रूपी

rupi

 

1


वह इसके लिए पैदा नहीं हुई थी। कई बार इस दलदल से निकलने की उसने कोशिश भी की। मधुपुरी सवा सौ वर्ष पुरानी बिलासनगरी है, उसके पहले वही लोग यहाँ के घने जंगलों में अपने पशुओं को चराते थे, जो अब भी उसकी सीमा के बाहर अपने छोटे-छोटे गाँवो में रहते हैं। सभी बातों में यह लोग बहुत पिछड़े हुए हैं, लेकिन पिछड़ा होने का मतलब बुरा होना नहीं है। मधुपुरी के बसने के पहले यह अव्वल नंबर के ईमानदार थे और दूसरों की अपेक्षा अब भी हैं। व्यभिचार इनके यहाँ नहीं था, हाँ, एक पुरानी परिपाटी इनके यहाँ चल रही थी, जो दूसरी जगहों में सहस्र सदियों पहले उठ चुकी है। अतिथि सेवा इनमें परम धर्म मानी जाती थी, और अतिथि का सत्कार खान-पान से ही नहीं, बल्कि स्त्री को भी सुलभ करके वह करते थे। लेकिन, जब उन्हें मालूम हुआ कि ये बाहर से आने वाले अतिथि ऐसी सेवा का दुरुपयोग करते हैं, तो यह उससे हट गए। ग़रीबी कहाँ नहीं है, लेकिन इनमें खाते-पीते लोगों की संख्या बहुत कम थी। रूप-रंग में यहाँ की तरूणियाँ ज़ियादा अच्छी होती हैं, यह भी इनके लिए घाटे का सौदा हुआ। मधुपुरी ने यहाँ बस कर यहाँ की तरूणियों के जीवन के साथ मेला-उत्सव करना शुरू किया।
 
उसकी माँ जब तरूणी थी, तो मधुपुरी के मेला-उत्सव में अपनी सहेलियों के साथ आती। फिर किसी तरह एक देशी सैनिक के साथ उसका भाग्य जुट गया। दोनों पति-पत्नी के तौर पर रहते। उन्हें एक कन्या पैदा हुई, रूप-रंग में माँ से अधिक सुंदरी थी। उसने बचपन से दो नागरिक जीवन को देखा, उसका नाम रूपी रखा गया। बाप अपनी कन्या के बारे में कितने ही मनसूबे रखता था। लेकिन, अनेक बापों की तरह उसका भी मनसूबा धरा रह गया, जब कि चार वर्ष की बच्ची को छोड़ कर वह चल बसा। माँ तरुणी थी। परिस्थितियों ने चाहे जो भी उससे कराया हो, लेकिन यह स्वभावतः बुरी नहीं थी। दुनिया उसके लिए सूनी हो जाती है, जब तरूणा स्त्री असहाय छोड़ दी जाती है। अपने सैनिक पति की नगरी में भी शायद कोई रखने वाला उसे मिल जाता, लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ, या उसे स्वच्छंद पहाड़ी जीवन प्रिय लगा। यह फिर मधुपुरी चली आई और एक दुबले-पतले पहाड़ी चौकीदार से उसका नाता जुट गया। पति दो भाई थे। अभी भी इस अंचल में पांडव-विवाह की प्रथा है, जिसे लोग बाहरवालों के सामने छिपाने की कोशिश करते हैं। यह छोटे पति को देवर कहा करती, और अब बड़े के मर जाने पर उसे जेठ का नाम देती है।
 
