युद्ध वर्णन (एक)

yudh warnan (ek)

चंदबरदाई

चंदबरदाई

युद्ध वर्णन (एक)

चंदबरदाई

और अधिकचंदबरदाई

    सज्जतं धूम धूमे सुनंत।

    कंपिय तीनपुर केलि पत्तं॥

    डमरु डहडह कियं गवरि कंतं।

    जानियं जोग जोगादि अंतं॥

    किम किमे सेस सिर भार रहियं।

    किमे उच्चासु रवि रथ्थ नहियं॥

    कमल सुत कमल नहि अंबु लहियं।

    संकियं ब्रह्म ब्रह्मांड गहियं॥

    राम रावन्न कवि किंन कहिता।

    सकति सुर महिष बलि दान लहिता॥

    कंस सिसुपाल पुरजवन प्रभुता।

    भ्रामिया जेन भय लष्षि सुरता॥

    चढ्ढिअं सूर आजान बाहुं।

    तुटिग वन सघन वढ्ढी नलाहुं॥

    गंग' जल जिमन घर हलिय ओजे।

    पंगरे राय राठउर फोजे॥

    उप्परइ फोज प्रथिराज राजं।

    मनउ वानरा लगि लंकाहि गाजं॥

    जग्गियं देव देवा उनिंदं।

    दिष्षियं दीन इंद फनिंदं॥

    चंपियं भार पायाल दुंदं।

    उड्डियं रेन' प्रयास मुद्दं॥

    लहइ कोन अगनित्त राउत रत्ता।

    छत्र षिति भार दीसइ पत्ता।

    आरंभ चक्की रहे कोन संता।

    वाराह रूपी कंधे धरंता।

    सेन सन्नाह नव रूप रंगा।

    मनउ झिल्लि वइ ति त्रिनेत्र गंगा॥

    टोप टंकारि दीसे उतंगा।

    मनउ बद्दले पंत्ति बंधी बिहंगा॥

    जिरह जंगीन गहि अंगि लाई।

    मनउ कंठ कंथीन गोरष्ष पाई॥

    हुथ्थरे हथ्थ लगे सुहाई।

    घाय लग्गइ थक्कइ थकाई॥

    राग जरजी बनाइत्त अछ्छे।

    देषिअइ जानु जोगिंद कछ्छे॥

    सस्त्र छत्तीस करि कोहु सज्जइ।

    इत्तने सूर वाजित्र बज्जइ॥

    नीसान सादंति बाजे सुचंगा।

    दिसा देस दक्खिन लघ्घी उपंगा॥

    तबल तंदूर जंगी मृदंगा।

    मनउ नृत्य नारद्द कढ्ढे प्रसंगा॥

    बजहि वंस विसतार बहु रंग रंगा।

    जिने मोहि करि सथ्थि लग्गे कुरंगा॥

    वीर गुंडीर सा सोम मृंगा।

    नचइ ईस सीसं धरो जासु गंगा॥

    सिंधु सहनाइ श्रवने उतंगा।

    सुने अछ्छरिअ अछ्छ मज्जइ सुअंगा॥

    नफेरी नवरंग सारंग भेरी।

    मनउ नृत्य नइ इंद्र प्रारंभ केरी॥

    सिंधु सावझ्झनं गेन भेरी।

    झझे आवझ्झ हथ्थ करेरी॥

    उछछरहि घाउ घनघंट घेरी।

    चित्तिता अधिक वध्धे कुवेरी॥

    उप्पमा षंड नव, नैन झग्गी।

    मनउ राम रावन्न हथ्थेव लग्गी॥

    योद्धाओं के सजने की जब धूम-धाम सुनाई पड़ी तो तीनों लोक कदली पत्र के समान कंपित हो गए। क्या गौरीकांत शिव ने डमरू को ‘डह-डह' किया! क्योंकि उन्होंने जाना कि योग-योगादि का अंत हो गया है। क्या शेष का सिर भार-रहित तो नहीं हो गया। क्या उच्चाश्व रवि-रथ में नहीं रहा? अथवा कमल-सुत ने क्षीर सागर में कमल को नहीं पाया और इसलिए शंकित होकर ब्रह्मांड को पकड़ लिया! इसे राम और रावण का युद्ध कवि क्यों कहे? अथवा यह क्यों कहे कि शक्ति महिषासुर का बलिदान लाभ कर रही थी? कंस, शिशुपाल