प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
उन लोगों के दो नाम थे—इंदर सेना या मेढक-मंडली। बिलकुल एक-दूसरे के विपरीत। जो लोग उनके नग्नस्वरूप शरीर, उनकी उछलकूद, उनके शोर-शराबे और उनके कारण गली में होने वाले कीचड़ काँदो से चिढ़ते थे, वे उन्हें कहते थे मेढक-मंडली। उनकी अगवानी गालियों से होती थी। ये होते थे दस-बारह बरस से सोलह-अठारह बरस के लड़के, साँवला नंगा बदन सिर्फ़ एक जाँघिया या कभी-कभी सिर्फ़ लँगोटी। एक जगह इकट्ठे होते थे। पहला जयकारा लगता था, “बोल गंगा मैया की जय जयकारा सुनते ही लोग सावधान हो जाते थे। स्त्रियाँ और लड़कियाँ छज्जे, वारजे से झाँकने लगती थीं और यह विचित्र नंग-धड्ग टोली उछलती-कूदती समवेत पुकार लगाती थी:
काले मेघा पानी दे
गगरी फूटी बैल पियासा
पानी दे गुड़धानी दे
काले मेघा पानी दे।
उछलते कूदते, एक-दूसरे को धकियाते ये लोग गली में किसी दुमहले मकान के सामने रुक जाते, पानी दे मैया, इंदर सेना आई है। और जिन घरों में आखीर जेठ या शुरू आषाढ़ के उन सूखे दिनों में पानी की कमी भी होती थी, जिन घरों के कुएँ भी सूखे होते थे, उन घरों से भी सहेज कर रखे हुए पानी में से बाल्टी या घड़े भर-भर कर इन बच्चों को सर से पैर तक तर कर दिया जाता था। ये भीगे बदन मिट्टी में लोट लगाते थे, पानी फेंकने से पैदा हुए कीचड़ में लथपथ हो जाते थे। हाथ, पाँव, बदन, मुँह, पेट सब पर गंदा कीचड़ मल कर फिर हाँक लगाते बोल गंगा मैया की जय और फिर मंडली बाँध कर उछलते-कूदते अगले घर की ओर चल पड़ते बादलों को टेरते, “काले मेघा पानी दे। वे सचमुच ऐसे दिन होते जब गली-मुहल्ला, गाँव-शहर हर जगह लोग गर्मी में भुन-भुन कर त्राहिमाम कर रहे होते, जेठ के दसतपा बीत कर आषाढ़ का पहला पखवारा भी बीत चुका होता पर क्षितिज पर कहीं बादल की रेख भी नहीं दीखती होती, कुएँ सूखने लगते, नलों में एक तो बहुत कम पानी आता और आता भी तो आधी रात को भी मानो खौलता हुआ पानी हो। शहरों की तुलना में गाँव में और भी हालत ख़राब होती थी। जहाँ जुताई होनी चाहिए वहाँ खेतों की मिट्टी सूखकर पत्थर हो जाती, फिर उसमें पपड़ी पड़कर ज़मीन फटने लगती, लू ऐसी कि चलते-चलते आदमी आधे रास्ते में लू खाकर गिर पड़े। ढोर-डंगर प्यास के मारे मरने लगते लेकिन बारिश का कहीं नाम निशान नहीं, ऐसे में पूजा-पाठ कथा-विधान सब करके लोग जब हार जाते तब अंतिम उपाय के रूप में निकलती यह इंदर सेना। वर्षा के बादलों के स्वामी हैं इंद्र और इंद्र की सेना टोली बाँधकर कीचड़ में लथपथ निकलती, पुकारते हुए मेघों को, पानी माँगते हुए प्यासे गलों और सूखे खेतों के लिए। पानी की आशा पर जैसे सारा जीवन आकर टिक गया हो। बस एक बात मेरे समझ में नहीं आती थी कि जब चारों ओर पानी की इतनी कमी है तो लोग घर में इतनी कठिनाई से इकट्ठा करके रखा हुआ पानी बाल्टी भर-भर कर इन पर क्यों फेंकते हैं। कैसी निर्मम बरबादी है पानी की। देश की कितनी क्षति होती है इस तरह के अंधविश्वासों से। कौन कहता है इन्हें इंद्र की सेना? अगर इंद्र महाराज से ये पानी दिलवा सकते हैं तो ख़ुद अपने लिए पानी क्यों नहीं माँग लेते? क्यों मुहल्ले भर का पानी नष्ट करवाते घूमते हैं, नहीं यह सब पाखंड है। अंधविश्वास है। ऐसे ही अंधविश्वासों के कारण हम अँग्रेज़ों से पिछड़ गए और ग़ुलाम बन गए।
