हज़रत मौलाना मदनी

hazrat maulana madni

कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

हज़रत मौलाना मदनी

कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

और अधिककन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

    शेख़ुल हिंद मौलाना हुसैन अहमद मदनी एक इतिहास-पुरुष थे−तारीख़ी इंसान थे, हदीस−इस्लामी धर्मशास्त्र के विश्वविख्यात विद्वान् थे, देश को सबसे महान् मुस्लिम शिक्षा-संस्था दारुल उलूम देवबंद के प्रिंसिपल थे, वे जीते जी शहीद थे, प्राचार्य-संत थे, संक्षेप में, एक महान व्यक्तित्व−एक ऊँची शख़्सियत थे, पर उनकी ज़िंदगी के इंसानी पहलू इतने मुलायम और मनोरम थे कि उनके पास बैठकर लगता था कि मैं चटाई पर नहीं, उनकी गोद में बैठा हूँ। ओह, कितने मीठे, कितने प्यारे, कितने भले और कितने भोले इंसान थे वे!

    यह कौन है? ताँगा जा रहा है और उसमें बैठे हैं एक बुज़ूर्ग। ताँगा दूकान के सामने से गुज़रता है और दूकानदार अपनी गद्दी पर खड़ा होकर उन्हें सलाम करता है। यूँ ही ताँगा चलता रहता है, लोग उठकर सलाम करते रहते हैं। जवाब में सबको बड़प्पन से ऐंठता गर्दन का झटका नहीं, प्यार-मोहब्बत भरा सलाम मिलता रहता है। यह कौन है, जिसके सामने झुककर इतने लोग सुख पाते हैं, जैसे उन्होंने अभी-अभी कोई सत्कर्म किया हो? यही हैं मौलाना मदनी−हरेक के लिए अपने।

    यही कहूँ, यहीं थे मौलाना मदनी, जो अब नहीं हैं, वे अपनी जगह एक इंसान थे और इंसानों से यह दुनिया भरी है, पर यह एक ऐतिहासिक सचाई है कि उनकी जगह आज ख़ाली है और सदा-सदा तक ख़ाली ही रहेगी−उसे भरनेवाला कोई नहीं है।

    1630 का आंदोलन पूरी तेज़ी पर आने लग रहा था और जगह-जगह विदेशी कपड़ों की दूकानों पर पिकेटिंग शुरू हो रही थी। स्वर्गीय भाई आनंद प्रकाश बेचैन थे कि देवबंद में भी विदेशी कपड़े पर पिकेटिंग शुरू हो, पर हम लोगों से शराब का पिकेटिंग ही नहीं संभल रहा था और कभी-कभी पूरे दिन भाई मामचंद जैन को अकेले वहाँ खड़े रहना पड़ता था। भूखे-प्यासे उनका मुँह सूख जाता और पैर भारी हो जाते, पर अपनी अखंड निष्ठा के बल वे खड़े रहते, क्योंकि उन्हें बहलाने के लिए कोई दूसरा स्वयं सेवक ही मिल पाता! फिर शराब की तो एक दुकान थी, पर कपड़े का तो पूरा का पूरा बाज़ार था।

    उसके लिए 80 स्वयंसेवकों को आवश्यकता थी। इन्हें जुटाने का ज़िम्मा मैंने लिया और देहातों में जलसों की झड़ी बाँध दी। कुछ ही दिनों में 80 स्वयं सेवक इकट्ठे हो गए।

    सत्याग्रह आश्रम में रखकर हमने उन्हें ट्रेंड किया कि वे किस तरह दूकान के सामने खड़े रहें, किस तरह ग्राहक से बातें करें और जब वह माने, तो किस तरह दूकान के सामने लेट जाएँ। यह भी कि लाठी चार्ज हो, तो किस तरह उसे झेलें और गिरफ़्तारी हो, तब किस तरह जाएँ!

