर थोड़ी देर में एक मेट एक युवती को लेकर उपस्थित हुआ।

    “लो, गई!” वे भद्दे अंदाज में मुस्कुराए।

    “इसे वापस पहुँचाने को कह दीजिए।” मैं झुंझला पड़ा, “मुझे जिस संघमित्रा की तलाश थी, वह यह नहीं।”

    “बड़ा संगीन अपराध किया है उसने तुम्हारे साथ... ऐसा लगता है। मगर तुम उसे जेल में क्यों ढूँढ़ते फिर रहे हो?”

    “फिर बताऊँगा कभी।” निराशा में मेरे होंठ जड़ हो रहे थे। संघमित्रा मेरे लिए अब भी मरीचिका ही थी।

    आख़िर वे क्षण गए, जबकि प्रतिबंधित सेलों का तिलिस्म सैलाब बनकर जेल की दीवारों के बाहर बहने लगा। दीवाली की रात थी वह। क्रेकर और आतिशबाज़ियाँ छूट रही थीं। मगर जेल के अंदर भला क्यों...? और वह दहशत-भरी पगली घंटी पर पगलाता हुआ पुलिस दस्ता! अंदर के कई फाटक तोड़कर नक्सली अब सदर फाटक पर बम बरसा रहे थे। पुलिस के सिपाहियों ने कई एक को ज़मीन पर सुला दिया, मगर वे सामूहिक रूप से पुलिस दस्ते से भिड़ गए और थोड़ी ही देर में बंदूक़ें उनके हाथों में थीं। लगा कि फाटक अब टूटा कि तब। तभी हमने देखा, क़ैदियों की विशाल भीड़, जो बंदूक़ों और अन्य शस्त्रों से लैस थी, नक्सली क़ैदियों पर टूट पड़ी। सदर दरवाज़े के ऊपर के दो मंज़िलों की खिड़की से मैंने वह रोंगटे खड़े कर देने वाली क़ैदियों की लड़ाई देखी। थोड़े ही देर में फूलों और सब्ज़ियों की क्यारियाँ, बजरी की सड़कें लाशों और घायलों से पट गईं। माइक से जब यह ऐलान किया गया कि बाक़ी क़ैदी नक्सल क़ैदियों को उनके सेलों में पहुँचाकर, अपने-अपने वार्डनों के पास गिनती के लिए चले जाएँ, तो घायल और बचे-खुचे नक्सली क़ैदियों को ढोर डंगरे की तरह मारते और हाँफते हुए क़ैदी लौट पड़े।

    थोड़ी देर बाद अधीक्षक महोदय के दफ़्तर में प्रतिबंधित नक्सली सेलों का एक वार्डन पूरी कहानी बताने लगा, “गश्त का सिपाही जमुनालाल जब एक नक्सल क़ैदी नं. सात सौ पचहत्तर...” मैं चौंका, 'सचिन!' 'जो भी हो' उसने बात आगे बढ़ाई, “उसके कमरे को संदिग्ध जान खोलकर देखना चाहा तो उसने जंजीर बँधे हाथों का फँदा लगाकर उसके गले को कस दिया। फिर उसकी जेब से चाबी निकालकर सेल नं. सत्रह को आज़ाद कर दिया। इसी तरह शायद और सेल भी... दीवाली की रात होने के नाते थोड़ी ग़लतफ़हमी भी हुई। साब, अगर मेट ने चालाकी करके बिना पूछे ही तमाम ख़तरनाक अपराधियों को नहीं छोड़ दिया होता, उन्हें ठंडा करने को, तो नाक कट ही गई होती।”