करेला और नीमचढ़ा−गाँव के जीवन को नागरिक जीवन में परिवर्तित करने पर यह कहावत लागू नहीं होती, यह ठीक है; किंतु पहाड़ी ग्राम के सीधे-सादे जीवन पर नागरिक जीवन जब हावी हो जाता है, तो वह अति को पहुँचा देता है। गाँव में रहते समय चाहे कुछ स्वच्छंदता बरती जाए, लेकिन यहाँ समाज का कानून सिर पर रहता है, जाति बिरादरीबालों की राय की पर्वाह करनी पड़ती है। उनका समाज इसे बुरा नहीं मानता, यदि कोई स्त्री अपने एक पुरुष को छोड़कर दूसरे से ब्याह कर ले, उसे केवल ब्याह का ख़र्च लौटाना पड़ता है। लेकिन, सिपाही की स्त्री मधुपुरी जैसी बिलासपुरी में आकर रहने लगी, तो उस पर वहाँ के आकर्षण और प्रलोभन अपना असर करने लगे। चौकीदार की तनख़ाह दी कितनी होती है, फिर उसकी तीन-चार और संतानें भी हो गईं। सात-सात आठ-आठ आदमी का ख़र्च चलना मुश्किल था, यद्यपि घर भर मेहनत करने के लिए तैयार था। वह पास के जंगलों से लकड़ियाँ काट कर बेचते। बंगले में साग-सब्ज़ी उगाने लायक़ काफ़ी ज़मीन थी, लेकिन पानी का आभाव था, इसलिए उसका कोई उपयोग नहीं लिया जा सकता था। मधुपुरी में दूध की भी बड़ी माँग है, और सारी कड़ाइयों के रहने पर भी उसमें पानी पड़ना रोका नहीं जा सकता। किन्हीं-किन्हीं चौकीदारों ने गायें पास रखी है, कुछ बकरियाँ भी पास लेते हैं, क्योंकि क़साई बकरों का अच्छा दाम दे देते है। लेकिन चौकीदार ने कभी अपने यहाँ कोई जानवर नहीं पाला शायद नगरी के एक छार पर जंगल के बीच होने के कारण यहाँ बघेरे का डर बना रहता है, इसलिए उसने पशुपालन पसंद नहीं किया, अथवा उतना पैसा नहीं जुट सका, कि जानवर ख़रीदे। हाँ, नगर के छोर पर तथा बाहर के गाँवों के पास होने से एक सुभीता उसे यह ज़रूर था, कि गाँव की बनी सस्ती शराब को लाकर दूने दाम पर यहाँ के लोगों को पिलाए। उस समय अभी आसपास के गाँव अँग्रेज़ी भारत में नहीं, बल्कि रियासत में थे, इलाक़े में शराब बनाने में कोई बाधा नहीं थी। बाधा अब भी नहीं है, क्योंकि यदि क़ानून कड़ाई करना चाहता है, तो गाँव के गाँव को ले जाकर जेल में बंद करना पड़ेगा, और गाँधीजी के असहयोग आंदोलन का नज़ारा सामने आएगा, हज़ारों-हज़ार क़ैदियों का भरण-पोषण करना सरकार के लिए सिरदर्द का कारण होगा। लेकिन, मधुपुरी के एक बंगले में ऐसा करना आसान नहीं था। कभी-कभी पुलिस भी छापा मारती। लेकिन, चौकीदार काफ़ी होशियार था, पुलिस के पहुँचते ही जवानों के लिए उसने सस्ती शराब की सदावर्त खोल रखी थी।
संक्षेप में परिवार की जीविका के यही साधन थे।
 
 
2
 
'बुभुक्षितः किं न करोति पाप' की बात इस परिवार के ऊपर घटने लगी, जब कि बच्चे सयाने होकर अधिक खाने और कपड़े की माँग करने लगे। अपनी सामाजिक प्रथा के अनुसार बड़ी लड़की को किसी अपने ज़ात-भाई को विवाह कर कुछ रुपया मिल सकता था, लेकिन यह रुपया बहुत कम होता, जो एक-दो महीने में ख़त्म हो जाता। माँ को नगर की हवा लग चुकी थी। उसके दोनों पति बिलासपुरी के निवासी होने के कारण कितनी ही बातों को जानते थे। आख़िर व्याह के लिए पैसा लेना भी लड़की को बेचना था। एक बार के बेचने में कम और रोज़-रोज़ के बेचने में ज़ियादा पैसा तथा स्थायी आमदनी होने लगे, तो इससे बढ़कर क्या बात हो सकती थी लड़की चोकीदार या उसके भाई की नहीं थी। यदि होती भी तो कुछ दूसरा ख़याल करते, इसकी कम संभावना थी। शायद तल्पाई में पैर रखने पर शराब पीने के लिए कुटिया में पहुँचने वाले लोगों से की छेड़छाड़ होने लगी थी। उसकी माँ मधुबाला थी, शायद उसने भी लड़की के लिए रास्ता साफ़ किया था। लेकिन इस बंगले में जिस तरह निर्द्वंद्व शराब के ग्राहक मिल सकते थे वैसे रूप के ग्राहक नहीं मिल सकते थे। कभी-कभी से कितनी आमदनी होती? माँ ने सलाह ही नहीं दी, बल्कि वह एक दिन अपनी लड़की को लेकर देश के एक नगर में पहुँच गई। वेश्यावृति भी नागरिक सभ्यता का एक अभिन्न अंग है, और नगरों के अस्तित्व में आने के साथ ही यह अस्तित्व में आई भी। उसके कई प्रकार हैं। कुछ वेश्याएँ नाच-गाने का पेशा भी करती हैं, कुछ को ऐसी किसी कला से प्रयोजन नहीं, वह ख़ुद केवल अपने शरीर को बेचती खुले आम बाज़ार में बैठती हैं। एक तीसरी तरह की वेश्यावृत्ति को भी स्थान है, जिसमें पेशेवर और ग़ैर पेशेवर दोनों प्रकार की शरीर बेचने वाली सामूहिक रूप से वेश्यावृत्ति करती है, जिसे चकला कहते हैं। यदि माँ चकले से बिलकुल अपरिचित होती, तो एकाएक लड़की के साथ वहाँ पहुँच जाना उसके लिए संभव नहीं था।
उसका नाम अच्छा-सा किसी और ही ख़याल से रखा गया था, लेकिन उसके आज के जीवन में उस नाम को दोहराना अच्छा नहीं है। रूप से आजीविका करने के कारण हम उसे रूपजीवा या रूपी कहते हैं। पहले-पहल चकले का जीवन शुरू करने में उसको बहुत बेचैनी हुई, पर माँ ने पहले ही से इस पथ के लिए तैयारी कराई थी। यह ठंडे पहाड़ की रहने वाली थी, और देश के नगर चार-पाँच महीने से अधिक उसके अनुकूल नहीं हो सकते थे। पहला जाड़ा किसी तरह उसने चकले में बिताया। चकले की दलाल स्त्री उसके घर का प्रबंध करती, ग्राहक पैदा करती और खाने-पीने की चीज़ों के मुहय्या करने में सहायता करती यह सब वह मुफ़्त थोड़े हो कर सकती थी? इसलिए रूपी को अपने बेचने की क़ीमत का कितना ही भाग उसे दे देना पड़ता था। तो भी उसने पहले जाड़ों में अपने लिए कुछ कपड़े और ज़ेवर बनवाए, माँ और भाइयों के लिए भी कुछ ख़रीदा और सौ रुपया नगद लेकर मधुपुरी लौट आई।
 
अब गर्मियों और बरसात में मधुपुरी और जाड़ा तथा बसंत में देश के किसी नगर में यह जाया करती। वह न शिक्षित थी और न शिक्षित समाज में पली थी, इसलिए उच्च आदर्श क्या है इसकी भनक भी उसके कान में नहीं पड़ी थी। लेकिन, अपने व्यवहार से कीचड़ में गिरी होने पर भी यह स्वार्थ में डूबी नहीं थी। यह समझती थी, कि अपने भूखे परिवार की सहायता करना मेरा कर्तव्य है। कर्तव्य भी उसकी समझ से बाहर का शब्द था, सीधी बात यह थी कि भूखे पेट चिथड़े लपेटे अपने परिवार को देखकर उसका दिल तिलमिला जाता और उसका ही उपचार वह इस प्रकार सहायता पहुँचा कर कर रही थी।
 
 
3
 
मौसम बीतते वर्ष बीत रहे थे। उसने 14-15 वर्ष की उमर से इस जीवन को स्वीकार किया था। उस समय से अब उसकी बुद्धि भी ज़ियादा विकसित हो चुकी थी। पहले घुटनों चलते बालक की तरह अपनी माँ की अंगुली पकड़ कर चलना ही भर वह जानती थी। अब वह कुछ ख़ुद सोचने लगी थी। उसके परिवार की स्थिति इस सहायता से सुधर नहीं रही थी। माँस और शराब घर में कुछ और खाई-पी जाती, कुछ दिनों में पैसे ख़र्च हो जाते तथा ग्राहकों के दुर्लभ हो जाने पर फिर भूखे पेट रहने लगते। चिथड़े कभी थोड़े दिनों के लिए उतर जाते और कबाड़िये की दूकान से कोर्इ सूती या ऊनी कोट आ जाता, लेकिन कुछ ही दिनों बाद वह फिर बिक जाते और कोने में फेंके चिथड़े फिर शरीर पर पड़ जाते। रूपी चीथड़े लपेट कर नहीं चल सकती थी, तब उसे ग्राहक कहाँ से मिलते? उसके शरीर को मांसल रखना भी आवश्यक था, इसलिए परिवार भले ही भूखा रहे, लेकिन उसे भूखा नहीं रखा जाता।
 
वेश्यावृत्ति को सभी धर्मों ने पाप बताया है और इसके लिए नर्क में कठोर यातनाओं का चित्र खींचा है, लेकिन हज़ारों वर्षों से नर्क की धमकी दी जा रही है, तो भी वेश्यावृत्ति कम होने की जगह बढ़ती ही गई। उधार के दंड का यहाँ कोई सवाल नहीं, क्योंकि धीरे-धीरे प्रकृति भी इसे बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हुई, और उसने इसी जन्म-आँखों के सामने घोर दंड देना शुरू किया, और रतिज रोग (सूज़ाक और गर्मी ने दुनिया में अपना फैलाव शुरू किया। कौन देश है, जहाँ थैली का बोलबाला हो, और यह दोनों उसके अभिन्न सहचर आ मौजूद न हो! पुरियों और बिलासपुरियों में तो इनका और भी ज़बर्दस्त प्रभाव है। ठंडे पहाड़ों को देखकर अँग्रेज़ों ने जहाँ-जहाँ गोरों की छावनियाँ बनाई, वहाँ दस-दस मील चारों तरफ़ लोग इनके मारे त्राहि-त्राहि करने लगे। अगर इनके प्रभाव की मात्रा को जानना हो तो किसी गाँव में कितने निस्संतान परिवार हैं, इसे पूछ लीजिए। सूज़ाक आदमी को निस्संतान बनाता है। शिमला के पास ऐसे कितने ही गाँव मिलेंगे, जिनके आधे घर निस्संतान होकर उजड़ गए। पेनिसिलिन उसकी अमोघ दवा है, लेकिन एक बार अच्छा करके भी तो मुक्ति नहीं मिल सकती, यदि समाज में उसका बहुत फैलाव है और ऐसे स्त्री-पुरुषों का संसर्ग हो। गर्मी या आतशक उससे भी भयंकर है, क्योंकि यह निस्संतान तो नहीं करती, लेकिन कोढ़ को पैदा कर देती है। रूपा अपने इस जीवन में इन भयानक रोगों से कैसे बच सकती थी? तीन साल भी बीतने नहीं पाए कि वह आतशक का शिकार हुई। जब बनिए ने हाट लगा दी, तो वह किसी ग्राहक के हाथ में अपने सौदे को बेचने से इंकार कैसे कर सकता है। आज से डेढ़ हज़ार वर्ष पहले शूद्रक ने अपने 'मृच्छकटिकम' नाटक में लिखा था−
‘चाप्यां स्नासि विचक्षणों द्विजवर: मूर्खेपि वर्गाधम:
फुल्ला नाम्यति वायसोप बिहगो या ममिता धर्हिणा।
द्रहाक्षत्रविश: तरंति च बया नाबा तथेवेतरे
सा वापीष सतेय नौरिव जनं वेश्यासि सर्व भज’।
 
