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मधुरितु बृंदाबन आनंद न थोर
(जैश्री) ‘हितहरिबंस' हंस-हंसिनी-समाज।ऐसे ई करहु मिलि जुग-जुग राज॥
हितहरिवंश
देख सखि बरसन लाग्यो सावन
देख सखि बरसन लाग्यो सावन।गरजत गगन दामिनी चमकत रिझै लेहु मनभावन॥
गोविंद स्वामी
सुंदरि तुअ मुख मंगल दाता
तिल एक जघन सघन रब करइत होअल सैनिक भंग॥विद्यापति कवि ई रस गाबए जामुन मीललि गंग॥
विद्यापति
प्यारे, हम नहिं खेलें होरी
नए खिलार लाड़िले, मुख पै लै सपछावत रोरी।‘रूपरसिक’ ई जान परी अब, देखत हैं सब गोरी॥
रूप रसिक
जहाँ-जहाँ पद-जुग धरई
हेरइत से धनि थोर। अब तिन भुवन अगोर॥पुनु किए दरसन पाब। अब मोर ई दु;ख जाब॥
विद्यापति
जो कोई जात हुवै जसनाथी
अतरा ले हर दरगा आणी, पंथ बतावै जसनाथजी जाणी।मुरख हुंता पिंडत किया, ई करणी गत लाधै मुवा।
जसनाथ
अंकुर तपन ताप जदि जारब
अंकुर तपन ताप जदि जारब कि करब बारिद मेघे।ई नव जोबन बिरह गमाओब कि करब से पिया गेहे॥