    “स्टील टर्निंग्स तो लेथ और ड्रिल मशीनों से उन्होंने बरामद किया होगा, मगर पिक्रिक एसिड, पोटाश वग़ैरा...??” बम के एक खोल को देखते हुए अधीक्षक ग़ुस्से से पागल हो गए। डर के मारे लोग सन्नाटे में गए। वे दहाड़ने लगे, “पुलिस की ज़ात साली ठीक ही घूस के लिए बदनाम है। ज़रा-से पैसों के लिए साले बिक गए, वरना जहाँ परिंदा तक पर नहीं मार सकता, वहाँ बम जाए!” धीरे-धीरे लोग खिसक गए। मृत और घायलों को शहर भेज दिया गया और दीवाली की रात मातम की काली रात बनकर डसने लगी हमें। बचपन में यदा-कदा दूर से काली मंदिर की पाठशालाओं को देखा करता था, जहाँ गुरुजी लड़कों से ही श्रेष्ठ हुआ करते थे। और यहाँ चोर, डाकू, व्यभिचारी, सज़ायाफ़्ता क़ैदी, बुद्धिजीवी नक्सलियों को पीट रहे थे। मुझे अपराध और अपराधी का वृत्त फैलता-सा लगा। मन रुआँसा हो चला, खाना गले से नीचे उतरा, किसी से बात ही करने को जी चाहा। तन और मन की हरारत टाइफ़ाइड में तब्दील हो गई और मैं एक लंबे अरसे तक बीमारी से निबटने और स्वास्थ्य-लाभ करने में लगा रहा। इस बीच मेरे गाइड 'हेड साहब', शोध को देखकर, 'यूनीक' क़रार दे गए थे। जेल अधीक्षक मेरे पापा के प्रभाव के कारण मुअत्तल होने से बच गए थे। उनकी कृपा से प्राँत की सारी जेलों की महिला क़ैदियों की सूची मैंने देख ली थी। संघमित्रा का पता नहीं चल सका था। शोध का काट समेटने की गरज़ से, जिस दिन पुनः केंद्रीय कारा पहुँचा, तो पापा की जल्दी वापस जाने की हिदायती चिट्ठी और नक्सली सेलों में एक बार जाने की अनुमति-पत्र साथ ही मिला।

    मेरे प्रतीक्षित दिवस का एक-एक दृश्य टँगा है आँखों के सामने। मेरे साथ-साथ पुलिस का एक सिपाही, सेल नं. सत्रह का वार्डन और मेट भी चल रहे थे। मेरे हाथों में शोध की फ़ाइल थी। सारे के सारे क़ैदी जवान थे और निचुड़े चेहरों के बावजूद मस्त थे। वे हमें देखकर अजीब ढंग से सीटियाँ बजा रहे थे। कुछ पूछने पर कहते, “कहाँ का पिल्ला टहल रहा है?” बहनोई खोजने चला है शायद!... यह चलेगा...?

    मेट बताने लगा, “इन्क्वायरी कमीशन के सामने भी इनकी यही गंदी हरकतें रही। आप सोच सकते हैं, उसमें क्या हुआ होगा” एक कमरे के सामने रुक गया वार्डन। सलाख़ोंदार फाटक के अंदर से झाँकते सचिन को मैं सहसा पहचान पाता, अगर वार्डन ने बताया होता। उसके हाथ-पाँव ज़ंजीरों से बँधे थे। बढ़े हुए रूखे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, कोटरों में फँसी जलती आँखें और बढ़े हुए नाख़ून... कुल मिलाकर कोढ़ियों की शक्ल दे गए थे। आत्मीयता में डूबते-उतराते मैं बोल पड़ा, “सचिन, मुझे पहचानते हो, मैं...!”

    “हाँ-हाँ, पहचानूँगा क्यों नहीं... ख़ूनी जज का बेटा, लुटेरे और मक्कार एस.पी. और मजिस्ट्रेट का भाई, बदलते भ्रष्ट मंत्रियों के शाश्वत ग़ुलाम सेक्रेटरी का साला!”

    मैं किंचित अप्रतिभ हुआ, पर उसकी बात हँसकर उड़ा दी, “बुलबुल, सच मानो, मेरा कोई बुरा इरादा नहीं है, क्राइम पर शोध कर रहा हूँ। तुम्हारा एक इंटरव्यू...!!”

