लघु कथाएँ

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असग़र वजाहत

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    शेर

    मैं तो शहर से या आदमियों से डरकर जंगल इसलिए भागा था कि मेरे सिर पर सींग निकल रहे थे और डर था कि किसी-न-किसी दिन क़साई की नज़र मुझ पर ज़रूर पड़ जाएगी।

    जंगल में मेरा पहला ही दिन था जब मैंने बरगद के पेड़ के नीचे एक शेर को बैठे हुए देखा। शेर का मुँह खुला हुआ था। शेर का खुला मुँह देखकर मेरा जो हाल होना था वही हुआ, यानी मैं डर के मारे एक झाड़ी के पीछे छिप गया।

    मैंने देखा कि झाड़ी की ओट भी ग़ज़ब की चीज़ है। अगर झाड़ियाँ न हों तो शेर का मुँह-ही-मुँह हो और फिर उससे बच पाना बहुत कठिन हो जाए। कुछ देर के बाद मैंने देखा कि जंगल के छोटे-मोटे जानवर एक लाइन से चले आ रहे हैं और शेर के मुँह में घुसते चले जा रहे हैं। शेर बिना हिले-डुले, बिना चबाए, जानवरों को गटकता जा रहा है। यह दृश्य देखकर मैं बेहोश होते-होते बचा।

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    अगले दिन मैंने एक गधा देखा जो लंगड़ाता हुआ शेर के मुँह की तरफ़ चला जा रहा था। मुझे उसकी बेवक़ूफ़ी पर सख़्त ग़ुस्सा आया और मैं उसे समझाने के लिए झाड़ी से निकलकर उसके सामने आया। मैंने उससे पूछा, तुम शेर के मुँह में अपनी इच्छा से क्यों जा रहे हो?

    उसने कहा, वहाँ हरी घास का एक बहुत बड़ा मैदान है। मैं वहाँ बहुत आराम से रहूँगा और खाने के लिए ख़ूब घास मिलेगी।

    मैंने कहा, वह शेर का मुँह है।

    उसने कहा, गधे, वह शेर का मुँह ज़रूर है, पर वहाँ है हरी घास का मैदान। इतना कहकर वह शेर के मुँह के अंदर चला गया।

    फिर मुझे एक लोमड़ी मिली। मैंने उससे पूछा, “तुम शेर के मुँह में क्यों जा रही हो?

    उसने कहा, शेर के मुँह के अंदर रोज़गार का दफ़्तर है। मैं वहाँ दरख़्वास्त दूँगी, फिर मुझे नौकरी मिल जाएगी।

    मैंने पूछा, “तुम्हें किसने बताया।

    उसने कहा, शेर ने। और वह शेर के मुँह के अंदर चली गई।

    फिर एक उल्लू आता हुआ दिखाई दिया। मैंने उल्लू से सवाल किया।

    उल्लू ने कहा, “शेर के मुँह के अंदर स्वर्ग है।”

    मैंने कहा, नहीं, यह कैसे हो सकता है।

    उल्लू बोला, नहीं, यह सच है और यही निर्वाण का एकमात्र रास्ता है। और उल्लू भी शेर के मुँह में चला गया।

    अगले दिन मैंने कुत्तों के एक बड़े जुलूस को देखा जो कभी हँसते-गाते थे और कभी विरोध में चीख़ते-चिल्लाते थे। उनकी बड़ी-बड़ी लाल जीभें निकली हुई थीं, पर सब दुम दबाए थे। कुत्तों का यह जुलूस शेर के मुँह की तरफ़ बढ़ रहा था। मैंने चीख़कर कुत्तों को रोकना चाहा, पर वे नहीं रुके और उन्होंने मेरी बात अनसुनी कर दी। वे सीधे शेर के मुँह में चले गए।

    कुछ दिनों के बाद मैंने सुना कि शेर अहिंसा और सह-अस्तित्ववाद का बड़ा ज़बरदस्त समर्थक है इसलिए जंगली जानवरों का शिकार नहीं करता। मैं सोचने लगा, शायद शेर के पेट में वे सारी चीज़ें हैं जिनके लिए लोग वहाँ जाते हैं और मैं भी एक दिन शेर के पास गया। शेर आँखें बंद किए पड़ा था और उसका स्टाफ़ आफ़िस का काम निपटा रहा था। मैंने वहाँ पूछा, “क्या यह सच है कि शेर साहब के पेट के अंदर, रोज़गार का दफ़्तर है?

    बताया गया कि यह सच है।

    मैंने पूछा, कैसे?


    बताया गया, सब ऐसा ही मानते हैं।

    मैंने पूछा, क्यों? क्या प्रमाण है?

    बताया गया, प्रमाण से अधिक महत्त्वपूर्ण है विश्वास?

    मैंने कहा, और यह बाहर जो रोज़गार का दफ़्तर है?

    बताया गया, मिथ्या है।

    मैंने कहा, तुम लोग मुझे उल्लू नहीं बना सकते। वह शेर का मुँह है। शेर के मुँह और रोज़गार के दफ़्तर का अंतर मुझे मालूम है। मैं इसमें नहीं जाऊँगा। मेरे यह कहते ही गौतम बुद्ध की मुद्रा में बैठा शेर दहाड़कर खड़ा हो गया और मेरी तरफ़ झपट पड़ा।


    पहचान

    राजा ने हुक्म दिया कि उसके राज में सब लोग अपनी आँखें बंद रखेंगे ताकि उन्हें शांति मिलती रहे। लोगों ने ऐसा ही किया क्योंकि राजा की आज्ञा मानना जनता के लिए अनिवार्य है। जनता आँखें बंद किए-किए सारा काम करती थी और आश्चर्य की बात यह कि काम पहले की तुलना में बहुत अधिक और अच्छा हो रहा था। फिर हुक्म निकला कि लोग अपने-अपने कानों में पिघला हुआ सीसा डलवा लें क्योंकि सुनना जीवित रहने के लिए बिलकुल ज़रूरी नहीं है। लोगों ने ऐसा ही किया और उत्पादन आश्चर्यजनक तरीक़े से बढ़ गया।

    फिर हुक्म ये निकला कि लोग अपने-अपने होंठ सिलवा लें, क्योंकि बोलना उत्पादन में सदा से बाधक रहा है। लोगों ने काफ़ी सस्ती दरों पर होंठ सिलवा लिए और फिर उन्हें पता लगा कि अब वे खा भी नहीं सकते हैं। लेकिन खाना भी काम करने के लिए बहुत आवश्यक नहीं माना गया। फिर उन्हें कई तरह की चीज़ें कटवाने और जुड़वाने के हुक्म मिलते रहे और वे वैसा ही करवाते रहे। राजा रातदिन प्रगति करता रहा। 

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    फिर एक दिन ख़ैराती, रामू और छिदू ने सोचा कि लाओ आँखें खोलकर तो देखें। अब तक अपना राज स्वर्ग हो गया होगा। उन तीनों ने आँखें खोलीं तो उन सबको अपने सामने राजा दिखाई दिया। वे एक दूसरे को न देख सके।


    चार हाथ 

    एक मिल मालिक के दिमाग़ में अजीब-अजीब ख़याल आया करते थे जैसे सारा संसार मिल हो जाएगा, सारे लोग मज़दूर और वह उनका मालिक या मिल में और चीज़ों की तरह आदमी भी बनने लगेंगे, तब मज़दूरी भी नहीं देनी पड़ेगी, वग़ैरा-वग़ैरा। एक दिन उसके दिमाग़ में ख़याल आया कि अगर मज़दूरों के चार हाथ हो तो काम कितनी तेज़ी से हो और मुनाफ़ा कितना ज़्यादा। लेकिन यह काम करेगा कौन? उसने सोचा, वैज्ञानिक करेंगे, ये हैं किस मर्ज़ की दवा? उसने यह काम करने के लिए बड़े वैज्ञानिकों को मोटी तनख़्वाहों पर नौकर रखा और वे नौकर हो गए। कई साल तक शोध और प्रयोग करने के बाद वैज्ञानिकों ने कहा कि ऐसा असंभव है कि आदमी के चार हाथ हो जाएँ। मिल मालिक वैज्ञानिकों से नाराज़ हो गया। उसने उन्हें नौकरी से निकाल दिया और अपने आप इस काम को पूरा करने के लिए जुट गया।

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    उसने कटे हुए हाथ मँगवाए और अपने मज़दूरों के फिट करवाने चाहे, पर ऐसा नहीं हो सका। फिर उसने मज़दूरों के लकड़ी के हाथ लगवाने चाहे, पर उनसे काम नहीं हो सका। फिर उसने लोहे के हाथ फिट करवा दिए, पर मज़दूर मर गए।

    आख़िर एक दिन बात उसकी समझ में आ गई। उसने मज़दूरी आधी कर दी और दुगुने मज़दूर नौकर रख लिए। 


    साझा

    हालाँकि उसे खेती की हर बारीकी के बारे में मालूम था, लेकिन फिर भी डरा दिए जाने के कारण वह अकेला खेती करने का साहस न जुटा पाता था। इससे पहले वह शेर, चीते और मगरमच्छ के साथ साझे की खेती कर चुका था, अब उससे हाथी ने कहा कि अब वह उसके साथ साझे की खेती करे। किसान ने उसको बताया कि साझे में उसका कभी गुज़ारा नहीं होता और अकेले वह खेती कर नहीं सकता। इसलिए वह खेती करेगा ही नहीं। हाथी ने उसे बहुत देर तक पट्टी पढ़ाई और यह भी कहा कि उसके साथ साझे की खेती करने से यह लाभ होगा कि जंगल के छोटे-मोटे

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    जानवर खेतों को नुक़सान नहीं पहुँचा सकेंगे और खेती की अच्छी रखवाली हो जाएगी।

    किसान किसी-न-किसी तरह तैयार हो गया और उसने हाथी से मिलकर गन्ना बोया। 

    हाथी पूरे जंगल में घूमकर डुग्गी पीट आया कि गन्ने में उसका साझा है इसलिए कोई जानवर खेत को नुक़सान न पहुँचाए, नहीं तो अच्छा न होगा। 

    किसान फ़सल की सेवा करता रहा और समय पर जब गन्ने तैयार हो गए तो वह हाथी को खेत पर बुला लाया। किसान चाहता था कि फ़सल आधी-आधी बाँट ली जाए। जब उसने हाथी से यह बात कही तो हाथी काफ़ी बिगड़ा।

    हाथी ने कहा, “अपने और पराए की बात मत करो। यह छोटी बात है। हम दोनों ने मिलकर मेहनत की थी हम दोनों उसके स्वामी हैं। आओ, हम मिलकर गन्ने खाएँ।

    किसान के कुछ कहने से पहले ही हाथी ने बढ़कर अपनी सूँड से एक गन्ना तोड़ लिया और आदमी से कहा, आओ खाएँ।

    गन्ने का एक छोर हाथी की सूँड में था और दूसरा आदमी के मुँह में। गन्ने के साथ-साथ आदमी हाथी के मुँह की तरफ़ खींचने लगा तो उसने गन्ना छोड़ दिया।

    हाथी ने कहा, देखो, हमने एक गन्ना खा लिया।

    इसी तरह हाथी और आदमी के बीच साझे की खेती बँट गई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : अंतरा (भाग-2) (पृष्ठ 101)
    • रचनाकार : असग़र वजाहत
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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