    तय हुआ कि पहले दिन स्वयंसेवक पेट्रोलिंग करें−दूकान पर खड़े होकर बाज़ार में घूमते और विदेशी वस्त्र-विरोधी नारे लगाते रहें, दूसरे दिन से बाक़ायदा पिकेटिंग शुरू हो। मैंने एक जलूस के साथ स्वयंसेवकों को बाज़ार में घुमाया और उन्हें टोलियों में बाँटकर चला आया। ऐसे नारे लगे कि वातावरण जोश से भर गया और बजाजों के दिल हिल गए, पर शाम को नक़्शा एकदम बदला हुआ था।

    “पंडितजी! मैं मुसलमान बजाज की दूकान पर पिकेटिंग नहीं करूँगा।

    क्यों, क्या बात है?

    हममें मरने की ताक़त नहीं है।

    धीरे-धीरे बात खुली। एक छोटे से क़द के मुसलमान बजाज थे। नाम तो ख़ुदा मालूम क्या था उनका, पर सब उन्हें चिड़िया बजाज कहा करते थे। दिन में जो भी स्वयं सेवक उनकी दूकान के सामने से गुज़रा, उन्होंने उसे भैया-बेटा कहकर दूकान में बुलाया और एक तेज़-चमचमाता छुरा दिखाया भैया, कल जो भी वालंटियर किसी मुसलमान बजाज की दूकान पर खड़ा होगा, उसके पेट में यह छुरा भोंक दिया जाएगा। अँग्रेज़ कलक्टर ने कह दिया है कि हम किसी को गिरफ़्तार करेंगे, मुक़दमा चलाएगे। तुम्हें भला आदमी समझकर मैंने यह बात बता दी है। कोई और कहीं खड़ा हो, तुम मुसलमान की दूकान पर अपनी ड्यूटी मत लगाना।

    राम ने श्याम से कहा, इसने उससे। सब स्वयंसेवकों में यह बात फैल गई। गाँवों के सीधे-सादे अनपढ़ नवयुवक डर गए और यही डर रात में हमारे सामने आया−पंडितजी, मैं मुसलमान बजाज की दूकान पर पिकेटिंग नहीं करूँगा।

    80 आदमियों ने दिनभर बाज़ारों में दहाड़-दहाड़कर ऐलान किया है कि कल से पिकेटिंग होगा और किसी तरह का कपड़ा नहीं बिकने दिया जाएगा, पर इस स्थिति में पिकेटिंग कैसे हो? बड़ी गहरी गाँठ है, पर यह खुले कैसे?

    रात में 10 बजे मैं मौलाना मदनी के घर पहुँचा। वे कुछ लोगों के साथ बैठे बातें कर रहे थे। मैने अपनी बात कही। वे गंभीर हो गए। मौलवी ज़ौर गुल भी वहाँ बैठे थे। बोले−मुसलमानों की दूकानों पर पिकेटिंग मत करो। मैं आज ही दिल्ली से आया हूँ, वहाँ भी यही हो रहा है।”

    मौलाना ने मेरी तरफ़ देखा, तो मैंने कहा−मैं तो ऐसा कर नहीं सकता, पर आप इसे मुनासिब समझते हों, तो मैं कल यह ऐलान करा दूँगा कि पिकेटिंग के इंचार्ज मौलाना मदनी बनाए गए हैं। इसके बाद भी काम मैं करता रहूँगा, पर नाम और हुक्म आपका रहेगा।

    इसके लिए कोई तैयार नहीं हुआ और गाँठ ज्यों की त्यों रही। ऊब कर मैंने कहा−तो फिर राह कहाँ है हज़रत?

    मौलाना बोले−आप ही बताइए राह, मैं तो आपका वालंटियर हूँ।

    जाने मुझे क्या हुआ कि मेरे फूटे मुँह से निकला−मुश्किल तो यही है कि आप खुले आम झूठ बोलते हैं!

    कहने को कह तो गया, पर बोझ इतना पड़ा कि आँखें उठाए उठीं। तभी मौ० जौरगुल के सरहद्दी पंजे ने मेरा गला दबाया और नरसिंहे जैसी आवाज़ में कहा−ओः शाला, हम तुम्हें ठीक करेगा!

