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जुही की कली
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही—किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिए,
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
कोरोना समय में : एक अधूरी कविता
मन की आज़ाद राहों पर वह दौड़ती वह वक्र बंकिम चालउन्हीं आज़ाद सड़कों पर दिखेंगे
मृत्युंजय
स्पृहणीय चंद्रमा
या तुम्हारे बंकिम ओंठों से चले नावक के तीरों से आहत हो-होया तुम्हारी चाँदनी की शीतलता से,
मदन वात्स्यायन
भीतर कहीं हिलोरे लेता, निर्मल पानी केन का
कुछ ऐसी बंकिम चितवन से, यह योगी को हेरतीखिंचा चला जाता हूँ जैसे, बिन दामों का दास हो