इस प्रकार बावड़ी, लता और मौक़ा की तरह वेश्या को किसी के साथ भेदभाव न करके उसकी सेवा करने के लिए उसी काल की तरह आज भी तैयार रहना पड़ता है। रूपी की बीमारी बहुत भयंकर थी, पाप हो गए थे, उसे चलना-फिरना मुश्किल हो गया था। उसे मधुपुरी के अस्पताल में ले गए। दवाई होने लगी, लेकिन सात रूपए रोज़ यहाँ देना उसके लिए बहुत दिनों तक संभव नहीं था। घाव अभी पूरी तरह अच्छा नहीं हुआ था, तभी यह यहाँ से चली आई सौतेले बाप का गाँव अब भी मौजूद था, वहाँ कुछ खेत भी थे, और एक टूटा-फूटा घर भी। यह पर्दा भेज दी गई। उसे मालूम होने लगा, कि यह जीवन भारी संकट का है। उसे हल की बीमारी में मृत्यु के मुँह साफ़-साफ़ दिखाई पड़ते थे। शायद वह यह न जानती थी कि कुष्ट में परिणत होकर उसका जीवन उस मृत्यु से भी कहीं अधिक भयंकर होता। जब तक रोग छिपा रहे, तभी तक ग्राहक आ सकते थे, जब उन्हें साफ़ मालूम हो, तो कौन अपने गले में अपने हाथ से फाँसी लगाना चाहेगा? यदि उसे अपनी हाट उठा देनी पड़ी, तो फिर क्या वह दाने-दाने के लिए मुहताज नहीं होगी? उसने और दूसरी जगहों पर सैकड़ों की तादाद में कोढ़ी स्त्रियों को नहीं देखा था, नहीं तो जानती कि उनमें से अधिकांश रूप की हाट लगाने के कारण ही इस मौत से भी बदतर ज़िंदगी को भोगते कड़ी धूप में रास्ते के किनारे बैठी भीख माँग रही हैं।
 
जो भी हो, ख़तरे का उसे पता लग गया। बीमारी न होती, तब भी उसे यह ख़याल तो आता ही था, कि रूप आजीवन साथ नहीं रहता, यौवन बादल की छाया की तरह इतना जल्दी निकल जाता है, कि पता नहीं लगता उसे इस बात की फिकर पड़ी, कि किस तरह इस जीवन से निकला जाए। स्वस्थ हो जाने पर फिर उसे आधा समय देश के शहरों के चकलों में और आधा समय अपनी माँ की कुटिया में उसी जीवन को बिताना पड़ेगा। लेकिन जिस तरह चकले का रास्ता पा जाना उसके लिए आसान था, उसी तरह उससे निकलने का रास्ता आसान नहीं था। पहले उसके चेहरे पर मुस्कुराहट खेला करती थी, अब वह साफ़ दिखलावटी मालूम होती थी−वह कभी-कभी आती और वह भी कृत्रिम मालूम होती। रूपी रूपजीवा थी ज़रूर लेकिन यह निर्लज्जा नहीं थी। शास्त्र में 'सल... गणिका नष्टा' कहा गया है। इसका कुछ प्रभाव उसके व्यवसाय पर भी पड़ सकता था। वह सचमुच सुंदरी थी, जिसमें यौवन ने मिलकर बहुत आकर्षण पैदा कर दिया था।
 
 
4
 
अँधेरे में उसने बहुत हाथ-पैर मारा। जो भी ग्राहक उसके पास आते, सभी अपना अनन्य प्रेम दिखलाते हुए उसपर अपने को न्योछावर करते। लेकिन, उसने सैकड़ों मुखों से यही बात सुनते-सुनते अब पुरुषों के प्रति विश्वास खो दिया था। बीमारी एक नहीं, दो मर्तबे आई और फिर उसने दवाई सुनने से इंकार कर दी। अब यह यौन-रोग को निर्बाध रूप से वितरित कर रही थी, लेकिन तो भी गुड़ के ऊपर टूटने वाली मक्खियों की तरह पुरुषों की कमी नहीं थी। कुछ उसके स्थायी ग्राहक बन गए थे, और कुछ कभी-कभी आते थे। चकले नगर के अँधेरे कोने में होते हैं, और वहाँ बहुत भय भी रहता है, इसलिए ग्राहकों को छिपकर ही पहुँचना पड़ता है। पर, मधुपुरी में रहने के समय उसका दरबार खुल्ला-सा चलता। पुलिस बहुत दूर नहीं रहती थी, क़ानून भी बाधक था, लेकिन जिस तरह उसकी कुटिया में सस्ती शराब बराबर बिकती रहती, उसी तरह सस्ता रूप भी मधुपुरी में बड़े-बड़े लोग ही अपनी स्त्रियों के साथ आते हैं। छोटे-मोटे काम करने वाले चाहे पहाड़ी हों या देशी, सभी अकेले आते हैं। रूपी ने अपनी क़ीमत बढ़ा-चढ़ा कर नहीं रखी थी, इसलिए भी ग्राहकों की कमी नहीं होती थी। पिछले छह-सात सालों में उसे कितनी बार कई महीनों के लिए अपने गाँव में जाकर रहना पड़ा, जिसका मतलब यही था कि बीमारी ने उसे व्यवसाय के लायक़ नहीं रखा था।
 
