मेला-ठेला

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बालकृष्ण भट्ट

बालकृष्ण भट्ट

मेला-ठेला

बालकृष्ण भट्ट

और अधिकबालकृष्ण भट्ट

    मसल है-
            ‘‘काज़ी काहे दुबले शहर के अंदेशे’’

    जमाने भर की फिकिर अपने ऊपर ओढ़े कुढंगों के कुढंग से कुढ़ते हुए मनीमन चूरंचूर नहूसत का बोझ सिर पर लादे पंच महाराज उदासीन घर बैठे रहा करते थे। आज न जानिये क्यों मेला देखने का शौक चरार्या तो दो घड़ी रात रहते भोर ही को खूब सजधज पुराने ठिकरे पर नई कलई के भाँति तेल और पानी से बदन चुपड़ घर से निकल चल खड़े हुये। मेला क्या देखने गये मानों अपना मेला औरों को दिखाने गये, खैर पढ़ने वाले जैसा समझे। एक ओर निपटते चलिये—‘‘चलो हटो बचो’’ ‘‘सभा में दोस्तों इंदर की आमद है’’ ‘‘मस्तो सम्हल बैठो जरा हुशियार हो जाओ।’’ भिंगुरु साव की सवारी है! खड्डेदार बुल्ला सेर भर मास हो तो रफू हो, उस पर खूबसूरती और नज़ाक्त के नखरे किससे देखे जाँय? अबे ओ! कोचवान सोता है क्या? जरा चेतकर जोड़ी हाँक। जानता नहीं, मेला है झमेला है, तमाशबीनों की भीड़ का रेला है। यह दूसरे कौन हैं—राय दुर्लभचन्द के पोते राय सुलभचन्द।
            ‘‘नाम लखन चन्द मुँह कुकरै काटा!’’

    मानो मास का लोटा थूहा सा रक्खा हुआ। विधाता की अद्भुत सृष्टि  का एक नमूना। किस मतलब से गढ़ा गया, कौन बतला सकता है? कुम्हार का बर्तन होता, बदल लिया जाता। हाँ जाना, ब्रह्मा महाराज इसको मढ़ते समय दो चित्ते हो दुबिधे में पड़े थे या—
      ‘‘लुक एंड लाफ’’—हाथ में लिये रहे हों।

    अब यह दूसरे कौन आये—रियासत की गठरी का बोझ सिर पर लादे राय कंबख्तचन्द के बली अहद बदबख्त बहादुर। जरदी मुँह पर छाई हुई सीकिया पहलवान क्यों हो रहा है? क्या इसको बदन सुखाने वाला रोग हो गया है? नहीं नहीं ऐयाशी और शराब ने इसका यह हाल कर डाला। कुन्दे नातराश यह दूसरा इसके साथ कौन है—नरकू महराज के सगे नाती, अक्षर से भी कभी भेंट हुई है, कौन काम है? न हम पढ़े न हमरे आजा। पढ़ै-लिखै क्या सुआ-मैना है, पढ़ा लिखा तू पच।
             ‘‘बह बह वहै बैलवा बैठे खांय तुरंग।’’ 

    हमारे कुल में पढ़ना-लिखना नही सोहता।हमारे बाप के छोटे ताऊ गठरी भर पोथी पढ़ डालिन। रहा जवानै उजीह गये। तब से हमारे तात चरण का सिद्धांत हो गया है—
            ‘‘हम पंचन के वंश में कोई नहीं विद्वान।
             भांग पियै गांजा पियै जय बोलै जिजमान।।
    ‘‘चपलान् तुरगान्परिनर्तयतः पथि पौर जनान्परिमर्दयतः।’’

    ये कौन हैं—सींग पूछ कटाय बछड़ों में दाखिल अहल योरप पूरे जेनटिलमेन शाह पनारुदास।

    ‘‘बाबू न कहना फिर कभी मिस्टर कहा जाता है हम।
     कोट   पतलून   बूट   पहने   टोकरी  सिर  पर  धरे।
     साथ  में  कुत्ते  को  लै  के  सैर  को  जाता  है   हम।
     दियानतदार    अपने     कौम     में    मशहूर    है।
     सैकड़ों  लोगों  से   चंदा   लेके   खा  जाता  है हम।
     खाना-पीना  हिन्दुओं  का  मुझको खुश  आता नहीं।
     बीफ, काँटा, चमचा से  होटल में जा  खाता है  हम।
     भांग, गाँजा, चर्स, चंडू  घर में  छिप छिप पीते   थे।
     अब तो बे खटके  हमेशा  व्हिस्की ढरकाता   है हम।’’

