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अकथ श्रमजीवन : न प्रवास, न पलायन
न प्रवास न पलायन बस विस्थापन-दर-विस्थापन,न प्रवासी न भगोड़े सिर्फ़ मिहनतकश अगुआ जन।
प्रकाश चंद्रायन
न हो सिद्धि, साधन तो है
न हो सिद्धि, साधन तो हैबुद्धि नहीं, न सही, पर मैंने पाया अपना मन तो है
मैथिलीशरण गुप्त
न कोई उम्मीद, न कोई...
कि फूल तो दूर, काँटे भी न चुभाता कोई...न ही यह चाहता हूँ कि कोई पाँच रुपए की एक क़लम
प्रांजल धर
कभी न लौटेंगे वे सपने
मैंने तुझे पुकारा, आई किंतु न तू फिर लौट,तू न हुई विचलित, मैंने थे बहुत बहाए अश्रु।
अलेक्सांद्र ब्लोक
जैसे चंडीदास या दांते ने जानी थी
चिर-अस्थिर उदात्त एक शांति,जैसे चंडीदास या दांते ने जानी थी?
विष्णु दे
होने, न होने के बीच की रेखा पर जीने लगा हूँ
होता जहाँ न वसंत कोई, न शिशिर और न ही पावस।तमाम अतीत रहे उसके
प्रांजल धर
मिले न उससे किसी रोज़ तो
मिलें न उससे किसी रोज़ तो ये लगता है,कि चार दिन की, ज़िंदगी का क्या किया जाए।