मैं असल में था तो इन्हीं मेढक-मंडलीवालों की उमर का, पर कुछ तो बचपन के आर्यसमाजी संस्कार थे और एक कुमार-सुधार सभा क़ायम हुई थी उसका उपमंत्री बना दिया गया था—सो समाज-सुधार का जोश कुछ ज़्यादा ही था। अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ तो तरकस में तीर रखकर घूमता रहता था। मगर मुश्किल यह थी कि मुझे अपने बचपन में जिससे सबसे ज़्यादा प्यार मिला वे थी जीजी। यूँ मेरी रिश्ते में कोई नहीं थीं। उम्र में मेरी माँ से भी बड़ी थी, पर अपने लड़के-बहू सबको छोड़कर उनके प्राण मुझी में बसते थे। और वे थीं उन तमाम रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों, पूजा-अनुष्ठानों की खान जिन्हें कुमार-सुधार सभा का यह उपमंत्री अंधविश्वास कहता था, और उन्हें जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता था पर मुश्किल यह थी कि उनका कोई पूजा-विधान कोई त्योहार अनुष्ठान मेरे बिना पूरा नहीं होता था। दीवाली है तो गोबर और कौड़ियों से गोवर्धन और सतिया बनाने में लगा हूँ, जन्माष्टमी है तो रोज़ आठ दिन की झाँकी तक को सजाने और पंजीरी बाँटने में लगा हूँ, हर-छठ है तो छोटी रंगीन कुल्हियों में भूजा भर रहा हूँ। किसी में भुना चना, किसी में भुनी मटर, किसी में भुने अरवा चावल, किसी में भुना गेहूँ। जीजी यह सब मेरे हाथों से कराती, ताकि उनका पुण्य मुझे मिले। केवल मुझे।
लेकिन इस बार मैंने साफ़ इनकार कर दिया। नहीं फेंकना है मुझे बाल्टी भर-भरकर पानी इस गंदी मेढक-मंडली पर। जब जीजी बाल्टी भरकर पानी ले गईं उनके बूढ़े पाँव डगमगा रहे थे, हाथ काँप रहे थे, तब भी मैं अलग मुँह फुलाए खड़ा रहा। शाम को उन्होंने लड्डू-मठरी खाने को दिए तो मैने उन्हें हाथ से अलग खिसका दिया। मुँह फेरकर बैठ गया, जीजी से बोला भी नहीं। पहले वे भी तमतमाई, लेकिन ज़्यादा देर तक उनसे ग़ुस्सा नहीं रहा गया। पास आकर मेरा सर अपनी गोद में लेकर बोली, देख भइया रूठ मत। मेरी बात सुन। यह सब अंधविश्वास नहीं है। हम इन्हें पानी नहीं देंगे तो इंद्र भगवान हमें पानी कैसे देंगे? मैं कुछ नहीं बोला। फिर जीजी बोलीं। तू इसे पानी की बरबादी समझता है पर यह बरबादी नहीं है। यह पानी का अर्ध्य चढ़ाते हैं, जो चीज़ मनुष्य पाना चाहता है उसे पहले देगा नहीं तो पाएगा कैसे? इसीलिए ऋषि-मुनियों ने दान को सबसे ऊँचा स्थान दिया है।
“ऋषि-मुनियों को काहे बदनाम करती हो जीजी? क्या उन्होंने कहा था कि जब आदमी बूँद-बूँद पानी को तरसे तब पानी कीचड़ में बहाओ।
