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बाबू चिंतामणि घोष

babu chintamani ghosh

महावीर प्रसाद द्विवेदी

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

बाबू चिंतामणि घोष

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    नोट

    'सरस्वती' के 'चिंतामणि घोष स्मृति अंक सितंबर, 1928 में प्रकाशित। असंकलित।

    भवो हि लोकाभ्युदयाय तादृशाम्—कालिदास

    सुख और दुःख के युग्म का अनुभव सभी को करना पड़ता है। कोई उससे बच नहीं सकता। यह संभव ही नहीं कि किसी को सदा एक ही अनुभव करना पड़े। हाँ, यह बात अवश्य है कि इस युग्म की अवस्थिति में न्यूनाधिकता रहती है। किसी को अपनी जीवित दशा में सुख अधिक मिलता है, किसी को दुःख। ये सुख-दुःख यद्यपि एक दृष्टि से काल्पनिक हैं—क्योंकि जिसे एक मनुष्य सुख समझता है उसी को दूसरा, कभी-कभी दुःख मान लेता है—तथापि, इस दृष्टि से इस युग्म पर विचार करने वाले, संसार में विरले ही हैं। मैं उन लोगों में नहीं। इष्ट वस्तु की अप्राप्ति और आत्मीयों के वियोग से जैसे अन्य साधारण मनुष्य दुःखानुभव करते हैं वैसे ही मैं भी करता हूँ। आज तक मुझे आत्मीयों की वियोग-जन्य बड़ी ही मर्मकृंतक व्यथाएँ सहनी पड़ी हैं—एक दफ़े नहीं, कई दफ़े। यहाँ तक कि आज तक मेरे सभी कुटुंबी, एक-एक करके, मुझे छोड़ गए। मैं ही अकेला कूलद्रुम बना हुआ अपने अंतिम श्वासों की राह देख रहा हूँ। परंतु यह सब होने पर भी, कभी मैंने 'सरस्वती' में अपना रोना नहीं रोया; कभी दुःख-जनित विलाप नहीं किया; अदृष्ट ने मुझ पर कैसे-कैसे प्रहार किए, इस पर कभी कुछ नहीं लिखा। बात यह थी कि मेरी उस कष्ट-कथा से सरस्वती का कुछ भी संबंध था। अतएव उसे सरस्वती के पाठकों को सुनाकर उनका समय नष्ट करना मैंने अन्याय समझा।

    परंतु, आज, मुझे एक ऐसे पुरुष की निधन-वार्ता का उल्लेख करना ही पड़ेगा जो भिन्न होकर मुझसे भी अभिन्न थे, परजन होकर भी मेरे स्वजन थे, और अन्य-कुटुंब-भुक्त होने पर भी मेरे कुटुंबी से थे। यह इसलिए करना पड़ेगा, क्योंकि उनका संबंध सरस्वती से था। वही उसके जनक, वही उसके पालक और वही उसके उन्नायक थे। हतोत्साह किए जाने पर भी हज़ारों रुपए का घाटा उठाने पर भी, और समय-समय पर, अनेक विघ्न-बाधाओं का आविर्भाव होने पर भी उन्होंने सरस्वती को जीवित ही नहीं रखा; उन्होंने उसे दिन पर दिन अधिकाधिक उन्नत करके औरों के लिए वह आदर्श उपस्थित कर दिया जिसे देखकर इस समय हिंदी-साहित्य में और भी कितनी ही अच्छी-अच्छी मासिक पुस्तकें अपने प्रकाश का प्रसरण कर रही हैं। बंगवासी होकर भी उन्होंने इसी प्रांत को अपना देश या प्रांत समझा और मातृभाषा बँगला होने पर भी उन्होंने अधिकतर हिंदी ही भाषा को अपने आश्रय का पात्र जाना। अनेक अल्पज्ञ और अप्रसिद्ध मसिजीवियों को अपनी छत्रछाया में रखकर उनको उन्होंने बहुत कुछ बहुज्ञ और बहुजनादृत बना दिया। ऐसे पुरुष-पुंगव, बाबू चिंतामणि घोष, ने गत 11 अगस्त की रात को अपने कीर्ति-कलेवर को यहीं छोड़कर, 74 वर्ष की उम्र में, उस धाम की यात्रा कर दी जहाँ से लौटकर नहीं आना पड़ता।

    घोष बाबू का प्रायः समग्र जीवन इसी प्रांत में व्यतीत हुआ। पिता की मृत्यु हो गई। घर में कुछ विभूति थी ही नहीं इससे वे अपनी जन्मभूमि को भी नहीं जा सकते थे। वहाँ कोई अवलंब था भी नहीं। अतएव प्रयाग में नौकरी ही करना उन्होंने मुनासिव समझा। चिंतामणि बाबू पहले पहल 10 रुपए मासिक वेतन पर पायोनियर प्रेस में नौकर हुए। उस समय आप 13 वर्ष के थे। वहाँ आप छः सात वर्ष तक रहे और पिछले दिनों 60 रुपए पाने लगे थे। वहाँ काम छोड़कर आप रेलवे मेल सर्विस में दो तीन दिन रहे। फिर आप हवाघर अर्थात् मेटेओरोलाजिकल ऑफ़िस में नौकर हुए। उस समय आप 19 वर्ष के थे। मेटेओरोलाजिकल महकमे के दफ़्तर में, हेड क्लर्क के पद पर पंद्रह-सोलह वर्ष तक काम किया। यह वह महकमा है जो वायुचक्र, वर्षा, विद्युद् और भूकंप आदि की स्थिति और आगमन की सूचना देता है। थोड़ी-सी पेंशन के मुस्तहक़ होते ही आपने वह मुलाज़िमत छोड़ दी। तब आपके मन में प्रेस करने की सूझी। यह इरादा पक्का हो जाने पर आपने अपने एक मित्र को अपना साझीदार बनाया और घर ही पर हाथ से चलाया जाने वाला एक छोटा-सा प्रेस खोला। कितनी पूँजी से, आपको सुनकर आश्चर्य होगा, सिर्फ़ 250 रुपए की पूँजी से! आपके मित्र तो कुछ ही दिन बाद अलग हो गए, आप अकेले रह गए। आपने अपनी व्यवसाय बुद्धि, सत्यपरता, उद्योग-शीलता और कर्तव्यनिष्ठा की बदौलत उसी छोटे से प्रेस को कुछ ही वर्षों में एक अच्छे प्रेस का रूप दे दिया। पहले तो आपको कुछ यूँ ही सा सटपट काम मिलता रहा, पर वह दशा बहुत समय तक रही। आपने हिंदी की कुछ ऐसी रीडरें प्रकाशित की जो स्कूलों में जारी हो गईं। बस, फिर तो जन-साधारण और शिक्षा विभाग के अधिकारियों का ध्यान इंडियन प्रेस की ओर इतना आकृष्ट हो गया कि उसकी बराबर उन्नति ही होती गई। यह उन्नति अब यहाँ तक पहुँची है कि इस देश में देशवासियों के कुछ इने ही गिने प्रेस ऐसे होंगे जो इंडियन प्रेस की समकक्षता कर सकेंगे।

    बात कोई 35 वर्ष पहले की है। मुझे कारणवश उन रीडरों की समालोचना प्रकाशित करनी पड़ी जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है। उस समालोचना से उन रीडरों के लेखकों की आत्मा को कष्ट पहुँचा। उस समय मुझे उनमें से एक लेखक ने कड़ी-कड़ी चिट्ठियाँ तक लिखीं। पर मुदर्रिसों की तरह मैं उनका मुलाज़िम तो था नहीं, जो जानु-पाणि हो जाता। मेरा तो कुछ बिगाड़ सके, पर शायद उन्हें उन रीडरों में कुछ परिवर्तन अवश्य करना पड़ा। चाहिए तो था कि उन रीडरों की प्रतिकूल आलोचना करने वाले मुझसे घोष बाबू भी नाराज़ हो जाते। पर वे थे बड़े उदार और बड़े कार्य कुशल। उन्होंने उलटा मुझे बधाई दी। अपने मैनेजर बाबू गिरिजाकुमार घोष को बुंदेलखंड की पहाड़ियाँ पार करके मेरे पास झाँसी भेजा। मैं उस समय परतंत्र था; अवकाश बहुत कम मिलता था। मैंने बहुत कहा सुना। पर चिंतामणि बाबू के सज्जनोचित व्यवहार ने मुझ पर विजय पाई। मैंने 'शिक्षासरोज' नाम की एक पुस्तकमाला, कई भागों में, लिख दी। वह छपी भी। परंतु मेरी कृतपूर्व आलोचना से कुछ लोग ऐसे विचलित हो गए थे कि उन्होंने रीडरों की भाषा ही बदल दी। मेरी पुस्तकें यथापूर्व प्रचलित भाषा में लिखी गई थी। अतएव उनका लिखा जाता ही एक प्रकार से व्यर्थ गया। तब दूसरी पुस्तकें लिखी गई और उन्हें और लोगों ने लिया। किस तरह, आप सुनेंगे? एक गौरकाय साहब बहादुर ने पहले उन्हें अँग्रेज़ी में लिया। फिर दूसरे ने उनका अनुवाद 'सरकारी बोली' (हिंदी) में किया। मैं इस अंग से दूर ही रहा।