    ‘‘पीत्वा पीत्वा पुन: पीत्वा पतित्वा धरणी तले।
     उत्थाय च पुन: पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते।’’

    ‘‘एकेन शुष्क चणकेन घटं पिवामि गंगा पिवामि सहसा लवणार्द्रकेण।’’

    सच है—
    ‘‘एकां लज्जां परत्यज्य त्रेलोक्य विजयी भवेत्।’’

    शाबास गाज़ी मर्द! अच्छे वश उजागर कुल की कलगी पैदा हुये। ‘‘वंशस्याग्रे ध्वजो यथा।’’

    लू लू, है जाने दो, इस मुछंदर को। लो इधर ध्यान दो। छल्लेदार बालों में तेल टपकता हुआ, पान के बीड़ों से गाल फूका मानों बतौड़ी निकली हो, आड़ा तिलक मुँह चुचुका, आशिकतन, हिमाकत नज़ाकत शानोशौकत में लासानी। घर में भूँजी भाँग भी नही, पर बाहर मानों दूसरे नौवाबशाह वाजिदअली। अरे खिलौनेवाले बाबू साहब को खेलौना दे। चटुआ भी तेरे पास है? दे, बाबू साहब चटुआ चाटेंगे। चरखी है। क्या लेगा १ उ: पाकेट खाली।
     ‘‘दान पुण्य को कौड़ी नाहीं शिवकोटी को घोड़ा।’’

    जाने दो। छोड़ दे बालक का पिंड, ओ खेलौनावाला जा। क्यों किसी की पोल खोल फजीहताचार करता है? आहा, कहीं सुर्ख कहीं बैगनी कहीं नीली कहीं पीली—भाँति-भाँति के रंग की बदली घटा की घटा किधर से उमड़ी चली आ रही है। यह कौन है—बी० हुस्सों और यह दूसरी बी० बानो। बी० खानो, मखानो, गुमानो, कमानो, अमीरों की इमारत, शहर के शहरीयत की शान, विसनी आशिक तनों की प्रान और यह दूसरी कौन है—बी० चुड्डो। अरे ओ बी० चुड्डो, अजनगिरी पर्वत की श्यामता का अनुहार करने वाले तुम्हारे अंग प्रत्यंग की शोभा पर तन मन धन सब बारे हुये ये मुफलिस क्ल्लांच खराब खस्तह मुहब्बत के फन्दे में गिरफ्तार, अपना सब कुछ समर्पण कर ठिकरा हाथ में लै दर-दर भीख माँगने लायक हो गये। अब और क्या चाहती हो? शरम को शहद बनाय चाट बैठे, बिना बेहयाई का जामा पहने आशिक के तन जेब नहीं, गाढ़े इश्क के आशिक हैं, जुदाई में मलमल के हाथ रहते हैं। अफ़सोस जर दिया जनानो को माल पास न हुआ, नहीं तो कौआ परियों की फ़ौज खड़ी कर आप उसके कप्तान बनते। या तो किसी समय मटियाबुर्ज के नौबाव थे या इस समय यही यही देख पड़ते। आहा आप हैं—पंडित अमुक-अमुक–अमुक! पंडितजी नमस्कार। यह दूसरे कौन हैं—वा-कान्त देव कि महाशय भाला वासेन ! और यह बाबू फलाँ-फलाँ-फलाँ। मिस्टर सो एंड सो! गुड मार्निंग मिस्टर जान बुल! हौ डू यू डू? और यह सेठ जी। जै गोपाल सेठ जी और यह आप। ओह ओ! आप क्या हैं, बला हैं करिश्मा हैं तिलिस्मा हैं—फिनामिना हैं—आश्चर्य अद्भत तथा लोकोत्तर वस्तु का सन्दोह हैं। उठती उमर जग जानी जवानी के तूफ़ान में अन्धे न जानिये कितने कंटाप और पदाघात सह तब अनग के अखाड़े की पहलवानी प्राप्त की है। गरज कि ऐसे कितने कुढंगों का ढंग देख पंच महराज उब गये और मन में दृढ़ संकल्प कर लिया कि मेले ठेले के कभी डाँड़े न जाना। पछताते हुए घर लौट आये! 


    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतेन्दुकालीन व्यंग परम्परा (पृष्ठ 68)
    • संपादक : ब्रजेंद्रनाथ पांडेय
    • रचनाकार : बालकृष्ण भट्ट
    • प्रकाशन : कल्याणदास एंड ब्रदर्स
    • संस्करण : 1956

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