और प्रद्युम्न की जो प्रभुता थी वह लक्ष्मी जैसे उनसे भयभीत होकर जयचंद में रत हुई यहाँ भ्रमित हो रही थी। आजानुबाहु शूर चढ़ चले, मानो सघन वन में अनल-आभा टूट कर बढ़ रही हो। जैसे धरा पर गंगा-यमुना की ओजपूर्ण लहरें लहरा रही हों। उसी प्रकार जयचंद की फ़ौजें थीं। उनके ऊपर राजा पृथ्वीराज की फ़ौज ऐसी थी मानो बंदर लंका गढ़ पर चढ़ कर गरज रहे हों। शिव उन्निद्र होकर जग गए, और इंद्र तथा फणींद्र दीन दिखाई पड़ने लगे। सेनाओं के भार ने पाताल में द्वंद्व उत्पन्न कर दिया था, उनके संचरण से उड़ी हुई रेणु ने आकाश को आच्छादित कर लिया था। उस युद्ध में सम्मिलित अगणित सुसज्जित रावतों को कौन जान सकता था? क्षिति पर उनके छत्रों के भार से पत्ता नहीं दिखाई पड़ता था। चक्रवर्त्तियों में हलचल होने से कौन शांत रह सकता था? वाराह भी पृथ्वी को कंधे पर नहीं धारण कर रहे थे। सेना की नवीन रूप-रंग की सन्नाह ऐसी थी मानो त्रिनेत्र शरीर पर गंगा को झेल रहे हों। सैनिकों की ऊँचे टोप की टंकार इस प्रकार दीखती थीं, मानो बादलों में विहगों ने पंक्ति बाँधी हो। मजबूत जिरह अंगों से कस कर लगाए गए थे, वे इस प्रकार लगते थे मानो गोरखपंथियों ने कंठ में कंथा डाली हो। उनके हाथ में दस्ताने सुंदर लगते थे। उन्हें घाव लगता था किंतु वे थकावट से थकते नहीं थे। उनके राग (टाँगों के कवच) और ज़रजीन ऐसी बनावट के थे मानो योगींद्रों के काछे हों। क्रोध में छत्तीस प्रकार के शस्त्र उन सैनिकों ने धारण कर रखे थे। फिर, इतने ही शूर वाद्यों को बजाकर युद्धानुकूल ध्वनि कर रहे थे। दक्षिण देश से प्राप्त उपंग थे, तबल, तंदूर, तथा जंगी मृदंग थे। मानो ये नारद के नृत्य-प्रसंग से निकले हों। नाना प्रकार से वंशी बज रही थी, जिन पर मोहित हो कर मृग साथ हो लिए थे। वीर गुंडीर सिंगा बाजों के साथ इस प्रकार शोभित थे मानो शिव नृत्य कर रहे हों और सिरपर गंगा को धारण कर रखा हो। शहनाइयों में सिंधु राग सुनने में ऐसे प्रतीत होता था मानो आकाश में निर्मल अप्सराएँ स्नान कर रही हों। नफीरी, सारंग, भेरी का अलग ही रंग था जो ऐसा प्रतीत होता था मानो इंद्र के केलि-आरंभ का नृत्य हो। नरसिंघे और साउझ इस प्रकार बज रहे थे जैसे गगन में भेरी बज रही हो। झाँझ और आवझ भी मज़बूत हाथों से बजाए जा रहे थे। घनघंट पर हुए आघात का स्वर घुमड़ कर उच्छलित हो रहा था। इस वेला में रण-वाद्यों से चेतनता बढ़ रही थी। प्रस्तुत युद्ध के लिए कवि के मन में नौ खंडों की उपमाएँ जागीं किंतु दोनों पक्ष राम और रावण के हैं, यही उपमा हाथ लगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पृथ्वीराज रासउ (पृष्ठ 174)
    • रचनाकार : चंदबरदाई
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1963

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए