मीरा : एक प्रगतिशील कवयित्री

Mira : Ek Pragatishil Kavyitri

केशवचंद्र वर्मा

केशवचंद्र वर्मा

मीरा : एक प्रगतिशील कवयित्री

केशवचंद्र वर्मा

और अधिककेशवचंद्र वर्मा

    अगर हिन्दी भाषा का ढाँचा बनाया जाए (जैसा प्रायः हाईजेन की किताबों में ढाँचा दिखाई देता है) तो दिल की जगह मीराबाई को रखना पड़ेगा ताकि ढाँचा धड़क भी सके। मीरा ने हिन्दी भाषा का साहित्य लायक बनाने के लिए उतना ही काम किया है जितना एक माँ अपने नालायक बेटे के लिए करती है। आज जब हिन्दी भाषा के साहित्यकारों का पुनः मूल्यांकन हो रहा है तब इस बात की ज़रूरत महसूस की जाती है कि जिस प्रकार अन्य कवियों को उनकी गद्दी दी जा रही है, मीराबाई को भी उचित बैठकी दी जाए। मीराबाई का साहित्य बहुतों ने देखा-भाला है, लेकिन फिर भी आज की सामाजिक सापेक्ष्यता और प्रगतिशील तत्त्वों को ध्यान में रखते हुए किसी ने भी उस पर क़लम न उठाई, सो मैं करता हूँ।

     

    पूर्वाभास

    मीरा के बचपन से ही उसके जीवन में एक असंतोष की भावना जाग्रत हो गई थी। मीरा एक सामंतवादी वातावरण में पलकर भी जनजीवन के प्रति आकर्षित हो गई थी और उसे सबके साथ उठने-बैठने, खेलने-कूदने में मज़ा आता था। मीरा ने तय कर लिया था कि वह विवाह नहीं करेगी। यहीं हमें उसके भीतर का नारी विद्रोह, जो कि रूढ़िग्रस्त परंपराओं का विरोधी था, स्पष्ट देखने को मिलता है। वह अपनी जनवादी विचारधारा को किसी भी जड़ता से बाँधना नहीं चाहती थी। महलों की फ्यूडल सभ्यता उसके लिए ख़ास अहमियत नहीं रखती थी। उसके विचार निश्चय ही भौतिकवादी रहे होंगे।

     

    'सन्तन' पार्टी का विकास और मीरा पर प्रभाव

    उन दिनों विश्व में सन्तन आंदोलन चल पड़ा था और भारत में भी इस पार्टी का विकासक्रम स्पष्ट दिखाई पड़ता है। ऐतिहासिक तथ्यों से पता लगता है कि कोई 'सेंट-एन' साहब थे, जिनके नाम पर इस 'सन्तन' पार्टी का अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन चल पड़ा था। जनवादी सन्तन पार्टी सदैव साम्राज्यवादी तथा सामंतवादी शक्तियों से दुर्धर संघर्ष करती रही। भारत के अनेक विचारक और कवि, जिनमें सूरदास, तुलसीदास और कबीरदास भी थे, इसी सन्तन पार्टी की विचारधारा से प्रभावित थे और अपनी कृतियों में प्रायः इस पार्टी का उल्लेख किया करते थे। राजस्थान में सामंतवादी रजवाड़ों का ज़ोर था, अतः सन्तन पार्टी ने अपना एक ज़ोरदार नेता खड़ा करने की बात सोची। पार्टी का संगठन इतने आश्चर्यजनक रूप से सफल था कि उसने उदयपुर के राणा की महारानी मीराबाई को ही अपनी जननायिका बनाया और उसी के नेतृत्व में सामंतवादी संस्कृति का विनाश प्रारंभ हुआ। पतनोन्मुख सामंतवादी संस्कृति के गिरने में मीरा को पूरा विश्वास था, अतः मीरा ने सन्तन पार्टी का सदस्य होना स्वीकार किया और इस तरह जनसंघर्ष में पहला मोहरा पीट लिया गया। बताते हैं कि हिमालय के उस पार से कोई प्रसिद्ध योगी साधक जो इस सन्तन पार्टी के हर पहलू से वाकिफ़ था, भारत आया था, और उसने मीरा को पार्टी कॉमरेड बनाने में बड़ी भारी सहायता की थी। मीरा उसे अपना गुरु मानती थी और वह जब पार्टी का संगठन कर वापस जाने लगा तो मीरा ने उसकी विदाई में सहभोज के अवसर पर जो कविता पढ़ी थी उसका पाठ हमें यों मिलता है—

    ''मत जा, मत जा, मत जा जोगी
    पाँव पडूँ मैं तेरे जोगी॥ मत जा॥ 
    अगर चंदन की चिता बनाऊँ 
    अपने ही हाथ जला जा 
    अपनी ही गैल बता जा॥ जोगी॥''

    सन्तन पार्टी होते-करते बहुत मज़बूत हो गई। ऐतिहासिक व्याख्या बताती है कि आगे भी सतनामी विद्रोह और बंकिम बाबू के आनंदमठ में जिन विद्रोहियों का उल्लेख मिलता है, हो सकता है कि वह सन्तन पार्टी की परंपरा में रहे हों।


    मीरा का साम्राज्यवाद और सामंतवाद से संघर्ष

    मीरा को स्पष्ट दिखाई पड़ रहा था कि अगर उसने सन्तन पार्टी के साथ सहयोग नहीं किया तो भारत में शीघ्र ही मुग़ल बादशाह अपनी साम्राज्यवादी चालों से इन छोटे-छोटे रजवाड़ों को अपने वश में कर लेगा और इस प्रकार सर्वहारा वर्ग के नाश का अध्याय प्रारंभ हो जाएगा। मीरा ने अपने कार्यक्षेत्र को अध्यात्मवादी रंग दिया, लेकिन वस्तुतः उसका 'एप्रोच' बहुत ही पदार्थवादी रहा। रूढ़िवादी परंपरा तथा नारी के सीमित क्षेत्र को छोड़कर वह जनता के बीच आ खड़ी हुई, उसने पीड़ित जनता के दुख को पहचाना।

    भाई छोड् या, बन्धु छोड् या, छोड् या जगसोई।
    मीरा अब लगन लागि होनी हो सो होई।।''

    यहाँ यह तथ्य कितना उभरकर सामने आता है कि मीरा ने सबका विरोध करके वह आंदोलन उठाया था और उसके पीछे वह इतनी दीवानी हो गई थी कि आगे-पीछे क्या होगा, इसकी उसे कोई चिंता नहीं रह गई थी। मीरा के सामने शासक और शासित का वर्ग-भेद बिल्कुल साफ़ था। वह यह जानती थी कि बिना वर्ग-संघर्ष की भावना पैदा किए हुए सन्तन पार्टी का भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता था। पीड़ितों और शोषितों की बात समझने के लिए स्वयं घायल बनना पड़ता था। यथा— 

    ''घायल की गति घायल जाने कि जिन घायल होय।'' 

     

    मीरा के कॉमरेड

    जैसा कि पहले ही मैं कह चुका हूँ, सन्तन पार्टी उस समय सारे अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र और विशेषकर भारत में बहुत ही संगठित पार्टी थी। अनेक कवि, विचारक और कलाकार पार्टी कम्यून से संबंधित थे। इतिहास के पन्नों में मीरा के कॉमरेडों का ज़िक्र कहीं नहीं मिलता क्योंकि साम्राज्यवादी इतिहास लेखकों ने प्रोलेटेरियट वर्ग के इन जननायकों का नाम मिटा देना ही उचित समझा। तो भी मीरा की रचनाओं में ही हमें इतने स्पष्ट ढंग से इन कॉमरेडों का उल्लेख मिल जाता है कि इसी अन्तःसाक्ष्य के बल पर हम अपनी बात खड़ी कर सकते हैं—

    ''जोगी आये जोग करन को तप करने संन्यासी। 
    हरीभजन को साधू आये वृन्दावन के वासी॥'' 

    सन्तन पार्टी के इस देशव्यापी आंदोलन के फलस्वरूप सभी स्थान के लोग इसमें सक्रिय सहयोग दे रहे थे। पता चला है कि जोगकरन नामक एक पंजाबी जाट था जो इस सन्तन पार्टी का एक प्रमुख कार्यकर्ता था। हिमालय पार से जो जोगी आए थे, उनके साथ ही यह व्यक्ति आता-जाता रहता था। तपकर्णे नामक एक महाराष्ट्र का व्यक्ति भी सन्तन पार्टी का नायक था। तपकर्णे एक विशिष्ट जाति हुआ करती थी। तपकर्णे का पार्टी पर बहुत गहरा प्रभाव था। कुछ विचारकों ने, जिनमें सूरदास भी एक थे, तपकर्णे की हरकतों को नापसंद किया था और बताते हैं कि ऊधो के रूप में उन्होंने गोपिकाओं से तपकर्णे का ही मज़ाक बनवाया था। तुलसीदास भी तपकर्णे को बहुत पसंद नहीं करते थे, फिर भी इन्होंने इसका उपहास नहीं किया। तीसरा और सबसे प्रमुख व्यक्ति था हरिभजन, जो अपने नाम से ही पता देता है कि वह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर ज़िले का रहने वाला था। हो सकता है कि सन्तन पार्टी का सचेतक वही रहा हो, क्योंकि प्रायः हर विद्वान् विचारक लेखक और कवि ने हरिभजन की प्रशंसा में बहुत कुछ लिखा है। उन दिनों वृन्दावन सन्तन पार्टी का एक महान् हेडक्वार्टर था और हरिभजन स्वयं अधिकतर वृन्दावन में ही बसा करते थे। समकालीन साहित्य पर विचार करने से पता लगा है कि हरिभजन को इसी पार्टी के काम के लिए पकड़े जाने पर फाँसी हो गई थी।