    “पूछो।”

    फ़ाइल खोल क़लम निकालकर पूरी गंभीरता से मैंने सवाल किया, “लोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए या अत्याचार के ख़िलाफ़ अस्त्र उठाते हैं, तुम लोग सामूहिक स्वार्थ और एक्सप्लायटेशन के ख़िलाफ़... मगर करते हो तुम भी अपराध ही। क्या हिंसा से हिंसा को और नफ़रत से नफ़रत को दबाया जा सकता है?” सवाल के शेष होते होते उसने अभद्रता से पाद दिया। मैं भिन्ना उठा। मुझे नफ़ासत सिखाने वाला सचिन क्या यही था! मैं बिफर पड़ा, “मेरा अपमान करने से सवाल नहीं टल जाएगा बुलबुल, तुम लोग किसी पर तो विश्वास करोगे...! यह संशय का महाभारत कब तक?”

    “माफ़ करना यार, इतना गरिष्ठ सवाल सुनकर पेट में ज़रा गैस हो गई थी। इतनी भारी बातें पच नहीं पातीं?” फिर उसने लहजा बदलते हुए पूछा, “तो तुम पी.एच.डी. पाओगे न?”

    “हाँ!” मैं उसके तेवर को तौलने लगा।

    “फिर कोई ऊँचा ओहदा...?”

    “शायद!”

    “ज़रा फ़ाइल देख सकता हूँ?”

    मैं पहले हिचका। मगर उसकी पुरानी अन्तरंगता का ख़याल करके फ़ाइल उसे दे दी, फिर मन की लालसा ज़बान पर आई, “बुलबुल, प्लीज बताओगे रानी कहाँ है?” मेरी बात जैसे उसने सुनी ही नहीं। फ़ाइल के पन्ने पलटते हुए बोल पड़ा, तो तुमने इतने विभिन्न प्रकार के अपराधियों और क़ैदियों का अध्ययन किया है?... वाह!... और यह दार्शनिक पक्ष... टैपेन, रेकबेस, मारिस, टैफ्ट, कोल्डराइन, प्लेटो... कमाल है! इत्ते-सारे आँकड़े, ग्राफ़्स, काम्पेरेटिव एंड रिलेटिव एनलिसिस... सर्वे... जेल में मिले इन लोगों से?”

    “हाँ!” मैं फूल गया अपनी प्रशंसा पर। मगर एकाएक उसे जैसे सन्निपात हो गया, “तो तुमने इतने क़ैदियों का अपमान किया है!... और इस अपमान को भुनाकर तुम सम्मानित होना चाहते हो!... इसीलिए यह दलाली और सवालों के चोंचले! तुम्हारी नीयत अपराध मिटाने की नहीं, उस पर फलने-फूलने की है! मैं पूछता हूँ, किसने तुम्हें आने दिया अंदर? इसे चिडियाख़ाना समझ रखा है क्या? इजंट टोटली इन्ह्यमेन टू एंज्वाय एंड कैश प्रिज़नर्स ट्रेजडी? इजंट मोस्ट हीनियस क्राइम... आई आस्क! आई वोट एलाउ यू!” ...उसने फ़ाइल उठा ली। हाथ की ज़ंजीरें झनक उठी... मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गईं।

    “रुको-रुको!” पीछे से कारा अधीक्षक आते हुए बोले, “मुझे मालूम नहीं था कि तुम इनके दोस्त हो। देखो, डोंट बी इंपेशेंट। अफ़सोस है, इतने संगीन अपराध तुमने किए हैं कि कोर्ट से कभी भी फाँसी का परवाना सकता है। तुम्हारे सामने तुम्हारे मित्र एक आदर्श हैं। तुम अपराध में प्रवृत्त हो और वह उससे निवृत्ति के उपायों पर शोध कर रहा है। अगर तुम अभी से भी रिपेंट करते हुए अपने आप को सुधारो तो राष्ट्रपति के पास मर्सी पेटीशन के तहत तुम्हें बचा लेने में हम कुछ उठा नहीं रखेंगे।” उनका इतना कहना था कि सचिन के मुँह का बलग़म उनके मुख पर ताले-सा जा चिपका और फ़ाइल मेरे मुँह पर। पन्ने-पन्ने छितरा गए और मैं पागलों की तरह जल्दी-जल्दी बटोरने लगा, अपनी अमूल्य निधि को।

    वार्डन दौड़कर पानी लाने चला गया और मेट और सिपाही, कहीं से दो छड़ लाकर लगे कोंचने और पीटने बेरहमी से उसे... जैसे सर्कस के किसी ख़ँखार पशु के अचानक हिंसक हो उठने पर सर्कस के नौकर किया करते हैं। वह 'घों-घों' करके चीत्कार कर रहा था। कारा अधीक्षक ने ही छुड़वाया होता तो शायद उसकी जान लेकर छोड़ते।

