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नाहि करब बर हर निरमोहिया
नाहि करब बर हर निरमोहिया।बित्ता भरि तन बसन न तिन्हका बघछल काँख तर रहिया॥
विद्यापति
ऐसी प्रीति कहूँ नहि देखी
ऐसी प्रीति कहूँ नहि देखी।जसुमतिसुत वल्लभसुत जैसी सेस सहस मुख जात न लेखी॥
गोविंद स्वामी
हम नहिं आज रहब यहि आँगन
हम नहिं आज रहब यहि आँगन जो बुढ़ होएत जमाई, गे माई।एक त बइरि भेला बीध बिधाता दोसरे धिया कर बाप॥
विद्यापति
काहू कौ बस नाहि तुम्हारी कृपा तें
स्वामी हरिदास
मन, तू पार उतर कहँ जैहौ
नहिं तहँ नीर, नाव नहि खेवट, ना गुन खैंचन हारा।धरनी-गगन-कल्प कछु नाहीं, ना कछु वार न पारा।
कबीर
दीन बंधु दीना नाथ मेरो तन हेरिये
ऐसा कोई मित्र नाहिं जाके ढिग जाइये॥सोने की सलैया नाहि रूपे का रुपैया नाहिं,
मलूकदास
सिद्धार्थ के मन पर बाह्म जगत् का प्रभाव
बोलि उठ्यो सिद्धार्थ 'अहो! बनकुसुम मनोहर।जोहत कोमल खिले मुखन जो उदित प्रभाकर॥
आचार्य रामचंद्र शुक्ल
निरखत अंक स्यामसुंदर के
हरि के लाड़ गनति नहि काहू निसिदिन सुदिन रासरसमाती।प्राननाथ तुम कब धौं मिलोगे सूरदास प्रभु बालसँघाती॥
सूरदास
के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास
के पतिआ लए जाएत रे मोरा पिअतम पास।हिए नहि सहए असह दु:ख रे भेल साओन मास॥
विद्यापति
तुझ पर बारी हो अणघड़िया देवा
तू पूरण ब्रह्म पुरुष प्रिथमी का, सूरति मूरति सारा।श्रवणां सुणयां न नैनां देख्या, तेरा घड़णौंहारा॥