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ब्रजदेवी के प्रेम की
ब्रजदेवी के प्रेम की, बँधी धुजा अति दूरि।ब्रह्मादिक बांछत रहैं, तिनके पद की धूरि॥
ध्रुवदास
प्रीतम इतनी बात कौ
प्रीतम इतनी बात कौ, हिय कर देखु बिचार।बिनु गुन होत सु नैकहूँ, सुमन हिए कौ हार॥
रसनिधि
प्रेम प्रेम सब को कहत
प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ।जो जन जानै प्रेम तौ, परै जगत क्यौं रोइ॥
रसखान
प्रेम प्रेम सब कोए कहै
प्रेम प्रेम सब कोउ कहै, कठिन प्रेम की फाँस।प्रान तरफि निकरै नहीं, केवल चलत उसाँस॥
रसखान
केसो दुबिधा डारि दे
केसो दुबिधा डारि दे, निर्भय आतम सेव।प्रान पुरुष घट-घट बसै, सब महँ सब्द अभेव॥
संत केशवदास
मारे मरै जु प्रेम के
मारे मरै जु प्रेम के, ढूँढ़ फिरत ही लाल।जिन घट वेदन विरह की, ते क्यौं जियैं जमाल॥
जमाल
प्रेम न खेतौं नीपजै
प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न दृष्टि बिकाइ।राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ॥
कबीर
प्रेम प्रेम सब ही कहत
प्रेम प्रेम सब ही कहत प्रेम न जान्यौ कोय।जो पै जानहि प्रेम तो मरै जगत क्यों रोय॥
भारतेंदु हरिश्चंद्र
भगत हेतु भगवान प्रभु
भगत हेतु भगवान प्रभु, राम धरेउ तनु भूप।किए चरित पावन परम, प्राकृत नर अनुरूप॥
तुलसीदास
कठिन पियाला प्रेम का
कठिन पियाला प्रेम का, पिए जो हरि के हाथ।चारों जुग माता रहे, उतरै जिय के साथ॥
मलूकदास
प्रेम-रसासव छकि दोऊ
प्रेम-रसासव छकि दोऊ, करत बिलास विनोद।चढ़त रहत, उतरत नहीं, गौर स्याम-छबि मोद॥
ध्रुवदास
पूरन प्रेम प्रकास के
पूरन प्रेम प्रकास के, परी पयोनिधि पूरि।जय श्रीराधा रसभरी, स्याम सजीवनमूरि॥
हरिव्यास देव
सुनि परमित पिय प्रेम की
सुनि परमित पिय प्रेम की, चातक चितवति पारि।घन आशा सब दुख सहै, अंत न याँचै वारि॥
सूरदास
कबीर यहु घर प्रेम का
कबीर यहु घर प्रेम का, ख़ाला का घर नाँहि।सीस उतारै हाथि करि, सो पैठे घर माँहि॥