    मौलाना की आँखों में गर्मी आई कि शोरगुल हटे। मैंने सकुचाकर मौलाना की तरफ़ देखा, तो वे हाथ जोड़े हुए थे। एक सपाके में मेरे हाथ उनके पैरों से जा लगे। बोले−“जौरगुल साहब की बात के लिए आप मुझे माफ करें और इसे सच मानें कि मैं आपका वालंटियर हूँ।

    उठते-उठते मैंने जौरगुल से बदला-सा लेते हुए हज़रत से कहा देखिए, जो मैं कहूँगा, वह आपको करना पड़ेगा; क्योंकि आप वालंटियर हैं।

    बोले−बेशक, लेकिन वालंटियर का बदन देखकर वज़न रखिएगा।

    हम सभी हँस पड़े। मैं चला आया। मेरी सफलता अब मेरी कल्पना की मुट्ठी में थी। दूसरे दिन अपने 80 वालंटियरों के साथ मैंने एक जलूस निकाला और कड़क कर ख़ुद ऐलान किया−कुछ बजाज भाइयों ने हमारे वालंटियरों को छुरे दिखाए हैं और क़त्ल करने की धमकियाँ दी हैं। इसलिए कांग्रेस ने पिकेटिंग पर अपनी पूरी ताक़त लगाने का फ़ैसला किया है। अब कल या परसों से पिकेटिंग होगा और उसमें शेखुल हिंद मौलाना हुसैन अहमद साहब मदनी और उनके साथ दूसरे चुने हुए लोग भी हिस्सा लेंगे। मैं अपने छुरेबाज़ दोस्तों से दरख़ास्त करता हूँ कि वे अपने छुरों की धारें तेज़ रखें और तैयार रहें!

    ऐलान की गर्वीली गरज में नारों की गहरी गूँज से मिलकर शहीद कवि ओम प्रकाश की कविता तड़क उठी−देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है। लोगों के रोंगटे खड़े हो गए और शहर भर में एक सनसनी-सी फैल गई। हमारे स्वयंसेवकों की छातियाँ चौड़ी हो गईं, जनता की सहानुभूति हमारे साथ गई, बजाजों का बल हिल गया और चिड़िया साहब पर चारों ओर से ताने बरसने लगे। यह हमारी आंदोलनात्मक सफलता थी, पर असल में यह मेरा आंदोलन नहीं दाव था और उसकी बैठ तब पूरी हुई, जब दो-अढाई घंटे बाद ही ख़ान बहादुर शेख ज़ियाउलहक़ साहब, चेयरमैन म्यूनिसिपलबोर्ड बौखलाए हुए से मेरे मकान पर आए और बोले−आप हमें इस क़स्बे में रहने देंगे या नहीं?

    मैंने बनकर जबाब दिया−क़स्बे के राजा तो आप हैं। मैं तो एक ग़रीब आदमी हूँ। फिर आप ऐसी बात क्यों कहते हैं?

    तन्नाकर बोले−शेख़ुल हिंद को आप बाज़ार में खड़ा करेंगे, तो हमारी इज़्ज़त तीन कौड़ी की रह जाएगी।

    मैंने और भी बनकर कहा−तो पिकेटिंग के लिए आप अपना नाम दे दीजिए, मैं हज़रत का नाम काट दूँगा।

    अंत में निश्चय हुआ कि मैं तीन दिन तक पिकेटिंग प्रारंभ करूँ और वे बजाजों को कांग्रेस की बात स्वेच्छा से मान लेने को तैयार करें। रात में उन्होंने मुसलमान बजाजों की मीटिंग की। शेख़ुल हिंद के बाज़ार में आकर खड़े होने की कल्पना से वे घबराए हुए तो थे ही ख़ान बहादुर की बात झट मान गए और दूसरे दिन 12 बजे तक ही हमारे स्वयं सेवकों ने उनके विदेशी कपड़ों की गठरियाँ बाँधकर, उनपर कांग्रेस की मुहर लगा दी। तब हम हिंदू बजाजों की ओर झुके और शाम तक वे भी मान गए।

