चित्रावली विरह

chitrawali wirah

उसमान

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    चित्रावली चित भएऊ उदासा, पिउ गए वे अवधि की आसा।

    विरह समुंद अति अगम अपारा, बाज अधार बूड़ मंझधारा॥

    चहुं दिसि हेरहुं हितु कोउ नाहीं, बूड़त काह उंचावै बाही।

    निसि दिन बरै अगिन की ज्वाला, दुरगा मंदिल भयौ है बाला॥

    बूझै लूम सगर लहु बाढ़ा, पंथी गयो लाइ हिय डाढ़ा।

    जोगी सुरति रहे चखु माहीं, ज्यों जल महं दीपक परछाहीं॥

    झलमल जोति होइ उजियारा, पानी पौन बुझाव पारा। ,

    बिरह अगिन उर महं बरै, एहि तन जाने सोइ।

    सुलगै काठ बिलूत ज्यों, धुआँ परगट होइ॥

    एक दिन कहसि कि रंगमाती, करिया भयो रुप रंगराती।

    रूप रंग सब ललैगा जोगी, लोग कुटुंब जानै यह रोगी॥

    जोगी गयो छाडि तजि माया, मोर कि धईं भइ बस काया।

    जोगी करत कहा दुहूं फेरी, आसन हरी छार की डेरी॥

    विरह पवन जो करै झंकोरा, बिथुरे छार कोऊ बटोरा।

    जोबन गज प्रयसर मद कीन्हे, अब रहै अंधियारी दीन्हे॥

    निसि वासर तन कानन गाहा, जाकी साल हिये तेहि चाहा।

    जोबन सखी मतंग गज, तो लहुं लाग गोहार।

    जौलहु अपसर होइ के, सीस डारेसि छार॥

    सुनि रंगमती कहा सुनु बारी, जोबन मैगल मद दिन चारी।

    अपसर होइ देइ नहिं कोई, जो तिय आपु महाउत होइ॥

    अंकुस सकुच गहै कर नारी, आखिन्ह घूंघट अंधियारी।

    कुलकानि महादिढ़ अंदू, निसि दिन राखै मेलि के फंदू॥

    जो हठि कै अरि पांव निकारा, हटक बुद्धिचरचा गढ़वारा।

    एह संसार रीति अस अहई, जो जेहि लाग दुःख जिअसहई॥

    जो तजि ठाऊँ सके नहि जाई, आपुहिं तहां मिलै सो जाई।

    आजु बदन तोर कौंलसम, ओरें रंग सुभाउ।

    सब तन लागे मधुप पुनि, मकु कोउ चाह सुनाउ॥

    चित्रावली अपने चित्त में उदास हो गई क्योंकि प्रिय एक निश्चित अवधि की आशा दिलाकर नहीं गए हैं। विरह रूपी समुद्र अति अगम्य और अपार है। उसमें डूबती बाज रूपी चित्रावली मंझधार में आधार ढूँढती है। चारों ओर वह देखती है और उसका कोई भी प्रेमी या हित चाहने वाला नहीं है। उसमें डूबते-उतरते वह अपनी बाँह को ऊपर उचकाती है। वह बाला स्वयं दुर्गा मंदिर बन गई है, जिसमें रात-दिन अग्नि की ज्वाला जलती रहती है, सागर उसमें चाहे जितना अपना पानी बढ़ा दे, फिर भी वह ज्वाला बुझती नहीं है। उस पंथ पर चलने वाला पंथी अपने हृदय में जलन लेकर ही जाता है। जोगी की सूरत नेत्रों में ऐसे ही बसी रहती है, जैसे जल में दीपक की परछाईं रहती है। उस दीपक का झलझलाता प्रकाश वहाँ उजाला फैलाता रहता है और पानी तथा हवा उसे बुझा नहीं पाते। विरह रूपी अग्नि हृदय में जल रही है पर उसमें से धुआँ नहीं उठता जैसे विलूत की लकड़ी से धुआँ नहीं उठता।

    चित्रावली ने एक दिन कहा कि हे वेदांती! तुमने रूप रंग लेकर क्या कर लिया! यदि जोगी ही सब रूप रंग ले लेंगे तो कुटुंब या गृहस्थी के लोग उन्हें रोगी मानेंगे। सारी माया छोड़कर ही जोगी बना जाता है। प्रातः धूनी में काया को जलाकर राख कर दिया। जोगी दोनों समय फेरी क्या करता था, उसके आसन पर राख की ढेरी पड़ी रह गई। उसकी जलती हुई विरहाग्नि में जब वायु का झोंका लगता है तो वह और तेज़ी से जल के राख हो जाता है। वियोगी की राख को कोई नहीं समेटता। यौवन रूपी हाथी पर मृगछाला का मद चढ़ गया हो अर्थात् युवावस्था में ही वह जोगी बन गया है, क्योंकि उसके लिए अब कोई और मार्ग नहीं बचा है। रात-दिन शरीर से वह जंगल में ही रहना चाहता है क्योंकि यहाँ पर तो उसकी याद ही हृदय को सताती रहती है। मदमस्त हाथी यौवन की सखी के समान है और तब भी लोग उसे पकड़ना चाहते हैं। जब तक (यौवन) प्रस्थान नहीं कर जाता और लोग सिर पर राख नहीं डालने लगते, तब तक लोगों की इच्छा मरती ही नही।

    हे वेदांती, सुन! यौवन की मद-मस्ती के दिन चार होते हैं। इनको कोई नहीं चाहता कि ये पलायन करें। इस मदमस्त हाथी को काबू में रखने के लिए स्त्री को स्वयं ही महावत बनना पड़ता है। कोई भी स्त्री अंकुश को अपने हाथ में सकुचा कर ही लेती है, क्योंकि आँखों पर घूँघट डालते ही उसके सामने अंधकार छा जाता है। जो अपनी कुल रीतियों पर बड़ी दृढ़ होकर अंदू को बांध देती है और रात-दिन उस फंदे को कसे रखती है, वही सफल होती है। अगर वह शत्रु (हाथी) अपना पाँव निकालना चाहे तो गढ़वार की तरह तत्काल ही अपनी समझ के अनुसार हटक देती है। इस संसार की ऐसी ही रीति चली आई है। जिसको जैसा दुख लग जाए, उसको वैसा ही दुख सहन करना पड़ता है। यदि कोई स्थान परिवर्तन कर ले, तब भी वह उस दुख से बच नहीं सकता है, क्योंकि जिसे जो मिलना है वह अपने आप ही उसे उसी स्थान पर जाकर मिल लेता है। आज तेरा मुखड़ा, रंग और स्वभाव कौलावती के समान लग रहा है। आगे चित्रावली ने कहा कि आज मेरे शरीर में भौरों का गुंजार गूँज रहा है, शायद कोई मेरी इच्छानुसार समाचार सुनाए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चित्रावली (पृष्ठ 114)
    • संपादक : माया अग्रवाल
    • प्रकाशन : कला मंदिर
    • संस्करण : 1985

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