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रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरण

यथार्थ सामरस्य है, जो किसी चीज़ के अवयवों को पूर्णता का संतुलन प्रदान करता है। आप इसे तोड़ देंगे तो आपके हाथ में एक-दूसरे से लड़ते विचरणशील अणु आ जाएँगे, इसलिए उनका कोई अर्थ नहीं होगा।

अनुवाद : साैमित्र मोहन