    ''अँखियाँ हरि दर्शन की प्यासी।
    नेह लगाय, त्याग में तृण सम,
    डारि गए गल फाँसी॥'' 

    इस प्रकार साम्राज्यवादी शक्तियों ने मीरा के कॉमरेडों को मीरा से अलग कर दिया।


    लोक-लॉज की स्थापना

    मीरा ने इस महान् आंदोलन को सफल ढंग से चलाने के लिए जो योजना बनाई, उसमें पहली बात यह की कि एक लोक-लॉज की स्थापना की। बताया जा चुका है कि सन्तन पार्टी का आंदोलन एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन था। अतः लॉज शब्द जिसे विदेशों में होटल या निवास-स्थान कहते हैं, भारत में प्रचलित हो गया। लॉज (Lodge) की स्थापना के लिए मीरा को राणाजी को बहुत ऊँच-नीच समझाना-बुझाना पड़ा, लेकिन अंततोगत्वा वह सफल रही। आज हमें अनेक होटलों और स्थानों के नाम 'जनता होटल', 'जनता रेस्तरां', 'जनता क्लब' आदि मिलते हैं, लेकिन इसकी परंपरा मीरा ने ही शुरू की थी जब उसने अपने लॉज का नाम लोक-लॉज रखा। लोक-लॉज वास्तव में सन्तन पार्टी का पार्टी ऑफिस था। वहीं सब लोग इकट्ठा होते थे और महत्त्वपूर्ण निर्णय किए जाते थे। राणा की दमन नीति जब चली तो सबसे पहले उसने लोक-लॉज में सरकारी ताला डलवा दिया और पार्टी ऑफिस छीन लिया गया। मीरा ने बड़ी वीरता के साथ इसका उल्लेख किया है।

    ''संतन संग बैठ-बैठ लोक-लॉज खोई!''


    राणा की फ़ासिस्ट प्रवृत्तियाँ

    शोषित जनता की उभरती हुई आवाज़ को दबा डालने के लिए ऐसा कुछ भी नहीं बचा, जो राणा ने न किया हो। मंदिर उड़वाने के लिए तोप चलाने से लेकर मीरा पर 'स्लो प्वाइजनिंग' (क्रमश: विष देने की क्रिया) तक के टेकनीक का प्रयोग राणा ने किया। नाजियों की तरह राणा की निगाहों में सन्तन पार्टी का हर सदस्य एक यहूदी हो उठा। उन्हें हर तरह से दबाने के कुचक्र रचे गए। मीरा को मारने के लिए सर्प भेजा गया, विष दिया गया। लेकिन पार्टी ने अपना भीतरी जाल महल के भीतर ऐसा फैला लिया था कि मीरा के पास पहुँचते-पहुँचते वह चीज़ शालिग्राम की बटिया या शर्बत बन जाती थी। इस प्रकार देवी सहायता की आड़ लेकर मीरा को बचाया गया और इसका प्रभाव यह भी हुआ कि राणा मीरा की पार्टी से डरने लगा।