    अस्तु, रीडरों की मेरी उस समालोचना की कृपा से मेरा परिचय चिंतामणि बाबू से हो गया। शिक्षा-सरोज लिखे जाने के बाद सरस्वती-संपादन के काम के लिए मैं चुना गया। मैंने कहा—यह काम मैंने कभी नहीं किया, मुझे कुछ भी अनुभव नहीं। घोष बाबू ने बड़े प्रेम से, पर गर्ज कर, कहा—मैंने प्रेस का काम कब और किससे सीखा था? उनके प्रणयानुरोध की फिर जीत हुई। उन्होंने मुझे आदि से अंत तक बड़ी ही उदारता से निबाहा। मेरे साथ इस तरह का व्यवहार किया जैसा कि भाई अपने भाई के साथ करता है।

    'सरस्वती' का संपादन कार्य मुझे मिलने पर कुछ लोगों ने बड़ा कोलाहल मचाया। उन्होंने घोष बाबू से कहा—यह मनुष्य बड़ा घमंडी, बड़ा कलहप्रिय, बड़ा तुनुकमिज़ाज है। इससे तुम्हारी कभी पटेगी। तुमने बड़ी भूल की। साल के भीतर ही यह महाभारत मचा देगा। परंतु यह सारा भय निर्मूल साबित हुआ। 18 वर्ष के दीर्घकाल में कभी एक बार भी ऐसा मौक़ा आया, जिसमें इस तरह की कोई बात हुई हो। घोष बाबू ने अपना फ़र्ज़ अदा किया, मैंने अपना। किसी ने भी इसमें त्रुटि होने दी। विवाद, वितंडा और कलह हो कैसे? यह कुछ तो हुआ नहीं, घोष बाबू ने मुझे यह सर्टिफ़िकेट अवश्य दिया—हिंदुस्तानी संपादकों में मैंने वक़्त के पाबंद और कर्त्तव्य-पालन के विषय में दृढ़-प्रतिज्ञ दो ही आदमी देखे हैं; एक तो रामानंद बाबू, दूसरे आप। उनकी इस सम्मति से मैंने अपने को कृतार्थ समझा।