    अब हम फिर एक जुलूस थे। कलके जुलूस में जोश था, आज के जुलूस में ख़ुशी लहरा रही थी। कल दसियों नारे थे, आज एक ही नारा था−शेख़ुल हिंद मौलाना हुसैन अहमद साहब मदनी ज़िंदाबाद! जुलूस उनके घर पहुँचा, तो वे बाहर गए। स्वयंसेवकों ने उन्हें मालाएँ पहनाई और मैंने उनके पैर छुए, तो बोले−“मैंने क्या किया है? मैंने कहा−तो फिर किसने किया है? और हम सब हँस पड़े।

    जितने बड़े वे थे और जितना छोटा मैं था, उतने किन्हीं दूसरे बड़े छोटों के बीच यह घटना हुई होती, तो संबंध निश्चय ही खट्टे हो जाते, पर वे तो इसके बाद और भी मीठे हो गए थे। सचाई यह है कि वे बाहर से भीतर तक इतने मीठे थे, मीठे-मीठे थे कि उन्हें मीठा होने के लिए किसी प्रयत्न की आवश्यकता थी।

    हाँ, वे मीठे-मुलायम थे, पर इतने सख़्त कि पहाड़ शर्माएँ। तभी तो वे अपने राजनैतिक जीवन में शहीद की ज़िंदगी जी सके, पर मैं उसकी बात नहीं कहता मैं तो उनकी रोज़ाना ज़िंदगी की बात कह रहा हूँ। एक दिन उनसे बातें कर रहा था। झुककर, धीरे से कान में कुछ कहने की ज़रूरत पड़ी, तो मेरी दोनों कोहनियाँ उनके तकिये पर टिक गई। यही कोई दो-तीन मिनट में इस तरह रहा; पर हटा, तो कोहनियाँ सुन्न। यह उस तकिये की करामात थी। मोटे चमड़े से मढ़ा वह तकिया कि पत्थर भी मात। उँगली से दबाओ या अंगूठे से, कहीं साँस नहीं−पत्थर में साँस कहाँ?

    बेवक़ूफ़ी देखिए मेरी। कहा−हज़रत, आप इस पर किस तरह सिर रखते हैं? मैं कल एक मुलायम तकिया लाऊँगा आपके लिए?

    ज़रा गंभीर हो गए। तब बोले−आप तकलीफ़ करें। यहाँ यही ठीक है।

    मैं पीछे पड़ा रहा, तो धीरे से बोले−ज़िंदगी ऐसी है कि जाने कब फ़िरंगी बुला ले। फिर वह अपने घर तो रखता नहीं, जेल में रखता है। वहाँ तकिया मिले मिले, सिर ऊँचा रखने को इट तो मिल ही जाती है। और धीरे से उठकर अपना बिस्तर दिखाया। गद्दा चादर के ऊपर एक मोटा-खुरदरा काला कंबल बिछा था। बोले−इसपर सोता हूँ, क्योंकि यह जेल में भी मिलता है।

    सुनकर मेरा ख़ून जम गया। 1932 की जेलयात्रा में 2-3 दिन मैं भी कंबल पर सोया था और सिर के नीचे र्इंट रखी थी। कितनी मुश्किल से कटे थे वे दिन, पर कितनी गहरी फ़क़ीरी है इस आदमी की कि शरीर से घर में रह कर भी मन से यह हमेशा जेल में ही रहता है। वाहरे देश के फ़क़ीर!

    उनका घर मेहमानों की धर्मशाला थी। उनके दस्तरख़ान पर मैंने एक साथ 35 आदमियों तक को चाय पीते देखा है। ऐसा दिन तो उनकी ज़िंदगी में शायद आया ही नहीं, जब उनके घर कोई मेहमान हो। शुरू में मैं उनके घर चाय नहीं पीता था और माथे पर चंदन की बिंदी लगाया करता था। उनके संबंधी क़ारी साहब इसे छूतछात की बात समझते थे और मुझे चिढ़ाया करते थे−“पंडितजी, चाय पीजिए।”एक दिन उन्होंने मौलाना साहब के सामने ही टंकोर दिया−अरे पंडितजी, पीजिउ भी?

    मौलाना ने कड़ी आँखों से उनकी तरफ़ देखा, तो मैंने कहा−हज़रत, ये मेरा चंदन देखकर समझते हैं कि मैं इनकी चाय पी लूँगा, तो मेरा जनेऊ टूट जाएगा, पर मेरा जनेऊ इतना मज़बूत है कि मैं इन्हें चूरन की गोली बनालूँ, तब भी हिले। असल बात यह है कि मैं गोश्त नहीं खाता और यहाँ गोश्त पकता है।

    कुछ नहीं बोले, पर दूसरे दिन मैं गया, तो मेरी चाय गिलास में आई। मालूम हुआ कि मेरे लिए 2-3 बर्तन अलग मँगाए गए हैं और ख़ास हिदायतें हुई हैं। कितना ध्यान रखते थे वे दूसरों का, पर अपना ध्यान?

    मौलाना महमूदुल-हसन साहब भी उन दिनों मक्का में थे और मौलाना मदनी भी। दोनों भारत में एक ज़बरदस्त क्रांति करने की धुन में लगे हुए थे, पर तब तक मौलाना-मदनी अँग्रेज़ों की आँख का काँटा बने थे। मक्के का शासक शरीफ़ हुसैन कमज़ोर तो था ही। अँग्रेज़ों की कठपुतली भी था। वह मौलाना महमूदुल-हसन साहब को गिरफ़्तार करके अँग्रेज़ों को सौंप देने के लिए तैयार हो गया, पर इसकी ख़बर मौलाना के साथियों को मिल गई और उन्होंने उन्हें एक गुप्त स्थान में छिपा दिया। यह उन दिनों की बात है, जब पहला विश्वयुद्ध अपनी पूरी गर्मी पर था और अँग्रेज़ घबराए हुए थे।

    पता पाने के लिए मौलाना मदनी गिरफ़्तार कर लिए गए और उन पर तरह-तरह के अत्याचार किए गए, पर उनकी ज़बान खुली, उनके चेहरे की सरलता पर कोई बल पड़ा। तब बड़े मौलाना के दो और साथी पकड़ लिए गए और उनका पता बताने पर गोली मार देने का हुक्म दिया गया। वे दोनों गोली खाने को तैयार थे, पता बताने को नहीं, पर बड़े मौलाना ने इसे नहीं माना और वे बाहर गए−गिरफ़्तार हो गए। उनके गिरफ़्तार होते ही मौलाना मदनी जेल से छोड़ दिए गए; क्योंकि उनके ख़िलाफ़ फ़ाइल में तब कुछ था ही नहीं।

    बड़े मौलाना और उनके दोनों साथियों को जद्दा भेज दिया गया। ओह रे, मौलाना मदनी! उन्होंने अपने साथियों से कहा कि यदि बड़े मौलाना को हिंदुस्तान भेजा जा रहा है, तो मैं जेल से बाहर रहने को तैयार हूँ; क्योंकि वहाँ उनकी सेवा करने वाले बहुत है, लेकिन उन्हें कहीं और रखा जा रहा हो, तो फिर मैं भी उनके साथ ही रहूँगा, ताकि उनकी उचित सेवा होती रहे!

