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जिय की साध जिय ही रही री
जिय की साध जिय ही रही री।बहुरि गोपाल देखन न पाए बिलपति कुंज अहीरी॥
परमानंद दास
अवधपुरी घुमड़ि घटा रही छाय
अवधपुरी घुमड़ि घटा रही छाय।चलत सुमंद पवन पुरवाई नभ घन घोर मचाय॥
प्रताप कुंवरि बाई
आगैं गांइ पांछे गांई
आगैं गांइ पांछे गांई, इत-गाईं उत-गांईं,गोविंद कौं गांइनि में बसिबोई भावै।
छीतस्वामी
नात होती लराई दृगन में
नात होती लराई दृगन में, लाजहि बीच परी।घूँघट पट मेरौ सरकायौ, मुरली अधर धरी॥
गोस्वामी हरिराय
गाइ खिलावत सोभा भारी
नख-सिख प्रति बहु मोल के भूषन, पहिरत सदा दिवारी।फैलि रही है खिरक-सभा पै नगन-रंग उजियारी।
नंददास
मैया! हौं गाई चरावन जैहौं
ओदन भोजन दै दधि काँवरि, भूख लगे तैं खेहौं।सूरदास है साखि जमुन-जल सौंह देहु जु नहैहौं॥
सूरदास
परि गइ कौनहुँ भाँति
परि गइ कौनहुँ भाँति टेव यह कैसें के निरवारौं?सुख संतोष होत जिय जब हीं आनंद बदन निहारौं॥
बिहारिनिदेव
केते ह्वै जुग गे बिन देखें
केते ह्वै जुग गे बिन देखें।तरुण किशोर रसिक नंद नंदन कछुक उठति मुख रेखें॥
कुंभनदास
तोसौं लागि रहे पिय सुंदरी
तोसौं लागि रहे पिय सुंदरी, मान चल-चल उठि नारी।मान-गुमान करति, जोबन कौ गर्व तोहि,
बैजू
वसंत-वर्णन (दो) : रामचरितमानस
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चंचरीक पटली कर गाना॥सीतल मंद सुगंध सुभाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ॥
तुलसीदास
गावति गोपी मधु ब्रज-बानी
गावति गोपी मधु ब्रज-बानी।जाके भवन बसत त्रिभुवन-पति, राजा नंद जसोदा रानी॥
परमानंद दास
इहि मन कैसेकै रहै राख्यौ
इहि मन कैसेकै रहै राख्यौ।जिहि-मधुकर है गिरधर पिय कौ बदन कमल-रस चाख्यौ॥
कृष्णदास
नखरा राह रहा को नीको
नखरा राह रहा को नीको।इत तो प्रान जात हैं तुम बिनु तुम न लखत दुख जी को॥