मेरे बचपन के दिन

mere bachpan ke din

महादेवी वर्मा

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मेरे बचपन के दिन

महादेवी वर्मा

और अधिकमहादेवी वर्मा

    बचपन की स्मृतियों में एक विचित्र-सा आकर्षण होता है। कभी-कभी लगता है, जैसे सपने में सब देखा होगा। परिस्थितियाँ बहुत बदल जाती हैं।
     
    अपने परिवार में मैं कई पीढ़ियों के बाद उत्पन्न हुई। मेरे परिवार में प्रायः दो सौ वर्ष तक कोई लड़की थी ही नहीं। सुना है, उसके पहले लड़कियों को पैदा होते ही परमधाम भेज देते थे। फिर मेरे बाबा ने बहुत दुर्गा-पूजा की। हमारी कुल-देवी दुर्गा थीं। मैं उत्पन्न हुई तो मेरी बड़ी ख़ातिर हुई और मुझे वह सब नहीं सहना पड़ा जो अन्य लड़‌कियों को सहना पड़ता है। परिवार में बाबा फ़ारसी और उर्दू जानते थे। पिता ने अँग्रेज़ी पढ़ी थी। हिंदी का कोई वातावरण नहीं था।
     
    मेरी माता जबलपुर से आईं तब वे अपने साथ हिंदी लाईं। वे पूजा-पाठ भी बहुत करती थीं। पहले-पहल उन्होंने मुझको 'पंचतंत्र' पढ़ना सिखाया।
     
    बाबा कहते थे, इसको हम विदुषी बनाएँगे। मेरे संबंध में उनका विचार बहुत ऊँचा रहा। इसलिए 'पंचतंत्र' भी पढ़ा मैंने, संस्कृत भी पढ़ी। ये अवश्य चाहते थे कि मैं उर्दू-फ़ारसी सीख लूँ, लेकिन वह मेरे वश की नहीं थी। मैंने जब एक दिन मौलवी साहब को देखा तो बस, दूसरे दिन में चारपाई के नीचे जा छिपी। तब पंडित जी आए संस्कृत पढ़ाने। माँ थोड़ी संस्कृत जानती थीं। गीता में उन्हें विशेष रुचि थी। पूजा-पाठ के समय मैं भी बैठ जाती थी और संस्कृत सुनती थी। उसके उपरांत उन्होंने मिशन स्कूल में रख दिया मुझको। मिशन स्कूल में वातावरण दूसरा था, प्रार्थना दूसरी थी। मेरा मन नहीं लगा। वहाँ जाना बंद कर दिया। जाने में रोने-धोने लगी। तब उन्होंने मुझको क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज में भेजा, जहाँ मैं पाँचवे दर्जे में भर्ती हुई। यहाँ का वातावरण बहुत अच्छा था उस समय। हिंदू लड़कियाँ भी थीं, ईसाई लड़‌कियाँ भी थीं। हम लोगों का एक ही मेस था। उस मेस में प्याज़ तक नहीं बनता था।
     