    जब यह ख़बर मिली कि उन्हें हिंदुस्तान नहीं ले जाया जा रहा है, तो उनकी गुरु भक्ति अपने गुरु के चरणों में पहुँचने के लिए बेचैन हो उठी और उन्होंने अपने कुछ साथियों से, जिनकी पहुँच सरकार तक थी, यह प्रचार कराया कि मौलाना मदनी का मक्के में रहना ख़तरनाक है ये ज़रूर यहाँ कुछ कुछ गड़बड़ करेंगे, इसलिए इन्हें भी मौलाना महमूदुल हसन साहब के पास ही भेज दिया जाए। यह सूझ-समझ सफल हुई और मौलाना मदनी भी जद्दा भेज दिए गए। बाद में सब लोगों को माल्टा ले जाया गया, जहाँ वे बरसों नज़रबंद रहे और अपने गुरु की सेवा करते रहे।

    वे शिमला-सम्मेलन में गाँधीजी के बुलावे पर क्रिप्स से मिलने गए−सुलह-समझौते की बातें हो रही थीं वहाँ। स्टेशन पर किसी पत्रकार ने बिना उन्हें बताए उनका फ़ोटो खींच लिया और वह 'हिंदुस्तान टाइम्स' में छपा। मैंने उसे काटकर एक लिफ़ाफ़े में रख लिया और उनके पास पहुँचा−हज़रत, आपका एक फ़ोटो खिंचवाना है, जब आप कहें मैं फ़ोटोग्राफ़र को बुलालूँ।

    वे टालते रहें, तैयार हुए, तो मैंने लिफ़ाफ़ा खोलकर उनका फ़ोटोप्रिंट उन्हें दिखाया−मत खिंचवाइये आप; मेरे पास तो है आपका फ़ोटो! उसे देखकर मुस्कुराए। तब गंभीर होकर बोले−इसे फाड़ दीजिए। आदमी की सूरत नापाएदार है, उसे क्या रखना?

    बहुत लोगों के तक़ाज़े पर उन्होंने एक किताब लिखी, जिसमें उनके गुरू मौलाना महमूदुल हसन साहब स्वर्गीय के राजनैतिक कारनामों का इतिहास है। इन कारनामों में मौलाना मदनी का पूरा हाथ रहा है, पर उस किताब में आपने अपनी चर्चा आने देने की पूरी कोशिश की। उस दिन स्टेशन पर मिले, तो मैंने इसकी शिकायत की। बोले−“मैं अपनी क्या बात कहता? और ज़रा रुककर बोले−मुझे तो आप जानते ही हैं।” मैंने उनकी तरफ़ देखा और देखता ही रह गया। किसी बालक ने भी इतनी सरलता से शायद ही कभी बात की हो। उन जैसी आत्मनिस्पृहता बस मैंने प्रेमचंदजी में ही देखी थी; और किसी में नहीं। इस आत्मनिस्पृहता ने ही उन्हें नेतागिरी के रोग से बचाए रखा। सचाई यह है कि वे राजनीतिज्ञ नहीं, संत थे−हाँ युगदर्शी संत। वे जब तब, जिस किसी का विश्वास कर लेते थे, यह आधी सचाई है। पूरी सचाई तो यह है कि धोखे और कपट को भाषा में कुछ सोच ही सकते थे; उनका मानस जीवन की तामसिक दिशा से परिचित ही था।

    साम्प्रदायिक दंगों का युग था और उनकी पृष्ठभूमि थी मस्जिदों के सामने बाजा। मुसलमान आग्रही थे कि मस्जिदों के सामने बाजा बजे, क्योंकि इससे हमारे धर्म का अपमान होता है। एक दिन मैंने पूछा−आपकी इस बारे में क्या राय है?

    बोले−मैं तो मौलवी हूँ, धर्म की बातों पर ही राय दे सकता हूँ।

    मैंने कहाँ−हाँ, धर्म की दृष्टि से ही राय दीजिए।

    बोले−पर यह धर्म की बात कहाँ हैं, यह तो जहालत (मूर्खता) है।

    मुझे मालूम है कि जिन्ना ने उन्हें ख़रीदने की कोशिश की थी और एक साहब ने देवबंद के कई चक्कर काटे थे, पर वे उधर मुँह तो क्या करते, उन्होंने कभी पैर भी नहीं किया। उनके बोल थे−जिन्ना अँग्रेज़ है और मैं पैदाइशी तौर पर अँग्रेज़ का दुश्मन हूँ।