    मीरा और गिरधर गोपाल

    मीरा का पार्टी-कार्य बिना गिरधर गोपाल की हरकतों पर प्रकाश डाले हमेशा अधूरा ही रहेगा। मीरा की प्रत्येक रचना में इस व्यक्ति का नाम इतने ढंग से आया है कि हर आलोचक ने अपने ढंग से उसका मतलब समझने की कोशिश की है। जहाँ तक अंतःसाक्ष्य और बहिःसाक्ष्य का मेल खाता है, तहाँ स्पष्ट पता चलता है कि गिरधर गोपाल नाम का व्यक्ति अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व रखता था और उसका भी देशव्यापी दौरा हुआ करता था। सन्तन पार्टी के अनेक लोगों ने गिरधर गोपाल को जननायक माना है। गिरधर गोपाल हर जगह मौजूद रहता था और एक स्थान का समाचार दूसरी जगह पहुँचाया भी करता था। संभव है कि वह एक संवाददाता भी रहा हो। मीरा इस व्यक्ति की प्रतिभा से बहुत अधिक प्रभावित थी और एक तरह से यदि समझा जाए तो उसके प्रति उसकी बड़ी ममता-सी हो गई थी। बताया जाता है कि आगे चलकर सहसा यह व्यक्ति पार्टी से बिल्कुल अलग-सा हो गया और बहुत ग़ैर-ज़िम्मेदार तरीक़े से काम करने लगा। पार्टी से हटकर उसकी तबीयत कलाकारिता की ओर चली गई और वह नाटक-नौटंकी में भाग लेने लगा। उसने अपनी पार्टी की वेश-भूषा भी बदल दी और वह मोर-मुकुट, पीताम्बर और वैजन्ती की माला वग़ैरह पहनने लगा। उसके भीतर पतनोन्मुख सामंतवादी जड़ता के अंश एकाएक आ बसे और वह पार्टी के दृष्टिकोण से बिल्कुल निकम्मा साबित हो गया। मीरा की ममता फिर भी उसपर बराबर बनी रही और यही कारण था कि बहुत से सन्तन पार्टी के सदस्य मीरा से प्रसन्न नहीं रहते। राणा गिरधर गोपाल को पार्टी का प्रमुख कार्यकर्ता मानता ही था, इसलिए एकबार उसने गिरधर गोपाल का मोर-मुकुट छिनवा लिया और महल में जाकर सो गया—

    ''जाके सिर मोर मुकुट—मेरो पति सोई।''

    अर्थात—

    जिसके सिर से मुकुट (लेकर) मेरा पति सो गया (है)। मीरा फिर भी बराबर यही कहती रही—

    ''मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई।
    तात मात भ्रात बंधु अपना न कोई॥''

    गिरधर गोपाल के प्रति मीरा का यह दृष्टिकोण कभी भी सफल न हो सका और मीरा के लाख प्रयत्न करने पर भी ज़िम्मेदार तरीक़े से गिरधर गोपाल पार्टी का काम दुबारा न चला सका। गिरधर गोपाल वृन्दावन जाकर रहने लगा और मीरा को भी अपने अंतिम दिनों में उसी के हित वृन्दावन जाना पड़ा। यूँ मीरा में व्यक्तिपरक तत्व इतना नहीं था, लेकिन सभी नियमों में अपवाद सदा होते हैं।


    मंदिर मूवमेंट और सशस्त्र क्रांति

    मीरा को ऐसा लगा कि उसका आंदोलन अब अधिक दिन इन साम्राज्यवादी फौलादी हाथों से बचकर नहीं निकल पाएगा। मीरा के कई कॉमरेड अलग हो गए थे। तपकर्णे ने तो एक अलग पार्टी बनाने की भी कोशिश की थी। गिरधर गोपाल का मन नौटंकी में लग गया था। 'लोक लॉज' पर सरकारी ताला पड़ चुका था। ऐसी हालत में मीरा के सामने बिल्कुल अंधकार था। लेकिन उसने अपनी हिम्मत नहीं हारी। उसने भारत में मंदिर मूवमेंट प्रारंभ किया। मंदिर के बहुत से अर्थ आलोचकों ने किए हैं, लेकिन वस्तुत: वह मंदिर एक भवन का, एक संस्था का प्रतीक था। भारत की जनता को यह मंदिर मूवमेंट बहुत सरलता से ग्राह्य हुआ। मीरा की सूझ बड़ी पैनी थी और उसने सोच लिया था कि इस मूवमेंट से वह आसानी के साथ सभी कार्यकर्ताओं और विचारकों का सहयोग प्राप्त कर सकेगी। सो वही हुआ। भारत के हर भाग में इस मूवमेंट को प्रोत्साहन मिला। सन्तन पार्टी के सदस्य एक बार पुनः सक्रिय हो उठे। साम्राज्यवादियों की ओर से ऐसी चाल चली जा रही थी कि उस समय धार्मिक सहिष्णुता का प्रचार किया जा रहा था। लेनिन की जीवनी लेखिका प्रसिद्ध जर्मन क्लेरा जेटकिन ने लिखा है कि लेनिन का भी मत था कि पार्टी का काम विचारकों और लेखकों के बीच में छिपकर करना चाहिए (जिसके अनुसार शांति सम्मेलन का कार्यक्रम चल रहा है)। मीरा ने भी वही 'टैक्टिक्स' अख्तियार किया। इस मंदिर मूवमेंट के द्वारा मीरा ने सशस्त्र क्रांति करके प्रोलेटेरियट राज्य क़ायम करना चाहा। सन्तन पार्टी ने अंडरग्राउंड काम करना शुरू कर दिया। इसके लिए सन्तन पार्टी ने बहुत ही आधुनिक टेकनीक इस्तेमाल की। पार्टी ने रणछोड़जी की उपासना शुरू की और विष्णु के अनेक आयुधों की अर्चना मंदिर में एकत्र होकर करना प्रारंभ कर दिया। घंटे ऐसे बनवाए गए जैसे स्कूलों में बजाने के लिए रखे जाते हैं और उन्हें पीटने के लिए लोहे की डेढ़ मन की गदाएँ बनवाई गई थीं (मेरा विश्वास है कि आगे के इतिहासकार इस तथ्य को प्रमाणित कर देंगे)। लंबी-लंबी पाँच फीट की बाँसुरियाँ बनवाई गईं जो बाँसुरी का काम कम, लाठी का काम अधिक देती थीं। झाँझ और करताल भी लोहे और पीतल के बनवाए गए जो वजन में इतने भारी थे कि अगर किसी के सिर पर पड़ जाते तो चकनाचूर कर देते। मीरा ने इस मूवमेंट का संगठन इतना अच्छा किया था कि लोग प्रायः संध्या समय इकट्ठा हो जाया करते थे और मीरा आसानी से फासिस्ट विरोधी नीतियों का प्रतिपादन किया करती थी। यूँ ये लोग आधी रात को अपने पार्टी लीडर से मिलकर सलाह-मशविरा भी किया करते थे— 
    ''आधी रात प्रभु दर्शन दीन्हो प्रेम नदी के तीरा।''

    इसके पहले कि इस आंदोलन की एक विशाल प्रतिक्रिया हो सकती, राणा के फासिस्ट गुर्गों ने इसका पता लगा लिया क्योंकि सन्तन पार्टी के कुछ लोग फूट गए थे और नतीजा यह हुआ कि सन्तन पार्टी के सभी आयुध, जो पूजा के काम में रखे गए थे, ज़ब्त कर लिए गए। ख़ुफ़िया पुलिस हाथ धोकर पीछे पड़ गई। सन्तन पार्टी का यह आंदोलन भी विफल हुआ।


    मीरा: क्रांति की मूर्ति और जननायिका

    मीरा के प्रयत्नों का आकलन करने वालों ने यही समझा कि मीरा के आंदोलन विफल रहे, लेकिन बात ऐसी नही है। भले ही दुर्धर पाशविक फासिस्ट शक्तियों ने साम्राज्यवादियों से हाथ मिलाकर जनता की उठती हुई वाणी को उस समय दबा दिया हो, लेकिन वह आवाज़ मर नहीं सकी। मीरा की वाणी जनवाणी बनी। मीरा क्रांति की देवी बनी। मीरा पर लांछन लगाया जाता रहा है कि वह प्रतिक्रियावादी आध्यात्मिक शक्तियों को प्रोत्साहित करती रही, लेकिन वह ठोस भौतिक उपादानों को लेकर जनता को आकर्षित करती रही। वह रूढ़िवादी चिन्तन को तोड़कर पदार्थवादी सर्वहारा वर्ग की भावनाओं को सामने लाई। मीरा ने बुर्जुआ मनोवृत्ति को नहीं पनपने दिया, अपितु उसने नारी-विद्रोह, सामाजिक क्रांति और प्रजातांत्रिक ढाँचे को खड़ा करने की पूरी कोशिश की। फासिस्ट एवं सामंतवादी शक्तियों को, जो अपने वैभव से जनता को ख़रीदना चाहते थे, मुँह की खानी पड़ी। उसने द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन का मूल रूप अपनी कार्यनीति के रूप में स्वीकार किया था। सामाजिक परिस्थितियों का जैसा डटकर मुक़ाबला मीरा ने किया था, वह इतिहास, किसी भी प्रगतिशील लेखक के लिए लेनिन के भाषणों से बड़ी धरोहर बन सकता है।

     
    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक हिंदी हास्य-व्यंग्य (पृष्ठ 247)
    • संपादक : केशवचंद्र वर्मा
    • रचनाकार : केशवचंद्र वर्मा
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1961

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