यदि संस्कृत आलोचना जीवंतता से रहित स्थिति में पहुँच चुकी थी, या यह कहना ज़्यादा उचित होगा कि यह कृत्रिम श्वसन प्रणाली के सहारे जीवित थी और यदि भाषाओं के साहित्य ने मज़बूती हासिल करनी शुरू कर दी थी, तो यह समझना मुश्किल है कि किसी भी भाषा ने साहित्यालोचना का विकास क्यों नहीं किया।