कुछ देर चुप रही जीजी, फिर मठरी मेरे मुँह में डालती हुई बोलीं, “देख बिना त्याग के दान नहीं होता। अगर तेरे पास लाखों-करोड़ों रुपए हैं और उसमें से तू दो-चार रुपए किसी को दे दे तो यह क्या त्याग हुआ। त्याग तो वह होता है कि जो चीज़ तेरे पास भी कम है, जिसकी तुझको भी ज़रूरत है तो अपनी ज़रूरत पीछे रखकर दूसरे के कल्याण के लिए उसे दे तो त्याग तो वह होता है, दान तो वह होता है, उसी का फल मिलता है।
‘फल-वल कुछ नहीं मिलता सब ढकोसला है। मैंने कहा तो, पर कहीं मेरे तर्कों का क़िला पस्त होने लगा था। मगर मैं भी ज़िद्द पर अड़ा था।
फिर जीजी बोलीं, “देख तू तो अभी से पढ़-लिख गया है। मैंने तो गाँव के मदरसे का भी मुँह नहीं देखा। पर एक बात देखी है कि अगर तीस-चालीस मन गेहूँ उगाना है तो किसान पाँच-छह सेर अच्छा गेहूँ अपने पास से लेकर ज़मीन में क्यारियाँ बना कर फेंक देता है। उसे बुवाई कहते हैं। यह जो सूखे हम अपने घर का पानी इन पर फेंकते हैं वह भी बुवाई है। यह पानी गली में बोएँगे तो सारे शहर, क़स्बा, गाँव पर पानीवाले बादलों की फ़सल आ जाएगी। हम बीज बनाकर पानी देते हैं, फिर काले मेघा से पानी माँगते हैं। सब ऋषि-मुनि कह गए हैं कि पहले ख़ुद दो तब देवता तुम्हें चौगुना-अठगुना करके लौटाएँगे भइया, यह तो हर आदमी का आचरण है, जिससे सबका आचरण बनता है। यथा राजा तथा प्रजा सिर्फ़ यही सच नहीं है। सच यह भी है कि यथा प्रजा तथा राजा यही तो गांधी जी महाराज कहते हैं। जीजी का एक लड़का राष्ट्रीय आंदोलन में पुलिस की लाठी खा चुका था, तब से जीजी गांधी महाराज की बात अकसर करने लगी थीं।
इन बातों को आज पचास से ज़्यादा बरस होने को आए पर ज्यों की त्यों मन पर दर्ज हैं। कभी-कभी कैसे-कैसे संदर्भों में ये बातें मन को कचोट जाती हैं, हम आज देश के लिए करते क्या हैं? माँगें हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी हैं पर त्याग का कहीं नाम-निशान नहीं है। अपना स्वार्थ आज एकमात्र लक्ष्य रह गया है। हम चटख़ारे लेकर इसके या उसके भ्रष्टाचार की बातें करते हैं पर क्या कभी हमने जाँचा है कि अपने स्तर पर अपने दायरे में हम उसी भ्रष्टाचार के अंग तो नहीं बन रहे हैं? काले मेघा दल के दल उमड़ते हैं, पानी झमाझम बरसता है, पर गगरी फूटी की फूटी रह जाती है, बैल पियासे के पियासे रह जाते है? आख़िर कब बदलेगी यह स्थिति?
un logon ke do naam the—indar sena ya meDhak manDli. bilkul ek dusre ke viprit. jo log unke nagnasvrup sharir, unki uchhalkud, unke shor sharabe aur unke karan gali mein hone vale kichaD kando se chiDhte the, ve unhen kahte the meDhak manDli. unki agvani galiyon se hoti thi. ye hote the das barah baras se solah atharah baras ke laDke, sanvla nanga badan sirf ek janghiya ya kabhi kabhi sirf langoti. ek jagah ikatthe hote the. pahla jaykara lagta tha, “bol ganga maiya ki jay jaykara sunte hi log savdhan ho jate the. striyan aur laDkiyan chhajje, varje se jhankne lagti theen aur ye vichitr nang dhaDg toli uchhalti kudti samvet pukar lagati theeh
kale megha pani de
gagri phuti bail piyasa
pani de guDdhani de
kale megha pani de.