रूपी अब 25 से ऊपर की हो गई थी। इधर पाकिस्तान बनने के बाद पंजाब से भागे कितने ही साधारण लोग मधुपुरी में भी रोज़गार के पीछे या सैर करने के लिए आते थे। जिनमें से कुछ उसके स्थायी ग्राहक ही नहीं बन गए, बल्कि ब्याह का प्रलोभन भी देने लगे। स्त्रियों की जहाँ कमी हो, वहाँ उनका मूल्य बढ़ जाता है। एक तरूण दर्ज़ी उसके यहाँ बराबर आने-जाने लगा। उसने जब पहले ब्याह का प्रस्ताव किया, तो रूपी ने इंकार तो नहीं किया, किंतु यह विश्वास नहीं कर सकी। अब वह ज़ियादा उतावली हो उठी थी। बीमारी और उससे भी ज़ियादा जवानी के हाथ से निकलने का भय उसको हमेशा सताया करता था। उस साल की गर्मियों में दर्ज़ी बराबर उसके यहाँ आता रहा और जाड़ों में नीचे के नगर में जाने के लिए तैयार हो गया।
 
रूपी फिर उन्हीं नगरों में से एक में गई, जिनके चकलों में वह फेरा लगा चुकी थी। दर्ज़ी ने बड़ी ख़ातिर से रखा। उसके घरवाले कुछ मामूली सा विरोध करते रहे, लेकिन वह जानते थे कि अपनी जाति की कन्या को पाने की हमारे पास हैसियत नहीं है, इसलिए उन्होंने भी अपनी मूक सहमति दे दी। रूपी की माँ से जब कोई पूछता, तो वह बड़े तपाक के साथ कहती−ससुराल गई है।
 
जाड़ों को बिता कर गर्मियों में यह फिर मधुपुरी लौट आई। दर्ज़ी इस साल नहीं आया, क्योंकि उसकी दुकान नीचे चलने लगी और मधुपुरी में ज़रूरत से अधिक दर्ज़ी आकर बैठ गए थे। रूपी को देखने ही से मालूम होता था, कि दर्ज़ी ने उसको बहुत अच्छी तरह से रखा था। उसके गालों पर फिर सुर्ख़ी आ गई थी, मांस भी बढ़ गया था, आँखें जो पहले दबी-दबी रहती थी, वह अब उभड़ी और चमकीली हो गई थीं। दर्ज़ी ने उसे अच्छे कपड़े का सलवार और दुपट्टा बना दिया था। एक सुंदर ओवरकोट उसके शरीर की शोभा को बढ़ाता था। दर्ज़ी ने सोचा था, ठंडी जगह की स्त्री नीचे की गर्मी को एकाएक बर्दाश्त नहीं कर सकती, इसलिए उसके ख़र्च-वर्च का इंतिज़ाम करके मधुपुरी भेजा था।
 
लेकिन, मधुपुरी में आकर तो उसे अपने उसी परिवार में रहना था, उसी में उठना-बैठना था, जिसमें उसकी माँ मधुबाला बनकर रहती थी। शराब और रूप दोनों के ग्राहक यहाँ बराबर आया करते थे। माँ कैसे पसंद करती कि हाथ में आई लक्ष्मी को लौटाया जाए? रूपी के पहले के कितने ही घनिष्ट उसके रूप के नए निखार को देखकर कैसे चुप बैठ सकते थे वह सोचने लगी, मैंने यहाँ आकर भूल की। लेकिन जब उसे यह बात साफ़-साफ़ समझ में आने लगी तब तक नीचे लू चलने लगी थी−अख़बारों को पढ़ सकती, तो देखती, कि यहाँ 112 और 115 डिग्री की गर्मी है। ऐसी लू में वहाँ जाकर कोई पहाड़ी बच नहीं सकता, यह वह जानती थी, तो भी उसने अपने दर्ज़ी पति को चिट्ठियाँ लिखवाई, कि आकर ले जाओ। पर वह इस तरह का ख़तरा मोल लेने के लिए तैयार नहीं था। रूपी मुश्किल से एक महीने तक अपने को बचा पाई। इसमें भी किसी न किसी बहाने से कई बार उसको अपनी माँ और सौतेले बाप की झिड़कियाँ खानी पड़ीं। सबने फिर उसी गढ्ढे में उसे ढकेला।
 