    सामान जीप में रखा जा चुका था। बस, कारा अधीक्षक की राह देख रहा था। जेलर को कुछ हिदायतें देकर उन्हें लौट आना था। यूँ और दिन होता तो जेल के अंदर ही उनसे मिल आता, पर उस घटना के बाद से मन कैसा कैसा हो गया था और बीच के तीन दिन, शोध के बिखरे कामों को तरतीब देने के उद्देश्य से, मैं अपने मँझले भैया के यहाँ गुज़ारकर आया था। कारा अधीक्षक उदास-सा चेहरा लिए आकर रुके मेरे पास, “जब तुम पहले-पहल आए थे तो मैंने मज़ाक किया था कि मुझे अफ़सोस है, फाँसी के क़ैदी से नहीं मिलवा सकूँगा तुम्हें... मगर तब नहीं जानता था कि जाते समय मज़ाक क्रूर सत्य बनकर सामने आएगा।”

    मैं चुपचाप ताकने लगा उन्हें।

    “सचिन को कंडेम्ड में ले जाया गया है। फाँसी तक वहीं रहेगा वह। मिलोगे नहीं उससे जाते समय?” उनकी आवाज़ भीगी हुई थी।

    मेरे होंठ थरथराए, पर आवाज़ नहीं फूटी। यंत्रचलित-सा उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। मैंने ग़ौर किया, मुख्यद्वार से कंट्रोलिंग टावर तक की सभी सूचियों में परिवर्तन कर दिया गया था—मृत्युदंड दंडित क़ैदी, कुल संख्या-एक।

    सचिन मुझे देखते ही सींखचों के पास गया, “आज शायद जा रहे हो?” पहल उसी ने की।

    ...

    “मेरी फाँसी तक नहीं रुकोगे? व्यवस्था की पीठिका पर टँगे मेरे वजूद के सवालिया निशान से कतराने लगा है तुम्हारा शोध!” उसकी व्यंग्य-भरी हँसी निरुत्तर कर गई मुझे। मैं निर्वाक्-निर्निमेष ताकता रहा उसे।

    “रानी को पूछ रहे थे उस दिन?”

    “हाँ!” मेरी सारी चेतना मिसट आई उसके सवाल पर।

    “शी हैड बीन ब्रूटली बूचर्ड लाँग एगो।”

    “कैसे?” मैं चीख़ पड़ा।

    “उसके गुप्तांग में रूल घुसाकर... मथकर मारा गया।”

    “ओह! ओह!!” करहाते हुए आवेग में मैंने सींखचों को पकड़कर झकझोर देना चाहा, मगर वे सर्द और सख़्त थे। आँखों के आगे अँधेरा छा गया। मेडिकल की मेधावी छात्रा, जेनेटिक्स पर रिसर्च करने का दम भरने वाली रानी, एक सामान्य पुलिस के हाथों...क्राइम! लगा, अभी-अभी क्रोंचवध हुआ है। फ़िज़ा में दूर-दूर तक दहशत-भरी दर्दनाक चीख़ें भर उठी है।

    इसके बाद कुछ वह बोल पाया, मैं। उसने मेरा कंधा थपथपाया... और पथराई आँखों से हम जुदा हो गए।