uchhalte kudte, ek dusre ko dhakiyate ye log gali mein kisi dumahle makan ke samne ruk jate, pani de maiya, indar sena aai hai. aur jin gharon mein akhir jeth ya shuru ashaDh ke un sukhe dinon mein pani ki kami bhi hoti thi, jin gharon ke kuen bhi sukhe hote the, un gharon se bhi sahej kar rakhe hue pani mein se balti ya ghaDe bhar bhar kar in bachchon ko sar se pair tak tar kar diya jata tha. ye bhige badan mitti mein lot lagate the, pani phenkne se paida hue kichaD mein lathpath ho jate the. haath, paanv, badan, munh, pet sab par ganda kichaD mal kar phir haank lagate bol ganga maiya ki jay aur phir manDli baandh kar uchhalte kudte agle ghar ki or chal paDte badlon ko terte, “kale megha pani de. ve sachmuch aise din hote jab gali muhalla, gaanv shahr har jagah log garmi mein bhun bhun kar trahimam kar rahe hote, jeth ke dasatpa beet kar ashaDh ka pahla pakhvara bhi beet chuka hota par kshitij par kahin badal ki rekh bhi nahin dikhti hoti, kuen sukhne lagte, nalon mein ek to bahut kam pani aata aur aata bhi to aadhi raat ko bhi mano khaulta hua pani ho. shahron ki tulna mein gaanv mein aur bhi haalat kharab hoti thi. jahan jutai honi chahiye vahan kheton ki mitti sookh kar patthar ho jati, phir usmen papDi paD kar zamin phatne lagti, lu aisi ki chalte chalte adami aadhe raste mein lu kha kar gir paDe. Dhor Dangar pyaas ke mare marne lagte lekin barish ka kahin naam nishan nahin, aise mein puja paath katha vidhan sab karke log jab haar jate tab antim upaay ke roop mein nikalti ye indar sena. varsha ke badlon ke svami hain indr aur indr ki sena toli baandh kar kichaD mein lathpath nikalti, pukarte hue meghon ko, pani mangte hue pyase galon aur sukhe kheton ke liye. pani ki aasha par jaise sara jivan aakar tik gaya ho. bas ek baat mere samajh mein nahin aati thi ki jab charon or pani ki itni kami hai to log ghar mein itni kathinai se ikattha karke rakha hua pani balti bhar bhar kar in par kyon phenkte hain. kaisi nirmam barbadi hai pani ki. desh ki kitni kshati hoti hai is tarah ke andhvishvason se. kaun kahta hai inhen indr ki sena? agar indr maharaj se ye pani dilva sakte hain to khud apne liye pani kyon nahin maang lete? kyon muhalle bhar ka pani nasht karvate ghumte hain, nahin ye sab pakhanD hai. andhvishvas hai. aise hi andhvishvason ke karan hum angrezon se pichhaD ge aur ghulam ban ge.
main asal mein tha to inhin meDhak manDlivalon ki umar ka, par kuch to bachpan ke aryasmaji sanskar the aur ek kumar sudhar sabha qayam hui thi uska upmantri bana diya gaya tha—so samaj sudhar ka josh kuch zyada hi tha. andhvishvason ke khilaf to tarkas mein teer rakh kar ghumta rahta tha. magar mushkil ye thi ki mujhe apne bachpan mein jisse sabse zyada pyaar mila ve thi jiji. yoon meri rishte mein koi nahin theen. umr mein meri maan se bhi baDi thi, par apne laDke bahu sabko chhoD kar unke praan mujhi mein baste the. aur ve theen un tamam riti rivajon, teej tyoharon, puja anushthanon ki khaan jinhen kumar sudhar sabha ka ye upmantri andhvishvas kahta tha, aur unhen jaD se ukhaaD phenkna chahta tha par mushkil ye thi ki unka koi puja vidhan koi tyohar anushthan mere bina pura nahin hota tha. divali hai to gobar aur kauDiyon se govardhan aur satiya banane mein laga hoon, janmashtami hai to roz aath din ki jhanki tak ko sajane aur panjiri bantne mein laga hoon, har chhath hai to chhoti rangin kulhiyon mein bhuja bhar raha hoon. kisi mein bhuna chana, kisi mein bhuni matar, kisi mein bhune arva chaval, kisi mein bhuna gehun. joji ye sab mere hathon se karati, taki unka punya mujhe mile. keval mujhe.
