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बिम्बाहरि तणु रयण-वण
बिम्बाहरि तणु रयण-वणु किह ठिउ सिरि आणन्द।निरुवम-रसु पिएं पिअवि जणु सेसहो दिएणी मुद्द॥
हेमचंद्र
मधुकर! जदपि गुलाब-वन
मधुकर! जदपि गुलाब-वन, नित तू करत विलास।फिरि-फिरि चित चाहत तऊँ, अमल कमल को बास॥
मोहन
बृंदावन वन रसरीति रहै
बृंदावन रसरीति रहै बिचारत चित्त 'ध्रुव'।पनि जैहै वय बीति, भजिये नवलकिसोर दोउ॥
ध्रुवदास
वहै विराजत थल जहाँ
वहै विराजत थल जहाँ, बुध हैं सहित उमंग।लसै हेम जिहि अंग मैं, बसै प्रभा तिहि अंग॥
दीनदयाल गिरि
पतित वहै नास्तिक वहै
पतित वहै, नास्तिक वहै, रोगी वहै मलीन।हीन, दीन, दुर्बल वहै, जो जग अहै अधीन॥
वियोगी हरि
वही धर्म वही कर्म, बल
वही धर्म, वही कर्म, बल, वही विद्या, वही मंत्र।जासों निज गौरव-सहित, होय स्वदेस स्वतंत्र॥
वियोगी हरि
सुन्दर वाही वचन है
सुन्दर वाही वचन है, जा महिं कछू बिबेक।नातरू झेरा मैं पर्यौ, बोलत मानौ झेक॥
सुंदरदास
वाहि लखैं लोइन लगै
वाहि लखैं लोइन लगै, कौन जुवति की जोति।जाकैं तन की छाँह-ढिग, जोन्ह छाँह सी होति॥
बिहारी
फिरि-फिरि के वेही कहें
फिरि-फिरि के वे ही कहें, अरुच न न हुई रतिवात।नां निबटें नूतन लगें, अनुभों जानी जात॥
दयाराम
मधुर वीन-बिच-लीन करि
मधुर वीन-बिच-लीन करि, मृग मारत सर साध।यों सु रसिक-जीवन-हरन, नहिं सुहात मोंहि ब्याध!
मोहन
बार-बार बर विनय करि
बार-बार बर विनय करि, याचत श्रीसिय देहु।लोक उभय आसा रहित, निज पिय नाम सनेहु॥