    एक दफ़े इलाहाबाद के कलेक्टर ने सरस्वती के संपादक तथा मुद्रक और प्रकाशक को, समन के ज़रिए, तलब किया; पर समन में यह लिखा कि किसलिए तलबी हुई है। वह ज़माना धर-पकड़ का था। प्रेस ऐक्ट से संबंध रखने वाले ज़ुर्मों का दौर-दौरा था। मैं कानपुर से बुलाया गया। पिछले तीन-चार महीने की 'सरस्वती' की कापियाँ बड़े शोर से पढ़ी गईं। कोई लेख या नोट उनमें क़ाबिले-एतराज़ दिखाई दिया। फिर भी संभावना यही हुई कि हम लोगों पर राजद्रोह का मुक़द्दमा चलाया जाएगा। मैंने कहा, कानपुर से बार-बार आने में तो बड़ा झंझट होगा। इस पर चिंतामणि बाबू ने फ़रमाया—अगर हम लोगों की संभावना सही निकली तो आज से आप और आपके कुटुंबी मेरे कुटुंबी हो जाएँगे और इंडियन प्रेस की सारी विभूति इस मुक़दमे की पैरवी में ख़र्च कर दी जाएगी। उनका यह अभिवचन सुनकर मेरा कंठ भर आया और शरीर पुलकित हो उठा। दस बजे हम लोग कलेक्टर के बंगले पर हाज़िर हुए। मैंने अपना कार्ड भेजा। उसे भेजते ही मैं तुरंत भीतर बुलाया गया। उस समय कलेक्टर शायद मेकनेयर साहब थे। उन्होंने मुझे एडिटर जानकर कोई 10 मिनट तक साहित्य—संबंधिनी चर्चा की। किसलिए हम लोग बुलाए गए थे, इसका कुछ भी ज़िक्र किया। तब मैंने समनों की याद दिलाई। इस पर दफ़्तर से उन्होंने मिसल मँगाई उससे मालूम हुआ कि लाहौर के किसी आदमी ने लाटरी से संबंध रखने वाला कोई विज्ञापन 'सरस्वती' में छपाया था। उसी के विषय में चेतावनी देनी थी। वह चेतावनी प्रिंटर और पवलिवर को दी गई। मेरा उससे कोई संबंध था हम लोग क़रीब 2 बजे दिन के इंडियन प्रेस वापस आए। देखा तो चिंतामणि बाबू निराहार बैठे हुए मेरी राह देख रहे हैं। मुझे कलेक्टर साहब की मुलाक़ात का हाल सुनाकर बोले—A Tumult in a Teapot. आपने पहले मुझे भोजन कराया, पीछे आपने किया। ऐसे सज्जन और ऐसे उदाराशय पुरुष-पुंगव को लोगों ने डराया था कि मुझसे और उनसे एक दिन भी पटने की नहीं।

    उस समय हिंदी में अच्छी पत्रिकाएँ कम थीं जो थीं भी उनका प्रचार कम था। इससे अनेक ग्रंथकारों और प्रकाशकों की इच्छा रहती थी कि यदि 'सरस्वती' की समालोचनाओं में उनकी पुस्तकों की प्रशंसा निकल जाए तो कुछ कापियाँ ज़रूर बिक जाए। इस कारण लोग बहुधा चिंतामणि बाबू से सिफ़ारिश कराने आते थे। परंतु जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने कभी इस तरह की कोई सिफ़ारिश मुझसे नहीं की। अपने मित्रों और परिचित जनों तक से उन्होंने सदा यही कहा कि संपादक की स्वतंत्रता हरण करने का हक़ हमें नहीं। मुझ पर उनके इन विचारों का बड़ा असर पड़ता था। मैं उन्हें सदा याद रखता था। उन्हीं की प्रेरणा से मैं अन्याय से यथाशक्ति बचने की चेष्टा करता था।

    मेरी समालोचनाओं से कितने ही सज्जन उद्विग्न हो उठते थे। वे उनका खंडन करते थे। कटूक्तियों से काम लेते थे। मुझ पर तरह-तरह के इलज़ाम लगाते थे। उन्हें सुनकर चिंतामणि बाबू कभी-कभी ख़ूब हँसते, मज़ाक़ करते और कहते—आपकी उम्र बढ़ जाएगी। इन्हें आप आशीर्वाद समझिए। इन खंडनात्मक लेखों से इंडियन प्रेस और 'सरस्वती' का अच्छा विज्ञापन हो रहा है। इस तरह की प्रत्यालोचनाओं पर उन्होंने कभी अप्रसन्नता नहीं प्रकट की। परंतु जिस तरह मैं इंडियन प्रेस और 'सरस्वती' को अपनी ही मिलकियत समझकर उनकी सेवा में दत्तचित्त रहता था उसी तरह उन दोनों ने भी कभी मुझे अपने से भिन्न नहीं समझा। कई दफ़े कुछ लोगों ने चिढ़कर मेरे लेखों के उत्तर में कटूक्तियों और कुत्साओं से पूर्ण लेख मेरे पास भेजे। मैंने उन्हें चिंतामणि बाबू के पास भेज दिया और पूछा कि प्रेस की कोई हानि हो तो ये छाप दिए जाएँ। उत्तर मिला—हरगिज़ नहीं। जिसे 'सरस्वती' संपादक की कुत्सा और निंदा करनी हो वह उनकी प्रकाशन ख़ुशी से अन्यत्र करे। इंडियन प्रेस ऐसा कदापि होने देगा। 'सरस्वती' संपादक इंडियन प्रेस का एक अंश है। उसकी अकारण निंदा के प्रकाशन की आशा प्रेस का प्रोप्राइटर दे! ऐसा अधर्म उससे हो सकेगा।