    वहाँ छात्रावास के हर एक कमरे में हम चार छात्राएँ रहती थीं। उनमें पहली ही साथिन सुभद्रा कुमारी मिलीं। सातवें दर्जे में वे मुझसे दो साल सीनियर थीं। वे कविता लिखती थीं और मैं भी बचपन से तुक मिलाती आई थी। बचपन में माँ लिखती थीं, पद भी गाती थीं। मीरा के पद विशेष रूप से गाती थीं। सवेरे 'जागिए कृपानिधान पंछी बन बोले' यही सुना जाता था। प्रभाती गाती थीं। शाम को मीरा का कोई पद गाती थीं। सुन-सुनकर मैंने भी ब्रजभाषा में लिखना आरंभ किया। यहाँ आकर देखा कि सुभद्रा कुमारी जी खड़ी बोली में लिखती थीं। मैं भी वैसा ही लिखने लगी। लेकिन सुभद्रा जी बड़ी थीं, प्रतिष्ठित हो चुकी थीं। उनसे छिपा-छिपाकर लिखती थी मैं। एक दिन उन्होंने कहा, 'महादेवी, तुम कविता लिखती हो?' तो मैंने डर के मारे कहा, 'नहीं।' अंत में उन्होंने मेरी डेस्क की किताबों की तलाशी ली और बहुत-सा निकल पड़ा उसमें से। तब जैसे किसी अपराधी को पकड़ते है, ऐसे उन्होंने एक हाथ में काग़ज़ लिए और एक हाथ से मुझको पकड़ा और पूरे होस्टल में दिखा आईं कि ये कविता लिखती है। फिर हम दोनों की मित्रता हो गई। क्रास्थवेट में एक पेड़ की डाल नीची थी। उस डाल पर हम लोग बैठ जाते थे। जब और लड़‌कियाँ खेलती थीं तब हम लोग तुक मिलाते थे। उस समय एक पत्रिका निकलती थी—'स्त्री दर्पण'—उसी में भेज देते थे। अपनी तुकबंदी छप भी जाती थी। फिर यहाँ कवि सम्मेलन होने लगे तो हम लोग भी उनमें जाने लगे। हिंदी का उस समय प्रचार-प्रसार था। मैं सन् 1917 में यहाँ आई थी। उसके उपरांत गांधी जी का सत्याग्रह आरंभ हो गया और आनंद भवन स्वतंत्रता के संघर्ष का केंद्र हो गया। जहाँ-तहाँ हिंदी का भी प्रचार चलता था। कवि-सम्मेलन होते थे तो क्रास्थवेट से मैडम हमको साथ लेकर जाती थीं। हम कविता सुनाते थे। कभी हरिऔध जी अध्यक्ष होते थे, कभी श्रीधर पाठक होते थे, कभी रत्नाकर जी होते थे, कभी कोई होता था। कब हमारा नाम पुकारा जाए, बेचैनी से सुनते रहते थे। मुझको प्रायः प्रथम पुरस्कार मिलता था। सौ से कम पदक नहीं मिले होंगे उसमें।
     
    एक बार की घटना याद आती है कि एक कविता पर मुझे चाँदी का एक कटोरा मिला। बड़ा नक़्क़ाशीदार, सुंदर। उस दिन सुभद्रा नहीं गई थीं। सुभद्रा प्रायः नहीं जाती थीं कवि-सम्मेलन में। मैंने उनसे आकर कहा, 'देखो, यह मिला।'
     
    सुभद्रा ने कहा, 'ठीक है, अब तुम एक दिन खीर बनाओ और मुझको इस कटोरे में खिलाओ।'
     
    उसी बीच आनंद भवन में बापू आए। हम लोग तब अपने जेब ख़र्च में से हमेशा एक-एक, दो-दो आने देश के लिए बचाते थे और जब बापू आते थे तो वह पैसा उन्हें दे देते थे। उस दिन जब बापू के पास मैं गई तो अपना कटोरा भी लेती गई। मैंने निकालकर बापू को दिखाया। मैंने कहा, 'कविता सुनाने पर मुझको यह कटोरा मिला है।' कहने लगे, 'अच्छा, दिखा तो मुझको।' मैंने कटोरा उनकी ओर बढ़ा दिया तो उसे हाथ में लेकर बोले, 'तू देती है इसे?' अब मैं क्या कहती? मैंने दे दिया और लौट आई। दु:ख यह हुआ कि कटोरा लेकर कहते, कविता क्या है? पर कविता सुनाने को उन्होंने नहीं कहा। लौटकर अब मैंने सुभद्रा जी से कहा कि कटोरा तो चला गया। सुभद्रा जी ने कहा, 'और जाओ दिखाने!' फिर बोलीं, 'देखो भाई, खीर तो तुमको बनानी होगी। अब तुम चाहे पीतल की कटोरी में खिलाओ, चाहे फूल के कटोरे में—फिर भी मुझे मन-ही-मन प्रसन्नता हो रही थी कि पुरस्कार में मिला अपना कटोरा मैंने बापू को दे दिया।
     
    सुभद्रा जी छात्रावास छोड़कर चली गईं। तब उनकी जगह एक मराठी लड़की ज़ेबुन्निसा हमारे कमरे में आकर रही। वह कोल्हापुर से आई थी। ज़ेबुन मेरा बहुत-सा काम कर देती थी। वह मेरी डेस्क साफ़ कर देती थी, किताबें ठीक से रख देती थी और इस तरह मुझे कविता के लिए कुछ और अवकाश मिल जाता था। ज़ेबुन मराठी शब्दों से मिली-जुली हिंदी बोलती थी। मैं भी उससे कुछ-कुछ मराठी सीखने लगी थी। वहाँ एक उस्तानी जी थीं—ज़ीनत बेगम। ज़ेबुन जब 'इकड़े-तिकड़े' या 'लोकर-लोकर' जैसे मराठी शब्दों को मिलाकर कुछ कहती तो उस्तानी जी से टोके बिना न रहा जाता था—'वाह! देसी कौवा, मराठी बोली!' ज़ेबुन कहती थी, 'नहीं उस्तानी जी, यह मराठी कौवा मराठी बोलता है।' ज़ेबुन मराठी महिलाओं की तरह किनारीदार साड़ी और वैसा ही ब्लाउज़ पहनती थी। कहती थी, 'हम मराठी हूँ तो मराठी बोलेंगे!'
     