lekin is baar mainne saaf inkaar kar diya. nahin phenkna hai mujhe balti bhar bhar kar pani is gandi meDhak manDli par. jab jiji balti bhar kar pani le gain unke buDhe paanv Dagmaga rahe the, haath kaanp rahe the, tab bhi main alag munh phulaye khaDa raha. shaam ko unhonne laDDu mathri khane ko diye to maine unhen haath se alag khiska diya. munh pherkar baith gaya, jiji se bola bhi nahin. pahle ve bhi tamatmai, lekin zyada der tak unse ghussa nahin raha gaya. paas aa kar mera sar apni god mein lekar boli, dekh bhaiya rooth mat. meri baat sun. ye sab andhvishvas nahin hai. hum inhen pani nahin denge to indr bhagvan hamein pani kaise denge? main kuch nahin bola. phir jiji bolin. tu ise pani ki barbadi samajhta hai par ye barbadi nahin hai. ye pani ka ardhya chaDhate hain, jo cheez manushya pana chahta hai use pahle dega nahin to payega kaise? isiliye rishi muniyon ne daan ko sabse uncha sthaan diya hai.
“rishi muniyon ko kahe badnam karti ho jiji? kya unhonne kaha tha ki jab adami boond boond pani ko tarse tab pani kichaD mein bahao.
kuch der chup rahi jiji, phir mathri mere munh mein Dalti hui bolin, “dekh bina tyaag ke daan nahin hota. agar tere paas lakhon karoDon rupye hain aur usmen se tu do chaar rupye kisi ko de de to ye kya tyaag hua. tyaag to wo hota hai ki jo cheez tere paas bhi kam hai, jiski tujhko bhi zarurat hai to apni zarurat pichhe rakh kar dusre ke kalyan ke liye use de to tyaag to wo hota hai, daan to wo hota hai, usi ka phal milta hai.
‘phal val kuch nahin milta sab Dhakosala hai. mainne kaha to, par kahin mere tarkon ka qila past hone laga tha. magar main bhi zidd par aDa tha.
phir jiji bolin, “dekh tu to abhi se paDh likh gaya hai. mainne to gaanv ke madrase ka bhi munh nahin dekha. par ek baat dekhi hai ki agar tees chalis man gehun ugana hai to kisan paanch chhah ser achchha gehun apne paas se lekar zamin mein kyariyan bana kar phenk deta hai. use buvai kahte hain. ye jo sukhe hum apne ghar ka pani in par phenkte hain wo bhi buvai hai. ye pani gali mein boenge to sare shahr, qasba, gaanv par panivale badlon ki fasal aa jayegi. hum beej banakar pani dete hain, phir kale megha se pani mangte hain. sab rishi muni kah ge hain ki pahle khud do tab devta tumhein chauguna athguna karke lautayenge bhaiya, ye to har adami ka achran hai, jisse sabka achran banta hai. yatha raja tatha praja sirf yahi sach nahin hai. sach ye bhi hai ki yatha praja tatha raja yahi to gandhi ji maharaj kahte hain. jiji ka ek laDka rashtriy andolan mein pulis ki lathi kha chuka tha, tab se jiji gandhi maharaj ki baat aksar karne lagi theen.
in baton ko aaj pachas se zyada baras hone ko aaye par jyon ki tyon man par darj hain. kabhi kabhi kaise kaise sandarbhon mein ye baten man ko kachot jati hain, hum aaj desh ke liye karte kya hain? mangen har kshetr mein baDi baDi hain par tyaag ka kahin naam nishan nahin hai. apna svaarth aaj ekmaatr lakshya rah gaya hai. hum chatkhare lekar iske ya uske bhrashtachar ki baten karte hain par kya kabhi hamne jancha hai ki apne star par apne dayre mein hum usi bhrashtachar ke ang to nahin ban rahe hain? kale megha dal ke dal umaDte hain, pani jhamajham barasta hai, par gagri phuti ki phuti rah jati hai, bail piyase ke piyase rah jate hai? akhir kab badlegi ye sthiti?
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हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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