    एक दफ़े मैं एकाएक बीमार पड़ गया। जिगर बहुत बढ़ गया। हल्के से भी हल्का भोजन पचने लगा। डॉक्टरों ने डरा दिया। उनकी बातचीत से सूचित हुआ कि शायद मेरी परमायु समाप्ति की सीमा के निकट है। इस पर मैंने तीन-चार दिन में धीरे-धीरे सामग्री एकत्र करके 'सरस्वती' को अगली तीन संख्याओं का मसाला एक ही साथ प्रेस को भेज दिया। मैंने लिखा कि यदि डॉक्टरों का अनुमान सही निकले तो मेरे बाद भी तीन महीने तक 'सरस्वती' समय पर निकलती रहे—यह सूचना देनी पड़े कि संपादक के मर जाने से वह देर से निकल सकी या बंद रही। तीन महीने में कोई दूसरा संपादक मिल ही जाएगा। इस चिट्ठी को पाते ही चिंतामणि बाबू ने अपने मैनेजर गिरिजा बाबू को दूसरी ही गाड़ी से कानपुर रवाना किया। वह उतरते ही उन्होंने दूसरे वेंन की गाड़ी का एक कमरा 'रिज़र्व' कराने के लिए स्टेशन मास्टर को दरख़्वास्त दे दी। मेरे स्थिति-स्थान पर आकर उन्होंने मुझे इलाहाबाद ले जाना चाहा। कहा—बड़े बाबू आपका इलाज वह एक नामी डॉक्टर (शायद अविनाश बाबू) से करावेंगे। गाड़ी 'रिज़र्व' करा आया हूँ। सबको साथ लेते चलिए यह सुनकर मेरे नेत्रों से आनंद रुक पड़े, जिन्हें गिरिजा बाबू ने अपने रुमाल से पोंछा कुटुंबियों ने मुझे इलाहाबाद जाने दिया। अन्न का सर्वथा त्याग और केवल बकरी के दूध के थोड़े-थोड़े ग्रहण से मैं अच्छा हो गया। चिंतामणि बाबू से मिलने गया तो मुझसे लिपट कर उन्होंने अलौकिक प्रेम का प्रदर्शन किया। बोले, सरस्वती और इंडियन प्रेस के हितचिंतकों के आप शिरोरत्न हैं। उनके ऐसे विचार केवल उनकी उदारता के सूचक थे। मैंने उनकी इतनी कृपा का मुस्तहक अपने को तो कभी समझा नहीं। मैंने जो कुछ किया, सिर्फ़ इतना ही कि 'सरस्वती' की कॉपी सदा समय पर भेजी; कभी एक दफ़े भी इसमें त्रुटि नहीं होने दी। बस।

    चिंतामणि बाबू की कृपाओं का कहाँ तक उल्लेख करूँ। मुझे अस्वस्थ देख, बिना दरख़्वास्त ही के, उन्होंने मुझे दो दफ़े एक-एक साल की रियायती छुट्टी दे दी। इस संबंध में मैं पंडित देवीप्रसाद शुक्ल का भी अत्यंत कृतज्ञ हूँ। क्योंकि मेरा काम उन्होंने बड़ी ही लगन के साथ निबाहा, और विश्वास कीजिए, बदले में उन्होंने हम लोगों की केवल कृतज्ञता ही ग्रहण की। 'सरस्वती' का काम छोड़ने पर भी इंडियन प्रेस की कृपा मुझ पर जो पूर्ववत बनी हुई है इसका कारण चिंतामणि बाबू और उनके उत्तराधिकारियों की उदारता के सिवा और कुछ नहीं।