गर्मियां बीती, वर्षा शुरू हो गई। ढाई-तीन महीने आए हो गए थे। पैर भारी है; यह देर से मालूम हुआ। उसकी और उससे भी अधिक उसकी माँ की इच्छा थी, कि दर्ज़ी जल्दी कर ले जाए। दर्ज़ी की चिट्ठियाँ बराबर आती थीं और वह अपने प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए कभी-कभी सिनेमा के गाने की कुछ पंक्तियाँ भी उद्धृत कर देता। अचानक एक बार उसने अपनी चिट्ठी में लिखा मेरे माँ-बाप तुम्हें लाना पसंद नहीं करते। रूपी के पैर से धरती निकल गई। अब क्या किया जाए? माँ के सामने पह हमेशा दबती रहती थी, लेकिन अबकी उसने उसे बहुत फटकारा−मैं दलदल से निकल चुकी थी, तुमने मुझे अपने लोभ के लिए फिर गड्ढे में ढकेला। दर्ज़ी की इंकार सूचक चिट्ठी मिली, उसने जब उसे पढ़वा कर सुना तो वह अपने को संभाल न सकी और फूट-फूट कर रोने लगी।
 
उसकी माँ की मधुशाला यद्यपि क़ानून की दृष्टि से एक गुप्त चीज़ थी, लेकिन अंतर्जगत् के लोग उसे अच्छी तरह जानते थे। रूपी के 'ससुराल' से लौटकर आने की ख़बर जहाँ पुराने भँवरों को लगी, वहाँ इनके मँडराने और फूल सूँघने की गंध कुछ ऐसे आदमियों को भी लग गई, जो दर्ज़ी के परिचित थे। उन्होंने चिट्ठी में सारी बात उसके पास लिख दी। यहाँ बैठी बैठी झूठी-सच्ची सफ़ाई पेश करना भी रूपी के लिए आसान नहीं था। फिर उस सफ़ाई को यहाँ मानता ही कौन? तो भी उसने गिड़गिड़ाकर एक-पर-एक चिट्ठियाँ लिखी दर्ज़ी का दिल नरम हुआ। शायद वह यह भी समझता था कि यदि यह स्त्री हाथ से गई, तो हमेशा के लिए में आनंदहा ही रह जाऊँगा। एक दिन जब वह माँ की मधुशाला में पहुँच गया, तब भीतर से शक्ति होने पर भी रूपी के मन में बड़ा संतोष हुआ। उसने किसी बहाने जल्दी चलने के लिए कहा।
 
