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जोति सो हिये में जागी मैं तो जानी जैसी लागी
‘आलम’ रसाल नंदलाल सुनि जानि-मनि,मोंहि ऐसी कठिन सूदुहुँ दिसि की भई।
आलम
एक अलम-नसीब बेटे की कविता
मुक़द्दर में चूल्हा आया—दरअस्ल, कुछ और था ही नहीं माँ के लिए इस दुनिया के पास
आमिर हमज़ा
अलि पतंग मृग मीन दीन छवि
वृषभान सुता सम कहन कहँ, ‘आलम’ त्रिभुवन में जु कछु।यह मन वच क्रम कै जानियहु कहि कहिबी सो सवै तछु॥
आलम
लई छलु के हरि हेत छला
आलम
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दैहों दधि मधुर धरनि धर्यौ छोरि खैहै
‘आलम’ सुकबि मेरे ललन चलन सीखें,बलन की बाँह ब्रज गलिनि में डोलि हैं।
आलम
बिधु ब्रह्म कुलाल को चक्र कियो
आलम
बनिता बनि बेष चलीं थल को
आलम
अरविंद पुंज गुंज डोर भौंर ही व्रती हलोर
‘आलम’ कबित्त चित्त रास के विलास ते,प्रकाश वंदना करी बिलोकि बिस्व-बंदनी।
आलम
सोर भयो जो सरीस बिषे
आइ गये अवताली दोऊ कच छाप लये सिर स्याम सुहाई।‘आलम’ लाल गुपाल की सौं सिरदार भई तन में तरुनाई॥
आलम
किंकिंन कंकन कान मिलै बर
आलम
अति आतुर चातुर कान्ह रमै
अति आतुर चातुर कान्ह रमै तन में रस रासि नई सँचरै।कवि ‘आलम’ बाम बिहार बढ़ै सजनी सिख चित्त सबै बिसरे।
आलम
अँखियाँ भली जु ऐसे अँसुवनि धारैं
‘आलम’ संताप स्वेद सींचिवो अधार कौ हूँ,झूरी ह्वै कै देह फिर खेह ज्यों उड़ाति है।
आलम
पतियाँ पठाये अश्रुपात तौ भलै पै होत
‘आलम’ निरास बैन सुने कौन जोरै नैन,हिये को कठिन ऐसो कौन ब्रजबासी है।
आलम
लता−प्रसुन डोल बोल कोकिला अलाप केकि
‘आलम’ रसाल बन, गान ताल काल सी,बिहंग बाय बेगि चालि चित्त लाज लुँज की।