    चिंतामणि बाबू के विशाल हृदय में औदार्य का निःसीम वास था। उसका व्यवहार वे मेरे ही विषय में नहीं, अपने विपक्षियों तक के विषय में करते थे। कुछ लोगों की सहायता उन्होंने हज़ारों रुपए देकर की थी। पर उन्होंने कृतघ्नता की। प्रेस की कुछ पुस्तकें स्कूलों में पाठ्य-पुस्तकें नियत थीं। वैसी ही दूसरी पुस्तकें तैयार करके उन लोगों ने प्रेस को अपदस्थ करने की बड़ी चेष्टा की। परंतु वे असफ़ल रहे। सुनकर आप आश्चर्य करेंगे, वही लोग जब फिर चिंतामणि बाबू को शरण आए तब उन्होंने उलाहने का एक शब्द भी मुँह से निकाल कर, उन्हें पुनरपि अपना लिया। इसी तरह सरस्वती को हानि पहुँचाने की चेष्टा करने वाले भी कुछ सज्जनों की सहायता, उनके दुष्कृत्यों की कुछ भी परवा करके, उन्होंने—टाइप, मशीन तथा प्रेस का अन्यान्य सामान देकर की। पूछने पर कहा—मेरा यही व्यवहार इन लोगों के लिए सबसे बड़ी सज़ा है।

    चिंतामणि बाबू की तंदुरुस्ती बहुत अच्छी थी। उनका विस्तृत ललाट और प्रकांड शीर्ष उनके हृदय की महत्ता और श्रीसंपन्नता की सूचना देता था। जब से उनके नेत्रों की ज्योति जाती रही तब से उन्हें कष्ट का अनुभव होने लगा। भावी प्रबल होती है। एक अनभिज्ञ नेत्र-वैद्य (योरपीय डॉक्टर) की असफ़ल शस्त्र क्रिया से उनकी दृष्टि सदा के लिए जाती रही। इसके अनंतर उन्हें अपनी पत्नी, ज्येष्ठ पुत्र और ज्येष्ठ कन्या के चिर-वियोग का दुःख वहन करना पड़ा। तथापि मिलने पर कभी उन्होंने इन कारणों से, कातरता अथवा नैराश्य नहीं प्रकट किया। अगर कभी कुछ कहा तो केवल इतना ही कि मेरी माता अभी तक जीवित हैं। उन्हें ये सब दुर्घटनायें अपनी आँखों देखनी पड़ीं। माता का भी अभी कुछ समय पूर्व ही शरीर छूटा है। अत्यंत जराजीर्ण और शिविल शरीर होने पर भी उन्होंने स्वयं ही उनका सारा अन्त्येष्टिकम्, बड़े ही भक्ति-भाव से, किया। वे परम मातृभक्त थे।

    ऐसे सुजन, ऐसे पर दुःख-कातर, ऐसे उदाराशय और ऐसे व्यवसायदक्ष पुरुष के किन-किन गुणों का स्मरण किया जाए। उन्होंने अपने ही बाहुबल और अपने ही कार्य कौशल से इंडियन प्रेस को उन्नति के चरम सोपान तक पहुँचा दिया। उसकी बदौलत आज सैकड़ों हज़ारों आदमियों का पालन हो रहा है। हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि करने का सबसे अधिक श्रेय, इस प्रांत में, इसी प्रेस को है। मेरी तो यह धारणा है कि इस संबंध में शायद ही इस देश में किसी और प्रेस ने इतनी नामवरी हासिल की हो। सौभाग्य से चिंतामणि बाबू के आत्मन भी उन्हीं के सदृश-किंबहुना उनसे भी अधिक कर्मठ, उद्योगशील, व्यवहार-निपुण और उदारचेता है। जब से उन्होंने प्रेस का प्रबंध अपने हाथ में लिया है तब से उसकी और भी अधिक उन्नति हुई है और दिन-दिन होती जाती है।

    यह स्वल्प लेख चिंतामणि बाबू का जीवन-चरित नहीं। उसे लिखने की योग्यता ही मुझमें नहीं। यह तो उनके संबंध की मेरी कुछ स्मृतियों का चित्रण मात्र है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-5 (पृष्ठ 477)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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