    उनसे कहा गया था−आप एक बार उनसे मिले तो सही, वे अपने ही आदमी हैं और मुसलमानों की बहबूदी चाहते हैं। और उन्होंने जवाब दिया था−मैं काले और गोरे दोनों तरह के अँग्रेज़ों से नफ़रत करता हूँ। जिन्ना काला अँग्रेज़ है और अँग्रेज़ सिर्फ़ अपनी ही बहबूदी चाहता है, किसी दूसरे की नहीं।

    जिन्ना साहब इससे बहुत झल्लाए थे और मुस्लिम-लीगी हलके आगबबूला हो उठे थे। आसाम से लौटते समय एक स्टेशन पर मौलाना की पगड़ी उतार ली गई थी, उन्हें गालियाँ दी गई थीं और भी बहुत कुछ हुआ था। इस घटना के तुरंत बाद मैं उनसे मिलने गया और उन्हें देखकर मेरा दिल भर आया। यहाँ तक कि हाथ मिलाकर मैं उन्हें लिपट गया।

    कुछ नहीं बोले। मेरे लिए चाय मँगाई। तब कहा−यह तो सेवा का मेवा है। मैं फिर भी गंभीर रहा, तो कहा−“गुंडा आदमी जब ख़रीद नहीं सकता, तो लूटना चाहता है।” फिर बोले−पागल कुत्ते भौंकते हैं या काटते हैं। मैंने देखा था, उस दिन भी वे सदा की तरह शांत और संतुलित थे। मान में इठलाना और अपमान में घबराना उनका स्वभाव था।

    जिन्ना के वास्तविक प्रतिद्वंदी मौलाना मदनी ही थे और उनका नाम सुनते दो जिन्ना अपनी पराजय महसूस करते थे, क्योंकि यह मौलाना ही थे, जिनके कारण देश का मौलवीवर्ग पूरा का पूरा जिन्ना विरोधी था और दिग्विजयी जिन्ना के सामने जिसने कभी भी अपना झंडा झुकाया था!

    उनका व्यक्तित्व एक अमर शेर का व्यक्तित्व था और उनकी विशिष्टता अनजाने आदमी को भी प्रभावित और प्रकाशित करती थी, पर उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी चीज़ थी, उनकी आवाज़। एक अजीब मिठास था उसमें, जैसे कंदरा से स्वर्ग के किसी देवता की आवाज़ रही हो। पंडित जवाहरलाल नेहरू की आवाज़ भी हमारे देश की एक मास्टर पीस आवाज़ है। वह एक कवि और कलाकार की आवाज़ है, पर मौलाना की आवाज़ में निर्झर और सागर का अद्भुत संगम था; स्त्रीत्व का माधुर्य और पौरुष का गांभीर्य एक साथ उसमें जा मिले थे।

    वे महान थे पर अपनी महानता का उन्हें आभास तक था। वे अपने लिए कभी कुछ चाहते थे। उनकी ज़िंदगी के दो चाँद-सूरज थे−ईश्वर और भारत! उनका जीवन इन्हें ही समर्पित था। वे समर्पित जीवन के उत्तम उदाहरण थे। 15 अगस्त 1647 को उन्होंने कहा था−मेरा काम पूरा हो गया। ख़ुदा अब इज़्ज़त के साथ जब चाहे अपने क़दमों में बुला ले।

    6/11/1957 को राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद दारुल उलूम में पधारे और मौलाना के प्रति अपना मान प्रकट किया। उनके साथ मौलाना को बैठे देखकर सोचा था—यह इतिहास-पुरुष के प्रति राष्ट्र-पुरुष की भाव-वंदना है और 5 दिसंबर 1958 को मौलाना इस संसार से चले गए; जैसे भगवान ने उनकी प्रार्थना सुन ली—ख़ुदा जब चाहे इज़्ज़त के साथ अपने क़दमों बुला ले।”

    उनकी प्यारी याद में मेरे लाख-लाख सलाम!

    स्रोत :
    • पुस्तक : दीप जले शंख बजे
    • रचनाकार : कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1959

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए