बस की यात्रा

bus ki yatra

हरिशंकर परसाई

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    हम पाँच मित्रों ने तय किया कि शाम चार बजे की बस से चलें। पन्ना से इसी कंपनी की बस सतना के लिए घंटे भर बाद मिलती है जो जबलपुर की ट्रेन मिला देती है। सुबह घर पहुँच जाएँगे। हम में से दो को सुबह काम पर हाज़िर होना था इसीलिए वापसी का यही रास्ता अपनाना ज़रूरी था। लोगों ने सलाह दी कि समझदार आदमी इस शामवाली बस से सफ़र नहीं करते। क्या रास्ते में डाकू मिलते हैं? नहीं, बस डाकिन है।

    बस को देखा तो श्रद्धा उमड़ पड़ी। ख़ूब वयोवृद्ध थी। सदियों के अनुभव के निशान लिए हुए थी। लोग इसलिए इससे सफ़र नहीं करना चाहते कि वृद्धावस्था में इसे कष्ट होगा। यह बस पूजा के योग्य थी। उस पर सवार कैसे हुआ जा सकता है!

    बस-कंपनी के एक हिस्सेदार भी उसी बस से जा रहे थे। हमने उनसे पूछा—यह बस चलती भी है? वह बोले—चलती क्यों नहीं है जी! अभी चलेगी। हमने कहा—वही तो हम देखना चाहते हैं। अपने आप चलती है यह? हाँ जी, और कैसे चलेगी?

    ग़ज़ब हो गया। ऐसी बस अपने आप चलती है।

    हम आगा-पीछा करने लगे। डॉक्टर मित्र ने कहा—डरो मत, चलो! बस अनुभवी है। नई-नवेली बसों से ज़्यादा विश्वसनीय है। हमें बेटों की तरह प्यार से गोद में लेकर चलेगी।

    हम बैठ गए। जो छोड़ने आए थे, वे इस तरह देख रहे थे जैसे अंतिम विदा दे रहे हैं। उनकी आँखें कह रही थीं—आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है, सो जाएगा—राजा, रंक, फ़क़ीर। आदमी को कूच करने के लिए एक निमित्त चाहिए।

    इंजन सचमुच स्टार्ट हो गया। ऐसा, जैसे सारी बस ही इंजन है और हम इंजन के भीतर बैठे हैं। काँच बहुत कम बचे थे। जो बचे थे, उनसे हमें बचना था। हम फ़ौरन खिड़की से दूर सरक गए। इंजन चल रहा था। हमें लग रहा था कि हमारी सीट के नीचे इंजन है।

    बस सचमुच चल पड़ी और हमें लगा कि यह गाँधीजी के असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों के वक़्त अवश्य जवान रही होगी। उसे ट्रेनिंग मिल चुकी थी। हर हिस्सा दूसरे से असहयोग कर रहा था। पूरी बस सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौर से गुज़र रही थी। सीट का बॉडी से असहयोग चल रहा था। कभी लगता सीट बॉडी को छोड़कर आगे निकल गई है। कभी लगता कि सीट को छोड़कर बॉडी आगे भागी जा रही है। आठ-दस मील चलने पर सारे भेदभाव मिट गए। यह समझ में नहीं आता था कि सीट पर हम बैठे हैं या सीट हम पर बैठी है।

    एकाएक बस रुक गई। मालूम हुआ कि पेट्रोल की टंकी में छेद हो गया है। ड्राइवर ने बाल्टी में पेट्रोल निकालकर उसे बग़ल में रखा और नली डालकर इंजन में भेजने लगा। अब मैं उम्मीद कर रहा था कि थोड़ी देर बाद बस-कंपनी के हिस्सेदार इंजन को निकालकर गोद में रख लेंगे और उसे नली से पेट्रोल पिलाएँगे, जैसे माँ बच्चे के मुँह में दूध की शीशी लगाती है।

    बस की रफ़्तार अब पंद्रह-बीस मील हो गई थी। मुझे उसके किसी हिस्से पर भरोसा नहीं था। ब्रेक फ़ेल हो सकता है, स्टीयरिंग टूट सकता है। प्रकृति के दृश्य बहुत लुभावने थे। दोनों तरफ़ हरे-भरे पेड़ थे जिन पर पक्षी बैठे थे। मैं हर पेड़ को अपना दुश्मन समझ रहा था। जो भी पेड़ आता, डर लगता कि इससे बस टकराएगी। वह निकल जाता तो दूसरे पेड़ का इंतज़ार करता। झील दिखती तो सोचता कि इसमें बस गोता लगा जाएगी।

    एकाएक फिर बस रुकी। ड्राइवर ने तरह-तरह की तरकीबें की पर वह चली नहीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया था, कंपनी के हिस्सेदार कह रहे थे—बस तो फ़र्स्ट क्लास है जी! यह तो इत्तफ़ाक़ की बात है।

    क्षीण चाँदनी में वृक्षों की छाया के नीचे वह बस बड़ी दयनीय लग रही थी। लगता, जैसे कोई वृद्धा थककर बैठ गई हो। हमें ग्लानि हो रही थी कि बेचारी पर लदकर हम चले रहे हैं। अगर इसका प्राणांत हो गया तो इस बियाबान में हमें इसको अंत्येष्टि करनी पड़ेगी।

    हिस्सेदार साहब ने इंजन खोला और कुछ सुधारा। बस आगे चली। उसकी चाल और कम हो गई थी।

    धीरे-धीरे वृद्धा की आँखों की ज्योति जाने लगी। चाँदनी में रास्ता टटोलकर वह रेंग रही थी। आगे या पीछे से कोई गाड़ी आती दिखती तो वह एकदम किनारे खड़ी हो जाती और कहती—निकल जाओ, बेटी! अपनी तो वह उम्र ही नहीं रही।

    एक पुलिया के ऊपर पहुँचे ही थे कि एक टायर फिस्स करके बैठ गया। वह बहुत ज़ोर से हिलकर थम गई। अगर स्पीड में होती तो उछलकर नाले में गिर जाती। मैंने उस कंपनी के हिस्सेदार की तरफ़ पहली बार श्रद्धाभाव से देखा। वह टायरों की हालत जानते हैं फिर भी जान हथेली पर लेकर इसी बस से सफ़र कर रहे हैं। उत्सर्ग की ऐसी भावना दुर्लभ है। सोचा, इस आदमी के साहस और बलिदान भावना का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इसे तो किसी क्रांतिकारी आंदोलन का नेता होना चाहिए। अगर बस नाले में गिर पड़ती और हम सब मर जाते तो देवता बाँहें पसारे उसका इंतज़ार करते। कहते—वह महान आदमी रहा है जिसने एक टायर के लिए प्राण दे दिए। मर गया, पर टायर नहीं बदला।

    दूसरा घिसा टायर लगाकर बस फिर चली। अब हमने वक़्त पर पन्ना पहुँचने की उम्मीद छोड़ दी थी। पन्ना कभी भी पहुँचने की उम्मीद छोड़ दी थी। पन्ना क्या, कहीं भी, कभी भी पहुँचने की उम्मीद छोड़ दी थी। लगता था, ज़िंदगी इसी बस में गुज़ारनी है और इससे सीधे उस लोक को प्रयाण कर जाना है। इस पृथ्वी पर उसकी कोई मंज़िल नहीं है। हमारी बेताबी, तनाव ख़त्म हो गए। हम बड़े इत्मीनान से घर की तरह बैठ गए। चिंता जाती रही। हँसी-मज़ाक़ चालू हो गया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : वसंत (भाग-3) (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : हरिशंकर परसाई
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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