    जेल से अपनी एक पूरी दुनिया गँवाकर लौट रहा हूँ। पता नहीं पापा मेरे शोधकार्य को कैसे भुनाएँगे! मगर शोध अभी हुआ कहाँ पूरा! हाइड्रोजन बम के न्यूक्लियर फ़ीज़न की श्रृंखला की तरह अपराध का रक्तबीज़ फैलता ही जा रहा है... ठहराव? ट्रेन चली जा रही है और शोध के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं मेरे दिमाग़ में... अनाक्सिमेंडर काल्डरान के अनुसार क्या यही मान लेना होगा कि मनुष्य का सबसे बड़ा अपराध यही है कि जन्मा होने मात्र से वह दूसरे के अस्तित्व में बाधक है? प्लेटो ने यहाँ तक कहा है कि अपराध भी प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति ही कर सकते हैं। डारविन की थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन में ज़िंदा रहने के लिए सबलों, समर्थों का निर्बलों, असमर्थों पर यही अपराध-भरा संघर्ष नहीं है? हेगेल ने भी क्या संक्रमण और संधात के इसी नायकत्व को नहीं स्वीकारा? मार्क्स की वस्तु और क्रियाओं के घात-प्रतिघात की बात में इसी संघर्ष का दूसरा रूप नहीं है? आगे बढ़ने की अंधी दौड़ में कौन देखने जाता है कि कौन कुचला गया? शायद रानी ही ठीक कहती थी, अपराध ख़त्म करना है तो नस्ल ही बदल डालो।

    दिमाग़ नाना प्रकार के गड्डमड्ड विचारों से बजबजा उठा है। नाना प्रकार के दृश्यों के बुलबुले उठ-उठकर फूट रहे हैं। आँखों में पूरा का पूरा गाँव धू-धू करके जल रहा है, कंकालनुमा चेहरे किन्हीं अज्ञात पंजों से बचने के लिए बेतहाशा भागे जा रहे हैं, सहमी हुई, कोसती और मनौतियाँ करती भाभी, बड़े और बड़े होते हुए भैया तथा पापा के चेहरे, ठेंठते हुए पुलिस और गुंडे, डकारते हुए नकली गवाह, बाल पकड़ झटके जा रहे... पेट पकड़े नक्सलाइट युवक का दरका चश्मा! ठीक आँखों के सामने रानी तड़प-तड़पकर... ऐंठ-ढेंठकर मर रही है, सचिन को कोंच-कोंचकर मारा जा रहा है। शर्मिंदगी और संत्रास और मातम! इनके ऊपर धीरे-धीरे एक सवालिया निशान की तरह झूल रही है... फाँसी के फंदे में सचिन की लाश!

    मैं पसीना-पसीना हो उठता हूँ। स्वस्थ होने के लिए खिड़की खोलकर बाहर झाँकता हूँ तो लगता है, अँधेरे की सुरंग किसी रक्तस्नान प्रांतर में आकर विलीन हो चली है। गाड़ी धीमे-धीमे गंगा के पुल पर रेंग रही है। यानी चंद मिनटों में मेरे स्टेशन में दाख़िल हो जाएगी। सुबह की लाली से लाल हुई गंगा देखकर लगता है, आदिम पाषाण युग से ख़ून ही बहता रहा है इसमें! क्या है मेरी और मेरे शोध की सामर्थ्य और सीमा? अपराध की लप-लपाती बर्बर लपटों में...उन्हीं लपटों में, जिनमें आहुति बनकर लाखों करोड़ों निरपराध, निष्ठावान तेजस्वी आत्माएँ, मेरा मित्र, मेरी रानी तक समा चुके हैं, अपने हाथ सेंकने के सिवा यह है क्या? इससे बढ़कर गर्हित अपराध और क्या हो सकता है? कर सकूँगा मैं सत्ता, व्यवस्था और समाज के तमाम अपराधी पुर्ज़ों को जेल में? शायद नहीं, क्योंकि मैं पैरासाइट हूँ उनका, क्योंकि वे मेरे अपने पिता, भाई स्वजन, मित्र और औज़ार हैं। फिर यह शोध...? कितना गंदा मज़ाक है यह शोध! मेरे हाथ लहराते हैं और शोध की पूरी फ़ाइल छपाक से गंगा में जा गिरती है। लगता है, सीने पर पड़ा हुआ अपराध का पहाड़ फिसलकर जा गिरा है गंगा में।

    स्टेशन पर उतरते ही अगवानी के लिए आए विभागाध्यक्ष के साथ माँ को देखकर याद आता है...साधु ने शायद ठीक ही कहा था... कि मेरी मौत पानी में होगी!... पूरा भविष्य डुबा दिया है मैंने पानी में और विद्रूप में मेरे होंठ टेढ़े हो उठे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1980-1990) (पृष्ठ 37)
    • संपादक : लीलाधार मंडलोई
    • रचनाकार : संजीव
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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