    उस समय यह देखा मैंने कि सांप्रदायिकता नहीं थी। जो अवध की लड़कियाँ थी, वे आपस में अवधी बोलती थीं; बुंदेलखंड की आती थीं, वे बुंदेली में बोलती थीं। कोई अंतर नहीं आता था और हम पढ़ते हिंदी थे। उर्दू भी हमको पढ़ाई जाती थी, परंतु आपस में हम अपनी भाषा में ही बोलती थीं। यह बहुत बड़ी बात थी। हम एक मेस में खाते थे, एक प्रार्थना में खड़े होते थे; कोई विवाद नहीं होता था।
     
    मैं जब विद्यापीठ आई, तब तक मेरे बचपन का वही क्रम चला जो आज तक चलता आ रहा है। कभी-कभी बचपन के संस्कार ऐसे होते हैं कि हम बड़े हो जाते हैं, तब तक चलते हैं। बचपन का एक और भी संस्कार था कि हम जहाँ रहते थे वहाँ जवारा के नवाब रहते थे। उनकी नवाबी छिन गई थी। वे बेचारे एक बँगले में रहते थे। उसी कंपाउंड में हम लोग रहते थे। बेगम साहिबा कहती थीं—'हमको ताई कहो!' हम लोग उनको 'ताई साहिबा' कहते थे। उनके बच्चे हमारी माँ को चची जान कहते थे। हमारे जन्मदिन वहाँ मनाए जाते थे। उनके जन्मदिन हमारे यहाँ मनाए जाते थे। उनका एक लड़का था। उसको राखी बाँधने के लिए वे कहती थीं। बहनों को राखी बाँधनी चाहिए। राखी के दिन सवेरे से उसको पानी भी नहीं देती थीं। कहती थीं, राखी के दिन बहने राखी बाँध जाएँ तब तक भाई को निराहार रहना चाहिए। बार-बार कहलाती थीं—'भाई भूखा बैठा है, राखी बँधवाने के लिए।' फिर हम लोग जाते थे। हमको लहरिए या कुछ मिलते थे। इसी तरह मुहर्रम में हरे कपड़े उनके बनते थे तो हमारे भी बनते थे। फिर एक हमारा छोटा भाई हुआ वहाँ, तो ताई साहिबा ने पिताजी से कहा, 'देवर साहब से कहाँ, वो मेरा नेग ठीक करके रखें। मैं शाम को आऊँगी।' वे कपड़े-वपड़े लेकर आईं। हमारी माँ को वे दुलहन कहती थीं। कहने लगीं, 'दुलहन, जिनके ताई-चाची नहीं होती हैं वो अपनी माँ के कपड़े पहनते हैं, नहीं तो छह महीने तक चाची-ताई पहनाती हैं। मैं इस बच्चे के लिए कपड़े लाई हूँ। यह बड़ा सुंदर है। मैं अपनी तरफ़ से इसका नाम 'मनमोहन' रखती हूँ।'
     
    वही प्रोफ़ेसर मनमोहन वर्मा आगे चलकर जम्मू यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर रहे, गोरखपुर यूनिवर्सिटी के भी रहे। कहने का तात्पर्य यह कि मेरे छोटे भाई का नाम वही चला जो ताई साहिबा ने दिया। उनके यहाँ भी हिंदी चलती थी, उर्दू भी चलती थी। यों, अपने घर में वे अवधी बोलते थे। वातावरण ऐसा था उस समय कि हम लोग बहुत निकट थे। आज की स्थिति देखकर लगता है, जैसे वह सपना ही था। आज वह सपना खो गया।
     
    शायद यह सपना सत्य हो जाता तो भारत की कथा कुछ और होती।
    स्रोत :
    • पुस्तक : क्षितिज भाग-1, (कक्षा-9) (पृष्ठ 60)
    • रचनाकार : महादेवी वर्मा
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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