 
5
 
माँ ने लड़की को दर्ज़ी के साथ भेज दिया और बिना पूछे ही आसपास के लोगों को कहना शुरू किया—मेरी बेटी ससुराल चली गई। उसने उसके पास चिट्ठी भी लिखी, लेकिन महीनों कोई जवाब नहीं आया। एक दिन देखा, कि रूपी फिर उसके घर में आ गई है। दर्ज़ी उसे यहाँ छोड़ ज़रा भी न ठहरे चला गया। रूपी के चेहरे पर ख़ून नहीं था। मालूम होता था, कई महीनों से बुख़ार में पकड़ रखा है, आँखें भीतर धस गई थीं। दर्ज़ी भलेमानुस था, इसे वह मानने के लिए तैयार थी। उसने जो भी ज़ेवर कपड़े उसके लिए बनवा दिए थे, उनमें से किसी को नहीं लौटाया। वस्तुतः वह माँ-बाप से लड़-झगड़ कर उसे अपने पास रखने के लिए तैयार था। लेकिन, जल्दी ही मालूम हो गया कि उसके तो पाँच महीने का गर्भ है। पाँच महीने क्या उससे भी पहले से रूपी उसके पास नहीं थी। वह कैसे मान लेता, कि यह गर्भ मेरा है। इतनी कड़वी घूँट पीने के लिए उसका समाज तैयार नहीं हो सकता था। उसके समाज में किसी भी कुश से कन्या को ले लेना वैध था, लेकिन ऐसी अवस्था में नहीं। तो भी उस ईमानदार दर्ज़ी ने उसका अनिष्ट नहीं करना चाहा। किसी डॉक्टर से मिलकर या किसी दूसरी तरह गर्भ गिरवा दिया। दो-तीन महीने का होता, तो शायद स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव नहीं पड़ता किंतु गर्भ आधी अवधि पूरा कर चुका था, इसलिए जब रूपी मधुपुरी लौटी, तब भी रक्तस्राव हो रहा था।
 
उसके जीवन में एक बार उसकी लाली उसने अपने भावी जीवन के कितने ही सपने देखे। मालूम होता था, वह ज़मीन पर नहीं, आकाश में किसी देव-विमान में विचरण कर रही है। यह जीवन उसने वासन के वश में होकर स्वीकार नहीं किया, बल्कि दरिद्रता ने उसे यहाँ ढकेल दिया था। कई आशाओं और निराशाओं के बीच में होकर आख़िर उसे एक बार रास्ता मिला था, लेकिन वह फिर अब उसी खड्ड में।
 
शरीर की ऐसी अवस्था में मधुपुरी में रहना बेकार था, इसलिए उसे गाँव में भेज दिया गया। अबके सारे सीज़न−गर्मियों और बरसात दोनों को उसने गाँव में बिताया। मधुशाला की ओर जो दाढ़ी और बेदाढ़ी वाले, टोप और बेटोपवाले दर्जनों की संख्या में हर रोज़ आया करते, अब उनकी संख्या बहुत कम थी। शाम के वक़्त कोई-कोई शराब पीने के लिए आते। मालूम होता था, रास्ते पर फिर घास जम आएगा, जब चलने वाले पैरों की संख्या कम हो, तो वैसा होना ही था।
अक्टूबर के महीने में फिर रास्ता चालू हो गया। तरह-तरह की मूर्तियाँ उधर आती-जाती देखी जाने लगीं। बिना कहे भी मालूम हो गया कि रूपी आ गई है।
 
अब फिर उसका वही जीवन आरंभ हो गया है। दर्ज़ी के बनवाए हुए ओवरकोट, शलवार तथा दुपट्ट को पहन कर कभी-कभी वह बाहर भी जाती देखी जाती है। जो लोग दिल से चाहते थे कि इस जोबन से उसका निस्तार हो और जिन्होंने कुछ दिनों उसके परिवर्तित जीवन को देखकर बहुत ख़ुशी मनाई, उनकी ओर अब देखने की भी उसकी हिम्मत नहीं होती, वह अपने आप शर्म से धरती में गड़ जाती है। उसे चलते देखकर मालूम होता है, वह कोई मनुष्य नहीं, बल्कि यंत्र चल रहा है। उसके मन में अब क्या आशा हो सकती है? जीवन में एक ही बार समाज की अनेक बाधाओं को तोड़कर उसको निकलने का मौक़ा मिला था, और कितने सालों के प्रयत्न के बाद। अब क्या फिर कोई उस दर्ज़ी जैसा उसे मिलेगा।
 
मधुपुरी के लिए यह अकेली रूपी नहीं है, यहाँ और भी कितनी ही अपने जीवन को बर्बाद कर चुकी हैं। जब हम मधुपुरी के मधुर सौंदर्य की प्रशंसा करते नहीं थकते, उस समय हमें नहीं ख़याल आता कि इस सौंदर्य को पैदा करने के लिए कितने नर्क कुंड में पड़ने के लिए मजबूर हुए।

स्रोत :
  • पुस्तक : नयी धारा
  • रचनाकार : राहुल सांकृत्यायन
  • संस्करण : 1954

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